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अष्टावक्र गीता भाष्य (पहला व दूसरा प्रकरण)

अष्टावक्र गीता भाष्य (पहला व दूसरा प्रकरण)

मुनि अष्टावक्र और राजा जनक संवाद
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hindi

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अद्वैत वेदांत के उच्चतम ग्रंथों में है अष्टावक्र गीता। इसमें अद्वैत ज्ञान का निरूपण भी है, मुक्ति के चरणबद्ध उपाय भी हैं और ब्रह्मज्ञानी की बात भी है। अन्य ग्रंथों से इस अर्थ में भिन्न है अष्टावक्र गीता कि यहाँ बात ही बहुत ऊँचे स्तर से शुरू होती है। शिष्य राजा जनक हैं। जो पहले से अति बुद्धिमान और विवेकी हैं। बड़ा राज्य है उनका। सब प्रकार से समृद्ध और प्रसन्न हैं। पर फिर भी एक आंतरिक अपूर्णता सताती है, तो ऋषि अष्टावक्र के पास आते हैं, जिनकी उम्र मात्र ग्यारह वर्ष है। राजा जनक की जिज्ञासा होती है, "वैराग्य कैसे हो? मुक्ति कैसे मिले?" और ऋषि अष्टावक्र का समाधान भी सरल और सीधा है; न कोई विस्तार, न कोई जटिलता। चूँकि ग्रंथ की शुरुआत ही तात्विक जिज्ञासा से होती है इसलिए श्लोक-दर-श्लोक बात बहुत गहराई तक जाती है। मनुष्य मात्र का मूल बंधन क्या है और उससे वह कैसे छूटे, इसे बड़ी आसान भाषा में कह देते हैं ऋषि अष्टावक्र। कोई भी संशय शेष नहीं रह जाता। यदि आपके मन में भी राजा जनक समान कोई जिज्ञासा उठती है तो यह भाष्य अनिवार्यतः पढ़ें। इस भाष्य में आचार्य प्रशांत ने अष्टावक्र गीता के पहले प्रकरण के प्रत्येक श्लोक का आज की भाषा में व्याख्या प्रस्तुत किया है।

अनुक्रमणिका

1. संसार से आसक्ति ही दुख है (श्लोक 1.1-1.2) 2. देह नहीं, शुद्ध चैतन्य मात्र (श्लोक 1.3) 3. देह से पार्थक्य (श्लोक 1.4) 4. न तुम दृश्य हो, न दृष्टा हो (श्लोक 1.5) 5. मन के झमेलों में मत फँसो (श्लोक 1.6) 6. दृष्टा मात्र हो तुम! (श्लोक 1.7)
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