वृत्तियों का बहाव || (2016)

Acharya Prashant

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वृत्तियों का बहाव || (2016)

प्रश्नकर्ता: एक वृत्तियों का बहाव होता है तो वो वाला हमारा है। वो चलता रहता है उसको देखना या उसको रोकना भी तो एक एक्शन (कर्म) हुआ?

आचार्य प्रशांत: देखो, जितने भी फ्लोज़ (बहाव) हैं, इनको रोकना या देखना, तुम जितनी भी इनके बारे में बातें करोगे उन सारी बातों में यह भाव निहित रहेगा कि 'मैं कुछ और हूँ और मैं इसको रोक सकता हूँ, इसको सुधार सकता हूँ, इसकी दिशा बदल सकता हूँ।' यह सारी बातें उसमें रहेंगी। इतना अगर जान ही गए हो कि वृत्तियों का बहाव है तो बहुत है। यह मत पूछो कि इसका करना क्या है, रोकना है, मोड़ना है, बंधना है, ख़त्म करना है या क्या करना है। मत पूछो। जैसे अभी जाने हो न वैसे ही बस जानते रहना।

हम सवाल तीन कदम आगे का करते हैं। हम कहते हैं, "हमें पता चल गया है अब बताओ इसका करें क्या? करने के तीन विकल्प हैं – अ.ब.स. क्या करें?" जब वो बहाव अपने उत्कर्ष पर होता है उस समय वो तीन विकल्पों की बात तो छोड़ दो, यह जो जानना है यह भी खत्म हो जाता है। तो जानने के बाद करना क्या है वो तो दूर की कौड़ी है, जानना ही ख़त्म हो जाता है। तो बस जानते रहना। जिस हालत में अभी प्रश्न पूछ रहे हो, उसी हालत में रहना। हमारे साथ थोड़ा सा खेल इस बात से ख़राब हो जाता है क्योंकि भीतर से आपका कोई ताल्लुक नहीं रहा। हम जो भी रहे हैं वो पूरी तरह से बाहरी रहे हैं इसीलिए इस माहौल को भी हम बाहरी बना लेते हैं। इसको भी हम बस एक माहौल जैसा ही ले लेते हैं और अगर यह माहौल है तो माहौल तो थोड़ी देर में ख़त्म हो जाना है। अगर यह बाहरी चीज़ है, तो जो कुछ भी बाहरी है वो थोड़ी देर में हट जानी है। थोड़ी देर में सत्र समाप्त हो जाएगा तो उसके साथ तुम्हारा यह प्रश्न भी समाप्त हो जाएगा कि 'मैं वृत्तियों के बहाव को जानती हूँ।' सत्र के साथ यह जानना उठा था और सत्र के समाप्त होते ही यह जानना समाप्त हो जाएगा।

आ रही है बात समझ में?

यह सारे खेल होते ही इसलिए हैं कि बताने वाले को, टीचर (अध्यापक) को, गुरु को, उसको भी हम माहौल का हिस्सा मान लेते हैं। वो अगर माहौल का हिस्सा है तो माहौल की प्रकृति है बदल जाना। मौसम आते-जाते रहते हैं, सत्र थोड़ी देर में उठ जाएगा। सत्र उठ गया तो गुरु भी उठ गया। एक दिन उठ भी जाएँगे! अब फिर यह जितनी बात है, यह जितनी बुद्धिमानी है, जितना विवेक है फिर यह भी उठ जाता है। फिर हम वो रह ही नहीं जाते जो अभी हम इस हॉल में हैं। फिर बिलकुल कुछ और बन जाते हैं, दस मिनट बीते ना बीते, बात बिलकुल बीत जाती है। इन सारी बातों को माहौल का हिस्सा मत मानो।

कह भले ही मैं तुमसे बाहर से रहा हूँ पर यह बात कहीं बाहर से नहीं आ रही है। यह माहौल की बात नहीं है, यह किसी बाहरी व्यक्ति के वचन नहीं हैं; यह तुम्हारे अपने दिल की बात है। मैं जो तुमसे कुछ कह रहा हूँ यह तुमसे कुछ अल्हदा, तुमसे विभक्त, तुमसे हट कर, तुमसे जुदा बात नहीं है। यह तुम्हारा जीवन है इसको अपनी ही आत्मा के शब्द समझो और जब तुम इसको जनोगे कि यह तुम्हारी अपनी बात है, तुम्हारे अपने हृदय से उठ रही है तब सदा याद रहेगी। तब बल्कि याद रखने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी क्योंकी सदा साथ रहेगी। फिर माहौल बदलते रहेंगे, सत्र आते-जाते रहेंगे लेकिन वो तुम हमेशा याद रखोगे कि वृत्तियों का बहाव है अन्यथा अगर गुरु बाहरी है, तुमसे दूरी पर बैठा है तो फिर विवेक भी तुमसे कुछ दूरी पर रहेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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