सुख की तलाश ही दुःख है || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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सुख की तलाश ही दुःख है || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: 'मैं ये नहीं हूँ' ये बात मुझे मन के तल पर तो समझ में आ गयी है, लेकिन ये मेरे जीवन में कैसे उतरे?

आचार्य प्रशांत: 'मैं नहीं' एक निगेशन (नकार) है। वो निगेशन किसी चीज़़ का ही हो सकता है, कुछ होगा तभी तो उसे निगेट करेंगे। जैसे ही भीतर से एक आवाज उठेगी, एक प्रतिक्रिया उठेगी। आपको चोट लग गयी, आपको डर लग गया या आप बहुत खुश हो गये, तो भीतर से कोई बोल रहा है, ‘मैं खुश हूँ। मैं हूँ, 'मैं हूँ। मैं कुछ भी हो सकता हूँ। मैं या तो खुश हो सकता हूँ, मैं दुखी हो सकता हूँ।’ तो जब वो उठेगा, तब उसका निषेध करना है, तब वक्त है बोलने का ‘मैं नहीं’। तब वक्त है बोलने का।

जब भीतर से कुछ उठ ही नहीं रहा तो 'मैं नहीं' बोलकर क्या करेंगे? किसको मना कर रहे हैं, कोई आवाज़ ही नहीं दे रहा तो मना किसको किया? पर दिन में पचास मौके ऐसे आएँगे जब भीतर से। यहाँ तक कि सुनिएगा ध्यान से, जब भीतर से कोई ये भी बोले कि मैं समझ रहा हूँ, मैं समझ रहा हूँ, मैं आचार्य जी की बात समझ रहा हूँ, मैं समझ रहा हूँ; तो उसमें भी उसने क्या कह दिया? 'मैं हूँ' और बीच में कुछ भी बोल दो पर तुमने कह तो यही दिया न कि मैं हूँ। और जैसे ही ये कोई बोले मैं समझ रहा हूँ, तो वहाँ भी यही बोलना है; क्या? ‘मैं नहीं। मैं नहीं, मैं नहीं।’

तो 'मैं नहीं' बोलने के मौके आपको बहुत मिलेंगे। ‘मैं नहीं समझ रहा हूँ।’ क्या बोल दिया?

प्र: ‘मैं हूँ।’

आचार्य: 'मैं हूँ' और तुरन्त क्या कहना है? भाई जो नहीं समझ रहा होगा, नहीं समझ रहा होगा, हमारा उस खेल से कोई लेना-देना नहीं है, 'मैं नहीं'। मैं पा रहा हूँ, मैं गँवा रहा हूँ, 'मैं हूँ'। और तब कौंध जाए कि…। ‘मैं देख पा रहा हूँ, मैं प्रेम में हूँ, मैं घृणा में हूँ। मैं प्रेम में हूँ तो भी 'मैं हूँ', मैं घृणा में हूँ तो भी ('मैं हूँ')।’ ये ज़बरदस्ती का आरोप है, क्योंकि मैं तो हूँ। ‘मैं महान हूँ’ इसमें भी तुम क्या हो लिये? हो लिये।

प्र: महान।

आचार्य: जो होगा महान सो होगा, हम महान भी नहीं हैं। ठीक है, बढ़िया है, महानता है, फूलमाला मिल रही हैं, इज्ज़त मिल रही है। किसी की होगी महानता, मेरी नहीं, मैं नहीं। तो ये ऐप्लीककेशन है उसका, प्रयोग।

प्र: भौतिक स्तर पर उसको ऐसे समझा है यूनीवर्सल एक्सेप्टेंस ऑफ़ एव्रीथिंग (हर चीज़ की सार्वभौमिक स्वीकृति)।

आचार्य: और यूनीवर्सल रिजेक्शन (सार्वभौमिक अस्वीकार) क्योंकि एक्सेप्टेंस (स्वीकार) करने में भी आपको खड़े होके एक्सेप्ट करना पड़ेगा। रिजेक्ट (अस्वीकार) करने में एक ज़रा सा फायदा होता है,सब रिजेक्ट करके अपने आपको भी रिजेक्ट कर सकते हो। यूनिवर्सल (सार्वभौमिक) दोनों हैं, पर एक्सेप्टेंस में आपके बचने की सम्भावना ज्यादा है। आप खड़े थे न सबकुछ लेने के लिए ‘हाँ, स्वीकार है, स्वीकार है, आओ-आओ, तुम भी आओ, सब स्वीकार।’

रिजेक्शन में सब मना करा, अन्तत: खुद को भी मना कर दिया। इसीलिए जो सूत्र है वो “नेति-नेति” है, ‘न’ का सूत्र है। ‘हाँ’ का सूत्र भी होता है लेकिन जो ‘न’ का सूत्र है वो ज़्यादा ताकतवर होता है। जैसे बोझ हट रहा हो, हम लदे हुए लोग हैं, हमें ‘न’ चाहिए। ‘न’ माने हटना, कम होना, मिटना। हमें मिटने की ज़रूरत है। हमारे लिए पूर्णता, शून्यता के ही माध्यम से आनी हैं। अन्त भले ही पूर्णता हो पर हमें तो पहले शून्यता चाहिए। पहले ‘न’ बोलो, उसके बाद अपनी पूर्णता को अनुभव करोगे। ‘न’ नहीं बोल रहे, पूर्णता वगैरह की कोई बात नहीं।

प्र: क्या इसका हमारी पॉज़िटिव (सकारात्मक) चीज़़ में भी कोई असर पड़ेगा? जैसे कि ‘न’ एक निगेटिव (नकारात्मक) उसमें आ जाता है। हमारे जीवन में कई ऐसे मौके आ जाते हैं, कि हमें सकारात्मक होना चाहिए, जैसे मैं कहीं जा रहा हूँ, पॉज़िटिव एक अन्दर से एक भाव होना चाहिए। मैं शिविर में आ रहा हूँ एक पॉज़िटिव भाव से।

आचार्य: सवाल समझ रहे हैं क्या है? सवाल ये है कि नहीं बोलने में निषेध करने में, ठुकराने में, अच्छी-अच्छी चीज़ें तो नहीं छूट जाएँगी?

प्र: छूट क्या जाएँगी, छूटना एक अलग है, एक भाव अन्दर से जो एक...

आचार्य: जितने भी भाव हैं, वो आपको पकड़े ही इसीलिए हुए हैं क्योंकि आपको उनमें सुख मिल रहा है, कोई भाव आपको पकड़ेगा क्या अगर आपको उसमें सुख न मिलता हो? तो सबकुछ ही तो आपके लिए फिर पॉज़िटिव है। दुख भी तो आपके लिए पॉज़िटिव है। आप जानते हों दुख आपको क्यों सताता है? क्योंकि आप बाहर-बाहर रोते हों, भीतर दुख की मौज मनाते हो। दुख भी तो आपके लिए निगेटिव कहाँ हैं? आप कह रहे हो कि "नेति-नेति" में कहीं मेरे जीवन से जो पॉज़िटिव चीज़ें है वो तो नहीं छूट जाएँगी।

मन कुछ पकड़ता ही क्यों है? क्योंकि उसको वो अच्छा लगता है और अच्छा माने विधायक, पॉज़िटिव, सच्चा, लाभप्रद। आपने जो कुछ पकड़ रखा है वो क्या जानकर पकड़ रखा है? पॉज़िटिव ही तो जानकर पकड़ रखा है, लाभप्रद ही। कोई पागल है क्या कि नुकसानदायक चीज़ को पकड़ेगा? आप जिस चीज़ को नुकसानदायक बोलते हो, भीतर-ही-भीतर उसको अनुभव यही करते हो कि वो तो बड़ी लाभप्रद है।

सिगरेट पीने वालों से पूछो, ऊपर-ऊपर से बोलेंगे कि ये बड़ी नुकसान देह है, अन्दर-ही-अन्दर जब पीते हैं तो क्या न रस उठता है! तो तुम कुछ भी यही बोलकर तो पकड़ते हो न कि वो लाभप्रद है, पॉज़िटिव है, बढ़िया हैं। फिर तो कुछ भी नहीं छूटेगा, क्योंकि जो कुछ भी तुम्हारी ज़िन्दगी में है, वो तुम्हारी बुद्धि के अनुसार लाभप्रद है, नहीं तो तुम्हारी ज़िन्दगी में होता क्यों? दुख भी हमारी ज़िन्दगी में क्यों है? बोलो, क्यों है? क्योंकि हमें भीतर ही भीतर दुख लाभप्रद लगता है। बाहर-बाहर हउआते हैं और भीतर ही भीतर मौज मनाते हैं। ‘दुख आया, दुख आया, दुख आया, दुख आया, दुख आया, दुख आया।’

अगर तुम्हें दुख वास्तव में बुरा लगता होता तो आज दुख से मुक्त न हो गये होते? तुम्हें कोई चीज़ बुरी लगेगी, तो तुम उसे जनम भर ढोते फिरोगे क्या? और इंसान बाकी सब कुछ त्याग दे, दुख नहीं त्यागता। वो आनन्द त्याग सकता है, वो मुक्ति त्याग सकता है, वो परमात्मा को भी त्याग सकता है। इंसान दुख नहीं त्यागेगा। अर्थ समझो इसका क्या अर्थ है कि दुख में बड़ा रस है, बड़ा सुख है। बाहर-बाहर रोते हो, भीतर दुख से कुछ बल पाते हो।

प्र: चैलेंजिंग (चुनौतीपूर्ण) लगता है।

आचार्य: जो भी लगता है।

प्र: 'मैं' को भी प्रगाढ़ करता है।

आचार्य: बिलकुल करता है। ‘मेरा दुख’, काफ़ी इम्पोर्टेंस (महत्व) मिलती है। तो अगर आप ये तर्क लगाओगे कि “नेति-नेति” मैं सिर्फ़ खराब चीज़ों की करूँगा और अच्छी-अच्छी चीज़ों की "नेति-नेति" नहीं करूँगा, तो फिर “नेति-नेति” किसी चीज़ की नहीं होगी। क्योंकि तुम्हारी ज़िन्दगी में जो कुछ भी है वो तुम्हारे अनुसार अच्छी ही चीज़ है। तुम ने यदि ये शर्त रख दी कि “नेति-नेति” सिर्फ़ खराब चीज़ों की करूँगा और अच्छी चीज़ों की नहीं करूँगा, तो नतीजा ये निकलेगा कि तुम किसी भी चीज़ की "नेति-नेति" नहीं करोगे। क्यों नहीं करोगे? क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में तो तुम्हारे जीवन में जो कुछ है लाभप्रद है। प्रमाण इसका ये है कि तुम्हारे जीवन में ‘है’। न होता लाभप्रद तो तुमने उसे पकड़ क्यों रखा होता, तुमने उसे कब का फेंक आये होते।

तो ये तर्क तो लगा ही मत देना कि "नेति-नेति" बढ़ियाँ चीज़ मिल गयी है, इससे मैं अपने दुश्मनों को मारूँगा। "नेति-नेति" दुश्मनों को मारने के लिए नहीं हैं, दोस्तों को मारने के लिए हैं, क्योंकि तुम्हारे दोस्त ही दुश्मन हैं तुम्हारे। जिसको तुम अपना संगी समझते हो, जहाँ तुम अपना सुख देखते हो, जिसको तुम विधायक, लाभप्रद, पॉज़िटिव बोलते हो वहीं पर दुख है तुम्हारा। दुख में दुख नहीं है तुम्हारे, सुख में दुख है तुम्हारा। अपने सुख को गौर से देखना वहाँ तुम्हें दिख जाएगा कि दुख-ही-दुख फैला हुआ है। सुख नहीं हैं, कुछ और दुख का निर्माण है।

दुखी हूँ, तो भी मैं हूँ और सुखी हूँ, तो भी मैं हूँ और मैं तुमसे कह रहा हूँ दुख और सुख में यदि कभी चुनाव ही मिल जाए कि पहले किसको काटना है तो तुम दुख को छोड़ देना, सुख को काट लेना। अगर एक ही बाण हो और ये दो दुश्मन खड़े हों सामने, दुख और सुख, पिस्तौल में एक गोली है और सामने खड़े हैं दो दुश्मन — सुख और दुख और तुम्हें चुनाव करना है कि किसको मारना है। तो किसको मारना है? सुख को मारना है। क्यों? सुख को मार दिया, दुख स्वत: मर जाएगा।

दुख कुछ और है नहीं सुख की छाया, सुख की आकांक्षा। सुख वास्तविक होता नहीं, सुख सदा एक आकांक्षा है अधूरी। किसी को भी आज तक पूरा सुख हुआ है। तो सुख का मतलब सदा होता है अधूरा सुख। सुख माने अधूरा सुख। ये जो अधूरापन है ये दुख है। तो सुख माने दुख-सुख।

समझो बात को।

सुख कभी पूरा पड़ा? सुख कभी पूरा पड़ा? सुख माने अतृप्ति, सुख माने भविष्य, सुख माने और की आस, सुख माने अधूरा सुख। सुख बराबर अधूरा सुख। ये जो अधूरापन है ये दुख है, तो सुख माने दुख-सुख। सुख सदा अधूरा रहेगा और ये अधूरापन दुख है। एक को मारना हो तो सुख को मार देना। दुख सुख में ही छिपा हुआ है, दुख चला जाएगा। ये होशियारी बिलकुल मत दिखाइएगा कि "नेति-नेति" मैं चुन-चुनकर करूँगा, अच्छी-अच्छी चीज़ों की नहीं करनी हैं। ये मेरा प्यारा गोलगप्पा है, इसकी "नेति-नेति" थोड़े ही करनी है, ऐसे नहीं होता।

आपने उदाहरण लिया था शिविर में आने का। जब दुख-सुख दोनों हट जाते हैं तो पीछे से एक उन्मुक्त बोध, प्रखर प्रज्ञा काम करती है। आपको भ्रम है कि आपको सुख की दिशा में चलना है, आपको किसी दिशा में स्वयं नहीं चलना हैं, पीछे से बोध आपकी दिशा निर्धारित कर देगा। समझिएगा इस बात को। न सुख की दिशा जाओ, न दुख की दिशा जाओ, तुम खड़े रहो, हवाएँ तुम्हें ले जाएँगी। हवाओं पर भरोसा करना सीखो, जो तुम हो, वही हवाएँ हैं। तुम्हें किसी दिशा स्वयं निर्धारित कर जाने की ज़रूरत ही नहीं हैं, सूरज और हवाएँ और घास और तारे, पानी और फुहारें, ये तुम्हें ले जाएँगे जहाँ ले जाना है।

इस डर में मत पड़ो कि अगर मैंने तय नहीं किया कि मुझे कहाँ जाना है तो कहीं मैं दिशाहीन, दिशाभ्रमित न हो जाऊँ। ऐसा नहीं होने वाला है। तुम कुछ तय मत करो, होनी तब भी हो जाएगी, होनी ये नहीं होगी कि तुम पड़े रह गये। जो स्वयं नहीं करते, उनसे बहुत बड़े-बड़े काम हो जाते हैं। वास्तव में बड़े काम होते ही उनसे हैं जो स्वयं नहीं करते। तुम अपनी बुद्धि चलाओगे, छोटी सी है, छोटा ही कुछ कर पाओगे, और जहाँ क्षुद्रता है, वहीं दुख है।

उपनिषद् कहते हैं, “ना अल्पे सुखम्”, ‘जो छोटा है उसमें कभी सुख नहीं पाओगे।’ और हमारे जीवन में सब छोटे ही छोटा हैं, तो सुख पाओगे नहीं। “या वै भूमा तत् सुखम्।” क्या अर्थ है इसका? ‘जो बड़ा है, सिर्फ़ वहीं पर सुख है।’

प्र: आचार्य जी, आपने कहा था कि विवेकानन्द जी ने कहा था कि अगर गोल बनाओ तो छोटे मत बनाओ।

आचार्य: हाँ-हाँ, पर उस कथन को भी ठीक से समझा नहीं गया। लोग बड़े लक्ष्य का अर्थ समझते हैं अपने ही आयाम में संख्या संवर्धित लक्ष्य, न्यूमेरिकली बिगर टार्गेट। कोई अपनी दुकान में दस रुपये कमाता है, दूसरा विवेकानन्द पढ़कर आता है, कहता है, ‘विवेकानन्द ने कहा था बड़ा लक्ष्य बनाओ, तो मैं हज़ार रुपये का लक्ष्य बनाऊँगा।’ ये पागलपन है।

जब विवेकानन्द बड़े की बात करते हैं, तो वो एक दूसरे आयाम के महत् की बात कर रहे हैं। वो तुमसे ये नहीं कह रहे हैं कि तुम अपने ही आयाम में संख्या बढ़ा दो। वो डिग्री (मात्रा) बढ़ाने को नहीं कह रहे हैं, वो डाइमेंशन (आयाम) बदलने को कह रहे हैं। लेकिन हम ऐसे ही अर्थ समझते हैं कि देखो, छोटा लक्ष्य मत बनाना। पाँच-सौ नहीं कमाने हैं, पाँच-लाख कमाने हैं। ये थोड़े ही कहा है विवेकानन्द ने, विवेकानन्द बड़े की बात कर रहे हैं।

कौन है बड़ा?

जो अनन्त है, उसकी बात कर रहे हैं, वो है बड़ा। बाकी सब विवेकानन्द की दृष्टि में छोटे हैं, अनन्त से तुलना करो तो वो सबकुछ जो सीमित है और शान्त है, छोटा हो गया न? इसी तरीके से उन्होंने कहा कि रुकना मत जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए। वो ये लक्ष्य थोड़े ही कह रहे हैं कि जाकर के बाज़ार में जलेबी खानी है तो भागते जाओ कि जब तक जलेबी पा न लो। पर तुम उनके वक्तव्य को ऐसे ही पढ़ते हो कि उन्होंने कहा है कि स्टॉप नॉट टिल द गोल इज़ अचीव्ड (रुकना मत जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए)।

विवेकानन्द जिस देश के रहने वाले हैं, जिस दुनिया के वासी हैं, वहाँ एक ही गोल होता है, एक ही लक्ष्य होता है, क्या?

प्र: परम।

आचार्य: (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) उसके अलावा कोई लक्ष्य होता नहीं। तो जब वो कहें ’द गोल’ (लक्ष्य) तो वो तुम्हारे छोटे-छोटे क्षुद्र, बुद्धिहीन लक्ष्यों की बात नहीं कर रहे हैं। वो ’द गोल’ की बात कर रहे हैं, वो उस लक्ष्य (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) की बात कर रहे हैं कि रुकना मत जब तक परम की प्राप्ति न हो जाए।

प्र: जब कबीर कहते हैं कि “चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय” तो आचार्य जी, परमात्मा ऐसा क्यों है कि कबीर को रोना पड़ता है?

आचार्य: परमात्मा रोता है, कबीर थोड़े ही। चले-फिरे सो परमात्मा, उठे-बैठे सो परमात्मा, खाये-पिये सो परमात्मा, हँसे-रोये सो भी परमात्मा। ये सारे काम परमात्मा के हैं और जो इनमें से कुछ न करे, वो भी परमात्मा। कबीर भीतर-बाहर हर तरफ़ परमात्मा-ही-परमात्मा हैं।

जब कबीर कहते हैं “ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर” तब कबीर निरपेक्ष परमात्मा हैं, साक्षी परमात्मा हैं, जिसे किसी से कोई लेना-देना नहीं। “ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर”, हमें दुनिया से लेना-देना क्या? “हमन है इश्क मस्ताना, हमन दुनिया से यारी क्या।” ये निरपेक्ष परमात्मा है।

और एक दूसरे परमात्मा हैं कबीर, जो कहता है, “दिया कबीरा रोय।”

“सब जग जलता देखकर दिया कबीर रोए।”

ये अजीब बात है। थोड़ी देर पहले कह रहे थे “ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।” अब कह रहे हैं,

“हाड़ जले ज्यों लाकड़ी, केश जले ज्यों घास सब जग जलता देखकर भया कबीर उदास।”

अभी तो कहते थे हमें कोई लेना-देना नहीं, अब कहते हो कि हम उदास हो गये। ये क्या कर रहे हो? जब भीतर वाला बोलता है तो कहते हैं, ‘क्या लेना-देना?’ और जब साकार, सगुण परमात्मा बोलता है तो कहते हैं, ‘बड़ा कष्ट है। सबको जलता देखता हूँ, दुनिया नाहक दुख पा रही है। दुनिया का दुख मेरा दुख है।’

लेकिन याद रखना, कबीर दोनों में से एक नहीं होते कभी। कबीर सदा दोनों हैं तो जब कबीर उदास भी हैं तब भी भीतर कह रहे हैं, “ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।” ऐसा नहीं है कि कबीर का मन बदल रहा है, ये मूड स्विंग्स (मिजाज) नहीं हैं कि कभी तो दुनिया से लेना-देना है और कभी नहीं हैं। कबीर सदैव, निरन्तर दोनों हैं, एक साथ। भीतर उनके जो है वो सदा तटस्थ है, उदासीन। और बाहर जो है, वो सन्त है, वो कल्याण करता है, वो माँगता है, खैर माँगता है, वरदान माँगता है, भलाई माँगता है, चैन माँगता है।

कबीर बाहर से रोएँ तो ये न जान लेना कि भीतर से भी रो पड़े। भीतर कबीर सदैव अस्पर्शित हैं, बाहर का कुछ भी उन्हें भीतर छू नहीं जाता। और चूँकि बाहर का कुछ भी उन्हें भीतर छू नहीं जाता इसीलिए बाहर-बाहर कबीर जो कुछ भी करते हैं फिर वो सदा मंगलकारी होता है।

यह बात थोड़ी अजीब है, इसको समझना। जो लोग दुनिया से बहुत प्रभावित हो जाते हैं, जिन पर दुनिया की छाप पड़ जाती है, वो दुनिया का कोई भला नहीं कर सकते। दुनिया का भला वही कर सकता है, जिसने अपने आन्तरिक कोरेपन को बरकरार रखा हो। बाहर-बाहर छू जाती है दुनिया, भीतर नहीं छू पाती।

दुनिया का भला वही कर पाएगा, जिसे भीतर से दुनिया न छू पाए, जो भीतर अस्पर्शित रह जाए। जो भीतर तक दुनिया का हो गया, वो तो दुनिया ही हो गया। (दोहराते हुए) जो भीतर तक दुनिया का हो गया, वो तो दुनिया ही हो गया। अब दुनिया, दुनिया का क्या भला करेगी? (दोनों हाथ दिखते हुए) ये हाथ भी बीमार और ये हाथ भी बीमार, कौन किसकी सेवा करेगा?

तो तुम्हें दोनों होना है। बाहर इतनी संवेदनशीलता हो कि “दिया कबीरा रोए।” दुनिया की चक्की चलती देखी और “दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए, चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोए।” बाहर इतनी संवेदनशीलता और भीतर कुछ है ही नहीं जिसे चोट लगे, भीतर कुछ है ही नहीं, जो ये करे कि वो सोचे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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