“If you would indeed behold the spirit of death,
open your heart wide unto the body of life.”
Khalil Gibran
**“*Virgins indulge in sex for curiosity,Harlots for money,Widows for remembering the good old days,Wives out of a sense of duty,While the pure pleasure of sexIs possible in adultery.*” **
(Unknown 12th-century poet)
वक्ता: इच्छा हमेशा पूर्णता चाहती है कि मैं पूरी हो जाऊँ। और पूरी हो कर के वो क्या चाहती है कि पूरी हुई तो यानी कि खत्म हो गई। इच्छा के पूरे होने का अर्थ तो यही है न कि इच्छा ‘खत्म हो गई’। इच्छा खत्म होना चाहती है। बड़ी मज़ेदार बात है कि इच्छा चाहती क्या है? अपनी ही मौत। इच्छा पूरा हो कर के क्या चाहती है? कि मैं खत्म हो जाऊँ।
शरीर की बड़ी से बड़ी इच्छा है अपने आप को बचाए रखने की किसी न किसी रूप में। वो यही चाहता है। मन की बड़ी से बड़ी इच्छा है विलीन हो जाने की। शरीर की बड़ी से बड़ी इच्छा है अपने आप को बचाए रखने की और मन की गहरी से गहरी तृप्ति इसमें है कि वो शांत हो जाए। आप बात समझ रहे हैं?
शारीरिक इच्छा जब भी उठेगी, ध्यान दीजियेगा, शरीर सम्बन्धी इच्छा आपमें जब भी उठेगी, वो इच्छा कहेगी – शरीर की तृप्ति करो। और मानसिक इच्छा जब भी उठेगी, वो यही कहेगी कि – पाने से मन शांत हो जाएगा। बात समझ रहे हो?
क्योंकि आम तौर पर हम ऐसा पाते हैं कि कुछ इच्छाएँ हैं जो शारीरिक लगती हैं और कुछ इच्छाएँ हैं…। अब तुम्हें शोहरत चाहिए, तुम नहीं कह पाओगे कि ये शारीरिक इच्छा है, है न? पर अगर तुम्हें भूख लगी है, पेट भरना है, तो तुम नहीं कह पाओगे कि ये मात्र मानसिक है, तुम कहोगे कि ये तो शरीर की ज़रुरत है।
तो हमने क्या कहा कि शरीर की बड़ी से बड़ी इच्छा है कि ‘मैं बचा रहूँ’। मन की बड़ी से बड़ी इच्छा है कि ‘मैं शांत हो जाऊँ’। ये दोनों मिल जाते हैं। जहाँ दोनों एक साथ पूरे होते हैं, वो जगह है सेक्स। वो क्षण है संभोग का। जहाँ मन भी शांत और जो शरीर को चाहिए था कि वो बना रहे। तो जो आप खाना खाते हो, वो तो बस आपको इतनी ही सान्तवना देता है कि ये शरीर अभी बना रहेगा अगले कुछ सालों तक। लेकिन संतान का होना शरीर को ये सान्तवना दे जाता है कि जब ये शरीर नहीं रहेगा तब भी मैं बचा रहूँगा।
नतीजा ये होता है कि सेक्स एक ऐसी इच्छा है जो ऊँची से ऊँची इच्छा है। कभी ना पूरी हो पाने वाली इच्छा। और जो कभी ना पूरी हो पाने वाली इच्छा होती है वो सबसे ज्यादा चिल्लाती है कि मुझे पूरा करो, मुझे पूरा करो। मदर इच्छा है वो बिलकुल; मौलिक, क्योंकि वो शरीर की भी इच्छा को पूरी करता है और मन की भी जो गहरी इच्छा होती है, उसको पूरा करता है। शारीरिक मिलन के क्षण में मन रुक जाता है बिलकुल, सोचना संभव नहीं हो पाता। होता वो सब बस एक हार्मोनल प्रभाव में ही है, पर हो जाता है।
तो इसीलिए जो जीव है पूरा, उसका जो पूरा ऑर्गानिज़्म है, जो उसकी पूरी बींग है, वो इतना आतुर रहती है इसके लिए। इतनी गहराई से इस अर्थ में कि उस क्षण में समस्त इच्छाएं पूरी हो गयीं लगता है। वो क्षण करीब-करीब दैवीय हो जाता है। उसमें वास्तव में कुछ दैवीय नहीं है। है तो वही जैसा आप जानते हैं उसको, दो जिस्म मिल रहे हैं, और कुछ नहीं हो गया उसमें विशेष। पर कुछ समय के लिए, मात्र कुछ समय के लिए, वो एहसास ऐसा करा जाता है जैसे कि परम से ही मिलन हो गया हो, जैसे मन अपने स्रोत में ही समा गया हो। सब शांत, सब अच्छा।
तो वो एक आध्यात्मिक अनुभूति हो जाती है उसमें। और यही कारण है कि पूरी दुनिया उसकी दीवानी है। अगर वो मात्र कोई शारीरिक घटना होती, अगर वो मात्र कोई मानसिक घटना होती, तो उसमें इतना आकर्षण नहीं होता। उसमें आकर्षण इसीलिए है क्योंकि वो एक आध्यात्मिक अनुभूति है। समझ रहे हैं?
अब उसमें बड़ी मज़ेदार बात कही गई है कि ‘कोई जिज्ञासा हेतु उतरता है इसमें, कोई धन हेतु, कोई पुरानी स्मृतियों को जीवित करने के लिए उतरता है, और कोई मात्र कर्त्तव्य निर्वाह के लिए; लेकिन उसका मज़ा फिर वही जानते हैं जो एडल्ट्री (व्यभिचार) में उसमें उतरते हैं।
मैं एडल्ट्री को ‘बंधनमुक्तता’ कहना चाहूँगा। आपने एडल्ट्री शब्द का प्रयोग किया है, मैं उसे मात्र ‘बंधनमुक्तता’ कहना चाहूँगा। तो बात बहुत सीधी हो जाती है। जो कृत्य अंततः है ही इसीलिए कि वो आपको सारे बंधनों से मुक्त होने की क्षणिक अनुभूती दे दे, वो तो निश्चित रूप से पूरा-पूरा तभी फलित होगा जब उसमें बंधन मुक्त हो के ही उतरें। इसमें कोई शक नहीं, ये जो भी कवी हैं, आज से हज़ार साल पहले उन्होंनें कहा है, आपने उनका नाम नहीं लिखा है। जिसने भी ये बात कही है, वो इस बात को पूरी तरह समझ चुका था कि पत्नी और पति का जो सम्बन्ध है, उनके शारीरिक संबंधों को उसमें लेते हुए, पूरा संबंधों का दायरा है, वो पूर्व निर्धारित है।
वो कह रहे हैं न ‘वाइफ्स एंटर इट ऐज़ अ सेंस ऑफ़ ड्यूटी ’ (पत्नी मात्र कर्त्तव्य निर्वाह के लिए उसमें प्रवेश करती है ) , वो पूर्व निर्धारित है।
और जहाँ कुछ भी पूर्व निर्धारित है, वहाँ बंधन है।
बंधन ही है, और वो बंधन-मुक्त नहीं कर पाएगा। जो बंधन ही है वो बंधन-मुक्त नहीं कर पाएगा। इसी तरीके से यदि कोई वेश्या है और वो ये काम पैसे के लिए कर रही है, तो निश्चित रूप से ये बड़ा बंधन है उसके लिए। उसके लिए कभी भी ये कोई आनंद दायक अनुभूति नहीं हो सकती। उसका मन तो रोएगा ही। जो इसमें मात्र जिज्ञासा हेतु जा रहा है, वो भी जानता है कि मात्र अज्ञान है जो मुझे इसमें ले जा रहा है; जिज्ञासा का अर्थ है मैं जानता नहीं तो इसीलिए वो इसमें जा रहा है। एक बंधन ही है जो उसे इसमें खींच रहा है।
तुलनात्मक रूप से, मात्र तुलनात्मक रूप से, इन सब की अपेक्षा, वो व्यक्ति बेहतर हैं जो समस्त बंधनों को तोड़ कर के शारीरिक मिलन में उतरते हैं। इसी कारण कवि ने कहा है कि वास्तव में तो आनंद वही जानेंगे जो बंधनमुक्त हो कर इसमें आते हैं। अब ये जो आपने लिख कर के दिया है, ये बड़ी असामाजिक सी बात है। पर ये कह पाने के लिए किसी बड़े बोधयुक्त व्यक्ति की तीखी नज़र चाहिए। और आप इस बात को सच परखना चाहते हैं तो खुद भी परख लीजियेगा।
बंधनों को तोड़ कर के आप जो भी हासिल करेंगे, वो आपको जो अनुभूति देगा, वो आपको रोज़मर्या के कामों में नहीं मिल सकता।
श्रोता १: तो एडल्ट्री बंधनमुक्त कैसे हो सकता है? जब वह अनुबंध है, एडल्ट्री मतलब यही न कि…
वक्ता: बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। इसीलिए मैंने कहा था ‘मात्र तुलनात्मक रूप से’। मात्र तुलनात्मक रूप से।
श्रोता १: उस औरत का भी अनुबंध है, और उस आदमी का भी अनुबंध है…
वक्ता: तो आप उस अनुबंध को तोड़ रहे हो। हर अनुबंध एक बंधन है।
श्रोता १: असल में अनुबंध तोड़ें हम फिर। मतलब अनुबंध रख कर फिर कैसे…
वक्ता: इसीलिए मात्र तुलनात्मक रूप से। आप बिलकुल ठीक कह रहे हो। अभी इस पूरी बात में संन्यासी का कोई ज़िक्र नहीं है। जिसको एडल्ट्री की कोई ज़रुरत ही नहीं। यहाँ उसकी बात अभी कोई हो नहीं रही है। तो इसीलिए बाकी तीन की अपेक्षा, ये बेहतर है।
देखिये क्या था, कहानी कहती है कि एक बार एक शहर में खोज हुई कि सबसे ज़्यादा समर्पित स्त्री कौन सी है। सबसे ज़्यादा समर्पित। अब बड़ी-बड़ी वफ़ादार गृहणियाँ थीं। पता नहीं क्या-क्या। पता ही न चले। तो राजा ने एक फ़कीर को बुलवाया। उससे कहा, “तुम थोड़ा बताओ। तुम्हारी नज़र साफ़ है। दूसरा तुम शहर से बाहर रहते हो, तो तुम्हारे में कोई पूर्वाग्रह नहीं है, तो तुम ठीक-ठीक बता पाओगे। घूमो-फ़िरो शहर में और फिर बताओ”।
तो फ़कीर घूमा-फिरा। फ़िर राजा के पास जाता है और बोलता है, “वो जो शहर की प्रमुख वेश्या है, वो सबसे समर्पित स्त्री है”। राजा हैरान! राजा ने कहा, “वही मिली? ऐसी ऐसी पतिव्रताएं हैं, वो तुमको नहीं लगीं समर्पित? वेश्या को उठा लाए! क्यों बोल रहे हो ऐसा?” वो बोलता है, “क्योंकि वो जिसके साथ होती है, उसी के साथ होती है।”
तो, आध्यात्मिक तौर पर कभी भी सामान्य गृहस्थ जीवन को, न महत्व दिया गया है, न वांछनीय ही माना गया है। एक काम चलाऊ चीज़ है। चलो काम चला लो। और जब ये देखा गया है कि बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो बस काम चलाऊ जीवन ही जी रहे हैं, तो बुद्धों ने यदा-कदा ये भी कह दिया कि ‘हाँ, तुम गृहस्थ जीवन जियो। तुम्हारे लिए ये-ये नियम हैं। अगर गृहस्थी में रहना है तो ये लो ये तुम्हारे लिए नियम हैं।’ पर जानने वालों ने, फकीरों ने, सन्यासियों ने, हमेशा जाना है कि कुछ काम बंधन में नहीं होते, और यदि बंधन में हो रहे हैं तो बड़ी पशुता है, पागलपन ही है वो सब। समझ रहे हो बात को?
दूसरे अर्थों में इसको सीधे लेंगे तो इसको ऐसे कह लीजिये कि जिसको आप एडल्ट्री कहते हैं, वो इस बात पर निर्भर करती है कि आप ने कोई सामजिक व्यवस्था तोड़ी है कि नहीं। ठीक वैसे, जैसे शादी एक सामजिक व्यवस्था है, ठीक उसी तरीके से एडल्ट्री भी एक सामजिक व्यवस्था है। यदि समाज न हो, तो न तो विवाह होगा, और जब विवाह नहीं होगा तो फिर…
श्रोता २: उसके आदर्श भी नहीं होंगे।
वक्ता: तो कहा ये जा रहा है कि प्रेम सामाजिक नहीं हो सकता।प्रेम सामाजिक नहीं हो सकता । और व्यक्ति को ये बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए कि जीवन में समाज कहाँ तक उपयुक्त है और किस जगह पर आकर समाज रुक जाए। आप किससे मिल रहे हैं। आपका मन किससे जुड़ रहा है। कहाँ आपका प्रेम आपको ले जा रहा है, और कहाँ उस प्रेम के फल-स्वरुप शारीरिक मिलन हो रहा है। यदि ये भी समाज ने तय किया है, तो फिर तो वेश्या भली। कम से कम वो अपने ग्राहक अपनी मर्ज़ी से तय करती है, और रोज़ बदल भी सकती है। कम से कम समाज का उसपे कोई ज़ोर नहीं चलता। कम से कम उसे अपने ग्राहक से उसका कोई गोत्र नहीं पूछना पड़ता।
प्रेम सामाजिक नहीं हो सकता। दुकान सामाजिक हो सकती है। सड़क सामाजिक हो सकती है। वहाँ पर आपको सामाजिक मान्यताओं का पालन पूरी तरह करना पड़ेगा। आप सड़क पर चल रहे हो तो जो समाज के नियम कायदे हैं, उनका पालन करो।
श्रोता ३: तो अगर विवाह भी अनुबंध है, तो उसका भी पालन करो।
वक्ता: विवाह और प्रेम में क्या सम्बन्ध है? यदि आप विवाह से प्रेम को पूरी तरह निकाल कर ये सवाल पूछेंगे, तो मैं कहूँगा, “हाँ”। पर हम तो ये कहते हैं न कि विवाह, प्रेम का साधन है। यदि विवाह का प्रेम से कोई सम्बन्ध ना हो, तो मैं कहूँगा, “बिलकुल, अनुबंध भर है”। पर प्रेम तो अनुबंध नहीं हो सकता ना। प्रेम तो अनुबंध नहीं हो सकता है।
श्रोता ३: आपने पिछली क्लास में कहा था, ‘अगर वह अनुबंध भर है, तो उसे तोड़ दो।’
वक्ता: मैंने व्यंग किया था। मैंने कहा था कि जब अनुबंध करे ही बैठे हो, तो पालन करो। वो व्यंग है। आप समझे नहीं थे क्या कि मैं कह रहा हूँ कि जब तुमने व्यापार अब कर ही लिया है, जब तुमने प्यार को व्यापार बना ही लिया है, तो उसे बना ही दो पूरी तरह व्यापार। तो पहली बात तो ये है कि तुमने व्यापार बनाया ही क्यों? तुमनें उसमें सौदेबाज़ी करी ही क्यों? अनुबंध करा ही क्यों? जो चीज़ अनुबंध के दायरे में आनी ही नहीं चाहिए, तुमने वहाँ अनुबंध करा कैसे? पहली भूल तो यही कर दी न।
श्रोता ३: प्रेम के लिए तो सब शादी नहीं करते न। वो तो बस एक सामाजिक आदर्श है।
वक्ता: बस ऐसा ही होना चाहिए कि प्रेम के लिए शादी ना करो। प्रेम कहीं और करो! बिलकुल आपने आज पकड़ ही ली बात।
(श्रोतागण हँसते हैं)
श्रोता ४: दोनों को मिलाइए मत!
वक्ता: दोनों को मिलाइए मत! बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं।
श्रोता ४: पर्सनल–प्रोफेशनल! (हँसते हुए )
वक्ता: हाँ, और क्या, पर्सनल-प्रोफेशनल, दीज़ आर प्रोफेशनल थिंग्स (यह व्यवसाय से सम्बंधित हैं)! अनुबंध है, ठीक, अनुबंध है। अब तो बातें बहुत दूर-दूर तक जाती हैं। शादी से पहले ये सब भी लिख लिया जाता है कि तलाक के समय पर तुम कितना दोगे। ये घर का क्या हिस्सा होगा, पूरा तय किया जाता है, पूरा स्पष्ट, खुल के। बच्चे यदि हैं तो किसके पास जाएँगे। लड़का है तो किसके पास, लड़की यदि है तो किसके पास, सब पूरा स्पष्ट। तो उसका पालन करिए, ईमानदारी से पालन करिए। ईमानदारी से पालन करिए और प्रतिदिन रोईये और अपने आप को लानतें भेजिए कि किस घड़ी में हस्ताक्षर किया, ताकि आप आगे सौ-बार सोचें इस प्रकार का अनुबंध करने में।
जो सामाजिक नहीं है, उसको सामाजिक मत बनाइए ।
आपका अकेलापन सामाजिक नहीं हो सकता, उसमें किसी का दखल नहीं हो सकता।
दूसरी जो बात थी कि ‘मृत्यु में और इसमें क्या सम्बन्ध है?’ एक ही सम्बन्ध है। हमारा जो रोज़ का मन है वो थम जाता है, उसी को मृत्यु कहते हैं, और कुछ नहीं।
मौत का अर्थ है मन का थम जाना।
मन थम गया, मृत्यु हो गई। मृत्यु जैसा ही अनुभव वो है, और कुछ नहीं है। कबीर की कितनी साखियाँ हैं जिसमें कबीर ने मृत शरीर को दुल्हन से ही इंगित किया है। वो कहेंगे कि ये जो अर्थी निकल रही है, ये चार कहार हैं जो मेरी पालकी लेके जा रहे हैं। तो मौत में और विवाह में, मौत में और परम से मिलन में, संतों ने हमेशा समानता देखी है, हमेशा। एक सा ही अनुभव है मिल जाने में।
एक जगह कहते हैं कि, ‘पानी पहले हिम हुआ, और फिर हिम हो कर के भाप हो गया, जो दिखाई नहीं पड़ती, अद्रिश्य हो गया।’ और फिर कहते हैं, “जो था, वही हो गया”। जो वो था ही, वही हो गया। तो यही है, मौत कोई दर्दनाक घटना नहीं है, दर्दनाक सिर्फ़ अहंकार के लिए है, वही मरता है। मौत कोई दर्दनाक घटना नहीं है, मौत मात्र विचारों को खत्म कर देती है और नहीं कुछ खत्म हो जाता क्योंकि और नहीं कुछ शुरू हुआ था। आपने सोचना ही भर तो शुरू कर दिया था, और शुरू क्या हुआ है? एक दृष्टि ही तो शुरू हुई थी। और जिसको आप जन्म बोलते हो, उसके साथ और क्या शुरू हो जाता है? सोचना शुरू हो जाता है, अनुभूति शुरू हो जाती है। और उसी की मौत होती है, और थोड़ी कुछ मरता है।
और संतों ने उसे कभी कोई विशेष घटना माना ही नहीं। कुछ ने तो कहा है कि बड़ी अच्छी घटना है, बड़ी मज़ेदार है, उत्सव मनाओ। ओशो यही करते थे – ‘कोई मारा है, चलो अब तालियाँ बजाओ, गया।’ बुद्ध मरे तो बोले, “महापरिनिर्वान! छोटा-मोटा नहीं, बड़ा वाला निर्वाण, पूरा पिंड छूटा।” किसी ने बाद में पूछा कि पिंड तो छूटा, पर किसका? भई कोई होना चाहिए, यानि कि कोई बचा होगा, तभी ना उसका पिंड छूटा! जब आप कहते हो कि मुक्ति मिल गई, तो किसी को तो मुक्ति मिली होगी, जिसको मिली, वो तो बचा रह गया।
कहते हैं, जिस ज़ेन मास्टर से पूछा गया, उसने बड़ी ज़ोर से डंडा मारा। भई इतने धूर्त मन के साथ तू कुछ नहीं समझ पाएगा। जो शब्दों में ऐसे घुस कर के बात निकाल लाता हो – घटना है वास्तविक – एक पहुँचा यही पूछने कि ‘आप कहते हैं कि पूरा मुक्त हो गया, तो क्या मुक्त हो गया?’ बड़ी ज़ोर से लगाई। फिर बाद में उसका जो कारण दिया जाता है वो यही दिया जाता है कि बुद्ध का जो निर्वाण है वो मुक्ति है ही नहीं, वो है बुझ जाना, निर्वापित हो जाना। बुझ जाने में मुक्ति क्या है? कुछ था जो लगता था है, अब वो नहीं है, कुछ मुक्त-वुक्त नहीं हो गया।
पर जब मैंने उसको पढ़ा, तो मैंने देखा कि डंडा मारा, तो बोला कि सही डंडा मारा, इतने चतुर दिमाग को डंडे के अलावा और कुछ…! कहाँ से सवाल ढूंढ के लाये हो, बहुत बढियाँ।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।