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लेख
सत्य: मूल्यवान नहीं, अमूल्य || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक देव पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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वाज़े पंच शब्द तित तित घरी सभागे

वक्ता: उस सौभाग्यशाली घर में पाँच शब्दों का वादन रहता है। न होने से, होने का जो बदलाव है, वो गतिमान हो जाने का बदलाव है। वो गति में आ जाने का बदलाव है। जब तक गति नहीं है, पदार्थ भी नहीं है। हिल-डुल कर, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा कर, निर्माण होता है। कैसे आता है ‘न कुछ’ से कुछ भी? वह गति करता है। एक व्रत को लीजिए, उसकी परिधि है, उसका केंद्र है। उसका जो केंद्र है, सर्किल का सेंटर , आपने कभी ध्यान नहीं दिया होगा कि वो होता ही नहीं है।

आपसे कभी कहा जाता है “केंद्र कहाँ पर है?” तो आप बताते हैं, “यहाँ पर है”, निशान लगा देंगे वहाँ पर। पर इस बात को समझिए कि वो है ही नहीं। बिंदु का अर्थ ही यही है कि जो है नहीं, पर जिसके होने की ओर इशारा किया जा सकता है, क्योंकि उसका होना पक्का है। केंद्र का होना पक्का इसलिए है क्योंकि परिधि है, पर जब तक परिधि अस्तित्व में नहीं आई है, जब तक स्थान निर्मित नहीं हुआ है केंद्र से परिधि तक का, तब तक केंद्र है ही नहीं। हमारी आम बोल चाल की भाषा में जिसे हम होना कहते हैं, केंद्र उस अर्थ में है ही नहीं।

केंद्र उसी क्षण अस्तित्व में आता है जिस क्षण परिधि अस्तित्व में आती है। अन्यथा वो किसी और आयाम में रहता है, एक ‘न होने’ का आयाम। क्या प्रमाण है केंद्र के होने का? परिधि, परिधि है केंद्र होगा; पर कहाँ है? नहीं दिखता, कह ही नहीं सकते कि यहाँ पर है। स्पष्ट ही है कि जगत उस क्षण अस्तित्व में आता है, जिस क्षण केंद्र अपने न होने से फ़ैल कर, होने की यात्रा कर देता है, इसी यात्रा को मैं गति कह रहा हूँ। जगत उस क्षण आता है अस्तित्व में, जिस क्षण वो केंद्र अपना विस्तार करता है। तब समय का और स्थान का, आकाश का दोनों का एक साथ निर्माण हो जाता है।

तो कुछ नहीं है, और फिर सबसे पहले क्या आएगा? सबसे पहले आएगी सूक्ष्मतम गति, पहली वो होगी। वो सूक्ष्मतम गति के आते ही समय और स्थान निर्मित हो जाएंगे। निश्चित ही है कि वो गति किसी केंद्र के चारों ओर होगी। जब भी किसी केंद्र के चारों ओर गति होती है, उसी स्पंदन को, उसी को वाइब्रेशन शब्द कहते हैं, वही ध्वनि है। एक केंद्र है, और जो केंद्र पर था शांत, अचर, अन्स्तित्व्मान, वो अपने अनस्तित्व से आयाम बदल कर अब अस्तित्वमान हो रहा है। ‘था पहले भी’ पर उसका आयाम ‘न होने’ का था, अनस्तित्व का था। उसने आयाम बदला, अब वो अस्तित्व के आयाम में आया और अस्तित्व के आयाम में आने को ही गति कहते हैं, वो हिला, तो इसीलिए सबसे पहले जो आता है, उसे शब्द कहते हैं।

शब्द है सूक्ष्मतम स्पंदन, सूक्ष्मतम तरंग, कि जहाँ कुछ नहीं था, वहाँ अचानक एक स्पंदन हुआ। उसी को आदि ग्रंथ कह रहा है ‘ वाज़े पंच शब्द तित घरी सभागे। ’’ एक शब्द, पाँच शब्द, पंच महाभूत और फिर विस्तृत होते-होते पूरा जगत। वेद हिरणय गर्भ की कथा कहते हैं, वो इससे कुछ अलग नहीं है, एक ही बात है। कुछ नहीं उससे एक, एक से पाँच और पाँच से कोटि कोटि। आपने लाओ तज़ु को पढ़ा है, ठीक यही बात वो भी कहते हैं, आप बुल्लेशाह को पढ़ते हैं ठीक यही बात वो भी कहते हैं। आदि ग्रंथ हमसे कह रहा है ‘वो जगह ऐसी है, वो सौभाग्यशाली घर ऐसा है जहाँ यही शब्द हर समय गुंजित रहता है।’

शब्द गुंजित रहता है और सौभाग्य है इनका क्या सम्बन्ध है? यही सम्बन्ध है कि वहाँ पर जो सूक्ष्मतम हो सकता है वो वास करता है, संसार स्थूल है और केंद्र है ही नहीं, वो अनास्तित्व्मान है। वो तो इतना सूक्ष्म है कि उसको ये भी नहीं कह सकते कि वो सूक्ष्मतम है, वो तो ‘न’ हो गया है। और जगत है स्थूल, तो सूक्ष्मतम क्या है? सूक्ष्मतम वो, जिससे जगत की उत्पत्ति है। शब्द सूक्ष्मतम है, जो कबीर का अनहद नाद है, वो सूक्ष्मतम है।

वो घर ऐसा है, जहाँ पर सूक्ष्मतम का निवास है। वो कौनसा घर है? उस घर को आप परम का घर कह सकते हैं, ओंकार का घर कह सकते हैं, और यदि उसे और उपयोगी बनाना हो, तो अपना मन कह सकते हैं। ये भक्त का मन है, ये संत का मन है, ये ज्ञानी का मन है सूक्ष्म अति सूक्ष्म। जो पदार्थ को नहीं देखता, पदार्थ के पीछे के सूक्ष्म तत्व को पकड़ लेता है। आम आदमी का मन ऐसा होता है, जो हज़ार विविधताओं में जीता है और वो जहाँ देखता है, वहाँ उसे कुछ अलग-अलग ही दिखाई देता है।

जितनी चीजें अलग-अलग दिखाई दे रही हैं, मन अभी उतना ऊँच-नीच के, और भेद के, और चुनाव और सुख-दुःख के खेल में पड़ेगा। फिर आता है भक्त का और ज्ञानी का मन, जिसे धीरे-धीरे विवधता दिखनी कम हो जाती है, वो वैभिन्य मानता ही नहीं। जो पाँच अरब अलग-अलग व्यक्ति, वस्तु और विचार थे, वो कम होते जाते हैं, पाँच लाख़, पाँच हज़ार और स्थिति एक समय ऐसी आती है कि पाँच ही बचते हैं, “कि क्या हैं सब?” पंच भूत हैं और क्या हैं।

उसके सामने आप खाना रखिए, और उसके सामने आप मीठा रखिए, तो एक तल होगा जहाँ उसे उन दोनों में कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं देगा। दोनों क्या हैं? पंच भूत हैं और कुछ नहीं हैं। उसके सामने एक तथाकथित सुन्दर चेहरा रखिए और एक कुरूप चेहरा रखिए, वो उनमे अंतर करेगा नहीं। वो स्त्री पुरुष में नहीं अंतर करेगा, दिन रात में नहीं अंतर करेगा, सर्दी-गर्मी में नहीं अंतर करेगा। क्या है? सब एक है, उसके लिए। ऐसे की बात की जा रही है।

‘वाज़े पंच शब्द तित घरी सभागे’

पंच भूत से भी आगे निकल जाता है ‘वो’। ‘वो’ उन भूतों के मूल में भी जो शब्द है, वहाँ पहुँच जाता है। ग्रंथ हमसे कह रहा है पाँच शब्द बचते हैं, संत एक कदम और आगे जा सकता है, वो कह सकता है “नहीं पाँच भी नहीं, पाँच के मूल में जो एक है, बस उसका नाद बचता है।” पर आदि ग्रंथ ये हमसे कई दफ़े ये बात कहता भी है, एक नाद बज रहा है, एक ओंमकार, शुरुआत ही यहीं से है।

इस पंच शब्द को एक ओंमकार ही समझिए, जो एक ओंमकार है, वही पंच शब्द हैं। वही एक ओंमकार विस्तीर्ण हो कर के पूरे संसार को जन्म देता है, पंच भूतों को जन्म देता है, तब पंच शब्द कहलाता है। हज़ार और तरीके हो सकते हैं पंच शब्द की व्याख्या करने के। पर जो भी कहिए बात तो गिनती की है। आप एक, दो, तीन, चार, पाँच ही कर रहे होंगे, उन एक, दो, तीन, चार, पाँच के आगे आप नाम अलग अलग रख रहे होंगे, नामों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। बात बस इतनी सी है कि पहले वो जो गिनती से सर्वथा बाहर है, जो ‘न’ है, जिसे आप शून्य भी नहीं कह सकते। जिसे अगर आप शून्य भी बोलेंगे तो बात काम चलाऊ हो जाएगी बस, जिसको आपको इतना ही कहना पड़ेगा कि “अनास्तित्व्मान है, नॉन एक्सिस्टेंट है।”

‘*दा बेसिस ऑफ़ ऑल एक्सिस्टेंस, दैट बाय इटसेल्फ डज़ नॉट एक्सिस्ट*’ ‘वो’ वो है जो खुद तो होने के दायरे से बाहर है, पर जिसके होने से सब कुछ है, जिसके कारण सब कुछ है, पर वो स्वयं नहीं कहा जा सकता कि है। तो सर्व प्रथम वो है, पहला वो है, अव्वल वो है, और फिर अनहद कहिए, शब्द कहिए, हिरण गर्भ कहिए जो आप कहना चाहें, अब इसके आगे आप जो भी कहेंगे याद रखिए मन की कल्पना है। तो इसलिए आप क्या कहते हैं उससे फ़र्क नहीं पड़ता। उसके आगे फिर आप कह सकते हैं कि एक दो बनता है, आप कह सकते हैं कि एक छ: बनता है, आप कह सकते हैं कि एक पाँच बनता है और आप कह सकते हैं एक पचपन बनता है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि अब बात मन के दायरे में आ चुकी है। आप पचपन कहें या सत्रह कहें कोई अंतर नहीं पड़ता, गिनती गिनती है।

हर गिनती एक संख्या है, जो मन से निकलती है। तो पाँच और सात में कोई अंतर नहीं है, एक ही बात है; ठीक है। आवश्यक है समझना कि जो अरबों अरब हैं, वो मूल में एक हैं और जो एक है, वो शून्य से आ रहा है। जो बहुत कुछ है, वो एक है और जो एक है उसकी उत्पत्ति महा शून्य से है, परम शून्य से है। जिसका मन ऐसा हो जाता है, जिसमें अब अरबों अरब का निवास नहीं है, बस उस एक का निवास है, वो एक जो परम शून्य के बहुत करीब है, उस मन को संत कह रहे हैं, घरी सभागै।

वाज़े पंच शब्द तित घरी सभागे

वो बड़ा सौभाग्यशाली मन है जिसमें बहुत कुछ होता ही नहीं है, दुनिया भर के विचार जिसमें बहुत कुछ होता ही नहीं, न चिंताएं हैं, न उसे बहुत चेहरे दिखाई देते हैं, न आगे पीछे का विचार है, न अच्छे बुरे की परवाह है, न पाप पुण्य का खौफ़ है, वो तो उस एक में ही स्थापित है, घरी सभागै, वो हमारा घर है, वो हमारा मन है। जहाँ बात ये हो कि वस्तु और वस्तु में क्या चुनना है? वहाँ कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं है, गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है। ये वस्तु हो और वो वस्तु हो, सब एक हैं। जहाँ मिला कि कितना मिला और कितना खोया? वहाँ भी बहुत गिनने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि पाँच हो या पन्द्रह हो, है क्या?

श्रोतागण: गिनती।

वक्ता: गिनती है, और हर गिनती बस मन का एक खिलौना है। तो आप के पास पाँच हैं कि आपके पास पन्द्रह हैं बहुत गिनने की ज़रूरत नहीं; अंतर करिए ही मत। पर जहाँ ये चुनना हो कि एक में स्थापित होना है, शून्य में स्थापित होना है या जगत में स्थापित होना है, वहाँ ज़रूर-ज़रूर चुनाव करिए, यही विवेक है। विवेक का क्या अर्थ है? नित्य और अनित्य के मध्य अंतर जानना और उस अंतर से निकलता हुआ चुनाव।

संसार में चुनाव करने की ज़रूरत नहीं है, संसार में बहुत चुनने की ज़रूरत नहीं है। ये खाने को मिल गया, खा लीजिए; वो खाने को मिल गया खा लीजिए। जो आ रहा है ले लीजिए, कोई दिक्कत नहीं है। सूफ़ी संत था, उस पर बड़ी मुसीबतें पड़ी, तो वो प्रार्थना करता था, बोलता था “मौला चावल दिए हैं, तो सालन भी दे दे” जो चावल दे रहा है, सालन भी वही दे दे, रस थोड़ी। ये दो, कि वो दो सब ठीक है, दुनिया का हिस्सा है। काला, पीला, सफ़ेद, हरा, बैंगनी, गुलाबी एक है। क्या अंतर करना?

पर जहाँ ये चुनना हो, कि मन का क्या रंग हो? वहाँ सजग रहिए। जगत के रंग तो चलते रहते हैं, कोई भी रंग हो उनको गंभीरता से मत लीजिए। मन के रंग का ख्याल कीजिए, उस पर कोई भी रंग न चढ़े, वो अनरंगा रह जाए। मन का अनरंगा रह जाना, मन का निर्मल रह जाना ही मन का शून्य में स्थापित होना है। और अगर आपका ध्यान दुनिया के रंगों में चुनाव करने की ओर चला गया, तो आप ये भूल जाएंगे कि मन किस रंग का हो रहा है।

मैं दोनों बातें कह रहा हूँ: जीवन बिल्कुल गंभीरता से लेने की चीज़ नहीं है। इस बात को बिल्कुल गंभीरता से नहीं लेना है कि, ’’मेरी ज़िन्दगी में क्या कुछ कितना है?’’ न, छोड़िए, गिनतियाँ हैं, क्या करना है? बिल्कुल गंभीरता से नहीं लेना है कि चीज़ों का आकार कितना है? आकार क्या है? मन का एक और खिलौना। क्या करना है? बिल्कुल गंभीरता से नहीं लेना है कि संख्याएँ कितनी हैं? क्या करना है? संख्या क्या है? एक गिनती, खिलौना मन का। नहीं, छोड़ो।

लेकिन पूरी पूरी गंभीरता से लेना है कि “वहाँ हूँ कि नहीं जो समस्त संख्याओं से आतीत है, वहाँ हूँ कि नहीं जो स्वयं तो रंगहीन है पर जिससे सारे रंग उद्भूत होते हैं?” उसको लेना है, उसको पूरी गंभीरता से लेना है, वहाँ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। परिधि पर क्या चल रहा है? “हम परवाह करेंगे नहीं, करनी ही नहीं है। चले जो चलता हो। ठंडी, गर्मी, बाल काले हैं, बाल सफ़ेद हैं जेब हल्की है, जेब भारी है, हम नहीं परवाह करेंगे। परिधि पर जो चलता है, चले, खेल है।”

केंद्र नहीं हिलना चाहिए, वो एक मात्र है जिसकी फ़िक्र करनी है। जीवन हमारा उल्टा होता है, जिसकी फ़िक्र नहीं करनी है, उसकी हम खूब फ़िक्र कर लेते हैं और जिस एक की फ़िक्र होनी चाहिए उसका ख्याल ही नहीं आता। आप अपने चौबीस घंटे देखिए और पूछिए कि “चौबीस घंटे में से मैं किसकी कितनी फ़िक्र करता हूँ?” तो आपको दिख जाएगा फिर कि दुनिया की समस्त पीड़ा कहाँ से आ रही है? कि मन की सारी बेचैनी की वजह क्या है?

जहाँ गंभीर नहीं होना उन बातों को गंभीरता से ले रहे हैं। “कुर्ते पर दाग लग गया, रूपये पैसे का नुकसान हो गया, कागज़ पर कोई आंकड़ा कम लिख दिया गया, मकान की एक मंज़िल नीची रह गयी” मैं ये नहीं कह रहा हूँ इनको त्यागना है, मैं कह रहा हूँ इनको खेलना है। अंतर समझिए, गंभीरता से नहीं लेना है, ठीक है अच्छी बात है। और जिस एक से ऐसा सम्बन्ध जोड़ना है कि “मर जाएंगे, पर तुझे नहीं छोड़ेंगे, इतने पाबंध हैं हम तेरे, इतनी परवाह है हमें, इतना पक्का हमारा रिश्ता है कि तुझे नहीं भूल सकते, तेरे सामीप्य से हट नहीं सकते” उसके लिए हमारे पास दिन में चंद लम्हें भी नहीं होते। तो उल्टी ज़िन्दगी का उल्टा परिणाम मिल रहा है, ताज्जुब क्या है?

और ज़िन्दगी जितनी सीधी होती जाएगी, आप पाएंगे आप उतने ही खिलने लगे हो। आप खिलने लगे हो, इसका मतलब ये नहीं कि आपके कपड़े बड़े अच्छे हो जाएंगे। कपड़े तो हो सकता है कि पहले से थोड़ा, खिलने लगे हो इसका मतलब ये नहीं कि आपके खाने में पोशक तत्व बहुत बढ़ जाएंगे, कि, “अब प्रोटीन ज़्यादा खाते हैं, तो चेहरा” आवश्यक नहीं है। वो एक दूसरा ही खिलना है, जिसको रस बाहर के खाने से नहीं, अंदर की आत्मा से मिलता है। बाहर के खाने से तो क़त्ल करने के लिए जो मुर्गे, मुर्गियां और बकरे इकट्ठे किए जाते हैं, उन्हें भी खिलाया जाता है। जिन जानवरों का कत्ल होना होता है, उन्हें खूब पोषक आहार दिया जाता है। क्या वो खिल गये हैं? क्या आप उसे खिलना कहेंगे?

तो मुँह से लिया जा रहा पोषण नहीं खिलाता, आत्मा से उठने वाला रस खिलाता है; तब खिलेंगे आप। आपने बहुत कम देखा होगा कि कोई ज्ञानी पुरुष है, कि कोई संत है और वो पहलवान नुमा दिख रहा है। बिल्कुल खाया पिया और एक दम धुरन्दर, अक्सर तो आप यही देखेंगे कि वो बेचारा कृशकाय है, दुबला, पतला। लेकिन फिर भी आप जब उनके चित्र देखते होंगे, तो एक विचित्र बात दिखती होगी, तन सूखा, पिंजर सा हो रहा है और चेहरे पर आभा बैठी हुई है। चित्र दिखा रहा है कि चेहरे से ओझ की किरणें निकल रही हैं।

देखा है? सूखा चेहरा, मॉस ही नहीं, हड्डी-हड्डी, पर चेहरे से प्रताप विकृत हो रहा है। ये कैसे हो जाता है? कहाँ से आ रहा है वो? खाने से तो नहीं आ रहा, पैसे से तो नहीं आ रहा, सम्मान से तो नहीं आ रहा; कहाँ से आ रहा है? वो उपलब्ध हो जाता है, उसे जो जान जाता है कि महत्व किसे देना है। हम जानते ही नहीं हैं कि महत्व किसे देना है। जब हम जान जाते हैं कि किसे महत्व देना है, तो वो जो एक मात्र महत्वपूर्ण है, वो स्वयं हमें वो दे देता है, जो एक मात्र महत्वपूर्ण है, प्रेम, आनंद, आभा, ओझ; उसी को कह रहा हूँ जीवन का खिलना।

खा-खा के नहीं खिलोगे, और खाने से मेरा अर्थ मुँह से खाने वाला भोजन नहीं है। आँख, कान, मन ये सब क्या हैं? ये खाऊ लोग हैं, इन्हें बस खाना है। इन्हें खिला-खिला कर के कोई नहीं तरा, और न कभी मन भरा। ये तो ऐसे हैं कि खाए जाते हैं, और माँगे जाते हैं “कि अभी और दो।” कब थकती है आँख? कब थकता है कान? आँख, कान एक बार को मृतकाय भी हो जाएं, पर नहीं थकेगा मन। जानो कि क्या महत्व का है। जो महत्व का है, उसे महत्व दो, उसे अपनी उर्जा दो, उसे अपना समय दो।

श्रोता१: इसमें जैसे आप बोल रहे थे कि “जो महत्व का है, उसको समय दो” तो उसमें होता क्या है कि जब हम जहाँ समय देते हैं, तो दूसरी जगह से ध्यान हटता है।

वक्ता: आप जानते हो किसे महत्व देना है? आप कह रहे हो, “जब एक चीज़ को महत्व देता हूँ, तो उसके कारण कुछ और छूटता है।” क्या छोड़ना है? वही तो, जो महत्व का नहीं है। जो महत्व का नहीं है, उसे छोड़ा तो फिर बाद में उसकी चर्चा ही क्यों कर रहे हो? मुनाफ़ा हुआ अच्छी बात है। जाना साफ़-साफ़ कि क्या है जो कीमती है, जो कीमती था वो लिया, जो कीमती नहीं था वो छोड़ा, बहुत बढ़िया बात; या तो ये कहो कि “चुनाव ही गलत था, जानते ही नहीं थे क्या कीमती है, तो अब बाद में पछता रहे हैं।”

जो साफ़ साफ़ यदि जानेगा और अपने जानने पर ही जियेगा, वो अब विचार ही क्यों करेगा कि जो महत्वपूर्ण था, उसके कारण छूटा क्या? याद रखना यहाँ पर सवाल डिग्री का नहीं है, आयाम का है। यहाँ पर सवाल ये नहीं है कि “एक चीज़ की क़ीमत है सौ रूपये, और एक चीज़ की क़ीमत है पचास रूपये, तो मैं किसको चुनूँ?” यहाँ पर सवाल ये है कि एक तरफ़ वो है, जिसके अलावा और कुछ कीमती है ही नहीं, और एक तरफ़ वो है, जिसकी कोई क़ीमत ही नहीं है। यदि ये भेद साफ़-साफ़ दिखाई देगा कि यहाँ तो अनंत और क्षुद्रतम की तुलना है, तो फिर ये सवाल शेष कहाँ रह गया? तुम देखो कि किन दो चीज़ों की तुलना होनी है, अनंत की और क्षुद्रतम की। जो अनंत को पा लेगा, उसे अभी क्षुद्रतम की याद आएगी कि, “वो छूट गया, वो छूट गया?”

जो अभी क्षुद्रतम की याद कर रहा हो, इसका अर्थ है कि वो किसी क्षुद्रता में ही पड़ा हुआ है। उसने कहाँ कुछ पाया, वो तो इसी जगत में एक विचार से दूसरे विचार पर, एक वस्तु से दूसरी वस्तु पर, एक जगह से दूसरी जगह पर कूद रहा था। इसमें तुम्हें कुछ मिला नहीं है।

श्रोता: पाया तो नहीं है लेकिन उसमें अगर एक झलक भी मिलती है।

वक्ता: अगर झलक मिली हो, तो वो इतनी कीमती होती है कि तर जाते हो। अगर तर नहीं रहे हो, तो साफ़ साफ़ जानो कि “धोखा हो रहा है मन को, फ़ालतू ही भटक रहा हूँ।” अगर एक झलक भी मिल गयी, तो फिर बाद में ये नहीं कह सकते कि “उस झलक की क़ीमत बड़ी अदा करनी पड़ी।” तुम्हारे शब्दों में तो पछतावे की दुर्गंध है।

श्रोता१: क़ीमत वाली बात नहीं है, ये नहीं कह रहा…

वक्ता: ये विचार ही नहीं उठता, ये विचार ही नहीं उठता।

श्रोता१: क्योंकि मन एक जगह, एक दम एक ही चीज़ में सेटल्ड हो के नहीं बैठ जाता।

वक्ता: अगर नहीं बैठ रहा, तो इसका मतलब वो अभी मिला नहीं, इतना भी नहीं समझ रहे? कहाँ कोई झलक मिली? कहाँ कोई झलक मिली? जिसे मिलती है झलक, उसको कोई शक नहीं रह जाता कि, “मैंने निर्णय ठीक लिया कि गलत किया?” वो बाद में बैठ कर के हिसाब-किताब नहीं जोड़ता, “कि इसकी वजह से क्या खोया और क्या पाया?” क्योंकि याद रखना तुलना अनंत और क्षुद्रतम की है।

श्रोता: इसको हम झलक नहीं कहेंगे, तो ऐसा कहेंगी कि कई बार एक दम क्लियर होता है कि “हाँ, ये अनंत है और वो क्षुद्र है” क्योंकि मैं दुनिया के बाहर हूँ, बाहर की दुनिया की नहीं, तो कहीं और की लिमिट आ जाती है।

वक्ता: किसकी लिमिट आ जाती है बेटा? किसकी? जो मन जान गया है, उसकी क्या सीमा अब?

श्रोता: नहीं, वो जाना तो नहीं है पूरे तरीके से।

वक्ता: पूरा जानना और आधा जानना कुछ नहीं होता, या तो जाना है, या नहीं जाना है।

श्रोता: अभी मतलब अप एंड डाउनस में चल रहा है।

वक्ता: अप एंड डाउन्स कुछ नहीं होता है। जाना है कि नहीं जाना है?

श्रोता१: नहीं जाना है।

वक्ता: तो बस हो गया, नहीं जाना है, तो मतलब चुनाव ही गलत है। चुनाव ही गलत है न। जितने गलत चुनाव करोगे बाद में उतने गलत विचारों से उलझना पड़ेगा। तुमने सही चुनाव जब किया होता है, तो किसी प्रकार का उसमे अवशेष नहीं बचता, गिनती नहीं गिनते, क़ीमत हँसते-हँसते देते हो, और याद भी नहीं रह जाता। ये नहीं कि “याद है पर हम उसे महत्व नहीं दे रहे” याद ही नहीं रह जाता है कि क्या क़ीमत दी, याद ही नहीं रह जाता।

श्रोता२: उसका प्रमाण भी यही है कि हमने क्षुद्र को महत्व दे रखा है, तो हमें उसकी तरफ़ का कुछ ज्ञान भी नहीं है, कुछ पता ही नहीं है।

वक्ता: ये बहुत आम दुविधा है कि, “उस तरफ़ को चलते हैं, तो इस तरफ़ का कुछ छूटेगा” फिर तुम अभी जान ही नहीं रहे हो कि उस तरफ़ और इस तरफ़ का मतलब क्या है? ये बात ये नहीं है कि, “उस तरफ़ एक दुकान है और इस तरफ़ दूसरी दुकान है और किस दुकान में बढ़िया माल मिल रहा है?” ये एक ही आयाम में तुलना नहीं की जा रही है। ये एक ही बाज़ार की दो दुकानों की तुलना नहीं हो रही है। दिक्कत क्या है कि कहीं न कहीं हमने सत्य हो भी वस्तु बना रखा है।

जब सत्य वस्तु बन जाता है, तो फिर उसका दुकान पर बिकना संभव हो जाता है। और फिर दुकानें भी खूब चलती हैं कि, “हम सत्य बेच रहे हैं।” फिर तुम तुलना भी करोगे कि “किसका सत्य ज़्यादा असली था? इस दुकान का कि उस दुकान का” और दुकानें बनी रहें इसके लिए आवश्यक है कि वो भी आपको यही कहें कि, “सत्य वस्तु ही तो है” वस्तु क्या है? जिसके चिन्ह हों, जिसके लक्षण हों, जिस तक पहुँचने का कोई साधन हो, यही सब तो वस्तु की निशानी हैं। जहाँ कहीं भी आपके मन में भी ये बात बैठ जाए कि सत्य ये सब कुछ है, कोई धारणा आप बना लें, कोई मन में छवि बन जाए कि, “मैं तब मानूँगा कि जीवन सफ़ल हुआ जब मुझे ये मिल जाए, एक, दो, तीन ” तब समझ लीजिए कि आपने भी सत्य को वस्तु बना दिया है। और जैसे ही वो वस्तु बनेगा तुरंत दुकाने प्रकट हो जाएंगी, जहाँ वो बिक रहा होगा।

आप अगर प्रयोग करना चाहते हैं तो अभी कर लीजिए। मैं आपसे कहूँ कि एक सिद्ध की, ज्ञानी की या जाग्रत भक्त की उपाधियाँ बताइए? आप बता पाएंगे। मैं आपसे कहूँ कि आँख बंद करिए और अपनेआप से बोलिए भक्त या अपनेआप से बोलिए ज्ञानी, और देखिए कोई छवि उठती है या नहीं? आप पाएंगे कि छवि उठेगी, बिल्कुल उठेगी। और यही इस बात का प्रमाण है कि आपने सत्य को वस्तु बना लिया है। मैं आपसे कहूँ कि आप अपनी कल्पना करिए, जब आप अपनी उच्चतम स्थिति में हैं, कि आप कैसे दिख रहे हैं? आप कोई न कोई छवि बना लेंगे, आपकी छवि बनेगी कि, ‘’मैं शांत हूँ, ठहरा हुआ हूँ, चेहरे से आभा टपक रही है।’’ और यही सब आप तलाश रहे हैं “कि मिल जाए कोई दुकान, कोई गुरु जिसके पास बहुत सारी आभा हो, और वो थोड़ी मेरे मुँह में भी लगा दे।” तो फिर ठीक है मिल जाएंगे। जो चाहोगे मिलेगा, जो चाहोगे मिलेगा।

कहना आसान हो जाता है, शास्त्र हमें हमेशा से समझाते रहे हैं, ‘सत्य अचिंत्य है’ पर तथ्य ये है कि हम उस अचिन्त्य का चिन्तन कर ही डालते हैं, हम उसे किसी न किसी धारणा में बाँध ही देते हैं, कुछ न कुछ हम उसके विषय में मान्यता खड़ी ही कर देते हैं, वस्तु बना डालते हैं उसको। जब भी वस्तु होगी, तो उसकी क़ीमत होगी, फिर वो अमूल्य नहीं हो सकता, मूल्यवान हो सकता है, अमूल्य नहीं हो सकता।

मूल्यवान और अमूल्य का अंतर समझते हो? कीमती और प्राइसलेस का अंतर समझते हैं? मूल्यवान वो, जो बहुत क़ीमती है पर उसकी क़ीमत है, सौ का नहीं है, तो एक लाख का है। पर अमूल्य माने वो जो किसी और आयाम में है, डाईमेंशन ही दूसरा है, उसकी क़ीमत लग ही नहीं सकती, वो गिनती से बाहर है। आप मूल्यवान को ख़ोज रहे हो, इसीलिए आपको फिर मूल्यों की गिनती करनी पड़ती है, जो अभी आप कर रहे हो कि, “एक को पकड़ा, तो दूसरा छूटता है तो फिर गणित का हिसाब-किताब करना पड़ता है कि इसका मूल्य कितना था और उसका मूल्य कितना था?”

अमूल्य, ‘उसको’ जानो, ‘उसका’ मूल्य न कम है, न ज़्यादा है। जब कहा जाता है मूल्यवान, तो आपको ये भ्रम हो जाता है कि “अमूल्य वो, जो मूल्यवान से भी ज्यादा कीमती हो” गलत है धारणा ये। अमूल्य वो, जिसकी कोई क़ीमत नहीं, न कम न ज़्यादा। वो सभी कीमतों से हट कर के है। अब ये बात हमारे छोटे से मन में समाती नहीं, “कि ये कौनसी चीज़ है, जिसकी न कम क़ीमत है, न ज़्यादा क़ीमत है? जो सभी संख्याओं से परे है?” तो हम मूल्यवान को खोजने निकल पड़ते हैं। हमें बहुत अच्छे लगते हैं वो लोग, वो व्यापारी जो हमसे कहते हैं, “हमारे यहाँ बड़ी कीमती चीज़ मिल रही है, तुम्हें सस्ते में दे दूंगा। बहुत मूल्यवान चीज़ों को बेच रहा हूँ, तुम्हें सस्ते में दे रहा हूँ।” और फिर हम पहुँच जाते हैं वहाँ पर, और फिर खाली हाथ आते हैं, कुछ अगर मिला होता है, तो बस पछतावा।

सौदा करने से पहले देखा करो “कि ये मैं क्या करे जा रहा हूँ अपनी ज़िन्दगी के साथ?”

श्रोता३: सर, आपने जो बोला कि इमेज बन जाती है दिमाग में, आप जैसे सोचते हो आपके दिमाग में वो इमेज आ जाती है। अब तो ऐसा लगता है कि ये चीज़ें तो कंट्रोल में है ही नहीं। आप बोल रहे हैं गुरु नानक पर तो दिमाग में आ जाएगी नानक की इमेज और फिर उसके बारे में छ: तर्क लगा देंगे कि क्यों आ रही है, कैसे आ गयी? ये तो आ गयी तो इसका क्या करें?

वक्ता: उसे नकारो, उसे बल मत दो न। तुम आँख बंद करते हो और तुम्हारी आँखों के सामने नानक का यदि एक प्रकार का ही चेहरा आता है, तो तुम उससे चिपक मत जाओ, तुम उसे नकारो। तुम कहो “न, नानक कोई व्यक्ति तो नहीं हैं, नानक सत्य के प्रतिनिधि हैं, और सत्य को चेहरे में और वो भी एक विशिष्ट चेहरे में नहीं बाँधा जा सकता इसिलए हर चेहरा झूठा है, हर चेहरा झूठ है।” हाँ, अगर तुम्हारे मन में अलग-अलग तरह के चेहरे आते हैं, तो बात अलग है, तब तुम ख़ास हो, पर ऐसा हमारे साथ होता नहीं; हम तो किसी एक चेहरे को पकड़ लेते हैं।

जब एक चेहरे को पकड़ रहे हो तो उसको नकारो, क्योंकि या तो उसका कोई चेहरा नहीं है, या फिर सभी चेहरे उसके हैं। दिक्कत तब होती है, जब एक विशिष्ट चेहरा बना लिया जाता है। या तो मन ऐसा करो कि उसमें छवि उठे न या मन ऐसा करो उसमें असंख्य छवियाँ उठें। पर असंख्य की तो मन की हैसियत ही नहीं है न, कि उसमें असंख्य छवियाँ उठें। तो वो क्या करता है? वो सस्ता जुगाड़ करता है। वो क्या करता है?

श्रोता१: एक छवि पकड़ लेता है।

वक्ता: वो एक छवि पकड़ लेता है। असंख्य छवियों में जीने के लिए तो मन को बड़ा तरल होना पड़ेगा। मन तरल होता नहीं, मन तो ठोस पिंड बन के रह जाता है। तो इसिलए सबसे भला ये है कि जब पाओ कि कोई छवि है, जो बैठी जा रही है उसको नकारो, कहो “न सत्य नहीं हो सकता ये।” छवियों में नहीं सत्य कैद होता, सत्य की छवि मत बनाओ। छवि बनाओगे, तो फिर अमूल्य नहीं फिर तो कुछ और ही। बहुत समस्या है, हम छवि जब भी बनाते हैं, तो हम अपने मूल्यों को उसके ऊपर आरोपित कर देते हैं।

तुम अपने देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाते हो, तुम्हार मन के अनुसार, तुम्हारी संस्कृति के अनुसार जो सुन्दर से सुन्दर मूर्ति होती है, वो तुम बना देते हो। तुम ये समझते भी नहीं कि सत्य उस अर्थ में सुंदर नहीं होता, जिस अर्थ में व्यक्ति का चेहरा सुन्दर होता है। तुम कहते हो कि “कृष्ण की मूर्ति है, तो बहुत सुन्दर होनी चाहिए।” हाँ, निसंदेह सुन्दर होनी चाहिए, पर कृष्ण की सुंदरता, वो सुंदरता है ही नहीं, जिसे तुम सुंदरता कहते हो। कृष्ण की सुंदरता तो है कि *सत्यम शिवमं सुन्दरम * सत्य ही सुन्दर है, और सत्य क्या है? सत्य ये है कि कोई मूर्ति हो नहीं सकती। कृष्ण की सबसे सुंदर मूर्ति कौनसी है? (हँसते हुए)

वो जो कभी बनाई न जाए , वही सत्य है।

कृष्ण का सबसे सुन्दर मंदिर वो होगा, जहाँ कोई मूर्ति कभी स्थापित ही न की जाए। फिर वो आँखें, जो उस मूर्ति को देख पाएंगीं, वो होंगी भक्त की आँखें। मुकुट पहने हुए और बांसुरी धारण किए हुए कृष्ण के सामने, तो हर भक्त नाच लेता है पर उस शून्य स्थान के सामने जो भक्त नाच लेगा, और अभी भी कृष्ण को देख पाएगा, वो असली भक्त होगा। वो छवियों का भक्त नहीं होगा, वो सत्य का भक्त होगा।

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