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प्रेम सीखना पड़ता है

Acharya Prashant

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प्रेम सीखना पड़ता है

प्रश्नकर्ता: जब भी आपसे कोई प्रश्न पूछना चाहता हूँ, बेईमानी एकदम मुँह फाड़े खाने को खड़ी रहती है और मैं अपनी बची हुई सेल्फ-इमेज (आत्म छवि) को लेकर भागता हूँ इस डर से कि उसे भी खो न दूँ। इस दलदल से निकलने का समाधान प्रेम प्रतीत होता है पर वो तो जीवन से नदारद है। कैसे खोजूँ?

आचार्य प्रशांत: चौदहवाँ अध्याय था, तुमने पढ़ा कि नहीं पढ़ा, हैं भई? या बस अपनी परेशानियाँ बताओगे? सब परेशानियों का जो इलाज है उसको पता नहीं तुमने पढ़ा कि नहीं। एक-आध श्लोक उद्धृत करते, कुछ बताते कि क्या पढ़ा, क्या सीखा तो कुछ मज़ा आता न?

ये मैं समाधान ही बता रहा हूँ। यही समाधान है। प्रेम और कहाँ से आएगा? आज की चर्चा के आरंभ में ही मैने कहा था कि बच्चे को प्रेम माँ की बच्चेदानी से नहीं मिल जाना है। हमें प्रेम सीखना पड़ेगा। बिलकुल भी इस ग़लतफहमी में मत रहिएगा कि, “प्रेम तो नेचुरल (नैसर्गिक) होता है न? वो तो हम खुद ही सीख लेंगे। वो तो जानवरों को भी होता है, प्रेम तो आदमी को सीखना थोड़ी पड़ेगा।”

पहली बात, जानवरों में प्रेम नहीं होता। जानवरों में प्राकृतिक सौहार्द हो सकता है, प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम का वरदान या प्रेम की संभावना तो बस इंसान को ही मिली है। वो भी संभावना मात्र है। वो भी संभावना भर है। प्रेम तो तभी मिलेगा जब जाओ कृष्ण जैसे किसी के पास। आज मौका था, काहे चूक रहे हो?

हमारी जो रोज़मर्रा की उलझनें होती हैं उनको अगर आप सीधे-सीधे सुलझाने चलेंगे तो सुलझने वाली नहीं हैं। जैसे कि किसी की खाल पर एक छोटा सा धब्बा दिखाई देता हो और वो मेलिग्नेंट (घातक) हो। स्किन (त्वचा) कैंसर है और वो उसको खुरचे कि उसपर मलहम लगाए, कुछ होगा क्या?

उसका सीधा इलाज कुछ नहीं है। वो सिस्टमिक डिसऑर्डर (प्रणालीगत विकार) है। उसके लिए पूरे तंत्र का इलाज करना पड़ेगा क्योंकि पता नहीं कि वो जो कैंसर है खाल पर ही दिखाई दे रहा है, हो सकता है अंदर-ही-अंदर हड्डी में भी पहुँच गया हो।

भूलना पड़ता है अपनी तात्कालिक समस्या को। अपनी समस्या से हटकर के प्रयोग के तौर पर किसी ऐसी जगह पर जाना पड़ता है, किसी ऐसे के पास जाना पड़ता है जो आपकी समस्याओं से बहुत ऊपर का हो। थोड़ा वक़्त वहाँ गुज़ार कर के फ़िर देखिए कि जो समस्या पहले बहुत महत्वपूर्ण लग रही थी, अब लग भी रही है क्या?

ये दो तरीक़े हैं। एक तरीक़ा होता है जिज्ञासुओं के लिए। उनसे मैं कहता हूँ, अपनी समस्या के भीतर घुस जाओ, वहीं गड्ढा कर दो। अगर समस्या की जड़ में पहुँच गए, तो समाधान मिल जाएगा। लेकिन सब ऐसा कर नहीं पाते कि वो साफ़ तौर पर देख लें कि ये समस्या कहाँ से आ रही है और किसको आ रही। तो दूसरा तरीक़ा होता है कि समस्या से बिलकुल दूर हट जाओ। किसी दूसरी जगह पहुँच जाओ जो तुम्हारी समस्या से बहुत ऊपर की हो और वहाँ बैठकर फ़िर बताओ कि तुम्हारी समस्या कितनी बड़ी है।

दोनों ही तरीक़े उपयोगी होते हैं। काल और स्थिति पर निर्भर करता है कि आपके लिए कौनसा तरीक़ा चलेगा। आपकी बात जहाँ तक पढ़ रहा हूँ, आपके लिए शायद यही उपयोगी है कि ये जो आपने अपनी समस्या लिखी है इससे थोड़ा दूर जाएँ। अभी कृष्णत्व का माहौल है, पढ़ लीजिए गीता। कोर्स में आपने एनरोल (नामांकन) करा है न? उसका लाभ उठा लीजिए। हो सकता है उसके बाद ये बात बहुत बड़ी लगे ही ना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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