पैसा कमाना है, किसके लिए? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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पैसा कमाना है, किसके लिए? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप हमेशा बोलते हैं कि हमारे रिश्तों की बुनियाद अध्यात्म ही होना चाहिए, प्राकृतिक प्रेम की बुनियाद पर हमारे रिश्ते नहीं बनने चाहिए। मैं आज अपनी ज़िंदगी में रिश्ते देखती हूँ अभिभावकों के साथ या मेरे भाइयों के साथ या मेरे प्रोफ़ेशनल लाइफ़ (व्यावसायिक जीवन) में, तो उनमें अध्यात्म नहीं है कहीं पर। उनकी बुनियाद तो हमेशा प्रकृति ही रही है। तो मेरा प्रश्न है कि क्या आध्यात्मिक प्रेम की शुरुआत भी प्राकृतिक प्रेम से ही होती है?

आचार्य प्रशांत: हमारी ही शुरुआत प्रकति से होती है तो इसमें कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि आपके और किसी व्यक्ति के सम्बन्ध की शुरुआत प्राकृतिक हो, वैसा बिलकुल हो सकता है। बात ये है कि आप उसको कहाँ पर ले आना चाहते हैं।

जब व्यक्ति अपनेआप को प्राकृतिक समझे, देह समझे तो बहुत संभावना रहती है कि वो देहगत ही सम्बन्ध बना ले किसी दूसरे से। अब ये सम्बन्ध बन गया, लेकिन उसको लेकर कहाँ आना है, ये महत्वपूर्ण है बात।

अगर प्रश्न ये है कि सारे रिश्ते आवश्यक है कि प्राकृतिक रूप से ही शुरू हों, नहीं, बिलकुल नहीं आवश्यक है, बिलकुल नहीं।

तो आवश्यक नहीं है कि सारे रिश्ते वैसे हों, पर होते तो हमारे वैसे ही हैं क्योंकि हम देहाभिमानी लोग हैं। उसी के कर्मफल की कल इतनी देर तक चर्चा हुई कि एक रिश्ता आप बना लेते हो देह से देह का, उसके बाद फिर उसका कर्मदंड मिलता रहता है। उससे बचना चाहिए, जितना हो सके बचना चाहिए।

और अगर वैसी कोई शुरुआत हो चुकी है तो उसको सही रास्ते पर लाना चाहिए। कि चलो शुरुआत ऐसे ही हुई थी कि शरीर से शरीर का आकर्षण था लेकिन अब ज़रा उसको हम एक गरिमा देते हैं। अब ज़रा उसको एक सही जगह देते हैं।

प्र: तो आचार्य जी, जैसे अभी आपने बोला कि एक बार शुरू अगर हुआ है कोई भी रिश्ता प्रकृति की तरफ़ से तो आगे हमें ध्यान में रखना है हम अब ख़ुद भी अध्यात्म की ओर ही जाते रहें और उनको भी साथ में वहीं पर लेकर जाते रहें।

अगर मैं प्रोफ़ेशनल लाइफ़ देखती हूँ, क्योंकि मुख्य रूप से हम वहीं पर अपना समय बिता रहे हैं ज़िंदगी का, तो उनमें तो अध्यात्म का कुछ नहीं है। तो मैं उनके साथ कैसे अध्यात्म को जोड़ सकती हूँ?

आचार्य: नहीं, उनसे कोई बहुत गहरे रिश्ते भी तो नहीं हैं न। उनके प्रति आपका दायित्व बहुत बाद में आता है जिन लोगों के साथ आप काम वग़ैरा करते हैं। आप आज एक नौकरी में हैं, साल, दो साल, चार साल में आप नौकरियाँ बदल देते हैं। तो ये बहुत दूर की कौड़ी है कि आप कहें कि आपके सहकर्मियों के साथ या वरिष्ठों के साथ, बॉस (मालिक), क़लीग (सहकर्मी), इन सबका आपको आध्यात्मिक उत्थान करना है। ये बहुत दूर की बात है।

शुरुआत उनसे करिए जिनसे आपकी पहचान जुड़ी हुई है, जो आपके घर-परिवार के लोग हैं। वहाँ पर रिश्ते ठीक करने की कोशिश करिए, दफ़्तर वग़ैरा इनका नंबर बाद में लगेगा।

प्र: पर आचार्य जी जैसे पिछले सत्र में आपने कहा था कि घर हमेशा थोड़ा बाद में होना चाहिए क्योंकि वहाँ से हमें चोट बहुत जल्दी पहुँच जाती है, है न? तो अभी मुझे समझ नहीं आता कि क्योंकि मैं भी इतनी परिपक्व नहीं हूँ इन चीज़ों में, मुझे ऐसा लगता है कि मैं किसी को भी लेकर जा रही हूँ तो हो सकता है कि मैं ही गिर जाऊँ उस जगह से, मैं आगे नहीं बढ़ पाऊँ।

आचार्य: देखिए, ये दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं। एक स्थिति ये है कि आप एक साधारण नौकरी में हैं जो आपने इसलिए करी है कि उससे आपका करियर आगे बढ़ेगा या आपको पैसा अच्छा मिलेगा और फिर वहाँ आप कहें कि मुझे यहाँ पर सबका आध्यात्मिक उत्थान करना है। मैं कह रहा हूँ, वो चीज़ कम महत्व की है। हाँ, लेकिन यदि आप उस जगह पर पहुँच गयी हैं जहाँ आप काम चुन ही इस दृष्टि से रही हैं कि इससे मेरा आंतरिक जीवन बेहतर हो, फले-फूले, तब बात अलग है। वो आपको देखना होगा या मुझे बताना होगा कि आप अभी कहाँ पर खड़े हैं।

आपने कहा आपका ज़्यादा समय प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में जाता है। क्यों जा रहा है ज़्यादा समय प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में? इसलिए भी जा सकता है क्योंकि वो काम इतना सही है और इसलिए इतना कठिन है कि उसको बहुत समय देना पड़ता है। जब आप अपने लिए सही काम चुनते हो न, तो अक्सर वो दुष्कर भी होता है। जब दुष्कर होता है तो वो आपका बहुत सारा समय ले लेता है। तो एक स्थिति ये हो सकती है कि कोई लगा हुआ है दिन में बारह घंटे, चौदह घंटे काम में। उसका कारण ये है।

और एक दूसरा कारण भी हो सकता है कि पैसा ज़्यादा कमाना है, तरक़्क़ी जल्दी चाहिए, इसीलिए जो भी नौकरी पकड़ते हैं उसमें एकदम स्टार परफ़ॉर्मर (सितारा कलाकार) होने के लिए सबसे ज़्यादा काम हम ही करते हैं। ये दोनों बहुत अलग-अलग केंद्र हैं। ये नीयत अलग-अलग हैं दोनों।

अगर आप कहीं पर तरक़्क़ी की नीयत से काम कर रही हैं — तरक़्क़ी माने आर्थिक वग़ैरा तरक़्क़ी — तो वहाँ मैं नहीं देख पा रहा कैसे आप ये उद्देश्य बना सकती हैं कि सहकर्मियों को आध्यात्मिक रूप से मुझे आगे बढ़ाना है। कैसे ये बन पाएगा ध्येय, पता नहीं।

लेकिन हाँ, अगर आपने सही काम चुना है तो वो तो अपनेआप में ही एक आध्यात्मिक प्रयोजन है, फिर तो आप उसमें अपने साथ जिन लोगों को रखेंगी या जिन लोगों को नौकरी देंगी, उनके साथ तो आपका रिश्ता आध्यात्मिक होगा ही, क्योंकि वो काम ही ऐसा है।

देखिए, ग़लत काम को करने का कोई सही तरीक़ा नहीं हो सकता। नौकरी अगर चुनी ही ग़लत उद्देश्य से गयी है तो उसमें आप कोई सही परिणाम कैसे हासिल कर लेंगे, ये मेरी समझ से तो बाहर है।

और अधिकांशतः अध्यात्म के जगत में ऐसा ही होता है, लोगों की जिज्ञासाएँ ऐसी ही होती हैं कि सबकुछ मेरा उल्टा-पुल्टा ही चल रहा है लेकिन जिज्ञासा ये है कि वो जो उल्टा-पुल्टा आधार है, उसपर भी मैं कुछ अच्छा कैसे परिणीत कर दूँ।

ये लगभग वैसा सा प्रश्न है कि बुनियाद कच्ची है और उथली है और उस पर चार मंज़िल का घर खड़ा कर दिया है। अब चार मंज़िल का घर खड़ा कर दिया है, वो बुनियाद ऐसी कि वो घर हिलता है। जब घर हिलता है तो रसोई की सारी कटलरी और बैठक के सारे फूलदान वग़ैरा गिरकर टूट जाते हैं। हिलता इतना ज़्यादा है, सब चीज़ें गिरती हैं, टूटने लग जाती हैं। फ़ोन कहीं रखा है, वो भी गिर जाता है, वो भी टूट जाता है।

तो फिर आप जिज्ञासा करें — आचार्य जी, यदि जीवन में कटलरी और फ़ोन बहुत टूटते हों, तो क्या समाधान है? अरे! मुझे नहीं समझ में आता इसका कोई समाधान हो भी सकता है क्या। इसका तो यही समाधान है कि बुनियाद से ही इलाज किया जाए। और इसका क्या समाधान है!

हाँ, कोई आपको बोल सकता है कि अपनी कटलरी में शॉकर लगवा लो, इस तरीक़े का भी आध्यात्मिक कार्यक्रम चलता है आजकल। ये सब भी होता है जिसमें आपको त्वरित और सस्ते समाधान मिल जाते हैं, जो काम भी कर सकते हैं। कि कटलरी को उसमें लपेट कर रखो, वो जो आता है न जो बबल रैप बोलते हैं न उसको, कि अपने सारे बर्तन बबल रैप में रखो, अपना मोबाइल भी उसी में रखो।

अब इसमें कुछ नहीं रखा न! अगर आपने नौकरी चुनी ही एक ग़लत उद्देश्य से है तो उसमें मैं कैसे समझा दूँ कि कुछ बहुत अच्छा आप कर सकते हैं? उसमें तो आप अच्छे से अच्छा बस यही कर सकते हैं कि उल्टी गिनती कर सकते हैं कि कितने दिन में जल्दी-से-जल्दी मैं यहाँ से फ़ारिक़ हो सकता हूँ। बस यही कर सकते हैं।

तीन-चार साल मैं भी था कॉर्पोरेट में, मेरे कुछ दायित्व थे, वो निभाने थे। लोन (ऋण) वग़ैरा थे, एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) और इस तरह के, वो निपटाने थे। तो मेरे पास एक एक्सेल शीट थी और मैं उसी के सहारे जीता था। उसका नाम था — फ्री मैन इन मार्च। वो मैंने बनाई थी और उसमें ज़बरदस्त गणना करी थी कि मैं किस तरीक़े मार्च दो हज़ार पाँच में आज़ाद हो जाऊँगा। तो बस फिर तो वैसे ही जी सकते हो।

ग़लत काम में अगर फँसे हुए हो तो जीने का एकमात्र सही तरीक़ा बस यही है कि उल्टी गिनती चालू रखो कि यहाँ से किस तरीक़े से उड़ निकलना है।

आप कहो कि नहीं, उस ग़लत काम में मैं और लोगों को कैसे भजन कराऊँ, आप जो नौकरी कर रहे हो वो नौकरी उस तरीक़े की है जिसमें दुनिया को लूटने का कार्यक्रम चल रहा है, व्यर्थ की नौकरी है बिलकुल। वो पूरी कंपनी, वो पूरी इंडस्ट्री (उद्योग) ही व्यर्थ की है। उसमें आप नौकरी कर रहे हो और उसमें आप लोगों को गीता पढ़ाओ, कीर्तन कराओ, कह दो, ‘ये दफ़्तर नहीं, मंदिर है’, तो उससे क्या हो जाएगा?

अब ये बात मैंने गड़बड़ बोल दी! "कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास।"

और कुछ?

प्र: आचार्य जी, मतलब हम अपना जीवन ऐसे ही जीते हैं जैसे कि अंदर से हम कोयले हैं लेकिन ऊपर से कोशिश करते हैं कि किसी तरह अध्यात्म का परत लगा लें। पर हम अंदर से कुछ नहीं बदलाव करना चाहते?

आचार्य: नहीं करना चाहते, हम अध्यात्म को भी बैठक में सजाने की एक चीज़ बनाना चाहते हैं। भीतर-ही-भीतर हमें भय ने ऐसा जकड़ रखा है कि हम पुराने सामाजिक स्वीकृत ढर्रों को चुनौती देने की सोच भी नहीं पाते, एकदम नहीं सोच पाते।

और मैं आपके सामने बस यथार्थ रख सकता हूँ। आप कहेंगे कोई इसका तत्काल, सीधा समाधान बता दो तो मैं कोई दिव्य पुरुष हूँ नहीं, मेरे पास नहीं समाधान है। हाँ, इतना कर सकता हूँ, आपको बता दूँ हालत वास्तव में क्या है।

मैंने देखा है लोग अपने केबिन्स में, दफ़्तरों में, अपनी कुर्सियों के आगे, वो वहाँ पर कोई गीता का श्लोक लगा देगा, कोई स्वामी विवेकानंद का छोटा सा चित्र चिपका देगा। और मुझे असमंजस भी होता है, दुख भी होता है। मैं कहता हूँ, ये ख़ुद को धोखा दे रहा है बेचारा, किसको बेवकूफ़ बना रहा है!

तुम स्वामी जी का काम देखो, उन्होंने क्या किया था जीवन में। तुम अपना काम देखो तुम क्या कर रहे हो सुबह से शाम तक। और उसके बाद तुमने अपनी वर्कप्लेस (कार्यस्थल) में, अपने वर्कस्टेशन (कार्यकेंद्र) में सामने उनका चित्र लगा रखा है। इससे अच्छा तो तुम उसको हटा दो चित्र को। उस चित्र को जितना देखोगे तुम्हें उतना दुख होगा।

और ये उस चित्र का भी अपमान है कि तुम उसे इस तरह की जगह पर लगा रहे हो। वो तस्वीर इस तरह की जगहों के लिए नहीं बनी है। और तुम्हारा अपना दिल नहीं टूटता उनको देख करके? उन्होंने वो काम करा जो तुम कर रहे हो? तो तुम अपना काम करते हुए उनकी तस्वीर सामने कैसे रख सकते हो? लेकिन सब करते हैं, आप देखिएगा।

आप जाइए, कोई कुछ लगाता है, कोई कुछ लगाता है। कोई अपने छोटे बच्चे-बच्ची की तस्वीर लगा देता है, नुन्नु-नुन्नी। तुम्हें वाक़ई उनसे प्यार होता तो तुम ये काम कर रहे होते? तुम अपने बच्चों के भी सगे नहीं हो!

आपके बच्चों को बाप का पैसा बाद में चाहिए, पहले बाप चाहिए। या माँ चाहिए। पैसे आधे भी हों तो चल जाएगा काम। बाप ही बर्बाद है तो काम कैसे चलेगा? और बाप बर्बाद क्यों है? क्योंकि बाप सोच रहा है कि बाप से ज़्यादा ज़रूरी पैसे हैं बच्चों के लिए, तो बाप लगा हुआ है पैसे कमाने में।

कोई पूछे, 'किसके लिए कर रहे हो?' 'मैं तो सबकुछ अपनी औलादों की ख़ातिर करता हूँ।' और औलादें पकड़ी गयीं वहाँ स्कूल के सामने गांजा बेचते हुए, वो भी ब्लैक (काला बाज़ारी) कर रही थीं गांजा। बापराम लगे हुए हैं पैसा कमाने में, 'औलादों की ख़ातिर पैसा कमा रहा हूँ।'

पैसा बहुत अच्छी चीज़ है पर उसका कुछ उपयोग तो होना चाहिए जीवन में! क्या करोगे पैसा, चबाओगे? क्या करोगे? बहुत सारा पैसा वैसा ही है जैसे आपके सामने बहुत सारा खाना रख दिया जाए। आप एक रेस्तराँ में जाएँ और उसमें मेन्यू में जो कुछ हो, वो सबकुछ आपकी टेबल (मेज़) पर रख दे। क्या करोगे? खा-खाकर मरोगे?

भई! आपने दावत दी हो, उतना खाना समझ में आता है। आपने भंडारा लगाया हो, उतना खाना समझ में आता है। पर लंगर लगाने वाला तो दिल आपका है नहीं कि लेकर आओ, सबकुछ लेकर आओ, आज लंगर है। उतना बड़ा तो दिल नहीं! तो किसके लिए उतना मँगाया है? ख़ुद खाओगे, मरोगे उतना खाकर।

तो मैं पूछ रहा हूँ, किसके लिए कमा रहे हो। अगर लंगर लगा रहे हो और उसकी ख़ातिर ढाई सौ थालियाँ चाहिए, तब तो ठीक, बहुत अच्छा। आपको भी अगर लंगर लगाना है, उसकी ख़ातिर आपको पच्चीस करोड़ चाहिए तो बहुत अच्छा। पर लंगर लगाने वाला तो दिल नहीं! हाँ, कमाने के लिए सदा तैयार हैं। करोगे क्या कमा-कमाकर?

मैं बताता हूँ क्या करते हैं। फिर जब हम ख़ूब कमा लेते हैं, तो फिर हम खर्चे आविष्कृत करते हैं। अब खर्चे खोजो। कहाँ खर्च करें? कुछ होना तो चाहिए खर्च करने के लिए। तो फिर जगहें खोजी जाती हैं। अच्छा ठीक है, अब इससे हमें कुछ संतुष्टि हुई कि हम कुछ हैं। नहीं तो उतना पैसा आ जाता और उसको खर्च करने की कोई जगह भी न मिलती तो बात एकदम ज़ाहिर हो जाती कि बेवकूफ़ बने।

तो फिर ऐसी दुकानें खुलती हैं जहाँ बस आपसे पैसे लिए जाते हैं आपको ये जताने के लिए कि देखो तुम अकेले हो जो इतना सारा दे सकते थे।

जैसे आप कहीं पर जाएँ और वहाँ आपसे दस लाख लिया जाए और ये तौलिया (हाथ में तौलिया लेकर दिखाते हुए) दिया जाए। अब ज़ाहिर है कि आप उस दुकान में अकेले ही होंगे; आपके जैसा कोई और तो है नहीं। ये कितने फ़क़्र की, गौरव की बात है न! ‘देखो, मैं अकेला हूँ जो इसके लिए दस लाख दे सकता हूँ!’

ये सब स्नॉब एक्स्पेंसेस (दम्भपूर्ण व्यय) कहलाते हैं, ये पूरी एक केटेगरी (श्रेणी) होती है। ये गुड्स (वस्तु) हैं जिनकी स्नॉब वैल्यू (दम्भपूर्ण मूल्य) होती है, उनकी कोई इंट्रिन्सिक वैल्यू (आंतरिक मूल्य) नहीं होती, स्नॉब वैल्यू होती है। और ये उनके मैन्युफैक्चरर्स (उत्पादक) को भी पता होता है। वो कहते हैं बस इसको महँगा कर दो, इसकी ख़ासियत ही बस यही है कि ये महँगा है।

इसकी ख़ासियत ये नहीं है कि इसके अंदर कुछ है, इसकी ख़ासियत ये है कि ये महँगा है। तो इसको लो (तौलिया दिखाते हुए) और इसको दस लाख का कर दो। जैसे ही बोलोगे कि दस लाख का है तो पूरी भीड़ छट जाएगी। फिर एक निकल कर आएगा सूरमा, वो कहेगा कि मैं लूँगा। फिर वो दस लाख में तौलिया लेगा और सबको ऐसे देखेगा, ‘ये देखो! ये देखा, मैंने ज़िंदगी बेच करके मैंने दस लाख क्यों कमाए? ताकि मैं सिद्ध कर सकूँ कि मैं अकेला हूँ जो ये ले सकता हूँ। है तुममें से किसी की हैसियत दस लाख में इसको लेने की? किसी की नहीं, मेरी है।’

ये होता है फिर फ़िज़ूल पैसे का, फिर आप तरीक़े खोजते हो उसको उड़ाने के।

कल बात हो रही थी चार हज़ार, पाँच हज़ार के होटल के कमरे की, पचहत्तर हज़ार का भी आता है होटल का कमरा, दो लाख भी आता है, भारत में ही। अब वो गड्डी खुजली कर रही थी, उसको कहीं तो कुछ तो करना था तो जाकर होटल के काउंटर पर फेंक आये कि लो दो लाख रुपये। और अगर वहाँ नहीं खर्च करोगे तो जस्टिफ़ाई (उचित सिद्ध करना) कैसे करोगे कि ज़िंदगी क्यों बर्बाद करी इसको कमाने में?

तो मैं आपको इसमें दो मोटे-मोटे तरीक़े बोल रहा हूँ। अगर कमाने में बहुत ही रुचि है, कमाये बिना जिया नहीं जाता, नींद नहीं आती, खाना नहीं पचता तो लंगर के लिए कमाओ। कह रहे हैं, 'अब कमाना तो नहीं छोड़ सकते! हे हे हे' तो ठीक है, कमाओ और उससे लंगर लगाओ। एक ये रास्ता है, ये रास्ता फिर ठीक है। और दूसरा रास्ता ये है कि लंगर लगाना नहीं है तो फिर कमाने का भी बोझ काहे लेकर घूम रहे हो, आज़ाद हो जाओ।

और कोई भी सही रास्ता इन्हीं दोनों रास्तों का किसी प्रकार का मेल होगा। कोई पारमार्थिक औचित्य दिखे तो बेशक़ बहुत-बहुत धन इकट्ठा करिए। पर कोई पारमार्थिक औचित्य भी नहीं और ज़िंदगी भी जला रहे हो, तो बात ठीक नहीं।

प्र: जी, धन्यवाद आचार्य जी।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=HzkStYd3FMo

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