पैसा कितना और क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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पैसा कितना और क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता : बेटा पैसे का वहाँ तक महत्व है, जहाँ तक शरीर का महत्व है।

मंजीत ने कहा, ‘पैसे का कितना महत्व है जीवन में?’ ठीक उतना ही जितना शरीर का है। अगर उससे ज़्यादा महत्व देने लग गए, तो गड़बड़ हो जाएगी। शरीर चलाने के लिए जितना चाहिए पैसे का उतना ही महत्व है। शरीर चलाने के लिए क्या चाहिए? खाना चाहिए, कुछ कपड़े चाहिए, और कभी-कभी, हमेशा भी नहीं, कभी-कभी सिर छुपाने के लिए कुछ जगह चाहिए। बस इतना ही महत्व है पैसे का। अगर पैसा तुम्हारे लिए कुछ और बन गया, तुम्हारी पहचान बनने लग गया, तुम्हारे लिए दूसरों को नीचा दिखाने का, अपने आप को ऊँचा दिखाने का साधन बनने लग गया, तो अब ये पैसा बीमारी है। सिर्फ उतना कमाओ जितने से काम चलता हो। सिर्फ उतना। और अगर उससे थोडा ज़्यादा आ जाए, तो खर्च कर दो, मज़ा कर लो। ये कोशिश भी मत करो कि कल के लिए थोड़ा बचा कर रख लूँ, अपने आप थोड़ा बच गया तो अलग बात है। पर इसलिए मत कमाओ कि बचाना है।

पैसे का इतना ही महत्व है कि शरीर चलता रहे। शरीर चलता रहे ताकि हम मौज कर सकें। तुम लोगों को देखो ना, वो इसलिए नहीं कमाते कि ज़िंदगी चले, वो इसलिए कमाते हैं क्योकि उन्हें कमाना है, क्योंकि कमाना ही लक्ष्य है, क्योंकि वो अपनी हैसियत को पैसे से नापते हैं। वो गिनते हैं कि मेरे पास अब कितना पैसा हो गया, और कहते हैं, ‘अब मेरी हैसियत उतनी ही बढ़ गयी जितना मेरा पैसा बढ़ गया, और अगर पैसा कम हो गया तो हैसियत भी’। ये बीमारी है अब। पूरी बीमारी है। इसलिए मुझे अजीब सा लगता है जब तुममे से कई लोग आकर कहते हो, ‘ये कर लेंगे, वो कर लेंगे तो फिर नौकरी कहाँ से लगेगी, बेरोज़गार रह जायेंगे, पैसा नहीं आएगा’। मैं पूछ रहा हूँ, तुम्हें कितना पैसा चाहिए? कितना चाहिए? अभी तुम्हारे कितने खर्चे हैं? एक महीने में कितना खर्च कर देते हो? (एक श्रोता की तरफ देखते हुए) कितना?

श्रोता १: पाँच हज़ार।

वक्ता: पाँच हज़ार। (दूसरे श्रोता की तरफ देखते हुए) कितना?

श्रोता २: पाँच हज़ार।

(कई श्रोता यही जवाब देते हैं )

वक्ता: (किसी और श्रोता की तरफ देखते हुए) कितना? छः, आठ हज़ार? अरे बोल दो, अलग भी हो सकते हो *(सभी हँसते है)*। किसी का तीन हज़ार होगा, किसी का आठ हज़ार होगा। रेंज यही है। सभी की है ना? आज अगर तुम्हारा पाँच में काम चल रहा है, तो कल तुम अचानक पन्द्रह-बीस गुना खाना तो नहीं शुरू कर दोगे? भूखे तो नहीं रहते ना अभी? खा-पी भी रहे हो, सब तुम्हारा काम चलता है। यही ज़रूरतें कल भी रहनी हैं। मैं मूलभूत ज़रुरतों की बात कर रहा हूँ, लालच की बात नहीं कर रहा। जब आज पाँच में काम चल रहा है, तो कल पचास क्यों चाहिए? फोर्थ इयर के अप्रैल तक, जब तक स्टूडेंट हो तुम्हारा पाँच हज़ार में काम चल रहा है, और जुलाई में, अब तुम्हें पचास चाहिए, क्यों? अप्रैल से जुलाई के बीच में तुम्हारी भूख एकाएक बढ़ गयी है? क्या हुआ, क्या है? कुछ नहीं हुआ है, इतना ही हुआ है कि समाज का शिकार हो गए हो। इतना ही हुआ है कि परिवार वालों को पड़ोसी को बताना है कि लड़के की कितने की नौकरी लगी, इसलिए पैसा चाहिए।

पैसे की जो वाज़िब जरुरत हो उतना कमा लो, और उतना आसानी से कमाया जा सकता है। उतना कमाने में कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, कमा लोगे। हर कोई कमा लेगा। पर तुम्हें कमाना इसलिए है ताकि सिर ऊँचा कर सको, दहेज मिल सके। वर्मा जी के बेटे की फलानी मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी लगी है।

हमारा प्लेसमेंट हो रहा था IIM में, तो मेरे साथ के एक सहपाठी की छः लाख की नौकरी लगी। अब उन दिनों मोबाइल फ़ोन हम नहीं रखते थे, इतना चलन नहीं था। तो पहले तो वो जी भर के रोया कि बर्बाद हो गया, सिर्फ़ छः लाख की नौकरी लगी, बड़ी मुश्किल से उसे आत्महत्या करने से रोका गया। और ये आज से दस साल पहले की बात है। उसके बाद वो पास ही के टेलिफ़ोन बूथ पर गया, तो मैं उसके साथ-साथ गया। मैंने कहा पता नहीं कहाँ रास्ते में ही कट मरे, क्या हो? इसका कोई भरोसा नहीं। और ये ‘क्रीम ऑफ़ दी नेशन’ है, IIM अहमदाबाद। अपने पिता को बताता है कि नौ लाख की नौकरी लग गयी। मैंने कहा,’ क्या कर रहा है?’ बोलता है, ‘मर जायेगा मेरा बाप, वो जीता ही इसी ठसक में है कि लड़का IIM अहमदाबाद में पढ़ता है। पाँच-सात जगह मेरे रिश्ते उसने इसी हिसाब से चला रखे हैं कि मेरा लड़का लाखों कमाएगा। मैं सच बता ही नहीं सकता’। कैंपस में डोर्म होती थी, उसमें एक कॉमन फ़ोन होता था, तो इन्कमिंग कॉल वहाँ से आती थी। टेलिफ़ोन बूथ से वापिस लौटे, वापिस लौटने में लगा मुश्किल से आधा घंटा, कुछ खाते-पीते लौटे। तब तक उसी सहपाठी का फ़ोन आ गया। और फ़ोन किसका आ रहा है? पड़ोसी के लड़के का। वो फ़ोन कर के क्या कह रहा है? ‘क्या भैया, मरवा दिया आपने, आपकी इतनी अच्छी नौकरी लग गयी है, बारह लाख की आपको बताने की क्या ज़रूरत थी?’ पिता ने जाकर पड़ोसी को बताया कि दस लाख की नौकरी लगी है, राउंड फिगर। ‘ये बईमानी थोड़ी है, नौ का दस ही तो किया है’। तो वर्मा जी ने शर्मा जी को बताया कि मेरे होनहार की दस लाख की नौकरी लग गयी है। फिर शर्मा जी ने अपने बेटे को पकड़ा। ‘वर्मा जी के बेटे की बारह लाख की नौकरी लगी है’। बेचारा वहाँ से फ़ोन कर के कह रहा है, ‘ भैया मुझे तो पता ही है कि आप होनहार हो, आपकी बारह लाख की नौकरी लग गयी है, पर आप मुझे क्यों मरवा रहे हो?’

तो इसलिए चाहिए तुम्हें पैसा। ये बेवकूफियाँ करने के लिए पैसा चाहिए।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/jNyAVNlbH6M

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