आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख

पैसा कितना और कहाँ खर्च कर रहे हो?

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

15 मिनट
266 बार पढ़ा गया
पैसा कितना और कहाँ खर्च कर रहे हो?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अभी जॉब कर रहा हूँ और घर वालों के हिसाब से, समाज के हिसाब से नौकरी की जो स्थिति है, वो ठीक है, पैसे ठीक-ठाक मिल रहे हैं। पर मुझे संतुष्टि नहीं मिल रही उससे। संतुष्टि काम के मामले में नहीं क्योंकि मैनें देखा है कि कॉर्पोरेट में जो काम होता है वैसा ही होता है, उसमें नौ घंटे लग जाते हैं। उसके बाद न खुद को जानने का समय मिलता है और ऊपर से थकावट जो होती है उसको मिटाने के लिए गलत-शलत तरीके अपनाता हूँ। नशे या फिर जो कि मीडिया कंटेंट है वो, उसका उपभोग करके अपनी थकावट मिटाने की कोशिश करता हूँ। जॉब मैं अपने लिए नहीं कर रहा हूँ, मेरी ज़रूरतें खुद ही कम हैं लेकिन मैं यह चीज़ घर वालों के लिए कर रहा हूँ, क्योंकि घरवालों की आर्थिक निर्भरता मेरे ऊपर है। तो अभी मैं यहाँ पर मुक्ति की तरफ कैसे जा सकता हूँ? मुझे लगता है कि मैं गलत तरीके से कमा रहा हूँ लेकिन अगर मैं ऐसा है कि मैं काम से भागने की कोशिश कर रहा हूँ तो बुद्ध जी ने भी कहा है कि दु:ख तो है; धरती पर आए हो तो वो तो रहेगी तो ये पूरी चीज़ जो है मुझे समझ में नहीं आ रही है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: बुद्ध ने इतना ही थोड़े ही कहा है कि जीवन दु:ख है, उन्होंने ये भी तो कहा है कि दु:ख से मुक्ति संभव है। दु:ख से मुक्ति संभव तब होगी जब तुम सही दृष्टि, सही विचार, सही कर्म, जीवन यापन का सही स्रोत रखोगे। अगर तुमको वास्तव में ऐसा लगता है कि घर वालों की आर्थिक ज़रूरतों के लिए तुम्हें इस नौकरी की ज़रूरत है ही तो दो दिशाओं से अपनी मुक्ति का प्रयत्न करो।

पहली बात तो ये कि ये देखो कि तुम जो कमा रहे हो वो वास्तव में घरवालों की आर्थिक सहायता के लिए कितना आवश्यक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि घरवालों की ज़रूरतों के नाम पर तुम घर वालों की फ़रमाइशें पूरी कर रहे हो। बुनियादी माँग में और विलासिता में अंतर होता है न? माँगने को तो कोई तुमसे कुछ भी और कितना भी माँग सकता है, कि, "आप हमें इतना कमा कर दीजिए क्योंकि हमारी मासिक ज़रूरतें हैं, इतनी तो हैं ही।" तो ज़रा करीब जाकर तुमको देखना पड़ेगा कि क्या वास्तव में मासिक ज़रूरतें उतनी हैं भी या विलासिता की आदत डाल रहे हो तुम कुछ लोगों में।

दूसरी बात, अभी तो तुमने कह दिया कि तुम नौकरी सिर्फ इसलिए कर रहे हो क्योंकि घरवालों की जरूरतें पूरी करनी है। पर क्या वास्तव में ऐसा है? ईमानदारी से निरीक्षण करो तुम्हारी आय कितने प्रतिशत घरवालों की ज़रूरतें पूरी करने में जा रही है और कितनी आय तुम खर्च कर रहे हो अपनी ओर से अनाप-शनाप जगहों पर।

अहम् दोनों हाथ लड्डू रखना चाहता है। वो इस बात का गौरव भी रखना चाहता है कि वो तो जी ही दूसरों के लिए रहा है और वो सुख-सुविधा, विलास, प्रमाद, इनका भी रस लेता रहना चाहता है। आँकड़ों के करीब जाओ। बहुत तरीके हैं आँकड़ों को देखने के। अतीत से तुलना कर सकते हो, दूसरों से तुलना कर सकते हो और अगर ईमानदारी हो तो अपनी ही वास्तविक ज़रूरतों से तुलना करके पूछ सकते हो कि क्या सही में इतना पैसा चाहिए।

देखो, कोई नहीं है दुनिया में जो कहे कि, "मैं ज़रूरत से ज़्यादा कमाता हूँ।" जो जितना कमाता है उसे उतना ही कम लगता है। तुम महीने का बीस हजार कमाओ, तुम्हें कम लगेगा; तुम दो लाख कमाओ, तुम्हें कम लगेगा, तुम दस लाख कमाओ महीने का तुम्हें वो भी कम लगेगा। तुम कहोगे, “अरे! दस लाख में क्या होता है? सात-आठ लाख के तो महीने के घर के बँधे-बँधाए खर्चे हैं। ये कोई विलासिता की बात ही नहीं है। आठ लाख का तो घर का रोटी-पानी का खर्च है।” और इस बात को ताज्जुब की तरह मत लेना। हजारों लाखों घर हैं जहाँ पर महीने का आठ-दस लाख सिर्फ़ रोटी-पानी का खर्च है। और ये बात उनको बड़ी जायज़ और बड़ी सामान्य लगती है, कि इतना तो खर्चा होता ही है न।

छह गाड़ियाँ हैं; हर दूसरे महीने किसी-न-किसी गाड़ी का तो इंश्योरेंस ही कराना पड़ता है और जिस तरह की गाड़ियाँ हैं, गाड़ी का इंश्योरेंस ही डेढ़-दो लाख बैठता है। जहाँ बच्चों को पढ़ने भेज रखा है, तो महीने के दो-चार लाख रुपये तो फीस में ही चले जाते हैं।

जो दस लाख कमाता हो महीने का, जो पचास लाख कमाता हो महीने का, उसके पास जाओगे वो भी यही कहेगा कि “ज़रूरी है इसलिए कमाता हूँ न, कोई अय्याशी थोड़े ही कर रहा हूँ। अरे पेट के लिए; पचास लाख से कम में पेट भरता ही नहीं है। ये तो रोटी-पानी है।”

ये चादर ऐसी है कि हमेशा छोटी पड़ती है क्योंकि हमारे पाँव चादर देखकर फैलते हैं। हमारी ज़रूरतें तय या निर्धारित नहीं होती, हम अपनी ज़रूरतें ही फैला देते हैं पैसा देखकर। और एक बार ज़रूरत फैला दी फिर वो सिमटती नहीं वापस। फिर आप कहते हो, "ये तो जीवन की मूल आवश्यकता है।"

एक बार तुम (हवाई जहाज की) बिजनेस क्लास में चलना शुरू कर दो, प्लेन की साधारण सीट तुम्हें ऐसी लगेगी, जैसे भारत के राजनेता सज्जन हैं, उन्होंने कहा था, कैटल क्लास (पशु वर्ग)। उन्होंने कहा था ये जो इकोनॉमी क्लास होती है, ये इंसान के बैठने लायक ही नहीं होती, ये तो ऐसी होती है कि मवेशी जैसे भर दिए गए हो ठूस-ठूस कर। दो-चार बार तुम भी बिजनेस क्लास का, प्रीमियम का स्वाद चख लो उसके बाद इकोनॉमी में घुसोगे नहीं और कहोगे बिजनेस क्लास तो जीवन की मूलभूत आवश्यकता है; रोटी, कपड़ा, मकान और *बिजनेस क्लास*।

(श्रोतागण हँसते हैं)

तो अपने-आपको इतना भ्रमित करने की और रखने की ज़रूरत नहीं है। जितना कमा रहे हो उससे एक तिहाई भी कमाओगे तो सब जिम्मेदारियाँ तुम्हारी पूरी हो जाएँगी। और जितना कमा रहे हो उससे दस गुना भी कमाओगे, जिम्मेदारियाँ तब भी पूरी नहीं होंगी। खर्च करने की कोई सीमा है क्या? और मैं खर्च का विरोधी नहीं हूँ। करो खर्च, पर खर्चा जब तुम्हारी मुक्ति में बाधा बन जाए, तब आग लगे ऐसे खर्चे को। ज़रा-सी आमदनी आनी शुरू हुई नहीं कि तुम मासिक किश्तें बाँध लेते हो। अब गुलाम की तरह फिरो और ढोओ उन किश्तों को।

बेपरवाही के मिजाज हो तुम्हारे तो बड़ी अच्छी बात है। खूब पैसा है, फूँक दो एक बार में, बढ़िया बात। ये फकीरी का लक्षण है। लेकिन तुम्हारा ऐसा नहीं होता कि पैसा आया और एक बार में फूँक दिया। तुम तो उसको माह दर माह की ज़िम्मेदारी बना लेते हो। तुम कहते हो, "अगले महीने में इतना कमाना ही कमाना है।" हर चीज़ की तो किश्त बँधी हुई है। स्कूल की किश्त बँधी हुई है, घर की किश्त बँधी हुई है, घर के कर्मचारियों की किश्त बँधी हुई है। साल में दो बार बाहर घूम कर आना है, उसकी किश्त बँधी हुई है। हर दूसरे साल गाड़ी बदलनी है, उसकी किश्त बँधी हुई है। और इनको फिर तुम कहते हो जरूरतें, ठीक?

कल को तुम बिजनेस क्लास से आगे जाकर प्राइवेट जेट खरीद लेना और कहना, "ज़रूरत थी। करते क्या? मजबूरी के मारे थे! घोर आवश्यकता थी इसलिए खरीदा। लग्जरी (विलासिता) की तो बात ही नहीं है, इसमें वैभव, विलास, नवाबी, अय्याशी कुछ नहीं है, अरे ज़रूरत थी भाई!"

(श्रोताओं को संबोधित करते हुए) इन बातों को सुन रहे हो तो हौले-हौले मुस्कुरा रहे हो, तुम्हें ताज्जुब लग रहा है कि क्या ऐसा भी हो सकता है कि कोई प्राइवेट जेट को ज़रूरत कहे। तुम जिन चीज़ों को ज़रूरत कहते हो अगर तुम उन्हें ज़रूरत कह सकते हो, तो कोई प्राइवेट जेट को भी ज़रूरत कह सकता है।

मूर्खताओं में जन्म गँवाते रहने का इससे ज़्यादा सुविधापूर्ण बहाना तुम्हें नहीं मिलेगा, "मैं तो अपने लिए कमा ही नहीं रहा हूँ, मैं तो अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहा हूँ।" इसमें कुछ भ्रम होता है और कुछ घोर आंतरिक पाखंड। अब पाखंड का तो मैं क्या कर सकता हूँ, ये तो तुम्हारे निर्णय की बात है कि तुम्हें पाखंड करना है कि नहीं। हाँ, भ्रम मैं बता सकता हूँ कैसे मिटाओगे; लिख लो, पैसा कहाँ-कहाँ से आता है और साफ-साफ लिखो कि एक-एक रुपया कहाँ को जाता है और फिर गौर से देखो, कि जहाँ को जा रहा है वहाँ जाना ज़रूरी है क्या।

याद रखना जो पैसा तुम खर्च कर रहे हो, खर्च करने से पहले कमाते हो और कमाने के लिए अपनी आज़ादी गिरवी रख कर आते हो। वो पैसा तुम्हें मुफ्त नहीं मिल रहा है। बहुत महँगा है वो पैसा। लोग कहते हैं चीज़ें महँगी हैं, उन्हें कुछ समझ में नहीं आता, पैसा महँगा है। थिंग्स आर नॉट एक्सपेंसिव, मनी इज़ एक्सपेंसिव (चीज़ें महँगी नहीं हैं, पैसा महँगा है)। बहुत महँगा पैसा कमा रहे हो और नारा लगा रहे हो कि, "हम तो बड़े जिम्मेदार लोग हैं!"

तुम खटते चलो, जहाँ को जा रहा है तुम्हारा पैसा वो कभी इन्कार क्यों करेंगे भाई! उनको बैठे बिठाये मिल रहा है, वो क्यों मना करेंगे। हाँ, तुम कहते हो कि तुम नौ घंटे की नौकरी के बाद बिलकुल थक जाते हो। तुम थक जाओगे तो वो चंपी कर देंगे तुम्हारी कि, "राजा बहुत थक कर आया है आज, आ जा तेरी चंपी कर देता हूँ।" इतना वो कर देंगे। सुबह-सुबह तुम्हारे लिए नाश्ता तैयार कर देंगे।

साफ-साफ कागज पर लिख कर देख लो, कर क्या रहे हो। होने को एक संभावना ये भी है कि तुम्हारा सवाल ही झूठ हो, कि तुम्हारी कुल आय का बहुत छोटा-सा ही हिस्सा हो, जो दूसरों की सेवा में अर्पित होता हो। ये भी हो सकता हो कि हकीकत ये है, तथ्य ये है कि तुम अपनी ज़्यादातर आमदनी खुद ही पचा जाते हो। अपने ऊपर ही खर्च कर लेते हो। लेकिन नैतिक रूप से सम्माननीय बने रहने के लिए दावा ये कर रहे हो कि, "हम तो कमाते हैं दूसरों के लिए, खर्च करते हैं दूसरों पर।" हिसाब दिखाओ। (व्यंग्य करते हुए) अध्यात्म का मतलब होता है कि गणित भूल जाओ सब, है न?

प्र२: आचार्य जी, यदि मैं कम पैसों वाली नौकरी भी करूँ, जो मुझे संतुष्टि देता है तो मुझे फिर भी आठ से नौ घंटे काम करना पड़ता है। आजकल कोई भी नौकरी करें, फिर भी उसमें पूरा दिन लगाना पड़ता है।

आचार्य: ये तो अच्छी बात है न। अगर तुम अपना समय काम में लगा रही हो, ये तो एक तरह का आशीर्वाद है। तो सवाल नौ या दस घंटे का नहीं है, उन्हें पन्द्रह तक बढ़ जाने दो; सवाल ये है कि जो काम तुम कर रही हो उसकी गुणवत्ता क्या है? अगर तुम्हारा काम आनंदप्रद है, तो उसे पन्द्रह घंटे क्यों नहीं करतीं? ये घंटों की संख्या के बारे में नहीं है, असली सवालिया निशान उन घंटों की गुणवत्ता के आगे है। तुम उन घंटों में वास्तव में करती क्या हो?

अगर तुम्हारे पास कुछ करने लायक है तो उससे कभी भी दूर क्यों होना चाहती हो? क्यों कभी भी तुम वो समय चाहती हो जिसे व्यक्तिगत समय या खाली समय कहते हैं? वास्तव में तुम्हें अधिक-से-अधिक व्यक्तिगत समय की ज़रूरत इसीलिए पड़ती है क्योंकि तुम्हारी नौकरी तुम्हें एकदम निचोड़ लेती है। करने लायक कुछ पा लो फिर घंटे गिनने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

जब तुम लोग अपना किरदार निभा रहे होते हो, मैं चुपके से अपना कुछ काम निपटा लेता हूँ। कभी-कभी तो सत्र के बीचों-बीच जब कैमरा यहाँ तक की वीडियो ले रहा होता है, तब मैं अपना काम निपटा लेता हूँ, क्यों नहीं? प्रार्थना करो कि इस तरह का काम मिल जाए कि तुम्हें कभी रुकने की ज़रूरत ही न पड़े। केवल तभी ज़िंदगी सहनीय होगी। तब न तुम्हें घंटे गिनने की ज़रूरत पड़ेगी न पैसे गिनने की।

प्र१: आचार्य जी, जब मैं संतों को पढ़ता हूँ तो वे भक्ति कर रहे होते हैं, तो उन्होंने अपनी दिनचर्या के लिए कैसे कमाया होगा?

आचार्य: नहीं, भक्ति कैसे कर रहे होते हैं? कर्मेन्द्रियाँ तो हम जानते हैं कौन-कौन सी होती हैं। कौन-कौन सी होती हैं कर्मेन्द्रियाँ? बोलो भाई, तुम तो शास्त्र विशारद हो (एक श्रोता की तरफ इशारा करते हुए) कर्मेंद्रियाँ बताओ?

श्रोता: हाथ, पाँव, मुँह, दिमाग।

आचार्य: हाँ, तो काम तो जो भी होगा इन्हीं कर्मेंद्रियों से होगा। तो तुमने कहा “संत लोग भक्ति कर रहे होते हैं”, तो बताना इन इंद्रियों से भक्ति कैसे की जाती है? हाथ से भक्ति कैसे की जाती है? तुम्हारे अनुसार तो भक्ति कोई कर्म है, अब कर्म तो कर्मेंद्रियों से ही होगा। बताना भक्ति कैसे की जाती? तुम्हें पता कैसे चलता है कि अभी (एक श्रोता को बताते हुए) ये भक्ति कर रहा है?

किस दुनिया में रहते हो! क्या तुम्हारे सिद्धांत हैं, कुछ भी अनुमान चलाते रहते हो। सवाल कर रहे हैं कि संतों को देखते हैं, तो वो तो अक्सर भक्ति करते रहते थे, तो कमाते-खाते कब थे?

इनके अनुसार जीवन के ये दो अलग-अलग हिस्से होते हैं; एक भक्ति वाला हिस्सा जिसमें भक्ति की जाती है, जैसे भी की जाती होगी। अब जो भी किया जाएगा हाथ-पाँव से ही किया जाएगा तो हाथ-पाँव से भी कुछ भक्ति होती होगी। हाथ-पाँव से क्या-क्या किया जा सकता है, अच्छा बताना?

अब पाँव से क्या करोगे? पाँव से तो दौड़ ही लगाओगे। या बहुत तुम चमत्कार करोगे पाँव से तो शीर्षासन मारोगे, पाँव आसमान को दिखाओगे। इन्हीं सब चीज़ों को, किसी को तुम भक्ति समझते होगे कि भक्ति ‘की’ जा रही है। और जीवन के दूसरे हिस्से को तुमने नाम दिया है 'सामान्य जीवन'।

तो अभी उत्सुक हो ये जानने के लिए कि जब भक्ति नहीं कर रहे होते, तो कमाते-खाते कैसे थे? तो तुम्हारे सामने कोई संत जन पड़ जाएँ, भजन इत्यादि कर रहे हों, तो तुम उन्हें जाकर कहोगे, “ये सब तो ठीक है। ये तो अभी तुम भक्ति ‘कर’ रहे हो। अब ये बताओ अंदर वाली बात; रोकड़ा कहाँ से आता है?”

भक्त होने में और भक्ति करने में ज़मीन आसमान का अंतर है। वो भक्त हैं, वो भक्ति करते नहीं। भक्ति उनका कृत्य नहीं है। भक्ति उनका जीवन है। वो जो कुछ भी करेंगे वो भक्ति होगी। उनके किसी विशेष कर्म में भक्ति नहीं है, उनके होने में भक्ति है। वो खाएँगे-पीएँगे, उठेंगे-बैठेंगे, चलेंगे, जगेंगे-सोएँगे सब भक्ति है। वो व्यापार भी करेंगे तो वो भी भक्ति है।

हाँ, तुम बँटवारा करके चलने वाले जीव हो। जैसे अभी तुम कह रहे हो कि अभी तो आचार्य जी के साथ सत्संग ‘कर’ रहे हैं और थोड़ी देर में तुम कुछ और ‘कर’ रहे होओगे। क्योंकि अब सत्संग वाला अध्याय बंद हुआ, अब ज़रा दूसरा शुरू करो, और भी तो चीज़ें होती है करने लायक।

ये विभाजित मानसिकता का संकेत है। ये बताता है कि मन एकनिष्ठ नहीं है। मन किसी एक के प्रति वफ़ादार नहीं है। अभी भक्ति का उसने जामा ओढ़ लिया, थोड़ी देर में वो कोई और किरदार अख्तियार कर लेगा। आत्मा नहीं है। ह्रदय से कुछ नहीं उठ रहा। जो है वो बस बाहर-बाहर से आ रहा है। खंड बना रखे हैं। छोटे-छोटे दायरे बना रखे हैं। जीवन में एक दायरा है भक्ति का, एक ध्यान का, एक प्रेम का, एक परिवार का, एक व्यापार का, एक दफ्तर का; एक यूट्यूब का, एक नशे का।

पर तुम्हारा ये इरादा ही नहीं है कि ये सारे विभाजन समाप्त हो। उल्टे तुम प्रश्न ये कर रहे हो कि, "भक्ति वाला खंड तो अपनी जगह है, वो कमाने-धमाने वाले खंड की कुछ बताइए न, वहाँ क्या चलता है?" क्या चलता है! नानक किसानी करते थे, कबीर जुलाहे थे, रैदास जूता बनाते थे। और वो जो कुछ भी करते थे उसी में भक्ति थी। तुम क्या सोच रहे हो कि कोई गुप्त कार्य चल रहा था नीचे-नीचे से पैसा आ जाता था?

YouTube Link: https://youtu.be/linpOYtidWQ&t=1s

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
सभी लेख देखें