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पैसा कमाना, और सफलता

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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पैसा कमाना, और सफलता

प्रश्नकर्ता: सर, मैं भविष्य में नहीं जीता, वर्तमान में जीता हूँ। लेकिन मैं वर्तमान में देखता हूँ, क्या सफलता, सक्सेस सिर्फ़ पैसे से सम्बंधित है? इज़ सक्सेस रिलेटेड टु ऑनली मनी एंड नथिंग एल्स ? क्योंकि मैं वर्तमान में यही देखता हूँ, जब भी किसी को सक्सेसफुल (सफल) होते हुए देखता हूँ, या समाज में देखता हूँ, इधर–उधर देखता हूँ। मैं इन सब पर बिलीव (विश्वास) नहीं करता स्वयं, लेकिन मैं यही देखता हूँ कि, “अरे, उसके पास लैंबोर्गिनी है, वो सफल है। अरे, उसके पास फ़ेम (ख्याति) है, वो सफल है।“

लिटरली (वस्तुतः), सफलता है क्या असल मायने में?

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया, बैठो। क्या नाम है?

प्र: श्रीश शुक्ला।

आचार्य: बहुत अच्छे, बैठो।

देखिए, पैसा दो ज़रूरतें हमारी पूरी करता है। एक है जो कुछ हद तक वास्तविक है, ठीक है न? जिसका वास्तव में वर्तमान में उपयोग है। और जो दूसरी ज़रूरत है वो बहुत हद तक काल्पनिक है। उदाहरण देता हूँ, मैं पचास-हज़ार रुपए मान लीजिए महीने के कमाता हूँ, ठीक? उसमें से मैं खर्च करता हूँ मात्र बीस-हज़ार रुपए। इतना ही मेरा खर्च है, कुल इतना मेरा खर्च है। मैं बाकी तीस-हज़ार का क्या करता हूँ?

प्र: सेविंग्स (बचत)।

आचार्य: वो सेविंग क्या वर्तमान के लिए है? वो कब के लिए है?

प्र: भविष्य के लिए।

आचार्य: वो मेरी एक कल्पना है, कि मैं उसको कभी भविष्य में खर्च करूँगा। सच पूछा जाए तो मेरे जीवन में उस बाकी तीस-हज़ार की कोई उपयोगिता है नहीं।

एक अमेरिकी बिलियनेयर (लखपति) था। जब वो मरा तो उसके खाते में, बैंक खाते में, अरबों डॉलर्स बचे हुए थे, अरबों डॉलर्स ! उसने कहा कि, "एक–एक क्षण जो मैंने इस एक–एक डॉलर को कमाने में लगाया, जो आज मेरी मृत्यु के समय शेष है, वो एक–एक क्षण व्यर्थ गया। * ठीक ऐसा ही जीवन हम जीते हैं।

कबीर की बात उठी थी। तो कबीर के यहाँ तो कमाने का बस इतना ही प्रयोजन है कि, "मैं भी भूखा ना रहूँ और साधु भी न भूखा जाए।" कबीर के यहाँ पर संचय जैसी कोई चीज़ नहीं है।

बुद्ध की भी बात उठी थी। तो बुद्ध ने नाव का उदाहरण लिया है। वो कहते थे कि जैसे जब नाव में पानी भर जाए तो डूबने लगती है तब उलीचना पड़ता है। तो बुद्ध कहते हैं, “उलीचो, अगर जहाँ देखो कि भरने लगा है तो उलीच दो नहीं तो नाव डूबेगी।“ समझ रहे हो न इसका अर्थ? संचय न होने पाए। संचय न होने पाए क्योंकि संचय सदा भविष्य के लिए होता है, और जीवन कब है?

प्र: वर्तमान में।

आचार्य: वर्तमान में। तुममें से ज़रा दो–चार लोग भविष्य में साँसें लेकर दिखाएँ तो। मैडम, ले सकती हैं भविष्य में साँसें? जीवन कब है? अभी। मुझे कब सुन रहे हो? अभी। लेकिन जो ये सेविंग की मानसिकता होती है, ये तुमको लगातार–लगातार भविष्य में ले जाकर पटक देती है, पर मन उसी में सिक्योरिटी (सुरक्षा) पाता है।

अभी जब मैं ये बोल भी रहा हूँ तो हममें से कइयों के मन में सवाल उठ रहे होंगे, “तो इसका क्या मतलब, अगर आगे बीमार पड़ गए तो कौन काम आएगा? तो क्या कल के लिए कुछ न करें? वी मस्ट सेव फॉर अ रेनी डे (हमें मुश्किल घड़ी के लिए बचत करनी चाहिए)।“ लगातार उठ रहे हैं न? क्योंकि मन सिक्योरिटी माँगता है और सिक्योरिटी काल्पनिक है। मन सिक्योरिटी माँगता है, वो कहता है कि जो अभी है वो आगे भी बचा रहे।

देखो हमारा जो ब्रेन (मस्तिष्क) है न, इसका जो इवोल्यूशन (विकास) हुआ है वो मिलियंस ऑफ इयर्स (लाखों सालों) में हुआ है। इसने एक पूरी यात्रा करी है, एक सिंगल सेल (एक कोशिका) से लेकर। सिंगल सेल भी नहीं, एक मोलेक्यूल से लेकर के फिर प्रोटोप्लाज्म , फिर सेल और फिर आज हम। ब्रेन ने इतनी यात्रा करी है। सारे अनुभव इसमें रिकॉर्डेड (अभिलिखित) हैं और ये बस उन्हीं को दोहराना चाहता है क्योंकि उसमें ये सिक्योरिटी पाता है।

अतीत की हमारी यात्रा से भविष्य के प्रति हमारा आग्रह पैदा होता है। हम कोई नया भविष्य कभी नहीं चाहते, भविष्य के प्रति हमारा जो भी आग्रह है वो अतीत के हमारे अनुभव से निकलता है। ये जो हमारा ब्रेन है, ये जो इवोल्यूशनरी ब्रेन है, ये चाहता है कि जैसा अतीत था वैसा ही भविष्य हो जाए। क्यों, क्योंकि अतीत अच्छा था, अतीत से ही गुज़र कर तो मैं ज़िंदा हूँ न आज तक, अतीत अगर बुरा होता तो आज तक मैं ज़िंदा ही ना रहता।

तो अतीत बड़ा अच्छा है, तो वो अतीत को ही दोहराना चाहता है। तुम देखो न तुम्हारे माँ–बाप तुमसे क्या अपेक्षा करते हैं, ठीक वही जो उनके जीवन से संबधित है। उन्होंने शादी की, वो चाहते हैं तुम भी करो। कहेंगे ये कि तुम्हें एक नया उज्ज्वल भविष्य मिले, पर कोई तुम्हारे लिए नया भविष्य नहीं चाहता। वास्तव में जिस दिन कुछ नया घटने वाला होगा भविष्य में, उस दिन सब तुमसे कहेंगे कि भागो।

भविष्य कहने को हमें नया लगता है, हम कभी चाहते नहीं। ये जो मन है ये बिलकुल भी नहीं चाहता कि भविष्य में कुछ नया घटित हो, ये बस रिसाइक्लिंग चाहता है अतीत की। देखा नहीं है हर कोई क्या कहता है, “ अहाहा, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन।“ नया सावन नहीं चाहिए, बचपन वाला सावन चाहिए। और आप सुनते हो, कहते हो, “ वाह, क्या बात कही है, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन।“

क्यों भाई, नए सावन में कोई दिक्कत है? एसिड रेन हो रही है? तब ज़्यादा बारिश होती थी अब कम हो रही है? नहीं, लेकिन अतीत बड़ा सुहाना लगता है। तुम्हारा बचपन कितना भी कूड़े जैसा गुज़रा हो पर जब जवान हो जाते हो, कहते हो, “बचपन के दिन बड़े अच्छे थे।“ बुड्ढों के पास जाओ, वो कहेंगे, “अरे हमारा ज़माना बहुत अच्छा था, घी की नदियाँ बहती थीं।“

भले ही सच ये हो कि आज हर मामले में मानव बेहतर स्थिति में है लेकिन तुम किसी भी बुज़ुर्ग के पास जाओ, “अरे हमारा ज़माना!“ ये (दिमाग़ की ओर इशारा करते हुए) हमेशा उधर (अतीत में) रहता है और उसी के आधार पर उसको (भविष्य को) प्रक्षेपित करता है। उसको (अतीत) आधार बनाता है और उसको (भविष्य) प्रोजेक्ट करता है, प्रक्षेपित करता है। ठीक है न?

इस पूरे काम में पैसा बड़ी मदद करता है हमारी। भविष्य का मतलब है *सिक्योरिटी*। भविष्य में तुम दो ही काम करते हो, या तो उम्मीदें लगाते हो या चिंताएँ करते हो, ठीक? इन दो के अलावा भविष्य कुछ नहीं है, या तो अपेक्षाएँ या चिंताएँ। इस काम में पैसा बहुत मदद करता है और सिर्फ़ पैसा नहीं, हमने बात संचय की करी है, संग्रह की करी है।

आदमी का जो मन है, जो अहंकार है, वो एक्युमुलेटिव (इकट्ठा करनेवाला) होता है, वो एक्युमुलेट (इकट्ठा) करना चाहता है। तुमने तो सिर्फ़ पैसा पकड़ा बेटा, वो हर चीज़ एक्युमुलेट करना चाहता है। तुमने बहुत लोगों को देखा होगा कि उनका लोगों से कोई प्रयोजन हो न हो वो अपना एक घेरा, सामाजिक वर्तुल, बहुत बड़ा बना के रखते हैं। न्यू इयर (नया साल) आएगा, दीवाली आएगी, वो पाँच–सौ लोगों को मेल भेजेंगे, भले उन पाँच–सौ लोगों के मरने से भी उन्हें रंच मात्र फर्क ना पड़ता हो।

तो ये क्या कर रहे हैं, ये पैसा नहीं जमा कर रहे, ये रिश्ते जमा कर रहे हैं, ये एक नेटवर्क (तंत्र) जमा कर रहे हैं कि ये किसी दिन काम आएगा। अर्थ बिलकुल वही है, जैसे तुम सोचते हो न कि पैसा किसी दिन काम आएगा, तो ये लोग 'लोग' जमा कर रहे हैं कि ये किसी दिन काम आएगा। ऐसों से बच कर रहना, ये तुम्हारा इस्तेमाल करना चाहते हैं बस।

ये जो नेटवर्कर्स होते हैं कि यदा–कदा फ़ोन कर दिया कि, "और भई कैसे हो, सब ठीक?" ”हाँ भाई”, ख़तम। ये और कुछ नहीं है, ये बस यही है कि एक दिन ज़रूरत पड़ेगी तो ये आदमी मेरे काम आएगा। आदमी का मन संचय के अलावा कुछ करना ही नहीं चाहता। वो पैसे का संचय करता है, वो रिश्तों का संचय करता है, और सबसे ज़्यादा खतरनाक बात, वो आइडेंटिटीज़ (पहचानों) का संचय करता है।

आइडेंटिटीज़ क्या होती हैं? कि मैं क्या हूँ, वो इसको भी एक्युमुलेट करता है। तो अगर मैं तीन महीने एक आर्गेनाइज़ेशन (संस्था) में काम करके आया तो मैं कहूँगा - और उस आर्गेनाइज़ेशन का नाम है एबीसी, तो मैं कहूँगा - “मैं उनका एक्स–एम्प्लॉई (पूर्व कर्मचारी) हूँ, मैं एबीसी का एक्स–एम्प्लॉई हूँ।“ ये मैंने क्या किया? ये मैंने अपने लिए एक आइडेंटिटी का संचय कर लिया और मेरी जितनी उम्र बढ़ती जाएगी, मैं उतनी आइडेंटिटीज़ का संचय करता जाऊँगा।

अब ' आइ ' (मैं) कहीं नहीं बचा, सिर्फ़ मेरे अनुभव बचे हैं। मैं क्या हूँ उसका मुझे कुछ होश नहीं, हाँ, मेरे अनुभवों के आधार पर मैंने अपने लिए नई–नई आइडेंटिटीज़ , अपने लिए नए-नए नाम गढ़ लिए हैं। “मैं हिन्दू हूँ”, “मैं मुसलमान हूँ”,” मैं इंजीनियर हूँ”, “मैं पिता हूँ”,” मैं पति हूँ।" जीवन मुझे जो जो रंग दिखाता जा रहा है, मैंने उससे तादात्म्य बैठा लिया, एक एसोसिएशन (संगति) बैठा लिया।

मन सबका संचय करता चलता है और इस पूरे संचय में वो बस एक गोदाम बन जाता है जिसमें जीवन कहीं नहीं है। जैसे गोदाम मुर्दा होता है न, वैसे ही मुर्दा रह जाता है बस जीवन। तुम मिले नहीं हो लोगों से, कि उससे मिलो और बात करने लगो, थोड़ी देर में कहेगा, “जानते हो मैं कौन हूँ?” अरे भाई तू जो भी है मेरे सामने खड़ा है, दो इंसान आपस में बात कर रहे हैं, पर उसको इतने से चैन नहीं है। वो, “पता है मैं कौन हूँ?” उसको बहुत, बहुत गहरी भूख है ये बताने की कि, "मैं फलाने का भाई हूँ या फलाने का बेटा हूँ।"

आइआइटी स्टूडेंट्स के साथ अभी मिला था महीने भर पहले तो वो दीवाली पर घर जाने वाले थे। मैंने उनसे पूछा, एकाध पहन कर वो बैठा हुआ था 'आइआइटी दिल्ली', “क्या बात है एक ने ही पहन रखा है बाकियों ने नहीं?” बोले, “नहीं, हम सबके पास है।“ मैंने कहा, "तुम इसे ये तो मैं जानता हूँ कब पहनोगे। ये तुम पहनोगे जिस दिन तुम कैंपस से निकलते हो घर जाने के लिए। ये ट्रेन में बहुत काम आती है, ये बस में बहुत काम आती है और ये तुम्हारे गली मोहल्लों में बहुत काम आती है, क्योंकि तुम ये दिखा पाते हो तब, 'आइआइटी दिल्ली'। लड़कियाँ प्रभावित होती हैं।"

ये आइडेंटिटी लेकर घूम रहे हैं, जैसे कि तुम्हारा होना काफ़ी नहीं है। अरे अगर तुममें कुछ दम है तो टी-शर्ट उतार दो न, उसके बिना भी तुम कुछ हो? उसके बिना कुछ हो? “नहीं उसके बिना तो हम क्या हैं, हम जो कुछ हैं वो बस इसी से एसोसिएटेड हैं।“ लोग हर चीज़ से अपना, इंस्टीट्यूशंस से, ऑर्गनाइजेशंस से, हर चीज़ से अपना तादात्म्य बना कर बैठे रहते हैं, “हम ये हैं, ये हमारी नई पहचान है।"

और पहचान बनाने के मामले में औरतें तो एक कदम आगे हैं, जब शादी होती है तो नाम ही बदल लेती हैं। वो सविता शर्मा से सविता तिवारी हो गईं। हैं! भई ये कैसे? ये चमत्कार कैसे हुआ बताओ? पर हो जाएगा और कोई पूछेगा भी नहीं कि ये क्या बेवकूफी है, ये कर क्या रहे हो तुम? तादात्म्य की हद हो गई। सात फेरे ले लिए उससे तुम बदल गए? पर ऐसे ही हैं हम।

आज तुमको कोई बोल दे, “अ, आ, हेलो! स्कूलबॉय , इधर आना।" तुम कहोगे, “ ए! स्कूलबॉय ?” अभी छः महीने पहले स्कूल के ही चक्कर लगाते थे तुम पर आज तुमको कोई स्कूलबॉय बोल दे, तुम्हारा अहंकार, “ हम इंजीनियर”। और इंजीनियरिंग के नाम पर कुछ नहीं, एग्जाम (परीक्षा) आज हो जाए तो खतम मामला। लेकिन आज कोई बोल दे स्कूलबॉय तो बड़ा आहत हो जाओगे, ठीक? लगते तो स्कूलबॉय जैसे ही हो।

ये मन का काम है, वो हर चीज़ संगृहीत करना चाहता है। सरल चित्त का अर्थ है, संग्रह नहीं करना, अभी में जीना, अभी में। क्योंकि जीवन एक ही क्षण का नाम है, जो अभी है। जो अभी में नहीं जी सकता, भविष्य की कल्पनाओं में और इन सब में जी रहा है, वो पागल ही है, कुछ उसे मिलेगा नहीं।

जिसके जीवन में असली उतर आता है न, वो जो सब तुमने लिखा था, “सत्, चित, आनंद, मुक्ति और प्रेम”, जिसके जीवन में ये उतर आता है - पहले तीन मिला दो तो सच्चिदानंद हो जाता है - जिसके जीवन में ये उतर आता है उसको फिर बहुत संग्रह-वंग्रह करने की नहीं लगती है। उसके लिए रुपया बिलकुल छोटी चीज़ हो जाता है। रुपया वही इकट्ठा करता है जिसके जीवन में असली चीज़ की कमी हो। जब असली मिल जाता है न, तो फिर ये सब छूट जाता है।

जैसे कि तुम कंकड़-पत्थर हाथ में ले कर घूम रहे हो और हीरा मिल जाए तो क्या तब भी ये सब पकड़े रहोगे? फेंक दोगे न? पैसे में कोई बुराई नहीं है, उस मन में बुराई है जो पैसा इकट्ठा करना चाहता है। पैसा बढ़िया चीज़ है, पैसा नहीं हो तो डकैती डालोगे फिर। अब भूख लगी है पैसा नहीं है तो क्या करोगे? जा कर कहीं से चुराओगे। मैं पैसे की बुराई नहीं कर रहा हूँ, पैसा हो। उतना रखो न जितनी तुम्हारी आवश्यकताएँ हैं, वास्तविक आवश्यकताएँ हैं, जो तुम खर्च कर सकते हो, अभी।

ऐसा क्यों होता है कि अभी तुम कॉलेज में हो, तुम्हारे कितने खर्चे हैं ये बताओ? महीने के कितने खर्चे हैं? ईमानदारी से बताओ।

प्र: पाँच-हज़ार।

आचार्य: पाँच-हज़ार। तुम्हारा वास्तविक खर्चा पाँच-हज़ार है लेकिन अगर तुम्हारी पाँच-हज़ार की नौकरी लग जाएगी तो तुम आसपास कुँआ तलाशोगे, "कहाँ है? कूद जाएँ उसमें!" ठीक? अगर खर्चा पाँच-हज़ार ही है तो पाँच-हज़ार की नौकरी से परहेज क्यों? क्यों, बोलो? ईमानदारी से जवाब दो।

प्र: सर, क्योंकि हमारी आशाएँ ज़्यादा हैं।

आचार्य: ठीक? ठीक बात? यही है न?

प्र: जी सर।

आचार्य: अब ये तुम्हारे जीवन को नर्क करेगी बात, क्योंकि जो तुम्हें ज़्यादा पैसा दे रहा है वो तुम्हारा ज़्यादा समय भी लेगा, खून भी चूसेगा। ज़रूरत तुम्हारी पाँच ही हज़ार की थी, पर मन कहता है पचीस हों।

प्र: इच्छा भी होती है।

आचार्य: संचय, मोर (और), *एक्युमुलेशन*। बात आ रही है समझ में?

YouTube Link: https://youtu.be/Q-qwPG85zc4&t=3s

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