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लेख
पाप माने क्या? क्या मात्र स्त्रियाँ ही पापी हैं? || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत || १, ४० ||

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, श्लोक ४०

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः || १, ४१ ||

हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यंत दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, श्लोक ४१

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये धर्म नष्ट हो जाने की और पाप बढ़ने से स्त्रियों के दूषित हो जाने की बात को वर्तमान समय में कैसे समझा जाए? और सिर्फ स्त्रियों की बात क्यों हो रही है, पुरुष पापी क्यों नहीं हैं? पहली बार श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ रही हूँ और आपके साथ पढ़ने को बहुत इच्छुक हूँ।

आचार्य प्रशांत: न स्त्री पापी है, न पुरुष पापी है; जो ऐसा कुतर्क दे, वो पापी है। अब अर्जुन को तो कोई प्यादा चाहिए चाल चलने के लिए, तो उसने स्त्रियों को प्यादा बना लिया। अर्जुन के मन में स्त्रियों के कल्याण की भावना अचानक थोड़े ही उदित हो गई है, कि आया था रथ पर चढ़कर, कवच पहनकर, गांडीव लेकर, शंख लेकर लड़ाई करने, और तभी याद आ गया, “अरे, स्त्रियों का क्या होगा?” ये सब बहाने हैं, इनको गंभीरता से मत लीजिए।

स्त्रियों का बहाना नहीं बनाता तो कोई और बहाना बना देता। पुरुषों का बहाना भी बना सकता था, पशुओं का भी बना सकता था, थोड़ी और बुद्धि चलाता तो बच्चों का बहाना बना देता, कहता, “ये सब जो लड़ रहे हैं इनके नन्हें-नन्हें बच्चे हैं। ये मर गए तो उन बच्चों का क्या होगा?” और आगे जा सकता था, कहता, “ये मर गए तो इन्होंने घर में जो पशु पाल रखे हैं, किसी के गैया है, किसी के टॉमी है, उनको रोटी कौन डालेगा?”

कुतर्क की कोई सीमा नहीं होती। तो इन सब बातों को बहुत महत्व मत दीजिए।

प्र: यहाँ अर्जुन ने पाप का उल्लेख किया है। गुरु जी, पाप का अर्थ क्या होता है? हमारे लिए पाप क्या है?

आचार्य: जो शांति दे सो पुण्य, जो अशांति बड़ा दे सो पाप। पाप और पुण्य आपकी स्थिति पर हैं।

किसी भी स्थिति में जो विचार, जो कृत्य आपको शांति और मुक्ति की ओर ले जाए, वो पुण्य है। जो आपको और फँसा दे, वो पाप है।

पर जब आदमी मोहग्रस्त हो जाता है, धर्मविरुद्ध चलना चाहता है, तब उसका मन पचास तरह के कुतर्क देता है। वैसा ही एक अद्भुत कुतर्क यहाँ पर अर्जुन ने दिया है, वो कह रहा है कि - देखिए, लड़ाई हुई तो कुल का नाश हो जाएगा। मरेंगे कौन? ये जितने क्षत्रिय हैं, सब मर जाएँगे। जब ये सब क्षत्रिय मर जाएँगे तो इनकी स्त्रियाँ क्या करेंगी? वो जाकर दूसरी जाति वालों के साथ समागम कर लेंगी, और एक जात और दूसरी जात के मिलन से जो बच्चा पैदा होगा, वो कहलाता है वर्णसंकर, तो वर्णसंकर पैदा होगा।

वो डरा रहा है कृष्ण को कि "आप मुझे लड़ने को बोल रहे हैं? अगर लड़ लिया तो क्षत्रिय सब मर जाएँगे और क्षत्रियों की स्त्रियाँ दूषित हो जाएँगी।" यही शब्द इस्तेमाल कर रहा है अर्जुन, कि सब स्त्रियाँ फ़िर दूषित हो जाएँगी क्योंकि वो सब स्त्रियाँ फ़िर इधर-उधर भागेंगी। अद्भुत बात निकाली अर्जुन ने।

और आगे जाता है, बोलता है कि इतना ही नहीं होगा कि वर्णसंकर पैदा होंगे। वर्णसंकर जब श्राद्ध आदि करता है तो उससे पितरों की आत्मा को शांति नहीं मिलती। तो यही नहीं होगा कि आज जितने हैं, वो ख़राब हो गए, वो जो ऊपर बैठे हैं, वो भी ख़राब हो जाएँगे। तो अर्जुन कह रहा है, “कृष्ण! देखिए, लड़ाई तो बिलकुल ही ठीक नहीं है। इस लोक में जितने हैं, वो मारे जाएँगे और जो मरकर ऊपर बैठे हैं, वो प्रेत-पिशाच बन जाएँगे।”

ऐसे ही तर्क हम दिया करते हैं। जब हम डरे होते हैं, जब मोहग्रस्त होते हैं, जब मन पर माया, ममता, ईर्ष्या, ये सब छाए होते हैं, तो एक से बढ़कर एक तर्क निकलते हैं, बड़ी दूर की सोचते हैं। अभी अर्जुन का तर्क देखो तो ऐसा लग रहा है कि ये तो विश्व कल्याण का वाहक है। इससे बड़ा संत कोई होगा? ये सबको बचाना चाहता है। ज़िन्दों की ही नहीं, मरे हुओं की भी फ़िक्र कर रहा है। बुद्ध में भी इतनी करुणा कहाँ होगी जितनी अर्जुन में है।

ये करुणा नहीं, कुतर्क है। इरादा बस एक है। क्या? लड़ना न पड़े। उसके लिए अब उसे क्षत्रिय समाज की बड़ी सुध आ गई है, कि "अगर हम मर गए तो इन औरतों का क्या होगा? इधर-उधर जाएँगी, ग़लत तरह के बच्चे पैदा करेंगी।" (अपने गाल पर हाथ रखते हुए) कृष्ण ऐसे ही देख रहे होंगे अर्जुन को।

बल का एक ही तर्क होता है - धर्म। और दुर्बलता के पास हज़ारों तर्क होते हैं। बल के पास बहुत तर्क होते ही नहीं, उसको एक ही तर्क पता है - जो धर्मोचित है, वो होना चाहिए। दुर्बलता, वो अपने आप को बचाने और छुपाने के लिए हज़ारों तर्क गढ़ लेती है।

सही काम आप करने निकलेंगे तो आप पाएँगे कि आपके पास बहुत सारे कारण नहीं हैं। बल्कि कोई पूछेगा कि किस कारण से ये काम कर रहे हो, तो हो सकता है आप कोई आश्वस्ति देने वाला कारण बता भी न पाएँ, आप अधिक-से-अधिक इतना कह पाएँगे कि "ह्रदय जानता है। हमने सोचा नहीं कि ये काम क्यों करना चाहिए, पर आत्मा जानती होगी। हमने तो विचार किया नहीं।"

मैंने कहा सही काम करने के पक्ष में, बल के पक्ष में, एक ही तर्क होता है - धर्म। वास्तव में एक भी तर्क नहीं होता। ग़लत, धर्मविरुद्ध, दुर्बलता प्रेरित काम को ढँकने के लिए बहुत सारे तर्क बुनने पड़ते हैं। वहाँ आपके पास छुपाने को कुछ है, इसीलिए आप तर्कों की फ़िर एक पूरी चादर बुनते हैं ताकि अपनी असली मंशा, असली नीयत छुपाई जा सके।

प्र२: जैसे अर्जुन यहाँ पर बहाने दे रहे हैं, मैं भी अपने जीवन में ख़ुद को बहाने बहुत देती हूँ, लेकिन कई दिनों बाद पता चलता है। उसी क्षण ख़ुद को कैसे पकड़ा जाए?

आचार्य: वो जो है जो बहाने दे रहा है, उसके अलावा भी कोई और चाहिए। वो तुम्हें अपनी काया के भीतर से मिल सकता हो तो बड़ी अच्छी बात। अपनी काया के भीतर न मिलता हो तो कहीं बाहर खोजना पड़ेगा। देखो, दो हैं – अर्जुन और कृष्ण। अर्जुन जो बहाने बता रहा है, उनको स्वयं अर्जुन तो नहीं पकड़ पाता न? अर्जुन ही अर्जुन को अवैध नहीं घोषित कर सकता है, या कर सकता है? अर्जुन की चोरी ख़ुद अर्जुन तो नहीं पकड़ सकता न? तो दो चाहिए - एक अर्जुन, एक कृष्ण।

मैं कह रहा हूँ, कृष्ण तुम्हें अपने ही भीतर मिल जाएँ, अच्छी बात। अपने भीतर न मिलें तो बाहर खोजने पड़ेंगे, बात बहुत सीधी है। अगर कृष्ण मात्र होते, तो भी गीता नहीं होती और अर्जुन मात्र होता, तब तो गीता का कोई सवाल ही नहीं। जब ये दो होते हैं, तब गीता होती है। तब होता है कोई समझाने वाला और कोई सुनने वाला। तो कोई दूसरा तो चाहिए। मैं झूठी सांत्वना नहीं देना चाहता कि काम ख़ुद ही बन जाएगा, अपने दम पर हो जाएगा; कोई दूसरा चाहिए।

प्र२: दूसरा अगर कुछ भी बताएगा तो वो सीमित ही होगा, तो यहाँ पर दूसरे से आशय क्या है?

आचार्य: वो कुरुक्षेत्र का मैदान है, वहाँ अर्जुन के अलावा दूसरे कितने खड़े हैं? मान लो, एक छोटी संख्या ही ले लेते हैं, दस-हज़ार। जन श्रुति तो कहती है कि लाखों में थे, पर हम मान लेते हैं कि दस-हज़ार ही थे। तो अर्जुन के अलावा दस-हज़ार दूसरे हैं। मैं उन दस-हज़ार दूसरों की सुनने को नहीं कह रहा हूँ; मैं कृष्ण की सुनने को कह रहा हूँ।

जब मैं कह रहा हूँ कि कोई दूसरा चाहिए, तो मैं यह थोड़े ही कह रहा हूँ कि अर्जुन जा करके भीम से पूछने लग जाए कि “भीम भैया, धर्म बताओ न।” कृष्ण चाहिए। दूसरों का अर्थ होता है ये पूरी दुनिया, इसके प्रभाव में आ गए तो बहकोगे।

और जब हम कहते हैं पूरी दुनिया तब हम पूरी दुनिया के पास भी थोड़े ही जाते हैं। पूरी दुनिया में भी हम किनके पास जाते हैं? जो हमारे ही जैसे होते हैं, उनके पास चले जाते हैं। तभी तो मैंने कहा, अर्जुन जाएगा अगर तो भीम के पास चला जाएगा, युधिष्ठिर के पास चला जाएगा सलाह लेने, इनके पास सलाह लेने जाएगा तो और बहकेगा, और भ्रमित हो जाएगा।

तो जब मैं कह रहा हूँ कि कोई दूसरा चाहिए, तो मेरा आशय इन सब साधारण दूसरों से नहीं है, दसों हज़ारों से नहीं है मेरा आशय। इस कथन में, इस सन्दर्भ में आशय है कृष्ण से। वो दूसरा सिर्फ़ कोई कृष्ण ही हो सकता है। दूसरा माने यह नहीं कि घर के बाहर निकले और जाकर पनवाड़ी से मशवरा कर आए, "आचार्य जी ने बोला था कि ख़ुद से नहीं होता, कोई दूसरा हो तब होता है।"

प्र३: क्या ऐसा हो सकता है कि दो लोग एक दूसरे के लिए कृष्ण और अर्जुन हों?

आचार्य: (व्यंग करते हुए) हाँ, बिलकुल हो सकता है।

(सभी हँसते हैं)

प्र३: पहचानें कैसे किसी कृष्ण को?

आचार्य: ऐसे तो नहीं पहचान पाएँगी। “ऐ सुनती हो, हम तुम्हारे कृष्ण हुए, तुम हमारी राधा। तुम हमारी पीठ खुजला दो, हम तुम्हारी खुजला देते हैं।” इरादे तो कुछ ऐसे ही लग रहे हैं कि अपने किसी खासम-खास को पकड़ लिया और एक-दूसरे के कृष्ण बन गए। यारियों में ऐसा खूब होता है। ऐसे नहीं होगा।

दम होना चाहिए किसी ऐसे से सम्बन्ध बनाने का जो बिलकुल आपके जैसा न हो।

हमारे सारे सम्बन्ध बनते ही उन्हीं से हैं जो हमारे ही जैसे होते हैं और जो हमारे जैसा न हो, उसके प्रति एक नापसंद उठती है और भय उठता है उससे। कृष्ण माने वो जो कहीं और का है। उससे सम्बन्ध बनाने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए। वो बात ही कुछ ऐसी करेगा जो बिलकुल नई, अजीब और खतरनाक लगेगी; दिलासा नहीं देगा, अच्छा नहीं लगेगा।

और मैं नहीं कह रहा हूँ कि ये जो दूसरा है, ये जो कृष्ण हैं, ये कोई व्यक्ति ही होना चाहिए। और अगर व्यक्ति है भी, तो कोई आवश्यक नहीं है कि वो लगातार एक ही व्यक्ति होना चाहिए। ये सब बातें बहुत महत्व की नहीं हैं। महत्व की ये बात है कि कोई दूसरा—दूसरा माने भिन्न, अलग, जो बिलकुल ही अलग हो आपसे—है या नहीं? दूसरा होना चाहिए। जहाँ मिले, जैसे मिले, जिस कीमत मिले, उसको स्वीकार करें, उसको ले आएँ।

प्र४: अर्जुन की भक्ति और सौभाग्य कि उसे श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, जिससे कि वे कर्म और कर्त्तव्य के मार्ग पर चल सके। पर साधारण मन और जीवन के लिए यह इतना सरल नहीं लगता। अपनों के विरुद्ध जाकर विजय उत्सव मनाना कैसे सहज है? कृपया स्पष्ट करें।

आचार्य: वो तो इस पर निर्भर करता है कि अपनों की आपकी परिभाषा क्या है। और अपनों की आपकी परिभाषा क्या है, वो इस पर निर्भर करता है कि स्वयं की आपकी परिभाषा क्या है।

स्वयं को अगर आप देह मानेंगी तो आप अर्जुन को भी देह मानेंगी; क्योंकि आपके अनुसार फ़िर इंसान देह ही होता है। और अर्जुन अगर देह है, तो उसके अपने हुए वो सब जिनसे उसका देह का रिश्ता है – कुल-कुटुंब वाले, भाई, चचा, ताऊ, पितामह। तो उनको आपने तत्काल कह दिया कि "अरे, वो तो अर्जुन के अपने हैं।" कैसे हैं वो अर्जुन के अपने? समझाइए तो।

थोड़ा विचार करिए, कैसे आपने कह दिया कि कोई आपका अपना है? 'अपना' कैसे? किस दृष्टि से अपना? और किनको अपना कह रहे हो, उन्हीं को न जिनसे रक्त, माँस और गर्भ का सम्बन्ध है? जिनकी रगों में तुमसे जुड़ा हुआ खून दौड़ रहा है, उनको तुरंत कह देते हो कि ये मेरे अपने हैं, या जो सहोदर हैं तुम्हारे, उनको कह देते हो कि ये मेरे अपने हैं। सब बात शरीर की ही है न? खून, माँस, उदर।

तो देख रहे हो कि अपनेपन के पीछे क्या बैठा हुआ है? सघन देहभाव। जो ही मेरे शरीर से सम्बंधित है, मैं उसको बोल दूँगा अपना। यानी तुम सबसे पहले अपना किसे बोल रहे हो? अपने शरीर को।

आप कह रही हैं कि अपनों के विरूद्ध चला गया अर्जुन कृष्ण की बात सुनकर। अपनों के विरुद्ध नहीं गया, वो अपने के साथ रहा। अर्जुन अगर देह नहीं है, अर्जुन अगर बोध और शांति के लिए छटपटाती चेतना है, तो अर्जुन का अपना तो बस एक है – कृष्ण। तो अर्जुन अपनों के खिलाफ़ गया या अपनों के साथ गया? युद्ध करके, मैं पूछ रहा हूँ, अर्जुन अपनों के खिलाफ़ गया या जो एक मात्र उसका अपना था, उसके साथ गया?

देह बनकर देखेंगी तो यही लगेगा कि अर्जुन अपनों के खिलाफ़ गया, और चेतना बनकर देखेंगी तो समझ में आएगा कि अर्जुन का अपना तो कोई था ही नहीं, अर्जुन का अपना तो कृष्ण भर थे। जो अपना था उसी के साथ अर्जुन चला गया। ठीक ही किया, स्वाभाविक बात है।

इतनी जल्दी आग्रह मत पकड़ लिया करिए इन गंभीर मसलों पर। बहुत विचार करके, बड़े ध्यान के साथ कहा करिए कि कौन अपना है, कौन पराया। जिसने आपको अपना कह दिया, आप उसी के जैसे हो जाएँगे। और जिस नाते आपने किसी को अपना कह दिया, वो नाता ही आपके जीवन का केंद्र बन जाएगा।

जिसको आपने देह के नाते अपना कह दिया, उसकी उपस्थिति आपको देहाभिमानी ही बनाकर रखेगी।

समझिए बात को, जो आपके साथ मौजूद है क्योंकि उससे आपका शरीर का रिश्ता है, उसकी संगति में, उसके संपर्क में आप लगातार देह ही बने रहेंगे। देह बने रहेंगे क्योंकि देह नहीं बने तो रिश्ता टूट जाएगा, भाई। आप किसी के साथ चल रहे हैं जिससे आपका रिश्ता देह का है, तो वो रिश्ता आपके लिए अनिवार्य करके रखेगा कि आप देहभाव में ही जिएँ, क्योंकि जहाँ आपका देहभाव घटा, तहाँ वो रिश्ता टूटा।

इतनी आसानी से रिश्तों पर ठप्पे मत लगाया करिए, इतनी आसानी से तय मत कर लिया करिए कि कौन सा रिश्ता अपना है और कौन सा रिश्ता पराया है।

गीता पर बहुत बात करी है मैंने, और हैरान रहा हूँ कि बार-बार, बार-बार यही मुद्दा उठता है कि राजपाट के लिए अपनों के खिलाफ़ जाना कैसे ठीक है? और किसी को ध्यान ही नहीं आता कि ये ‘अपने’ शब्द का अर्थ क्या है। अपना कौन? अपना कैसे?

अध्यात्म के मूल में ही है स्वयं को जानना, 'मैं' कौन? अभी ये तो पता नहीं है कि 'मैं' कौन, तो ये कैसे पता कि मेरा कौन? आप कौन हैं ये पता नहीं, अपना कौन है ये पहले पता है। शाबाश! ये तो बड़ा तीर चलाया।

ऋषिकेश में था मैं तो एक यूरोपियन देवी जी मिलीं। मैंने पूछा, "यहाँ कैसे?" बोलीं कि, "यहाँ मैं ’हू ऍम आई?’ (मैं कौन हूँ?) साधना करने आई हूँ। ‘कोहम् ’ पता करना है, मैं हूँ कौन?" मैंने कहा, “और ये आपके साथ कौन?” बोलीं, “ये मेरे बॉयफ्रेंड हैं।” देवी जी समझ भी नहीं पा रही थी कि उन्होंने कितनी विरोधाभासी बात कर दी है, कितनी सेल्फ कॉन्ट्राडिक्टरी बात कर दी है।

अगर तुम्हें नहीं पता है कि तुम कौन हो, तो तुम्हें ये कैसे पता है कि ये जो तुम्हारे साथ है, वो तुम्हारा अपना है? पर नहीं, "मुझे यह तो नहीं पता कि मैं कौन हूँ—वो आप (आचार्य जी) बताएँगे—पर मुझे यह पता है कि ये मेरे पति हैं और ये मेरा बच्चा है।" अगर तुम्हें पता है कि ये तुम्हारे पति हैं और ये तुम्हारा बच्चा है, तो फ़िर तुम्हें ये भी पता होगा कि तुम कौन हो। नहीं, वो तो हमें नहीं पता, वो आप बता दीजिए। अगर अपना नहीं पता तो अपनों का कैसे पता, भाई? पर अपनों का हमें खूब पता होता है, फ़िल्में खूब देखी हैं न।

अब हिंसा का आरोप तो लग ही गया है तो दिल दुखाने वाली एक-दो बातें बोल ही देता हूँ - कोई नहीं है अपना। तुम लाख गा लो कि प्रियतमा अपनी है, या प्रियवर अपने हैं, या लाडला अपना है या दोस्त-यार अपने हैं। कोई नहीं है अपना। जब तक ये अपना-पराया खेल रहे हो, तब तक अपने तक नहीं पहुँच सकते, आत्मा तक नहीं पहुँच सकते।

आत्मा तो असंग होती है, उसका कोई संगी-साथी होता ही नहीं, उसका कोई कुटुंब, कोई रिश्तेदार नहीं होता। और चलो आत्मा तो दूर की कौड़ी है। अभी भी जो तुम हो—एक छटपटाती रूह, एक अतृप्त चेतना—उसका अपना तो वही होगा न जो उसकी छपटाहट शांत करे और तृप्ति दे? जिनको अपना बोल रहे हो, वो तुम्हारी छपटाहट शांत कर पाते हैं? तुम्हें तृप्ति दे पाते हैं वास्तव में? नहीं, तो फ़िर वो अपने कैसे हो गए?

सिर्फ इसलिए कि डीएनए, डीएनए एक है। ये हमारे अपनेपन की परिभाषा है - हमारा तुम्हारा डीएनए सेम टू सेम * । और वो भी कई बार * सेम टू सेम होता नहीं है, ऐसा घोर अपनापन है हमारा। जैसे छोटे बच्चे, “अरे वाह! तेरी पेंसिल भी कैमल की है, मेरी भी कैमल की है; हम दोनों भाई-भाई।” वैसे ही डीएनए लेकर घूम रहे हो, जिससे डीएनए मिल गया, “तू मेरा भाई।”

दो ही तरह के अपने होते हैं हमारे - एक, जिनसे डीएनए मिल रहा होता, दूसरा, जिनसे मिलाना होता है। चेतना वगैरह की बात ही बहुत दूर की है। मैं कहता हूँ कि हम अतृप्त चेतना हैं, तुम बोलते हो "न, हम अतृप्त डीएनए हैं!" कोई रिश्ता बताओ न जिसमें डीएनए न शामिल हो! प्रेम भी करते हो किसी से तो मानते ही नहीं जब तक डीएनए, डीएनए मिल न जाएँ। और डीएनए, डीएनए नहीं मिल पाएँ तो बोलते हो, “अरे, मेरा इश्क़ तो नाकामयाब रहा, कामिल नहीं हो पाया।”

देश का कानून भी विवाह को मान्यता तभी देता है जब शारीरिक संसर्ग हो जाए। उसको बोलते हैं कॉन्ज्यूमेशन ऑफ़ मैरिज * । देह से देह नहीं मिली तो फ़िर कानून भी कहता है कि ये विवाह ठीक नहीं है। * डीएनए का खेल चल रहा है।

तुम किसको अपना बोलते हो, यह तय कर देगा कि तुम कौन हो, तो खबरदार रहना।

प्र४: आप जो दिखाना चाह रहे हैं, वो मेरे अनुभव में ही नहीं। मन और शरीर से हटकर जो मैं हूँ, मैं तो उसके प्रति संदेह में हूँ।

आचार्य: अभी जैसे जी रहे हो, वो सब तो अनुभव में है न? तो उससे चिढ़ नहीं उठ रही?

प्र४: चिढ़ उठ रही है लेकिन वो मेरी परेशानी को कुछ सीमित समय के लिए ख़त्म भी कर दे रही है।

आचार्य: तो ठीक है, बढ़िया है।

प्र४: लेकिन वो सीमित है बस।

आचार्य: तो सीमित होने से चिढ़ नहीं उठ रही?

प्र४: होती है, बाद में जब परेशानी जब फ़िर आती है तो चिढ़ उठती है।

आचार्य: वही चिढ़ जब ज़ोर से उठेगी तो कृष्ण की तरफ़ भागोगे। जब तक चिढ़, वो वेदना, वो ख़लिश ऐसे ही है हल्की-हल्की, मद्धम-मद्धम, तब तक यूँ ही थोड़ा-बहुत सत्संग वगैरह कर लिया, खुजली मिट गई।

जब अपनी हस्ती से चिढ़ होने लग जाती है, तब आदमी कहता है कि कोई कृष्ण चाहिए।

कृष्ण का अनुभव नहीं चाहिए। आप कह रहे हैं कि “आचार्य जी, आप जो बातें बता रहे हैं, वो मेरे अनुभव की ही नहीं हैं।” मैं कह रहा हूँ, “कृष्ण का अनुभव चाहिए ही नहीं। तुमको जो रोज़मर्रा के अनुभव हो रहे हैं, वही काफ़ी नहीं हैं क्या?”

अगर ज़रा सी तुममें अपने प्रति संवेदना हो तो तुम्हें दिखाई देगा कि तुम्हारे रोज़मर्रा के अनुभवों में तुम्हारे लिए कितनी यातना है। रो नहीं पड़ते हो कि ये "किन अनुभवों में जी रहा हूँ"? और अगर अभी नहीं रो पड़ते हो तो मैं कह रहा हूँ कोई बात नहीं। दुनिया के मज़े लो, मेला-ठेला घूमों। अध्यात्म कोई ज़बरदस्ती थोड़े ही है। जिनको समस्या ही नहीं उठ रही, उनको बाँध-बाँधकर ले आओ अस्पताल, तो अस्पताल में दंगा कराओगे बस।

अध्यात्म उनके लिए है जिनमें अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति एक वितृष्णा उठी है। उस वितृष्णा के बिना काम नहीं चलेगा।

कोई शौक़ नहीं है अध्यात्म, कि कई काम कर लिए, अब अध्यात्म भी करके देखेंगे। "आज कल हमने दो नए काम शुरू किए हैं।" क्या? "एक वायलिन सीख रहे हैं, दूसरा अध्यात्म।" अध्यात्म कोई हॉबी (शौक़) है?

जिनके पास कोई रास्ता नहीं बचता, सिर्फ़ उनके लिए है अध्यात्म।

अध्यात्म ऐसा थोड़े ही है कि व्यक्तित्व बनाने, चमकाने की कोई चीज़ है। आजकल तो अध्यात्म को जोड़ देते हैं योग इत्यादि से भी, कि सुबह-सुबह पहुँच गए आसन लगाने और कह रहे हैं कि अब आध्यात्मिक हो गए। इन बातों से अध्यात्म का क्या लेना-देना?

अध्यात्म उनके लिए है जो अपने आप को अर्जुन जैसी स्थिति में पाएँ। पढ़ा न कि अर्जुन कैसे अपनी स्थिति का विवरण दे रहा है? मुँह सूख रहा है, हाथ-पाँव काँप रहे हैं, खड़े होने की भी ताक़त बची नहीं है। जो निरंतर ऐसी स्थिति में जी रहे हों, अब वो सुनेंगे कृष्ण की, नहीं तो कौन सुनता है कृष्ण की? अर्जुन पर ये आपदा ना पड़ी होती, ये धर्मसंकट ना पड़ा होता, तो वो कभी गीता को स्वीकार ना करता।

जब हालत बिलकुल ख़राब हो जाए, जब भागने का कोई तरीका ना बचे, सिर्फ़ तब सुनोगे तुम कृष्ण की। उसके पहले तो तुम्हारे जीवन में जो कृष्ण हैं, वो तुम्हारा शौक़ मात्र हैं, तुम्हारे घरेलू मंदिर की कोई मूर्ति मात्र हैं, जन्माष्टमी की खीर मिठाई मात्र हैं; वो अर्जुन के प्राण नहीं हो सकते फ़िर।

कृष्ण तुम्हारे प्राण तभी बनेंगे जब तुम अपने आप को पाओगे घोर विपदा में। और घोर विपदा में हम सभी हैं। बस कोई-कोई होता है जिसको ये अहसास हो जाता है, जिसमें ये ईमानदारी होती है कि माने कि उसकी ज़िन्दगी बड़े संकट में है, बाकी तो यही कहते रहते हैं, “ ऑल इज़ वेल , बढ़िया चल रहा है।”

कोई संत चाहिए फ़िर जो कहे, "आन पड़ा चोरन के नगर, दरसन बिना जिय तरसे रे।" हम कहाँ कहते हैं कि आन पड़ा चोरन के नगर? हम तो कहते हैं, “बढ़िया है सब। घर तरक्की कर रहा है, नई गाड़ी आने वाली है, लड़के को ऑस्ट्रेलिया भेज रहे हैं। हमारे लिए तो सब अच्छा-ही-अच्छा है।” जिनको दिखाई देने लग जाए कि अच्छा-अच्छा नहीं है, कृष्ण उनके लिए हैं।

तुम्हारा सब अच्छा-अच्छा चल रहा है तो चलाओ, अभी क्यों ज़बरदस्ती मुसीबत आमंत्रित कर रहे हो? खेल-खिलौना नहीं है अध्यात्म। जब अपनी ज़िन्दगी से बिलकुल ऊब जाओ तो आत्मदाह की आग है अध्यात्म—“अब ख़त्म होना है। जैसा जीवन चल रहा है, ये जीवन ख़त्म होना चाहिए”—तब अध्यात्म है, शग़ल नहीं है।

" दीज़ डेज़ आई ऍम ट्राइंग स्पिरिचुएलिटी, मैडिटेशन (इन दिनों मैं ध्यान व अध्यात्म आज़मा रहा हूँ)।" कृष्ण अर्जुन को मैडिटेशन करने को थोड़े ही बोल रहे हैं। वो बोल रहे हैं, “खड़ा हो जा, तीर चला।” वो वहाँ बैठ जाए महामुद्रा मारकर तो सबसे पहले कृष्ण ही उसको मार दें। नहीं, लेकिन अहिंसावादियों को बड़ा अच्छा लगेगा, और मेडिटेशनवादियों को भी बड़ा अच्छा लगेगा।

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