मेले, उत्सव, पार्टियाँ - इनमें एक खास चीज़ देखी कि नहीं? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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मेले, उत्सव, पार्टियाँ - इनमें एक खास चीज़ देखी कि नहीं? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। मुझे ये समझ में कई बार नहीं आता कि जब मैं किसी माहौल में होती हूँ तो जैसे बार-बार ये बात होती है कि माया को हमें सत्य नहीं समझना चाहिए। लेकिन जैसे मैं आज दशहरा मेले में अपने बच्चों को लेकर गयी तो मैं वहाँ पर पल-पल अपनेआप को देख रही थी कि मैं किस चीज़ से आकर्षित हो रही हूँ, क्या चीज़ें मुझे दिख रही हैं। लेकिन कभी भी ये प्रतीत नहीं हो पाता कि ये सब झूठ है। अगर जैसे देह में दर्द हो रहा है, तो उस वक्त तो सत्य वही बन जाती है कि वो दर्द ही सत्य बन जाता है।

तो ये बार-बार बार कहना कि माया झूठ है, और क्षण-भंगुर है, हमारी स्थिति जो भी हो सब झूठ है, ये सुनने में जितना आसान लगता है; प्रतिदिन के व्यवहार में बिलकुल भी नहीं लगता क्योंकि जिस माहौल में हम होते हैं इन्द्रियाँ उसी माहौल में बहुत आसानी से बह जाती हैं। और बहने के हिसाब से ही वो उसी चीज़ को पूरा सत्य मान लेती हैं। फिर लगता है कि हाँ, माया तो झूठ है लेकिन उस पल में नहीं लग पा रहा है ये कि वो झूठ है। तो मुझे ये समझ ही नहीं आ पा रहा है शायद आज तक भी कि माया को झूठ कहना, ये झूठ वास्तव में होता है क्या है?

आचार्य प्रशांत: मेले में आपने कुछ खिलाया भी होगा बच्चों को? मेले में बिक रहा था तो दिखने में अच्छा लग रहा होगा वो?

प्र: हाँ जी, हाँ जी।

आचार्य: उसका बच्चों की सेहत पर असर क्या पड़ेगा?

प्र: कुछ ख़ास नहीं। मतलब ख़राब।

आचार्य: सेहत पर ख़राब असर पड़ेगा। दिखने में कैसा लग रहा था?

प्र: अच्छा, आकर्षक।

आचार्य: तो आपको क्या समझ में नहीं आ रहा? झूठ और किसको बोलते हैं? दिखने में अच्छा लग रहा था, बच्चों को खिला दिया। ख़ुद ही बोल रही हैं बच्चों की उससे सेहत ख़राब होगी। झूठ और किसको बोलते हैं? है बुरा, दिख रहा है अच्छा।

मेले की दुकानें हैं तो वो कोई वहाँ बहुत बड़े-बड़े ब्रांड तो लगे नहीं होंगे जहाँ तक मैं समझता हूँ। वहाँ तो साधारण हमारे। तो आस-पास देखा होगा कि लोग खूब मोलभाव कर रहे होंगे। तो वहाँ पर कोई चीज़ रखी होगी उसपर लिखा होगा — छ:-सौ रुपए की। उसपर बड़ा-बड़ा क्या लिखा हुआ था? क्या लिखा हुआ था…?

प्र: छ:-सौ।

आचार्य: बिकी कितने में? बिकी कितने में?

प्र: छ:-सौ में या उससे कम।

आचार्य: मेले में आम तौर पर छ:-सौ लिखा हो तो वो चार-सौ में, तीन सौ में ही बिकेगी। तो झूठ और किसको बोलते हैं? वो छ: सौ क्या था? तो यही जगत है, जहाँ जो कुछ भी किसी का मूल्य दिखता है, वो मूल्य उसका होता नहीं है। कोई अच्छा दिखता है, प्रभाव में वो बुरा होगा। कोई महँगा दिखता है, असल में वो सस्ता होगा। क्या आपको वहाँ पर नहीं दिख रहा है?

ठीक है। मेले में गयीं थीं तो वहाँ पर लोग ऐसे ही और टी-शर्ट, शॉर्ट्स डालकर तो नहीं आ गये होंगे; दशहरे की बात है, भाई। तो वो वहाँ पर आये हुए हैं, घूम रहे हैं अच्छे-अच्छे कपड़े उन्होंने पहन रखे हैं। हैं न? तो दशहरे के उपलक्ष्य में आये हैं। आनन्द मना रहे हैं। दशहरा है, त्यौहार है, धार्मिक त्यौहार है। ठीक है।

उनमें से कितनों को दशहरे का या धर्म का अर्थ पता है? तो वहाँ क्या कर रहे हैं फिर वो? न दशहरा जानते, न धर्म जानते तो दशहरे के मेले में क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो? तो झूठ और किसको बोलते हैं? झूठ और किसको बोलते हैं? ठीक है।

त्यौहार का मतलब होता है आनन्द। क्योंकि उत्सव कभी भी दुख का तो मनाया नहीं जाता; या मनाते हैं? कि साहब आज ग़मगीन हैं तो दावत दी है। ऐसा तो होता नहीं है। उत्सव माने? आनन्द।

तो जितने लोग उत्सव मना रहे हैं इनको तो आनन्दित होना चाहिए। होना चाहिए? आप मेले में गयीं थीं। आपने सैकड़ों लोग देखे होंगे। उतनों में आनन्द कितनों में था? तो झूठ और किसको बोलते हैं? झूठ और किसको बोलते हैं?

आपको क्या नहीं दिखाई दे रहा है? और जगत जिन जगहों पर सबसे ज़्यादा शोर मचाए और खूब चकाचौंध दिखाये वो जगहें तो सबसे ज़्यादा उपयुक्त होती हैं जगत का झूठ देखने के लिए। आपको झूठ दिखा कैसे नहीं? वहाँ तो झूठ-ही-झूठ का विस्तार होता है। जगत अगर चुप रह जाए तो हो सकता उसका झूठ फिर भी छुपा रह जाए। पर जहाँ जगत ने मुँह खोला, जहाँ जगत ने चेहरा दिखाया, वहाँ तो वो पक्का ही फँस ही जाएगा।

एक आदमी था। उसकी तीन पत्नियाँ थीं। और तीन क्यों थीं? क्योंकि पहली से बहुत प्रेम हो गया उसको। ज़बरदस्त। वही नैना फिसल गये। तो खट से जाकर ब्याह लाया, बिना कुछ बात करे, बिना कुछ जाने ज़िन्दगी में। जब ब्याह लाया तो पता चला तोतली है क्योंकि बात तो कभी करी नहीं थी। बस रूप-रंग, काया देखी थी, नैना फिसले थे; वो उसको घर ले आया। घर ले आया तो पता चला ये तोतली है। तो दूसरी करी, दूसरी भी वैसे ही करी। नैना फिर फिसल गये। दूसरी लाया पता चला वो भी तोतली है। तो तीसरी लाया। तीसरी फिर ऐसी लाया। कि नैना फिसल गये। तो उससे भी जब घूँघट उठाया तो वो भी बोली, ‘अले बाबा’! तब पता चला कि ये भी तो तोतली निकली।

अब क्या करे! तो अब जब तीन ब्याह हो गये तो सब उसके नात-रिश्तेदार-यार बोले कि तू दावत दे, लोगों की एक होती है, तेरी एक झटके में तीन हुईं हैं।‘ तो बोला, ‘दावत दे दूँगा’।

पैसे की कोई कमी नहीं थी उसके पास। मूर्खों के पास अक्सर बहुत पैसा होता है। तो अब दावत दी। पर अब उसकी नाक कटने का डर कि लोग आएँगे तो जान जाएँगे कि इसकी तीनों बीवियाँ तोतली हैं। तो तीनों को बुलाया और साम-दाम-दंड-भेद सब लगाया। पहले तो उनको गहने दिये। और कपड़े-लत्ते खूब दिये। बोला, ‘देखो, ये रही घूस।’ और उसके बाद उनको डराया बोला, ‘अगर कोई बोला, अगर कोई बोला पूरी पार्टी में तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। और नहीं बोले तो जितना अभी दिया है, इससे दूना बाद में दूँगा।‘

तो तीनों बोलीं, ‘बलिया, ठीक।’

तो अब तीनों अपना घूम रही हैं बन-ठनकर। और कोई बात करने आये तो बस कोई मुस्कुरा रही है। कोई ये कर रही है, कोई। बोल कुछ नहीं रही हैं। लोग कह रहे हैं, ‘देखो, गजब की हैं, क्या भाव हैं इनके। बात ही नहीं करतीं। बात ही नहीं करतीं।’

जब तक चुप रहो तब तक फिर भी बात छुप जाती है। लेकिन माया को भी मजे लेने हैं, उसने ततैया भेज दिया। वो आकर के एक जो सबसे थी बड़ी वाली उसको आकर के काट गया। जो काट गया, तो ज़ोर से चिल्लाती है, ‘काता रे, काता।‘ तो जब वो चिल्ला पड़ी तो जो उसके बगल वाली थी, वो बोली ये तो सबको मरवा देगी।

बोली, ‘काता तो काता पल तू बोली काहे।‘

तो तीसरी बोली, अरे ये तो दोनों ही मूरख निकलीं।

तो तीसरी आकर बोलती है, ‘अरे, वो बोली तो बोली पर तुझे तो नहीं काता, तू काहे बोली’।

हो गया! ये मेले और ये विवाहों के उत्सव और ये रंग-रोगन और ये ठेलम-ठेली, ये सब तो वो जगहें होती हैं जहाँ जगत का मुँह खुल जाता है और चेहरा दिख जाता है। वहाँ पर भी आपको झूठ नहीं दिखा? वो। तीनों चुप रह गयी होतीं और झूठ न पता चलता तब तो कोई बात भी थी। पर वो तीनों बोल पड़ी हैं मेले में। उसके बाद भी आपको झूठ नहीं दिखा? कैसे नहीं दिखा? कैसे नहीं दिखा?

जैसे गधा शेर की खाल पहनकर घूम रहा हो और लोग उससे डरे हुए हैं। महाराज, महाराज, शेर महाराज, सिंहराज। और लोगों को डरा और नतमस्तक देखकर गधा इतना प्रफुल्लित हो गया कि मुँह ऊपर को ऐसे उठाया (सिर ऊपर उठाते हुए) और बोला, ‘हे ईश्वर! ढेंचू।’

जितनी ताक़त से बोल सकता था, पूरी ताक़त से धन्यवाद दिया। अरे, न बोलता तो फिर भी बच जाता। बोला तो अब? मेला वगैरह तो वो जगहें हैं जहाँ गधा बोल पड़ता है। वहाँ भी आपको सुनाई नहीं दिया कि ये सिंह नहीं है, गधा है।

किसी आदमी — इसको अच्छे से जान लीजिएगा — किसी आदमी की असलियत जाननी हो न तो उसको उसके मौज के क्षणों में देख लेना पता चल जाएगा वो आदमी कैसा है। वैसे तो भले ही वो अपनी असलियत छुपाए रहता हो। ये देख लेना कि वो जब प्रफुल्लित होता है, तब क्या करता है। एक आदमी प्रफुल्लित किस बात में होता है और प्रफुल्लित होकर क्या करता है; इससे उसके बारे में बड़ी अच्छी सूचना मिल जाती है।

आपकी ज़िन्दगी का स्तर क्या है, वो सबसे ज़्यादा पकड़ में आता है इसी बात से कि आप किन बातों में खुशी ढूँढते हो। किसी ने कहा है कि अगर नहीं चाहते हो किसी व्यक्ति से नफ़रत करना तो कभी भी उसको उसके खुशी के पलों में मत देख लेना। अगर तुमने किसी व्यक्ति को देख लिया कि वो किस पल में सबसे ज़्यादा ख़ुश है, तो तुम्हें नफ़रत हो जाएगी उससे। लोग किन कामों में खुशी मनाते हैं ये आपको पता चल जाए और भीतर द्वेष न उठे; बड़ा मुश्किल है।

जो सबसे घटिया काम होता है, आम आदमी को सबसे ज़्यादा उसी में खुशी मिलती है। वो पूरी ज़िन्दगी मेहनत करता है, ताकि सारी मेहनत उस घटिया काम में डाल सके। पूरे साल मेहनत करी, काहे के लिए? काम तो घटिया, एकदम मन नहीं लगता करने में। पूरे साल मेहनत क्यों करी?

क्रिसमस के आस पास एक हफ़्ते की छुट्टी लेंगे। लोग उसी समय ज़्यादा लेते हैं। तेईस दिसम्बर से दो जनवरी तक की छुट्टी लेंगे। और उसमें क्या करेंगे? जाकर के पर्यावरण ख़राब करेंगे। तमाम तरह की नौटंकियाँ करेंगे। अगर अविवाहित हैं तो थायलैंड, बैंकॉक कहीं चले जाएँगे। वहाँ उत्तम दर्ज़े की वेश्यावृत्ति करेंगे। रसीद कटाकर जो करी जाती है। ये खुशी है। पूरे साल जान लगाकर मेहनत करी थी उस एक पल तक आने के लिए, जिस पल में तुम अपना सबसे घटिया काम कर सको।

बहुत मेहनत करी साल भर। ‘भाई, साहब ने ज़िन्दगी भर मेहनत कर-करके पैसा इकट्ठा करा।’ किसलिए? ‘ताकि अन्ततः उस पैसे से वो अपनी बेटी की शादी का मेला लगा सकें। मेले में क्या बढ़िया चाट-पकौड़ी? आइए आइए।’ हर तरह का झूठ है। लेकिन खुशी पूरी है। कोई पूछे, क्या हो रहा है? क्या चल रहा है? बोलें, ‘होये, ख़ुशियाँ।’

उन ख़ुशियों में भी अगर आपको झूठ नहीं दिखा तो कहाँ दिखेगा? कह रही हैं, ‘मेले में झूठ नहीं दिखा।‘ साधारण जीवन के पलों में आपको झूठ न दिखे तो समझ में आता है, मेले में कैसे नहीं दिखा? आप सोचिएगा आदमी कोई हो जो बहुत बढ़िया कहीं बहुत ऊँचा आदमी, बहुत ऊँचा आदमी।

अन्ततः वो खुशी कहाँ पाता है देखिएगा। देखिएगा वो कहाँ खुशी पाता है, और वहाँ से आपको पता चल जाएगा उस आदमी का स्तर क्या है।

खूब कमाता हूँ इसीलिए आयातित मेमने का नर्म माँस खाता हूँ। तुम लोग घटिया लोग देशी सुअर खाने वालों! तुम्हें क्या पता असली चीज़ क्या होती है! असली चीज़ होती है मेमना, बस दो महीने का हो तब उसकी गर्दन पे छुरी चलाओ। क्या उसका नर्म माँस होता है। भारत में तो मिलता भी नहीं है। सीधे दक्षिण अफ्रीका से मँगवाता हूँ मेमने का नर्म माँस! और उसमें जो मुझे खुशी मिलती है, उस खुशी से मेरी जो सारी मेहनत है साल भर की, वो सार्थक हो जाती है। मैंने मेहनत करी इसलिए है ताकि एक दिन ये जो इम्पोर्टेड लैम्ब (आयातित मेमना) है, इसको चबा पाऊँ।

उस आदमी को उसकी खुशी के पल में देख लीजिए। आपको नफ़रत होनी पक्की है। तो इसलिए ये कहा गया है कि मत देख लेना किसी को खुशी मनाते हुए। वो इंसान गिर जाएगा तुम्हारी नज़रों से। बहुत कम होते हैं न निष्कामकर्मी, जो काम में ही खुशी मान लेते हैं। उन्हें अलग से खुशी मनानी नहीं पड़ती। उनके काम में ही उनकी खुशी। वो क्या करेंगे मेले जाकर के। उनका मेला उनके काम में है। तो इसीलिए उन्हें खुशी मनाने के लिए कहीं गिरना नहीं पड़ता। उनसे पूछो पार्टी कब हुई? वो बोलते हैं, ‘सुबह नौ बजे से रात के छ: बजे के बीच में ही पार्टी हो जाती है। वही तो पार्टी थी। अब अलग से थोड़े ही पार्टी करने जाएँगे।‘

ये जो अलग से मेले लगते हैं, इनसे बड़ा कोई नर्क होता है? क्या वहाँ भी आपको झूठ नहीं दिखा? सिल्क की साड़ियाँ तो दिख रही होंगी? और सिल्क की साड़ी के भीतर जो हस्र है, वो कितना हँस रही होगी। और जो सिल्क की साड़ी है पता है न कहाँ से आयी है? वो चीखें नहीं सुनाई दे रहीं, बस वो हँसी दिखाई दे रही है? उस साड़ी में जो लिपटी है। और सिल्क के कुर्ते भी होंगे भाई, त्यौहारों का मौसम है। तो हम धार्मिक हो जाते हैं। पता नहीं, कुर्ता कैसे धार्मिक चीज़ हो गयी! न वैदिक काल में कुर्ता था, न कहीं भी भारतीय अध्यात्म में कुर्ते का कोई ज़िक्र है; पर अजीब सी बात है दिवाली आते ही कुर्ते बिकने शुरू हो जाते हैं। पता नहीं। तो सिल्क के कुर्ते, सोचो कितनी धार्मिक बात है?

एक तो कुर्ता…एक तो कुर्ता, जैसे कुर्ता कोई भारतीय परिधान हो। बहुत लोगों को लगता है कि हमारे ऋषि-मुनि कुर्ते में घूमते थे। तो एक तो कुर्ता वो भी सिल्क का। आपको झूठ नहीं दिखा?

ज़िन्दा रावण, मुर्दा रावण में आग लगा रहा है, आपको झूठ नहीं दिखा? दशहरे का मेला माने क्या होता है? यही तो होता है, एक हज़ार ज़िन्दा रावण मिलकर के एक मुर्दा रावण में आग लगाकर ताली पीटते हैं। आपको झूठ नहीं दिखा? किसी में वैराग्य उत्पन्न करना हो, किसी को जगत कि नंगी कुरुपता दिखानी हो; उसके लिए जगहें होती हैं, ले जाओ उसे किसी के जन्मोत्सव पर, विवाहोत्सव पर, दिखा दो उसे बकरीद पर बकरे कटते हुए कि ये उत्सव है, ये धर्म है। खून की नदियाँ बह रही हैं। धर्म है। और दिखा दो उसको मेले-ठेले। ये सब तो वैराग्य के साधन हैं।

जिस आदमी को जगत की निस्सारता नहीं भी दिख रही हो, उसे इन सब दावतों में और पार्टियों में दिख जाए। वहाँ भी नहीं दिख रहा?

कभी न, किसी शॉपिंग मॉल में रात में ग्यारह, साढ़े-ग्यारह का शो देखिएगा। ठीक है? तो दो-ढाई बजे आप वहाँ से निवृत्त होंगी। लौटिएगा। और लौटते हुए वहाँ जो मॉल में माहौल है, थोड़ा देखिएगा, दो बजे-ढाई बजे। आपको वहाँ जो रोशनियाँ थी; दिखाई देंगी कि मन्द पड़ गयी हैं। जो तड़क-भड़क वाली पोशाकों में जवान सौन्दर्य घूम रहा था, आपको दिखाई देगा विलुप्त हो गया है। अब वहाँ पर आपको दिखाई देंगे फटे कपड़ों में सूखी काया वाले गरीब मज़दूर। और वो जानती हैं अक्सर क्या कर रहे होते हैं? उनके हाथ में सैंड पेपर (बालू पेपर ) दे दिया गया होता है। वो हाथ से दीवाल घिस रहे होते हैं। उससे कर्कश कर्र-कर्र की आवाज़ आ रही होती है। वो जितनी वहाँ पर तड़क-भड़क और स्वर्ण आभा और स्वर्गीय अनुभव थे, सब हट चुके होते हैं। फिर वहाँ पर होता है मज़दूरी का और गरीबी का नंगा नाच। और कई बार तो मुझे लगता है, वो कम उम्र के बच्चे होते हैं वो ज़मीन साफ़ कर रहे होते हैं। ताकि अगले दिन लोग आयें फिर शॉपिंग हो। और ये सब काम तब होता है जब वहाँ से भीड़ छट चुकी होती है।

कहीं बहुत बड़ा पंडाल लगा हो विवाह वगैरह का। जब भीड़ छट गयी हो तब वहाँ जाकर देखिएगा। वो गंदगी, वो सन्नाटा, वो निस्सारता, सूनापन। सब खुशियों का खोखलापन, जीवन की पूरी व्यर्थता। दोने, प्लास्टिक, गन्दी दरियाँ, उलटी हुई कुर्सियाँ, फेंका हुआ खाना, जूठन, और कुत्ते आकर उसको चाट रहे हैं। जैसे कोई मर गया हो और फिर गिद्ध आकर के उसकी लाश नोच रहे हों।

कितना प्यारा दृश्य होता है न? वैसे ही जो कुछ दिखाई दे रहा था वो हट गया है, अब कुत्ते आकर के उसको सूँघ रहे हैं, देख रहे हैं क्या करना है। पर हम करते नहीं। हम तो बस वहाँ पर जो तड़क-भड़क रंग-रोगन होता है, उसी को भोगकर के आकर के घर में सो जाते हैं। रुको! देखो, पूरा देखो। कैसे नहीं दिखाई देगा? कोई बड़ा रेस्तराँ हो न, उसके ज़रा पीछे चले जाइएगा, वहाँ आपको बहुत सारा फेंका हुआ खाना और उसकी दुर्गन्ध पता चलेंगे।

वो सब इंडस्ट्रीज़ जो हमें ये सब देते हैं जो कि देखिए, कितना अच्छा है, क्या कपड़ा है, क्या बढ़िया रंग है। वो सब सिर्फ़ यही नहीं देते, वो और जो देते हैं वो भी देखिए। ये देह का उत्सव ही है कि आप देह पर इसको डाल रहे हो और वो इस पर भी पहनना है टोई-टाई लगा दो और घड़ी बढ़िया, ये अंगूठी भी हो। जो कुछ भी देह के लिए सब किया जाता है पूरा रंग उसको उतना ही मत देखिए, जितना आपको उससे मिला है। उससे जो पूरी कहानी है निकली, वो पूरी देखिए, तो पता चलेगा। ये तो सब वही जगहें है, वही मौक़े हैं जहाँ झूठ पूरा अपना गला फाड़कर के बोलता है ‘ढेंचूँ!’ वहाँ भी झूठ नहीं सुनाई देगा तो कहाँ सुनाई देगा?

धूमिल का वक्तव्य था कि ऐसे ही — ये जगत के जलवे होते हैं इनके लिए उन्होंने कहा था कि जहाँ कहीं भी ऐसे जलवे होते हैं उनका एक चोर दरवाज़ा भी होता है पीछे। एक तो मुख्य द्वार होता है, जिससे सब अतिथि आते हैं। पधारो पधारो साहब, पधारो पधारो। वो कितना अलंकृत होता है, देखा है? जो मुख्य द्वार होता है, जिससे आप अन्दर घुसते हो चाहे वो शॉपिंग मॉल का हो, चाहे विवाह उत्सव का हो, चाहे किसी भी चीज़ का हो। एक तो मुख्य द्वार होता है, जिससे आप अन्दर घुसते हो, चाहे वो आपके घर का ही हो। वो कहते हैं, इसके अलावा एक चोर दरवाज़ा होता है। शायद कहते हैं कि ईमान का होता है। कहते हैं उसका एक चोर दरवाज़ा भी होता है। लेकिन एक तो मुख्य द्वार एक चोर दरवाज़ा भी होता है जो ठीक संडास के बगल में खुलता है। उस दरवाज़े को भी देखो कि वहाँ क्या है। मुख्य द्वार जो ही देखे उसने क्या देखा? अन्धा है।

जिन्हीं भी बहुत महान भव्य बड़ी जगहों पर जाओ न, उनमें बस वही मत देखो जो आपको दिखाने की कोशिश की जा रही है, वो भी देखो जो आपसे छुपाया जा रहा है। थोड़ा उसका चक्कर लगाओ पीछे का माल देखकर आओ, पीछे का माल और पीछे का हाल; वो भी देखकर आओ।

पीछे का देखने की नौबत ही न आये अगर अन्दर का देख लो। वहाँ जो भी कुछ दिखाया जा रहा है, जो भी लोग खड़े हैं, जो भी व्यवस्था बनायी गयी है; उसके अन्दर थोड़ा झाँककर देख लो, सब दिख जाता है।

(कवि धूमिल की पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं:) हर ईमान का एक चोर दरवाज़ा होता है, जो संडास की बगल में खुलता है। दृष्टियों की धार में बहती नैतिकता का कितना भद्दा मज़ाक है। कि हमारे चेहरों पर आँख के ठीक नीचे ही नाक है।

वो कह रहे हैं, ‘देख तो रहे हो, सूँघ भी लिया करो।‘ मतलब समझे? अपनी इन्द्रियों का आधा ही क्यों उपयोग करते हो पूरा ही देख लो न। देख रहे हो, सूँघो भी, समझो भी। वरना दिखावा तो बस दिखावा है। वैसे ही ये जो सब धार्मिक पाखंड होता है इसके लिए उन्होंने लिखा था, शायद पूरब के ही थे, शायद बनारस को देखकर लिखा होगा। घाटों को देखकर के। सुबह-सुबह घाट पर सब धार्मिक लोग नहाने जा रहे हैं। तो कह रहे हैं: (कवि धूमिल कि निम्नोक्त पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं)

स्नान घाट पर जाता हुआ रास्ता, देह की मंडी से होकर गुजरता है।

बनारस में वैश्यावृत्ति भी खूब (रही है)। अब पता नहीं, कम हो गयी होगी। पर रही है, खूब रही है। कहावत चलती थी:

रांड सांड सीढी संन्यासी इनसे बचे तो पावे कासी

ये चार हैं, ये आपको काशी पाने नहीं देंगे। रांड माने वैश्या। सांड माने वहाँ खूब घूमते हैं ये सांड लोग। आप जाओ वहाँ तो दौड़ा लेंगे। सीढ़ी माने पतली-पतली गलियाँ हैं, तो उसमें ये ऊपर-ऊपर, ऊपर-ऊपर। और इसके अलावा घाटों की सीढ़ियाँ। थोड़ा दुर्बल आदमी हो तो सीढ़ी में ही फँस जाता है। और सन्यासी माने सन्यासी के नाम पर जो पाखंड करके घूम रहे हैं। ठगने के लिए आपको, पंडे लोग। पैसा निकाल पैसा। तो कह रहे हैं, ‘इनसे बचे तो पावे काशी।‘

देह की मंडी क्या मेलों में नहीं दिखाई देती? दिखता नहीं है? देह की मंडी उत्सवों में नहीं दिखाई देती? कैसी बातें कर रहे हैं?

मेरी लड़ाइयाँ हुई हैं घरों में अपने। अपने ही घरों में बहुत बार। पहले; अब तो कुछ नहीं। मुझे बर्दाश्त ही नहीं होता था, अगर मैं अपने घर की लड़कियों को सजते-सँवरते, तैयार होते देख लेता था तो। ख़ासतौर पर इस तरह के उत्सवों के लिए कि ये सब करके और कुछ करा, ये सब करा। ‘अपनेआप अच्छी हो, सुन्दर हो, ये क्या कर रही हो? क्या है ये? तुम समझ भी रही हो ये क्या कर रही हो?’ वो मुझसे नाराज़ हो जाएँ। एक-आध-दो बार तो ठीक उत्सव के बीच रोना-पीटना हो गया। कई-कई साल बातचीत बन्द रही। ये सब भी हुआ। वो समझें कि ये तो एक साधारण खुशी की बात है, सजना-सँवरना सवरना। मुझे कुछ और दिखाई दे रहा था। मैं उन्हें वो दिखाना चाहता था, जो मैं देख रहा हूँ। तब वो, वो देखने को राज़ी नहीं थे। आज सब समझते हैं। पर आज से दस-पन्द्रह साल पहले नहीं समझ रहे थे।

मेरे अपने छोटे भाई का विवाह था। बाप रे! अब नहीं करूँगा। पर उस समय पुरानी बात हो गयी। मैंने उसमें कितना उपद्रव करा! मैंने कहा, ‘मैं आऊँगा ही नहीं, अगर ये एक भी तुम जो हनी सिंह लगाते हो, एक भी बजा।‘ अब उसकी भी अपनी मित्र मंडली, वो भी आईआईटी से है।

उसके सब यार, दोस्त वो इकट्ठा हुए थे। कुछ विदेश से आये थे। उन लोगों ने अपनी तरह का गाने बजाने का और एंटरटेनमेंट और ये सब, बड़ा प्रोग्राम रखा था एक फाइव स्टार होटल करके। मैंने कहा, ‘कर लो, मैं आऊँगा ही नहीं।’ मैंने कहा, ‘मैं एक ही शर्त पर आऊँगा, यहाँ सिर्फ़ कबीर साहब के दोहे बजेंगे।’ उसके दोस्तों ने कहा, ‘ये शादी है कि क्या है? यहाँ दोहे बजेंगे!’ मैंने कहा, ‘तो मना लो, मैं नहीं आऊँगा।’ ये सच बात है। मैंने कहा, ‘या तो तुम यहाँ पर सिर्फ़ दोहावली बजाओ, नहीं तो जो करना है करो, मेरी उम्मीद मत करना।’ तो वो मान ही नहीं रहे थे। मैंने कहा, ‘ठीक है, मैं चला जाऊँगा।‘ मैं छोड़कर चला आया। मैं छोड़कर चला आया, पीछे से मेरी माँ, मौसियाँ (मनाने आयीं)।

“बुल्ले नू समझावन आइयाँ, बहना ते भरजाइयाँ”

वो आकर पूरा, सब लोग बैठीं, बोलीं, ‘चलो मान रहे हैं।‘ फिर मैं गया वहाँ। बात कोई ज़बरदस्ती की, ज़िद की नहीं थी, बात ये थी कि मुझे दिख रहा था ये सब क्या है। अगर ये सचमुच एक पवित्र बन्धन है, तो इसको इन अपवित्र आवाज़ों से क्यों दूषित कर रहे हो? पवित्र माने तो पवित्र होना चाहिए न फिर? उसमें ये दो कौड़ी के घटिया, अश्लील गाने फिर क्यों बज रहे हैं? किसी और मौक़े पर बजा लो, ठीक है। अभी नहीं। या फिर ये कह दो कि विवाह में कोई पवित्रता नहीं है।

हालाँकि अब वैसा कुछ होगा तो मैं नहीं इतना आग्रह करूँगा। अनुभव ने सिखा दिया है कि हर जगह अड़ने से लाभ नहीं होता है। मैं देखूँगा कोई कुछ और हो शायद। या शायद अब ऐसा हो कि ख़ुद ही कभी दोबारा ऐसा कुछ हो तो लोग कहें कि अगर इनको बुलाना है तो मामला दूसरा रखो।

पर तब मैं भी थोड़ा ज़्यादा जवान हो रहा था; ऐसे नहीं। पर मुद्दे की बात ये है कि ऐसे मौकों पर और ज़्यादा साफ़-साफ़ दिख जाता है कि ये क्या चल रहा है। आपको कैसे नहीं दिखा? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)

और हाँ, उस पूरे विवाहोत्सव में सचमुच संतवाणी ही बजी। और मैं वहाँ लगभग काफ़ी समय मौजूद था। पूरे ही समय। मेरे हटने के बाद कुछ और लग गया तो मैं नहीं कह सकता। पर मैं एक लम्बे समय तक वहाँ था। और बड़ा अच्छा था। किसी को समस्या नहीं हुई। किसी ने नहीं कहा कि अरे, ‘ये दोहे तो बड़े नीरस हैं, या ये भजन क्यों बजा रहे हो? ये तो बेकार की बात है।’

कौनसे दोहे हैं वो भी मैंने ही चुना था। एक-से-एक प्रेम के भजन हैं कबीर साहब के, वो सब बजे थे। और बहुत सुन्दर था। वास्तविक प्रेम तो सन्त ही जानते हैं न। तो विवाहोत्सव में सन्तवाणी ही तो बजनी चाहिए न? या ये बजेगा कि ‘तू तंदूरी चिकन है, और मैं तेरी देह को खा जाऊँगा, मैं तुझे नोचूँगा‘? ये बजेगा क्या?तो ये कैसे बज जाता है फिर आपके शादी के पंडालों में?

और शादी का तो मतलब ही होता है कि वहाँ ये सब जितने लफंगे हैं, लुच्चे, यही तो सब दूल्हे के यार बनते हैं। इन्ही को चुन-चुनकर बुलाया जाता है। ‘आओ, और लफंगई दिखाओ।’ जबकि अगर वो एक पवित्र उत्सव है सचमुच तो उससे इस तरह के लोगों को एकदम दूर रखा जाना चाहिए कि और कोई आये तो आये, ये लुच्चे नहीं आ सकते। ये लुच्चे सबसे ज़्यादा आएँगे, यही लफंगई करेंगे, ये घोड़ी के आगे नाचते हैं, ये उसको फिर बिदकाते हैं, यही सब। ऐसे मौक़े तो जैसे टेलर-मेड होते हैं, हक़ीक़त पर से पर्दा उठाने के लिए। हैं न? ऐसे मौक़ों पर तो और ज़्यादा दिखना चाहिए न कि सच्चाई क्या है हमारी ज़िन्दगी की, हमारी खुशियों की, हमारे उत्सवों की!

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=GUlQNM18oEg

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