खुश रहो बेटा, खुश रहो! || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. बॉम्बे (2022)

Acharya Prashant

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खुश रहो बेटा, खुश रहो! || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. बॉम्बे (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम गुरुजी, मेरा प्रश्न हैप्पीनेस (खुशी) के बारे में है कि व्हाट एग्ज़ेक्टली हैप्पीनेस इज़? (खुशी वास्तव में क्या है?) और हमें खुशी चहिए क्यों होती है। जैसे कि बचपन से ही जब हम किसी के पैर छूते हैं अपने से बड़ों का, तो सभी लोग बोलते हैं, "खुश रहो बेटा, खुश रहो, खुश रहो।" और किसी कारणवश अभी वो विचार इतने गहराई से बैठ गए हैं कि अगर हम खुश नहीं हैं तो लोग पूछने भी लग जाते हैं "कोई समस्या है क्या? कोई दिक्क़त है क्या?" जबकि कुछ सच में होती नहीं है। लेकिन ना खुश होकर जब कभी निकलते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई पाप कर दिया है।

जैसे आजकल पूरा मार्केट (बाज़ार) देखें तो दे आर सेलिंग हैप्पीनेस (वे खुशी बेच रहे हैं)। प्रॉब्लम (समस्या) है? दुख में हो? कोका कोला पी लो, खुश हो जाओ। काली स्किन (त्वचा) है? फेयर एंड हैंडसम लगाओ, अच्छे लगने लगोगे, खुश हो जाओ। बाल झड़ रहे हैं, डॉक्टर बत्रा वहाँ बैठे पड़े हैं। और अगर आजकल हम सो कॉल्ड रिलेशनशिप (तथाकथित सम्बन्ध) में भी पड़ते हैं तो इसका मक़सद — ठीक है, उसके पीछे हम बताते हैं कि आई लव यू, वगैरह-वगैरह — बट द सोल पर्पस इज टू एक्सट्रैक्ट हैप्पीनेस आउट ऑफ़ ईच अदर, वी जस्ट वान्ट टू एक्सट्रेक्ट हैप्पीनेस आउट ऑफ़ ईच अदर। (लेकिन एकमात्र उद्देश्य एक-दूसरे से खुशी निकालना है। हम सिर्फ़ एक-दूसरे से खुशी निकालना चाहते हैं।)

एंड लाइफ़ इज़ नॉन लीनियर (और जीवन अरैखिक है)। तो एक सीमा के बाद क्या होता है कि द डोज़ ऑफ़ हैप्पीनेस बीकम्स लेस एंड वी डोंट फाइन्ड कम्फ़र्टेबल (खुशी की ख़ुराक कम हो जाती है और हमें आराम नहीं मिलता है) और फिर छोड़ते रहते हैं एक-दूसरे को, वो एक लम्बा साईकल (चक्र) चलने लगता है। ऐसे फ़िल्मों के गाने भी सुनते हैं — ठीक रहोगे, कोई बात नहीं, धुएँ में उड़ा दो। गम है? चलो कोई बात नहीं, चलो क्लब में बैठकर दारू पीते हैं, गम दूर हो जाएगा।

सो आई डोंट नो व्हाई इट फील्स लाइक द रूट कॉज़ ऑफ़ ऑल द एडिक्शन एंड दिस मार्केट एंड एवरीथिंग इज़ गिविंग हैप्पीनेस टू द पीपल। (इसलिए मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों लगता है कि यही सारी लत का मूल कारण है और यह बाज़ार और हर चीज़ लोगों को खुशी देने में लगे हैं।)

तो असल में हमें हैप्पीनेस (खुशी) की ज़रूरत क्यों है? बीइंग अ स्टूडेंट ऑफ़ नॉन-लीनियर डायनामिक्स, आई फील लाइक, द मोर वी टेक समथिंग, द लेस वी गेट। सो, हाउ टू डील विथ दैट? (नॉन-लीनियर डायनामिक्स का छात्र होने के नाते मुझे लगता है कि जितना अधिक हम कुछ लेते हैं, उतना ही कम हमें मिलता है। उससे कैसे निपटें?) और उस अवस्था में कैसे पहुचें कि अगर खुश नहीं हूँ तो भी ठीक है, कोई बात नहीं।

आचार्य प्रशांत: व्हाई डू वी नीड हैप्पीनेस? (हमें खुश होने की ज़रूरत क्यों पड़ती है?) व्हाई डू यू नीड एन आन्सर? जवाब क्यों चाहिए होता है? क्योंकि सवाल है। समाधान क्यों चाहिए होता है? क्योंकि समस्या है। तो सुख क्यों चाहिए होता है? क्योंकि दुख है। आप दुख लेकर पैदा होते हो, इसीलिए पहले क्षण से ही सुख माँगना शुरू कर देते हो। क्योंकि आप सिर्फ़ दुख लेकर नहीं पैदा हुए हो, दुख का ही दूसरा नाम भ्रम है। और भ्रम ने आपको ये बताया है कि दुख दूर होगा दुख की विपरीत स्थिति से जिसका नाम ‘सुख’ है।

हम क्या लेकर पैदा हुए हैं? दुख। तो वास्तव में हमें सुख नहीं चाहिए; हमें वास्तव में चाहिए दुख से मुक्ति। पर हमारे भीतर कोई बैठा है जो मूर्ख है थोड़ा सा। वो सोचता है दुख से मुक्ति मिलेगी सुख की ओर जाकर के, इसलिए हम सुख की ओर भागते हैं। वास्तव में, सुख किसी को भी नहीं चाहिए, नोबडी वान्ट्स हैप्पीनेस। सबको चाहिए दुख से आज़ादी, क्योंकि हम सब दुखी हैं।

लेकिन दुख से आज़ादी का हमें और कोई तरीक़ा पता ही नहीं है सुख के अलावा। हम कहते हैं, सुख ले आओ, दुख मिटेगा। सुख लाने से दुख मिटता नहीं, सुख लाने से दुख मिटता नहीं, इसीलिए आदमी ज़िन्दगी भर सुख की कोशिश में लगा रहता है, "और सुख ले आओ, ये ले आओ।" थोड़ी देर के लिए दुख ढक जाता है और फिर प्रकट हो जाता है। सुख जैसे दुख का उपचार, निवारण होता ही न हो। सुख जैसे दुख को बनाए रखने के ही काम आता हो।

लेकिन हमें फिर भी समझ में नहीं आता कि जो हमारी मूल समस्या है वो ये नहीं है कि हमें सुख नहीं मिल रहा। ये नहीं मूल समस्या है। वो मूल समस्या आप सवाल में भी भूल गए, आप भी कह रहे हो—सुख। मूल समस्या सुख न पाने की नहीं है, मूल समस्या ये है कि दुख मिटता नहीं। दुख से मुक्ति मिलती नहीं, ये है मूल समस्या। इन दोनों बातों में अन्तर समझ रहे हो? दुख हटाना एक बात है और सुख के पीछे भागना बिलकुल दूसरी बात है।

दुख हटाने के लिए समझना पड़ेगा कि दुःखी कौन है। कौन है जो दुःखी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसका होना ही उसका दुख है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो बीमार है वो ख़ुद ही बीमारी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो दुखी है, जब तक वो बना रहेगा दुख भी तब तक बना रहेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि दुख का कोई कारण नहीं है, हम स्वयं दुख हैं। जब तक हम वैसे ही हैं जैसे हम हैं, दुख बना रहेगा, हम दुःखी ही रहेंगे। बस हम इतना करते रहेंगे कि नयी-नयी चालाकियाँ, नये-नये तरीक़े निकालते रहेंगे सुख पाने के।

लेकिन भीतरी हालत, भीतरी बिन्दु, केन्द्र हमारा जब तक वही है जो चल रहा है पिछले बीस साल से हमारी ज़िन्दगी में और कई हज़ारों सालों से मानवता की ज़िन्दगी में, तब तक दुख बना रहेगा। सत्ताईस सौ साल पहले हुए थे बुद्ध, और जो उनका पहला वचन था—बुद्ध का पहला आर्य सत्य क्या था? "जीवन दुख है, जीवन दुख है।" तब भी था, आज भी है। दिक्क़त बस ये है कि बुद्ध ये नहीं कह रहे कि जाओ, जाओ, जाओ, सुख लेकर के आओ। वो बड़ी ईमानदारी से इतना कहकर रुक जाते हैं, "जीवन दुख है, जीवन दुख है।"

हम इतने पर रुकते नहीं कि "जीवन दुख है", हम कहते हैं ‘अब सुख चाहिए’। जैसे कि सुख लाने से दुख हट जाएगा। सुख लाने से दुख हटता नहीं है; सुख लाने से दुख का नाम बदल जाता है। सुख एक नशे जैसा है जो थोड़ी देर के लिए आपको अनभिज्ञ कर देता है दुख से। सुख में दुख का पता चलना बन्द हो जाता है बस।

और ये भी नहीं है कि पूरी तरह पता चलना बन्द हो जाता है, सुख अपने अचेतन में जानता है कि दुख आस-पास ही है, दुख पीछे ही है, बल्कि साथ में लगा हुआ है। इसीलिए सुख हमेशा डरा हुआ रहता है, कहीं मेरी खुशियाँ छिन न जाएँ; कहते नहीं हो? खुशी जब भी मिलती है, आशंका के साथ आती है, कहीं कुछ बुरा न हो जाए। चलो सिक्योर (सुरक्षित) करो, हैप्पीनेस अगर मिल भी गई है तो उसे सिक्योर करो। सुख अगर आ गया है किसी संयोग से तो उसको बाँधो, उसको सुरक्षित करो।

सुख को सुरक्षित करने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्योंकि हमें पता है कि टिक नहीं सकता। सुख दुख को हटाने का झूठा उपाय है। दुख को हटाना बिलकुल ज़रूरी है, लेकिन सुख उपाय की तरह, ऐज ए मेथड , अनुपयोगी है, इनइफेक्टिव (अप्रभावी) है। उसमें कोई नैतिक समस्या नहीं है, बात इफेक्टिवनेस (प्रभावशीलता) की है। कोई बीमारी किसी दवाई से हट न रही हो तो दवाई को ये थोड़े ही कहोगे कि पापी दवाई है, बस यही कहोगे कि अनुपयोगी है, यूज़लेस है। इसी तरीक़े से सुख भी कुछ पाप वगैरह नहीं हो गया, अधर्म नहीं हो गया; बस अनुपयोगी है। बात बनेगी नहीं सुख से।

तो बात किससे बनेगी?

बात बनती है मुक्ति से। और उसको कहते हैं लिबरेटेड स्टेट (मुक्त अवस्था)। उसमें सुख से कहीं आगे जो चीज़ होती है, उसको कहते हैं—आनन्द। आनन्द सुख का बहुत बड़े वाला बाप होता है। सुख छोटी-सी डरी-सहमी चीज़ होती है। आनन्द कुछ और ही है। और वास्तव में, हम सब जिसके लिए तड़पते-तरसते हैं वो सुख नहीं है, वो आनन्द है, जॉय।

हैप्पीनेस (खुशी) और जॉय (आनन्द) बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं। प्लेजर (सुख) क्या है? कि पीठ दर्द हो रही है, किसी ने आकर दबा दिया। हैप्पीनेस क्या है? कि मन कोई कामना कर रहा था, इच्छा हो रही थी, वो पूरी हो गई। और जॉय क्या है? मन को कुछ ऐसा मिल गया है कि कामना वगैरह को बहुत अब वो महत्व देता ही नहीं। इतनी बड़ी चीज़ मिल गई है मन को कि बाक़ी चीज़ों को मन बोलता है, ‘मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक’। ये जॉय है, आनन्द। ये हम सबको चाहिए।

कैसा लगेगा? बोलो। कैसा लगेगा? एक आदमी का सौ रुपया खो गया हो, और वो दुखी और रोता हुआ घूम रहा हो। और एक दूसरा आदमी है जिसको करोड़ों का नुक़सान हो गया है और वो मस्त घूम रहा है बेपरवाह। इन दोनों के बारे में क्या हम कह सकते हैं निश्चित रूप से? पहले के पास बहुत ज़्यादा है नहीं, उसके लिए सौ रुपया ही बड़ी भारी चीज़ है। और दूसरे के पास कुछ ऐसा है जो करोड़ों से भी करोड़ गुना ज़्यादा है। उसको फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा है कि करोड़ों मिले, कि करोड़ों गए।

आनन्द का मतलब है—ऐसा हो जाना कि करोड़ों मिले, कोई बात नहीं; करोड़ों चले गए तो भी कोई बात नहीं।

पाने लायक़ चीज़ है कि नहीं आनन्द? या उस आदमी जैसे रहना है कि सौ रुपया खो गया और छाती पीट रहा है? अब तुम सौ रुपए पर छाती पीटो या हज़ार पर पीटो या दस हज़ार पर पीटो या दस लाख पर पीटो, छाती पीटना तो छाती पीटना है।

आनन्द का मतलब है—छाती पीटने वाला खेल ही ख़त्म; मौज। ज़िन्दगी से जैसे थोड़ा-सा अब ऊपर रहकर जीते हैं। या ज़िन्दगी में इतना गहरा घुसकर जीते हैं कि छोटी-मोटी बातें हमें अब छू ही नहीं पातीं। आ रही है बात समझ में?

मुक्ति कहाँ से मिलेगी? मुक्ति उन सब चीज़ों से मिलनी है जिन्हें हमने अनिवार्य समझ कर पकड़ रखा है। देखो कौन-कौन सी चीज़ हैं जिनको छोड़ने, हटाने या खोने भर के ख़याल से ही कॉंपने लगते हो। उनकी थोड़ी जाँच पड़ताल करो। कौन सी इच्छाएँ हैं जिनको बहुत आवश्यक, केन्द्रीय बना रखा है? उनसे पूछो, ‘तुममें ऐसा क्या है कि तुम्हें पाना ज़रूरी है?’ मैं सिर्फ़ पूछने को कह रहा हूँ; जवाब मैं कोई नहीं बता रहा। मैं सवाल करने के लिए कह रहा हूँ। सवाल करने में तो कोई पाप नहीं हो गया न, कि हो गया? ये सवाल करो। इन्हीं सवालों में मुक्ति है।

उपनिषदों के पास — मालूम है? — कोई तरीक़ा ही नहीं है। इतनी सीधी-सरल बात है, वहाँ कोई जादू-टोना, चमत्कार, ऊपरी बात कुछ होती ही नहीं। वहाँ क्या होता है? एक आता है, उसको बोलते हैं शिष्य; एक बैठा है, उसको बोलते हैं गुरु। और ये दोनों बात करने लगते हैं, और वही उपनिषद् है। और उस बातचीत में कुछ भी पारलौकिक नहीं होता, मेटाफिजिकल नहीं होता।

वो बातचीत ऐसे ही होती है। शिष्य पूछता है, ‘अच्छा! बताइए बन्धन क्या होता है? अच्छा बताइए सुख किसको बोल रहे हैं? अच्छा बताइए संसार चीज़ क्या है?’ वो पूछता जाता है, वो बोलता जाता है। और जो बोलता है गुरु, शिष्य उसको भी एक झटके में माने भी नहीं ले रहा। उपनिषदों में ऐसे-ऐसे शिष्य हैं जो एक के बाद एक प्रतिप्रश्न करते ही जाते हैं। वो करते ही जा रहे हैं, वो पूछते ही जा रहे हैं। और गुरु भी धैर्य के साथ बताते जा रहे हैं, "हाँ, ठीक है! ऐसा है, ऐसा है।"

शिष्य ने कोई ठेका नहीं ले रखा है कि गुरु जी जो बोलेंगे वो पहली बार में मान ही लेना है। कितना आसान है! पूछते जाओ न। सबसे पहले तो अपनेआप से पूछना शुरू करो।

ये इंटेलेक्ट (बुद्धि), ये बुद्धि, प्रज्ञा तुमको किसलिए मिली है—ये बात मैं आज तीसरी-चौथी बार बोल रहा हूँ—बस जेइइ क्लियर करने के लिए, सीजीपीए बनाने के लिए, सैलरी (वेतन) कमाने के लिए? जो कुछ भी मिला है न ज़िन्दगी में, उसका सिर्फ़ एक चीज़ के लिए इस्तेमाल करो। कैदी के पास बुद्धि हो, कैदी के बाज़ुओं में ताक़त हो, कैदी के पास कुल्हाड़ी हो, कैदी के पास जो कुछ भी हो, उसे उसका इस्तेमाल किसलिए करना चाहिए? आज़ादी के लिए।

तुम्हारे पास जो कुछ भी है, तुम्हारे पास बुद्धि है, तुम्हारे पास समय है, तुम्हारे पास जितने भी रिसोर्स हों, संसाधन हों, सबका एक ही दिशा में इस्तेमाल करो। उल्टा मत कर लेना कि बुद्धि का इस्तेमाल कर लिया अपनेआप को और बन्धन में डालने के लिए। कि बुद्धि को जाकर के ज़माने के बाज़ार में, कॉर्पोरेट मार्केट में बेचकर के आ गए। क्या करते हैं? महीने भर अपनी बुद्धि बेचते हैं और उसका पैसा लेते हैं और पेट चलाते हैं। ये जीना है कोई! ऐसी ज़िन्दगी चाहिए? आ गए सुबह-सुबह, क्या करने? क्या करने आ गए? बुद्धि बेचने आये हैं। व्हाइट कॉलर जॉब (सफ़ेदपोश नौकरी) है न। क्या करते हैं? बुद्धि बेचते हैं रोज़।

ईमानदारी से बताना, उसमें और जो बेचारे मज़दूर चौराहों पर खड़े होते हैं सुबह-सुबह नौ बजे देहाड़ी के लिए, कोई फ़र्क़ है? वो भी क्या करते हैं? वो कोई शारीरिक चीज़ बेचते हैं न, शारीरिक श्रम बेचते हैं। और तुम जो तुम्हारा मेंटल एक्यूमेन (मानसिक कुशाग्रता) है उसको बेचते हो। वो भी तुम्हारे ब्रेन (दिमाग) से आ रहा है, ब्रेन भी शरीर ही है न? ये जो मसल्स (माँसपेशियाँ) हैं जिनसे एक मज़दूर काम करता है और पेट पालता है, वो भी शरीर है; और तुम्हारा मस्तिष्क भी शरीर है। दोनों बेच ही तो रहे हो अपनेआप को, क्या फ़र्क़ है? ऐसी ज़िन्दगी का कोई फ़ायदा है?

ये (बुद्धि) मिला है अगर, तो इसका सही दिशा में उपयोग करना सीखो। तुमको बुद्धि इसलिए नहीं मिली है कि बस उससे कुछ पैसे कमा लिये, घर बनवा लिया या बाहर जाकर के कहीं सेटल (बस जाना) हो गए। वो बुद्धि का बहुत छोटा उपयोग है, वो ऐसा है कि जैसे तुमको टैंक मिला है और तुम उससे मच्छर मार रहे हो। सब-के-सब यहाँ जितने बैठे हो, सब यहाँ पर खोपड़े में टैंक रखकर बैठे हो। और सब ने निशाना किस पर तान रखा है? कैम्पस के मच्छरों पर। "फायर!" और बहुत खुश होते हो, मच्छर मार दिया। और जो नहीं मार पाता बेचारा वो डिप्रेशन (अवसाद) में चला जाता है, "आज एक भी मच्छर नहीं मरा।"

तुम कौन हो? पहचानो अपनेआप को। मच्छरमार नहीं हो तुम। छोटा बनकर जीने में कोई फ़ायदा? कमज़ोरी में कोई सुख?

उपनिषद् कहते हैं, "यो वै भूमा तत्सुखं", जो बड़ा है, विशाल है, सिर्फ़ वहीं पर मिलेगा सुख—आनन्द की बात कर रहे हैं वो। "नाल्पे सुखमस्ति", छोटे में, पेटीनेस में, मीननेस में, क्षुद्रता में सुख कहाँ से पाओगे!

गो फॉर द इनफ़िनिटी (अनन्त तक जाओ), अनन्त से नीचे नहीं रुकने का—माने कि जो भी चीज़ें सीमित हैं, उनको बहुत बड़ा नहीं मान लेना है। और दुनिया में सबकुछ सीमित है न? तो दुनिया को बहुत भाव नहीं देना है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=nrdVsxkBDSw

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