कौन है जीवन्मुक्त? कौन हैं क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ? || आचार्य प्रशांत, जीवन्मुक्त गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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कौन है जीवन्मुक्त? कौन हैं क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ? || आचार्य प्रशांत, जीवन्मुक्त गीता पर (2020)

तत्व क्षेत्रं व्योमातीतमहं क्षेत्रज्ञ उच्यते। अहं कर्ता च भोक्ता च जीवनमुक्त: स उच्यते।।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पंच तत्वों से बना ये शरीर ही क्षेत्र है तथा आकाश से परे अहंकार ही क्षेत्रज्ञ है। ये ‘मैं’ ही समस्त कर्मों का कर्ता और कर्म फलों का भोक्ता है, इस ज्ञान को धारण करने वाला ही वस्तुतः जीवनमुक्त कहा जाता है।

~ जीवनमुक्त गीता, श्लोक क्रमांक ६

आचार्य प्रशांत: तो दो हैं — क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ। आत्मा दो हैं माने एक वो अद्वैत का जोड़ा है और दूसरा जो इस जोड़े से बिलकुल पृथक; साक्षी है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या हैं? द्वैत के जोड़े की दो इकाइयाँ। ठीक है?

‘मैं’ है विषयेता। और ये जो सब पंचभूत बताये गए, ये दुनिया के सब जो विषय बताये गए, ये हैं उस विषयेता के सामने के दृश्य, विषय। ठीक है? विषयेता माने ‘मैं’, इन पंचभूतों के साथ कुछ-कुछ जुगाड़, खिलवाड़ करता रहता है और जो कुछ भी वो इनके साथ करता है उसका वो नतीजा भुगतता है। ठीक है? जो कुछ भी वो करता है उसका वो नतीजा भुगतता है। जीवनमुक्त वो जिसने अपनी पहचान का नाम क्षेत्रज्ञ से हटाकर के आत्मा कर लिया। उसका मैं अब क्षेत्रज्ञ के साथ नहीं जुड़ा है, उसका ‘मैं’ अब जुड़ा हुआ है आत्मा के साथ।

ये जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ जिस तरीके से यहाँ जीवनमुक्त गीता में बताये गए हैं ये वैसे ही हैं जैसे श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं— 'प्रकृति और परा प्रकृति'। वो कहते हैं कि जिसको आप साधारणतया प्रकृति कहते हो वो वास्तव में बस ‘अपरा प्रकृति’ है और जिसको आप अहम् कहते हो वो भी प्रकृति ही है, बस उसको कह दो ‘परा प्रकृति’। दो तरह की प्रकृति हो गयी।

तो ये क्षेत्र सारा क्या हुआ? अपरा प्रकृति, जिसको क्षेत्रज्ञ कह रहे हो वो भी है प्रकृति ही, वो तुम नहीं हो! जिसको क्षेत्रज्ञ माने मैं कह रहे हो वो भी प्राकृतिक ही है उतना ही प्राकृतिक जितना धूल, मिट्टी और पानी, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश ये सब। इनको तो प्रकृति मानने में हमें कोई संकोच नहीं होता न लेकिन अहम् को प्रकृति मानने में हमें संकोच होता है। हम कहते हैं, ‘ये सब दुनिया प्राकृतिक है और भीतर जो अहम् बैठा है वो उस प्राकृतिक से भिन्न है।’ ऐसा ही कहते हैं न हम? यहाँ बताया जा रहा है और वही बात श्रीमद्भगवद्गीता में और ज़्यादा विस्तार से बतायी गई है — ‘तुम प्रकृति से परे हो, अष्टावक्र गीता भी बिलकुल इन्हीं शब्दों में बात कहती है।’ तुम प्रकृति से परे हो, तुम प्रकृति से परे हो माने तुम प्रकृति के दोनों सिरों से परे हो। दो सिरों का क्या नाम है? क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, परा और अपरा।

न तो तुम पंचभूत हो और न ही तुम उन पंचभूतों का भोग करने वाले भोक्ता हो। न ही तुम उन पंचभूतों के साथ काम करने वाले कर्ता हो। वो सब प्रकृति का खेल है, तुम अलग हो। जिस खिलौने के साथ खेला जा रहा वो खिलौना तो प्राकृतिक है ही, जिस खिलौने के साथ जो खेल रहा है वो बच्चा भी प्राकृतिक है, उस बच्चे का नाम क्या है? अहम्, ‘मैं’। उसको कभी क्षेत्रज्ञ बोल दिया, कभी परा प्रकृति बोल दिया, कभी सौ नाम हैं। ठीक है? इन दोनों से मुक्त होना होता है, जो इन दोनों से मुक्त हो गया वो जीवनमुक्त है।

दिक्कत क्या आती है? क्यों श्लोक को कहना पड़ रहा है कि क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ दोनों से मुक्त होना पड़ेगा तब जीवनमुक्त होओगे? क्योंकि भाई हम क्षेत्र से तो मुक्त होना चाहते हैं और क्षेत्रज्ञ के साथ पहचान बनाते हैं। हम क्षेत्र को तो छोड़ना चाहते हैं, हम कहते हैं, ‘दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं, ये सब पंचभूत, भूत-प्रेत हैं इनके साथ क्या उठना-बैठना!’ ठीक है? इनको तो छोड़ने को हम बड़े राजी रहते हैं, किसको छोड़ने को तैयार नहीं रहते? जो क्षेत्रज्ञ है, इसको छोड़ने को हम तैयार नहीं हैं। जो इन दोनों को छोड़ दे वो जीवनमुक्त हो गया, वो जीवनमुक्त हो गया।

जीवनमुक्त का मतलब ये नहीं होता कि जीवन से ही आज़ाद हो गया, पखेरू उड़ गया, हंसा चला आकाश। नहीं, जीवनमुक्त का मतलब होता है पलटकर पढ़ो, कि अब वो मुक्त होकर जीवन जी सकता है या ऐसे पढ़ो कि जो जीवनमुक्त हो गया वो जो साधारण जीवन होता है जिसको हम सामान्य जीवन कहते हैं, उस जीवन से मुक्त हो गया तो अब उसका मुक्त जीवन हो गया।

जीवनमुक्त माने जीवन की हमारी सामान्य परिभाषा से मुक्त, जीवन के साथ जो अनिवार्य रूप से दुख-दर्द, बेचैनी और सब राग, द्वेष चलते हैं उनसे मुक्त, उसका नाम कहलाता है जीवनमुक्त, ठीक है? ये बहुत भारी बात है, बहुत भारी बात है। मालूम है क्या कहा जा रहा है? कहा जा रहा है, ‘तुम जी सकते हो बिना उस नर्क के जिसको आमतौर पर जीवन कहते हैं।’ ये बहुत बड़ी बात है। कहा जा रहा है कि मुक्ति के लिए तुम्हें मरना नहीं होगा, ये जीवन की बहुत सकारात्मक परिभाषा है, ये जीवन के प्रति बड़ी विधायक दृष्टि है। तुमसे कहा जा रहा है कि इधर-उधर नहीं जाना होगा, किसी अमर लोक में नहीं जाना है; इसी मृत्यलोक में; इसी हाड़-माँस के शरीर के साथ मुक्त होकर जिया जा सकता है और यही जीवन का लक्ष्य है। क्या? जीवनमुक्त होकर जीना।

कबीर साहब गाते हैं— “जीवन मुक्त सोई मुक्ता है नहीं तो सुख-दुख भुक्ता है”। मुक्त तभी हैं जब जीवनमुक्त हो गये, जीवनमुक्त माने कि जीते जी मुक्त हैं, ये नहीं है कि कुछ और होगा, खास घटना घटेगी तब होगा। ज़िन्दगी जी रहे हैं और मुक्त हैं। बात आ रही है समझ में?

ये हुई न कुछ दमदार बात! क्या? जीवनमुक्त! कैसे जी रहे हो? जीवनमुक्त। जी क्यों रहे हो? ताकि जीवनमुक्त हो सकें, वही उद्देश्य है। और जब जीवनमुक्त हो गये तब जीवन निरुद्देश्य है, क्योंकि तब कोई व्यक्तिगत उद्देश्य बचता नहीं। अब कोई व्यक्तिगत उद्देश्य बिलकुल बचता नहीं। एक बात श्लोक से और स्पष्ट समझ लीजिएगा, इसमें ज़ोर देकर कहा गया है — करने का और भोगने का सारा कारोबार अहंकार का है। आत्मा माने सत्य को न करने में रुचि है, न भोगने में। तो खबरदार कि आगे से कोई कहे कि जो करता है भगवान करता है। वो नहीं करता कुछ।

भगवान से अगर आपका आशय सत्य से है, तो सत्य की न कुछ करने में रुचि है, न कर्मफल भोगने में रुचि है। साक्षी मात्र है, साक्षी कहाँ ज़बरदस्ती टाँग अड़ाता फिरेगा कि ये कर लूँ। और फिर वापस जाए, ‘अब देखो जो कुछ मिला है थोड़ा हमें भी दो न।’ ये सब नहीं है। जब भी कहीं कुछ हो रहा है कर्ता वो ही है जो करने में किसी तरह का लाभ देख रहा है। आत्मा को कौनसा लाभ चाहिए? आत्मा को भी लाभ चाहिए? कर्ता वही है जो करने में किसी तरह की पूर्णता हासिल करना चाहता है। आत्मा अपूर्ण बैठी है क्या? आत्मा कुछ नहीं करती।

उस तरह के लोग भी सावधान हो जाएँ जो कहते हैं, ‘मेरी आत्मा चाहती है कि मैं ऐसा करूँ, मेरी आत्मा तड़प रही है।’ इतना तड़पा हुआ आदमी है कि इसने आत्मा भी तड़पा डाली। आत्मा तो तड़प सकती नहीं लेकिन तुम्हारी तड़प इतनी घनघोर है कि वो तुमने आत्मा पर भी आरोपित कर दी, ‘मेरी तो आत्मा भी तड़प रही है।’ आत्मा न भड़कती है; न तड़पती है, न गाती है; न रोती है। बात समझ में आ रही है?

आत्मा शरीर की ही नहीं होती, आत्मा दस शरीर क्या धारण करेगी? आत्मा शरीर के अन्दर होती ही नहीं है तो आत्मा शरीर क्या छोड़ेगी! आत्मा को हमें इन सब धन्धों से दूर रखना चाहिए, ये शरीर का छोड़ना, ये करना, वो करना।

श्रीकृष्ण जब कहते हैं कि जैसे वस्त्र त्यागा जाता है वैसे ही शरीर त्यागा जाता है तो वो आत्मा की नहीं, जीवात्मा की बात कर रहे हैं। गीता ध्यान से पढ़िए। आत्मा की नहीं, जीवात्मा की बात कर रहे हैं। जीवात्मा का मतलब हुआ वो जिसे जीव आत्मा समझता है, माने ‘मन’। जीवात्मा माने मन। मन ही है जो तरह-तरह के चोले धारण करता रहता है। और जिसका वस्त्र बदलने में बहुत मन रहता है, आतुरता रहती है वो मन है। आत्मा को ढँक सके ऐसा वस्त्र बनाएगा कौन? आत्मा जिस वस्त्र को पहन सके ऐसा वस्त्र आएगा कहाँ से? क्योंकि हमें तो बताया गया था कि आत्मा अनन्त है, वस्त्र कैसे धारण कर लेगी? कितनी बड़ी देह हो गयी तुम्हारी कि उसमें आत्मा घुस गयी! कह रहे हैं, ‘मेरी आत्मा है, वो यहाँ लिवर के पास रहती है।’ बात समझ में आ रही है?

ये सब खेल क्या है? प्राकृतिक है। हम ऊपर से लेकर नीचे तक, अन्दर से लेकर बाहर तक, क्या हैं? प्राकृतिक हैं। इसमें आत्मा इत्यादि को बीच में मत ला देना। तो सवाल ये उठता है कि अगर हम पूरी तरह प्राकृतिक हैं, तो मुक्ति चाहता कौन है? जो मुक्ति चाह रहा है वो बहुत विचित्र स्थिति में है, वो फँसा प्रकृति में हुआ है, घर उसका आत्मा है। उसको मैं कहता हूँ चेतना। वो चेतना जो प्रकृति से बँध गयी है लेकिन घर उसका आत्मा में है। रमण महर्षि कहा करते थे कि एक गाँठ पड़ी हुई है, एक गाँठ है, बड़ी गलत गाँठ, वो गाँठ काटनी ज़रूरी है, उसी गाँठ के कटने का नाम मुक्ति है। वो गाँठ यही है। चेतना हमारे शरीर से बँध गयी है, किसी ने गलत गाँठ बाँध दी, चेतना शरीर से बँध गयी है, गलत गाँठ बँध गयी है। होना चाहिए था उसको आत्मा के पास, बाँध दिया गया है उसको प्रकृति के साथ। इसी बात को भारत ने साहित्य में ऐसे दर्शाया कि प्यार किसी और से था, विवाह किसी और से हो गया। समझ में आ रही है बात?

इसीलिए फिर सन्त कवियों ने गाया कि “आई गवनवा की सारी”। “आई गवनवा की सारी।” और मृत्यु को ऐसे ही दिखाया गया जैसे कि आप प्रस्थान कर रहे हो बेगाने घर से अपने असली घर की तरफ़। वो सब प्रतीक वास्तव में चेतना को ही निरूपित कर रहे थे, वो सब प्रतीक वास्तव में इंसान की जो पार्थिव स्थिति है उसका संकेत दे रहे थे, कि हम हैं कहीं और के, फँस कहीं और गये हैं। प्यार किसी और से था विवाह किसी और से हो गया है। बस इंतज़ार कर रहे हैं कि मुक्ति मिले। जिसको जीते जी मुक्ति मिल गयी वो जीवनमुक्त हो गया। बात समझ में आ रही है?

ये जो शरीर है न इसके साथ हमारा कुछ दिन का सांयोगिक नाता बैठ गया है, अमर प्रेम हमारा किसी और से है, जाना वहीं है लेकिन यहाँ आकर बैठ गये हैं और यहाँ हमने कर्तव्य, ज़िम्मेदारियाँ पाल ली हैं, और ये जो कर्तव्य, ज़िम्मेदारियाँ हमने इस घर में पाल ली हैं वो अक्सर उस अमर प्रेम की याद को ढँक लेती है। यहाँ हमने जितने धन्धे स्थापित कर लिये हैं वो अक्सर भुला देते हैं इस बात को कि यहाँ तो हमें होना ही नहीं था, होना तो हमें कहीं और था।

बात समझ में आ रही है?

इसी से ये भी समझ में आ रहा होगा कि दुनिया में दुख इतना ज़्यादा क्यों दिखता है, और सुख इतना कम क्यों दिखता है?

“हमने जग की अजब तस्वीर देखी, एक हँसता है और दस रोते हैं।”

क्यों? क्योंकि गलत घर में फँस गये हो न। सोचो कि बिटिया का दिल किसी और से लगा हुआ था, विवाह किसी और से कर दिया, वो सुखी ज़्यादा रहेगी या दुखी ज़्यादा रहेगी? और अब जहाँ उसकी शादी कर दी है वहाँ उसकी कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ बना दी गयी हैं कि ये करो, अब वो करो। तो बहुत समय तक तो वो कर्तव्य, ज़िम्मेदारियों में उलझी रहती है व्यस्त रहकर समय काट लेती है, लेकिन जब भी ज़रा सा खाली होने पाती है; क्या याद आता है? वो असली प्यार, वो असली घर जहाँ उसे होना चाहिए था पर हो नहीं हो पायी।

तो चेतना की तुलना उस स्त्री से, उस लड़की से की गयी है, उस स्त्री को हमारी जो बेचैन चेतना है उसका प्रतीक बनाया गया है। रूमी के पास जाओगे तो वो कहेंगे, 'और कुछ नहीं जानता मैं, इतना जानता हूँ — मैं यहाँ का नहीं हूँ। मैं यहाँ का नहीं हूँ। और जिसने मुझे यहाँ भेज दिया, फँसा दिया एक दिन वह मुझे वापस भी बुलाएगा।’ पूरे विश्वास के साथ कहते हैं, जैसे कि साफ़-साफ़ पता हो। ये भी कहते हैं कि और कुछ नहीं जानता मैं, उस बात को भी स्वीकार करते हैं, लेकिन इतना मैं साफ़ देखता हूँ बिलकुल पता है कि यहाँ का तो नहीं हूँ मैं — ’आई डोंट बिलॉंग हिअर’। और जिसने यहाँ भेजा है एक दिन वही वापस भी बुला लेगा'।

(श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) अरे मरने की बात नहीं हो रही है। घबरा गये अचानक से (श्रोतागण हँसते हैं)। चेतना के तल की बात हो रही है, शरीर के मरने की बात नहीं हो रही है।

प्रश्नकर्ता: चेतना में जो गाँठ लगी है इसमें गाँठ के लगने में चेतना का तो कोई चुनाव था नहीं, तो इस गाँठ को काटने में इसका क्या दायित्व है?

आचार्य: क्योंकि दर्द तो चेतना को ही है न। दर्द तो चेतना को ही है। यही वो ग्रन्थि है, जो गाँठ कह रहे न, यही वो ग्रन्थि है जिसका नाम बहुत सारे शास्त्र बहुत बार लेते हैं। यही वो ग्रन्थि है जिसको काटने पर तुम निर्ग्रन्थ हो जाते हो। रमण महर्षि तो ये भी बताने लग गये थे कि ये ग्रन्थि है किस जगह पर। लोग पूछते थे तो ऐसे ही बताते, बोलते थे, ‘इस जगह पर ये ग्रन्थि होती है उसे काटना ज़रूरी है।’ बहुत लोग उसका वर्णन नाड़ियों इत्यादि का रूपक इस्तेमाल करके करते हैं कि नाड़ियाँ होती हैं उनमें ऐसे गाँठ लगी होती है। पर जो बात है वो वास्तव में चेतना की है। भाई, कौन काटेगा उस गाँठ को? जिसको दर्द हो रहा होगा। शरीर को तो कोई समस्या नहीं है तो शरीर क्यों पहल करे उसे काटने की? दर्द चेतना को है तो वही छटपटाएगी, वही काटेगी किसी तरीके से।

प्र १: सहानुभूति कैसे रखें?

आचार्य: सहानुभूति किसी दूसरे के साथ मत रखो, अपने प्रति सहानुभूति रखो। आत्मप्रेम का ही दूसरा नाम अध्यात्म है। अपने साथ इंसाफ़़ करो न, जब जान गये हो कि गलत जगह फँस गये हो, ऐसे खेल में फँस गये हो जिसके नियम ही तुम्हारे खिलाफ़ हैं तो जल्दी-से-जल्दी क्या करना है? खेल निपटाओ, बाहर भागो। ये खेल तुम्हें फल नहीं सकता तो इसे खेलना क्यों? इस खेल को जीतने का एक ही तरीका है, क्या? खेल खत्म करो, जिसने खत्म कर दिया खेल को वही खेल जीत गया। इसे खेल-खेलकर नहीं जीत पाओगे। ये खेल ऐसा है जिसे खेल-खेलकर कोई नहीं जीत सकता। इसे तो क्विट — अब ऐसे नहीं कर सकते न कि मैं बाहर जा रहा हूँ। इस खेल के नियमों में एक नियम ये भी है कि जो खेल रहा है वो बाहर नहीं निकल सकता। तभी तो कह रहा हूँ कि अगर तुम बाहर निकल गये तो तुमने खेल जीत लिया, क्योंकि तुमने एक नियम का उल्लंघन ही कर दिया, तुम इतनी बढ़िया खिलाड़ी हो गये।

चेतना को तो बाँध दिया गया है न। चेतना ऐसे थोड़े ही कर सकती है, ’आइ क्विट’ , ‘और मैं जा रही हूँ’। वो तो बँधी हुई है शरीर के साथ, उसी को तो देहाभिमान कहते हैं। हमारी चेतना शरीर के साथ बँधी हुई है उसी को तो बॉडी आइडेंटिफिकेशन (जिसकी पहचान शरीर से हो) बोलते हैं न। तो इतना आसान थोड़े ही है कि हम चले, अब से शरीर हमारा नहीं है। ‘न हम शरीर हैं, न शरीर हमारा है।’ नहीं होता न? वो गाँठ खोलने के लिए बहुत यत्न करने पड़ते हैं, बड़ी साधना करनी पड़ती है

प्र २: प्रणाम सर, गाँठ खोलने के लिए बल कहाँ से आएगा फिर?

आचार्य: दर्द से। जितनी ज़ोर का दर्द होगा उतनी ज़ोर का बल आएगा। कल हमने बात करी थी न, किसी ने पूछा था, ‘ऊर्जा कहाँ से आती है?’ कुत्ते से। जितने उसके भयानक दाँत होंगे उतनी ज़ोर की ऊर्जा आएगी, मुर्दा भी भाग लेगा। इसलिए मैंने बोला था, पीछे से उन्होंने बोला था न “पीड़ा पैगाम परम का”। इसीलिए जो परम के प्रेमी होते हैं वो पीड़ा का स्वागत करते हैं। कहते हैं, ‘अच्छी बात दर्द मिल रहा है।’ बिना अर्थ के तो कोई भी काम नहीं किया जाता, चाहे संसार में धन और पद के लिए या फिर आध्यात्मिक जगत में शान्ति और मुक्ति के लिए, ज्ञान की खोज।

तो ऐसा कौनसा कर्म है जो परमानन्द में लीन कर दे? समर्पण क्या होता है? ये श्लोक क्या कह रहा है? अरे वही कह रहा है जो कह रहा है, अलग थोड़े ही कुछ कह रहा है। यही कह रहा है कि तुम प्रकृति के दोनों सिरों में से किसी को भी अपना न मान लेना, किसी को भी स्वयं का नाम मत दे देना। यही ज्ञान चाहिए और जो ज्ञान जैसा तुमने लिखा कि हर ज्ञान के पीछे कुछ उद्देश्य होता है। जिस ज्ञान को पाने का उद्देश्य मुक्ति हो वो ज्ञान अच्छा। ठीक है? खुद ही परख लिया करो, कुछ भी जानना चाहते हो, जानना माने ज्ञान, कुछ भी जानना चाहते हो क्यों जानना चाहते हो? अधिकांशतः हम व्यर्थ ही जानना चाहते हैं, अधिकांशतः हम खुराफ़ात के लिए ही जानना चाहते हैं। पत्नी नहाने घुस गयी, लग गये उसका फ़ोन हैक करने कि उतनी देर में देख लूँ कि अन्दर क्या है, जानकारी चाहिए। काहें को चाहिए, काहें को चाहिए? जीवन मुक्ति मिलेगी तुम्हें उससे?

तो जैसे अभी ये मैंने एक बिलकुल अति का उदाहरण लिया है कि तुम किसी का फ़ोन हैक कर रहे हो पर ज़्यादातर हम यही कर रहे होते हैं। कर रहे होते हैं कि नहीं कर रहे होते? व्यर्थ की बातें जाननी है, ऐसी बातें जानने की चेष्टा जो किसी भी तरीके से शान्ति और मुक्ति में सहायक नहीं होगी, जो मन को तड़प और बुखार ही देने वाली है। दुनिया में कोई ऐसा है, मुझे बताओ जिसका तुम फ़ोन पढ़ो और वो पढ़कर बेचैन न हो जाओ? क्योंकि कोई भी व्यक्ति वैसा तो हो ही नहीं सकता न जैसे तुम्हारी छवि है उसके बारे में। नहीं हो सकता न?

तुमने एक इंसान के बारे में छवि बना रखी है जो कि बनाते ही हो, सब बनाते हैं। अब उसका फ़ोन खोलकर पढ़ोगे वो फ़ोन में जो सामग्री होगी वो तुम्हारी छवियों से मेल तो खा सकती ही नहीं है ये पहले से ही तय है। ठीक? तुम्हें कुछ अलग ही देखने को मिलेगा और जहाँ कुछ अलग देखने को मिला तो ऐसे सीने पर हाथ रखोगे और लगोगे दर्द भरे गीत गाने। ‘धोखा हो गया, ये हो गया, वो हो गया।’ तुमसे कहा किसने था झाँकने के लिए? कहा किसने था? तुमसे कहा किसने था कि वहाँ जो कुछ तुम्हें मिलेगा वो वैसा ही मिलेगा जैसा तुम चाहते हो? बोलो। ज़्यादातर हमारा ज्ञान ऐसा ही है। वो हमें ऊँचा नहीं उठाता, वो हमें गिराता ही है।

कुछ भी जानने से पहले ये देख लो कि वो जानना तुम्हारे लिए क्यों ज़रूरी है। ’वाइ डू आई वांट टू नो (मैं क्यों जानना चाहता हूँ)?’ दूसरा भी तुमसे कुछ पूछे कभी तो उसको ‘हाँ’ या ‘ना’ में जवाब देने की जगह ये जवाब दो, ये ज़्यादा अच्छा जवाब है। कोई तुमसे कुछ पूछे, एक जवाब हो सकता है, ‘हाँ, बता रहा हूँ’, एक जवाब हो सकता है, ‘नहीं बताऊँगा।’ एक जवाब हो सकता है — एक बार देख लो कि तुम जानना क्यों चाहते हो। पहले देख लो कि आप जानना क्यों चाहते हो। बता तो मैं दूँगा पर आपको स्पष्टता है कि आप जानना क्यों चाहते हो?

ये बात बहुत सारे उन सवालों पर भी लागू होती है जो आप मुझसे पूछते हो। क्यों पूछना चाहते हो ये बात? इसीलिए फिर मुझे प्रश्न से पहले प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करना पड़ता है। तो लोगों को कई बार नाराज़गी भी हो जाती है, वो कहते हैं, ‘सीधे-सीधे इस सवाल का जवाब देते नहीं हैं, ये हमारी जाँच-पड़ताल शुरू कर देते हैं। अरे सवाल पूछा है सवाल का जवाब दो न, ये क्यों पूछ रहे हो, अच्छा, कहाँ से आ रहे हो? आज क्या खाया था? ये क्यों पूछ रहे हो?’

आ रही है बात समझ में?

ज्ञान को लेकर बहुत सतर्क रहिए। जो ज्ञान मुक्ति की ओर ले जाता हो उसको पाने के लिए जो कीमत अदा करनी हो कर दीजिए, जितना प्रयास आप करें, कम है। और जो ज्ञान व्यर्थ है, उसको ज़रा सा भी भीतर प्रवेश न करने दें, भले ही वो मुफ़्त मिल रहा हो ज्ञान। वो ऐसा लगेगा शुरू में कि वो मुफ़्त मिल रहा है; वो मुफ़्त नहीं है वो किसी चतुर दुकानदार की चाल है जो बाहर से मुफ़्त का माल दिखाकर, अन्दर बुलाकर लूट लेता है। और असली ज्ञान बिलकुल उल्टा है। वो बाहर से बहुत महँगा लगता है, जब पा लो तो पता चलता है, ‘अरे, ये तो कौड़ियों के दाम मिल गया!’

समझ में आ रही है बात?

जो नकली ज्ञान होता है न जिससे हम सभी भरे हुए हैं, कोई आपको मिलता है जो कहे कि मैं ज्ञानी हूँ, सब आत्मविश्वास से बिलकुल छलछलाते हैं कि नहीं? मैं बताता हूँ, मुझे पता है। सब ज़िन्दगी के बिलकुल विशेषज्ञ हैं, हैं कि नहीं? हर आदमी ज़िन्दगी के बारे में जानता है, ’आइ विल टेल यू’ (मैं तुम्हें बताऊँगा), ऐसा-वैसा, ये-वो।’ इन सबने मुफ़्त ज्ञान इकट्ठा करा है, इतना सारा कूड़ा इन्होंने कीमत देकर थोड़े ही इकट्ठा किया, ये सब कूड़ा इन्हें मुफ़्त मिला। इन्होंने इसी लालच में इकट्ठा कर लिया कि ये तो मुफ़्त है। वो मुफ़्त बाहर-बाहर से लगता है, वो भीतर जाकर के आपकी पूरी ज़िन्दगी खा जाता है, इतनी बड़ी कीमत लेता है।

सही ज्ञान उल्टा होता है, उसको जब आप पाने चलेंगे तो लगेगा, ‘अरे बाप रे बाप इतनी मेहनत करनी पड़ेगी, इतना समय लगना पड़ेगा, बड़ा महँगा है। जब मिल जाएगा तो धन्यवाद देंगे। कहेंगे, ‘अरे, जितना समय लगाया वो तो कुछ भी नहीं था! इतनी ऊँची चीज़ है कि अगर ये इतनी सी मेहनत में मिल गयी तो बड़ी सस्ती मिल गयी।’ आ रही है बात समझ में?

मुफ़्त का ज्ञान जहाँ भी मिलता पाएँ समझ जाएँ (कि कुछ गड़बड़ है)। और सबकुछ आपको आतुर हैं मुफ़्त का ज्ञान देने में। विज्ञापन का एक बिल बोर्ड भी है न जो सड़क किनारे लगा हुआ है। वो भी आपको सीधे-सीधे चीज़ नहीं बेच रहा, वो असल में आपको ज्ञान दे रहा है। वो आपको इस तरह का ज्ञान दे रहा है कि आप उस चीज़ को खरीद लें।

कोई आपसे कभी ऐसे कहता है सीधे कि ये मेरा माल है, खरीद लो? कभी किसी विज्ञापन दाता ने ऐसे बोला है क्या ‘मेरी चीज़ खरीद लो’? या कभी इतनी ईमानदारी से बोला है, ‘कृपया मेरी चीज़ खरीद लें क्योंकि मैं पैसा कमाना चाहता हूँ’, ‘मेरी चीज़ खरीद लो ताकि मेरा मुनाफा बढ़ जाए’? कोई ऐसे बोलता है क्या? वो ऐसे नहीं बोलेंगे, वो आपको ज्ञान देंगे, क्या ज्ञान देंगे? तुम्हारी ज़िन्दगी में ये चीज़ होनी चाहिए तभी तुम्हारी ज़िन्दगी जीने लायक है। ये उन्होंने क्या दिया? ज्ञान। अब इस ज्ञान के वशीभूत होकर आप उसका माल खरीदोगे। हर कोई आपको ज्ञान देने पर आतुर है ताकि उस ज्ञान के कारण आप उसका माल ले लो। ज्ञान के बिना माल बिकेगा नहीं, ये जो व्यर्थ का ज्ञान है इससे बचना है। ठीक है?

मन पर नज़र रखिए। श्लोक का जो पहला वाक्य है कितना सुन्दर है! ‘सिर्फ़ संसार पर नहीं, मन पर नज़र रखिए।’ संसार की ओर तो नज़र खुद ही चली जाती है, उसमें कोई प्रयास करना पड़ता है? आँख खोलो क्या दिखाई पड़ता है? लेकिन खुद को देखने के लिए प्रयास, अभ्यास सब करना पड़ता है। मन पर नज़र रखिए। जिसने मन पर नज़र रख ली उसी का नाम जीवनमुक्त है। ठीक है?

प्र ३: आचार्य जी, श्लोक में जो क्षेत्रज्ञ की बात की, तो उसमें बोला कि वो क्षेत्रज्ञ ही अहम् है, मैं जो है। और जो आपने बताया कि जो आप हैं वो ये प्रकृति के दोनों सिरों से आप अलग हो, और जो अहम् होता है वो काम कोई भी करता है अपने लाभ के लिए करता है। तो आज मैं भी अभी बैठा हूँ आपके सामने, सुन रहा हूँ तो अपने लाभ के लिए सुन रहा हूँ। तो ये जो सुना है क्या वो ही क्षेत्रज्ञ है? वो ही क्षेत्रज्ञ है तो फिर जो सही में ‘मैं’ है वो फिर कहाँ है?

आचार्य: जिसके साथ कुछ भी हो रहा हो, चाहे अच्छा चाहे बुरा, शुभ चाहे अशुभ, वो है अहंकार ही। ठीक है? दोहराओ। सब बुरी घटना किसके साथ होती है? सब भली घटना भी किसके साथ होती है?

श्रोतागण: अहंकार के साथ।

आचार्य: सब कुत्सित विचार किसको आते हैं?

श्रोतागण: अहंकार के साथ।

आचार्य: सब उच्च विचार किसको आते हैं?

श्रोतागण: अहंकार के साथ।

आचार्य: सब अशुभ किसके साथ होता है?

श्रोतागण: अहंकार के साथ।

आचार्य: सब शुभ भी किसके साथ होता है?

श्रोतागण: अहंकार के साथ।

आचार्य: आत्मा के साथ कभी कुछ होता नहीं। तो ये पूछने की बात ही नहीं है कि ये सुनने वाला कौन है। आत्मा सुनती है कभी कुछ? न बोलती है, न सुनती है, न उसके मुँह है, न उसके कान हैं। इसीलिए न उस तक मुँह पहुँच सकता, न उस तक कान पहुँच सकते। अगर उसके पास मुँह होता तो उस तक तुम्हारे कान पहुँच सकते, और अगर उसके पास कान होते तो उस तक तुम्हारा मुँह पहुँच सकता। उसके पास न मुँह है, न कान है। अगर उसके पास चेहरा होता तो उस तक तुम्हारी आँख पहुँच सकती, उसके पास कुछ नहीं है।

इसीलिए ये विचार करो ही मत कि कोई भी घटना घट रही है उसका भोक्ता कौन है। भोक्ता भाई तुम ही हो, अनिवार्यतः तुम ही हो। तो अब बात आती है कि शुभ का भी, अशुभ का भी? जी। क्योंकि आपके पास शक्ति है चुनाव की। इसी में तो अहम् की ताकत है, इसी में तो उसकी मुक्ति की सम्भावना है, वो शुभ और अशुभ के बीच चुनाव कर सकता है। चाहे तो शुभ को चुन ले, चाहे तो अशुभ को चुन ले।

ये जो हम यहाँ बैठकर के कसरत कर रहे हैं, ये क्यों कर रहे हैं? ताकि हम अभ्यस्त हो जाएँ शुभ को चुनने के, ताकि हम एक-दूसरे को हौंसला दे पायें, ताकि हम एक-दूसरे से संवाद करके, कभी बहस करके इस निर्णय पर पहुँच पायें कि शुभ ज़्यादा लाभप्रद है। ये सबकुछ हमें ही करना है। हमें माने अहम्।

हमें ही करना है, आत्मा कुछ नहीं करने वाली। आत्मा तो बस समझ लो प्रियवर की तरह है। अति सुन्दर जो बहुत दूर से ललचाता भर है। जो करना है तुम्हें करना है, वो कुछ नहीं करने वाला, या वो कुछ करता भी है तो इतने छुपे तरीके से करता है कि हमारी बुद्धि नहीं जान पाती। सारी ज़िम्मेदारी किसकी है करने की? सारी ज़िम्मेदारी किसकी है? जानते हो इसी का नाम क्या है? समर्पण।

समर्पण का मतलब ये नहीं है कि मेरा खेल तो अब कोई और खेलेगा, मेरी नैय्या तो कोई और खेलेगा। समर्पण का मतलब होता है कि मैंने ये भाव हटा दिया कि कोई और ज़िम्मेदार है, मैंने जो मिथ्या बात थी उसका समर्पण कर दिया। समर्पण का मतलब बड़ी-से-बड़ी ज़िम्मेदारी होता है। समर्पण का मतलब होता है, मेरे पास ये ज़िम्मेदारी है कि बस तुझ एक को ही समर्पित रहूँ। और बाकी चीज़ों से अब मुझे लेना-देना नहीं।

आत्मा शब्द का इस्तेमाल मत करो, अपने व्याकरण से ही हटा दो आत्मा शब्द को। आत्मा को जब कुछ करना नहीं, कुछ भोगना नहीं, दिखाई उसे देना नहीं, सुनाई उसे देना नहीं तो उसकी बात करने से कोई लाभ है? लाभ है अहम् की बात करने से क्योंकि सारी घटना वहाँ घट रही है, सब गर्मा-गर्म मसाला वहाँ पर है। भूचाल आया हो तो कैमरा आकाश की ओर करोगे या एपीसेंटर (भूचाल का केन्द्र) की ओर? वो जो एपीसेंटर है उसका क्या नाम है?

श्रोतागण: अहम्।

आचार्य: अहम् भूकम्प का केन्द्र है और ज़िन्दगी वो क्षेत्र है जहाँ भूकम्प आया हुआ है। अहम् जो है भूकम्प का केन्द्र है, एपीसेंटर है। और हमारी ज़िन्दगी क्या है? वो सारी जगह उस केन्द्र के इर्द-गिर्द जहाँ भूकम्प आया हुआ है। वहाँ सब तबाही, तहस-नहस दिखाई दे रहा है और हम आध्यात्मिक लोग अपना कैमरा किधर को करते हैं? आकाश की ओर। कह रहे हैं, ‘आत्मा, आत्मा।’ मूरख आदमी! तबाही तेरी टाँगों के इर्द-गिर्द है, नीचे देख।

मेरी आधी ऊर्जा यही समझाने में जाती है कि ऊपर देखना बन्द करो, उधर-उधर की दुनिया की बातें हैं, ‘यहाँ ये होता है, वहाँ वो होता है मिस्टिसिज़्म , ये, वो’, बन्द करो आसमान की बातें करना। बर्बादी सारी कहाँ है? यहाँ। ये तुम्हारी ज़िन्दगी है ज़मीन पर। जी कहाँ रहे हो? आसमान में कि ज़मीन में? तो कैमरा आसमान की ओर काहे कर रखा है? और कुछ दिखाई देगा? आसमान की ओर कैमरा कर दो, उसमें कुछ दिखाई देता है? कुछ भी नहीं है। आत्मा तो निरभ्र आकाश है वहाँ तो बादल भी नहीं है, कुछ नहीं दिखाई देगा। पर बातें यही चल रही है, ये फिर वो, इधर-उधर की दुनिया की बातें। ज़मीन की बात नहीं करेंगे, ज़िन्दगी की बात नहीं करेंगे। कैसे उठ रहे हो, कैसे बैठ रहे हो, क्या टूटा पड़ा है, क्या बिखरा हुआ है, क्या चुभ रहा है, कहाँ से खून जा रहा है — इसकी बात नहीं कर रहे। इधर-उधर की बात।

प्र ४: हम सम्बन्ध कैसे बाँधेंगे? अभी हम कर रहे हैं और आत्मा का सम्बन्ध कैसे बाँधेंगे? कोई सम्बन्ध, लिंक?

आचार्य: बीच में तुम्हारी जो बेचैनी है, तुम्हारा जो दर्द है वही लिंक है। बीमारी और स्वास्थ्य के बीच में क्या सम्बन्ध होता है? क्या कड़ी, क्या लिंक होता है?

प्र ४: पीड़ा।

आचार्य: हाँ, वही तो है और क्या। पीड़ा! बीमारी में अगर तकलीफ़ न हो तो स्वस्थ होने की कोई ज़रूरत होगी? तो तकलीफ़ ही तो वो कड़ी है जो जोड़ती है दोनों को — बीमारी को और स्वास्थ्य को।

प्र ४: तो बन्धन सबकी बीमारी है। तो किसी को ज़्यादा दुख होता है किसी को कम दुख, क्यों?

आचार्य: बहुत सारे लोग पेनकिलर (दर्दनाशक) खाते हैं। पीड़ा तो पूरी होती है पर तुम दर्द दबाने वाली गोलियों पर जी रहे हो, तो पीड़ा पैगाम, परम का पैगाम आएगा ही नहीं। पीड़ा ही दबा दी। दर्द दबाने वाली गोलियाँ कौन-कौनसी होती हैं? दो तो बैठे हैं पीछे उन्होंने ही बता दिया था, एक कचौड़ी, एक समोसा! उसके अलावा इडली और डोसा! और बहुत सारे जहाँ-जहाँ मन लगे। इन सब तरीकों से हम अपना दर्द दबाये रहते हैं।

प्र ३: आचार्य जी, जैसे श्लोक में बताया कि हमारी आइडेंटिटी वहाँ से हटानी है तो अहम् से फिर आइडेंटिटी हटाएँगे कैसे? उसको हम देखेंगे तो फिर उसको देखने के बाद फिर वहाँ से आइडेंटिटी हटाएँगे कैसे? जैसे मैं अभी आपको सुन रहा हूँ…

आचार्य: क्योंकि अहम् के अलावा एक अज्ञात विकल्प उपलब्ध है। अहम् जाना-पहचाना विकल्प है। अहम् जिन जगहों पर टिका रहता है, जहाँ-जहाँ जाकर चिपका रहता है वो सारे विकल्प कैसे हैं?

प्र ३: जाने-पहचाने।

आचार्य: जाने-पहचाने विकल्प हैं। तो अहम् की जो सामान्य अवस्था है वो हमारे लिए एक ज्ञात विकल्प है, हम खूब जानते हैं कि वहाँ पर हाल-चाल कैसा है। जैसा हम अपना घर जानते हैं, जैसे अपनी कम्यूनिटी को जानते हैं, अपने अड़ोस-पड़ोस, मोहल्ले को जानते हैं, पूरा जाना-पहचाना है। तो अहम् आमतौर पर इन जानी-पहचानी जगहों से चिपका रहता है। वहाँ तकलीफ़ तो है, बोरियत तो है लेकिन एक तरह की सुरक्षा है, पता है कि मामला अपना है। जो विकल्प है वो उपलब्ध तो है पर ज्ञात नहीं है। विकल्प तो है लेकिन वो विकल्प कहाँ ले जाएगा तुमको, उस विकल्प का अर्थ क्या है, उस विकल्प में जीवन कैसा होगा वैकल्पिक, ये कुछ पता नहीं है हमें।

अब ये आपको तय करना है कि आपको ज्ञात दुख चुनना है या अज्ञात मुक्ति। यही चुनाव है, और कुछ नहीं। दुख ज्ञात है तो दुख में सुरक्षा है। मुक्ति अज्ञात है, बिलकुल अज्ञात है तो उसमें डर लगता है। मुक्ति तो है पर पता नहीं, मुक्ति माने क्या। अभी पिट तो रहे हैं लेकिन इतना तो पता है कि दो ही चाटें पड़ने हैं दिन के। तो पिटाई भी सुनिश्चित है, ज्ञात है। इतना तो पता है कि दो चाँटे से ज़्यादा नहीं पड़ना है रोज़। मुक्ति में पता नहीं क्या हो जाएगा! दो चाँटा, दो ही तो पड़ता है न, खुद को हम फिर तर्क देते हैं समझाते हैं कि अरे, ये दो गाल किसलिए दिये गए, तीसरा चाँटा तो पड़ नहीं रहा! माने बात बिलकुल इंसाफ़ की है — दो गाल, दो चाँटे। मुक्ति में पता नहीं क्या हो जाए! हम ही न बचें! अभी तो सिर्फ़ चाँटा खा रहे हैं।

प्र ३: अभी मैं आपको सुन रहा हूँ तो आपने बोला कि जो अभी सुन रहा है वो भी अहम् है, वो ही सुनता है, सब करता है तो वो असली आइडेंटिटी तो है नहीं, जैसे आपने जो ट्रू आइडेंटिटी बताया।

आचार्य: अहम् ही असली है अगर वो असली से जुड़ जाए, तभी तो कहा जाता है “'अहम् ब्रह्मास्मि।”

प्र ३: तो अभी अहम् कैसे जुड़ेगा अभी जैसे आपको सुन रहा हूँ?

आचार्य: नकली से ऊबकर, नकली से तंग आकर के। असली से जुड़ना नहीं होता, नकली को लात मारनी होती है। असली तो अभी बताया न क्या है। अज्ञात है। और आगे जाओ अज्ञेय है। उसका कुछ पता नहीं चल सकता तो असली से जुड़ कैसे जाओगे? असली का कुछ पता होता और बहुत प्यारा-प्यारा होता, भीना-भीना होता तो सारी दुनिया न जाकर अबतक असली से चिपक गयी होती? असली के साथ खौफ़ यही है कि उसका हमें कुछ पता चल ही नहीं सकता।

तो असली से जुड़ने का कोई सवाल नहीं है। काम सारा इसीलिए नकारात्मक करना होगा, निगेटिव करना होगा, नकार की, “नेति-नेति” की भाषा में बात करनी होगी। क्या करना होगा? नकली को हटाना होगा। असली को पाना, बल्कि और इसको तुम सुन्दर भाषा में कहना चाहते हो तो ऐसे कह सकते हो कि असली को पाने का मतलब ही यही है कि असली तुम्हें ऊर्जा दे दे, आशीर्वाद दे दे कि तुम नकली को ठुकरा सको। असली से यही माँगा जा सकता है कि वो मुझे इतनी ऊर्जा दे कि मैं नकली को अस्वीकार कर सकूँ। वरना असली को कैसे पा लोगे?

अहम् नकली नहीं होता। अहम् का चुनाव या तो असली के प्रति होता है या नकली के प्रति होता है। अहम् असली को चुन ले तो अहम् से ज़्यादा असली और क्या है! जिस अहम् ने असली को चुन लिया तो वो अब अहम् नहीं रहा, वो ब्रह्म हो गया, वही असली है। अहम् नकली इसलिए कहा जाता है क्योंकि सामान्यतः अहम् नकली को ही चुनता है इसलिए अहम् को इतना ज़्यादा निकृष्ट और कहा जाता है, इतना उसको तिरस्कृत किया जाता है कि अरे, ये बड़ा अहंकारी है, बड़ा अहंकारी है।

किसी ऋषि का अहंकार हो तो वो पूजनीय अहंकार है। ऋषि का जो अहंकार है वो पूजनीय अहंकार है, क्योंकि ऋषि की अहंता अब क्या हो गयी? वो पूर्णता हो गयी। ऋषि की अहंता अब पूर्णता बन चुकी है, तो उसके अहम् की तो तुम पूजा कर सकते हो। ठीक है?

प्र २: मेरा सवाल ये है कि अहम् को मरना होगा तब प्रभु मिलेंगे। या तो तुम नहीं रहोगे या तो प्रभु रहेंगे। एक म्यान में दो नहीं आ सकते तो फिर वहाँ पर अहम् का क्या स्थान होगा?

आचार्य: इसका मतलब होता है कि जब दो चीज़ें चुननी हो तो दोनों नहीं चुनी जा सकती। तो सीधी सी बात है, चुनाव की परिभाषा का क्या मतलब है? दो में से एक बस। तो अहम् के सामने हमेशा विकल्प होता है, ज़िन्दगी के हर पल में तुम्हारे सामने ये विकल्प होता है या तो ये कर लो या ये कर लो (मेज़ पर दायीं ओर, बायीं ओर संकेत करते हुए), या तो ये पकड़ लो या तो ये पकड़ लो। एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती, माने इसको और इसको एक साथ नहीं पकड़ सकते। वो तो जाहिर सी बात है, दो रास्तों पर एक साथ कौन चल सकता है!

प्र ३: फिर सही पकड़े रहेंगे हम।

आचार्य: सही पकड़कर रहोगे। तुम सही पकड़कर बिलकुल मस्त हो जाओगे, ज़बरदस्त हो जाओगे।

YouTube Link: https://youtu.be/deQbfX9x1Z4

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