जो जीवन को मृत्यु जाने, वो मृत्यु के पार हुआ || आचार्य प्रशांत, आजगर गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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जो जीवन को मृत्यु जाने, वो मृत्यु के पार हुआ || आचार्य प्रशांत, आजगर गीता पर (2020)

अन्तरिक्षचयाणां च दानवोत्तम पक्षिणाम्। उत्तिष्ठते यथाकालं मृत्युर्बलवतामपि।।

दानवश्रेष्ठ! आकाश में विचरणे वाले बलवान पक्षियों के समक्ष भी यथासमय मृत्यु आ पहुँचती है। ~ आजगर गीता, श्लोक १६

दिवि सञ्चरमाणानि ह्नस्वानि च महन्ति च। ज्योतींष्यपि यथाकालं पतमानानि लक्षये।।

आकाश में जो छोटे-बड़े ज्योतिर्मय नक्षत्र विचर रहे हैं, उन्हें भी मैं यथासमय नीचे गिरते देखता हूँ। ~ आजगर गीता, श्लोक १७

इति भूतानि संपश्यन्ननुषक्तानि मृत्युना। सर्वं सामान्यतो विद्वान्कृतकृत्य: सुखं स्वपे।।

इस प्रकार सारे प्राणियों को मैं मृत्यु के पाश में बद्ध देखता हूँ; इसलिए तत्व को जानकार कृतकृत्य हो सबके प्रति समान भाव रखता हुआ सुख से सोता हूँ। ~ आजगर गीता, श्लोक १८

आचार्य प्रशांत: तो इसमें जो सन्दर्भ है वो ये है कि आजगर गीता है, महाभारत के शान्ति पर्व के अन्तर्गत आती है| महाभारत में कई गीताएँ हैं, श्रीमद्भगवद्गीता तो हम जानते हैं, उसके अतिरिक्त भी कई गीताएँ हैं। उनमें से एक है ये, आजगर गीता|

तो शान्ति पर्व के अन्तर्गत भीष्म-युधिष्ठिर संवाद है। युधिष्ठिर पूछ रहे हैं भीष्म से कि बताइए समभाव रखते हुये दुख-सुख से परे धरती पर कैसे विचरा जा सकता है? तो भीष्म फिर राजा प्रहलाद की और एक ब्राह्मण अवधूत की कहानी सुनाते हैं|

तो एक अवधूत है वो अपना मज़े में यूँहीं बस विचरण कर रहा है। तो राजा प्रह्लाद उसको देखते हैं और बहुत अचम्भित होते हैं, प्रभावित होते हैं। उससे पूछते हैं किभई, आप सब तरह से ज्ञानी लगते हैं, समझदार लगते हैं, तत्वज्ञ हैं, मर्मज्ञ हैं, उसके बाद भी आप कुछ पाने की अभिलाषा नहीं रखते| शरीर आपका सुदृढ़ है, बुद्धि आपकी तीव्र है, आप बस यूँहीं विचर रहे हैं। ये क्या बात है?

तो जो अवधूत हैं, वो फिर राजा प्रहलाद को उपदेश देते हैं, कुछ बात बताते हैं। वही जो बात है, वो इस आजगर गीता का मर्म है| तो ये जो यहाँ पर बात कही गयी है, ये अवधूत ने राजा प्रह्लाद को कही, ये समझाते हुए कि वो कैसे इतने विरक्त भाव से आनन्दपूर्वक विचरण कर रहा है|

क्या कहा अवधूत ने? कि देखो राजा, आकाश में विचरने वाले बलवान पक्षियों के समक्ष भी यथा समय मृत्यु आ जाती है| और आकाश में जो छोटे-बड़े सब नक्षत्र हैं उनको भी मैं यथा समय नीचे गिरते देखता हूँ| तो इस तरह सारे ही प्राणियों को मैं मौत के पाश में बन्धा देखता हूँ; इसलिए फिर मैं सच को जान कर कृतकृत्य हो, कृतकृत्य माने जिसके पास अब करने को कुछ बचा नहीं, जिसके सारे कर्म पूरे हो गये, जो अब कर्मफल से आगे निकल गया|—इसलिए तत्व को जानकर कृतकृत्य हो सबके प्रति समान भाव रखता हुआ, मैं तो सुख से सोता हूँ|

तो सवाल पूछा है कि ब्राह्मण जी, ब्राह्मण जी से यहाँ आशय अवधूत से है| ब्राह्मण जी अपने चारों ओर पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं, कीड़े-मकोड़ों तथा नक्षत्रों की मृत्यु को देखते हैं| इससे उनको संसार की नश्वरता दिखाई देती है| पर मेरे कुटुम्ब में तो अगर किसी की मृत्यु भी हो जाती है तो मुझे संसार निस्सार क्यों नहीं दिखाई पड़ता? कुछ समय के लिये दुख होता है फिर दोबारा जीवन की दौड़-भाग में लग जाता हूँ| संसार की नश्वरता की स्मृति कैसे बनाये रखें? मार्गदर्शन करें|

नहीं! मौत की घटना देख करके थोड़े ही नश्वरता पता चल जाएगी| बात नहीं समझ रहे हैं! जिसको आप जीवन कहते हैं, वो तो होता है बहुतलम्बा, मौत तो बस एक क्षणिक घटना होती है| आपने अगर मौत को ऐसे ही परिभाषित किया है कि मौत बस एक क्षणिक घटना है, तो ज़्यादातर समय आपका अनुभव किसका है, मृत्यु का या अमृत्यु का?

आपके हिसाब से तो कोई आदमी अगर सत्तर साल जिया तो वो सत्तर साल मरा हुआ नहीं था, है न? आप कहेंगे, ‘अभी ये अ-मृत है, अभी ये अ-मृत है। अभी ये मरा हुआ नहीं है! अभी ये अ-मृत है!’ और फिर वो मरता है। और वो जो मरने की घटना होती है वो कुल एक पल की होती है। कहते हो, ‘अभी ज़िन्दा था, अब मर गया!’

चलो हो सकता है बीमार होकर मरा हो, तो दो-चार दिन या दो-चार महीने अस्पताल में रहकर मरा| मरने के बाद उसकी अन्त्येष्टि और सब फिर कर्मकांड हुए, उसमें भी चलिए हफ्ता-भर, दो हफ्ते लग गये| लेकिन कुल मिला-जुलाकर के ये जो मरने का प्रसंग था, ये रह तो क्षणिक ही गया न? या तो एक क्षण का या दो महीने का या दो हफ्ते का| इसकी तुलना में आप जिसको जीवन कहते हैं, जिसको आप अमृत्यु कहते हैं, वो कितना लम्बा था? वह सत्तर साल का था| तो ज़्यादातर समय आपकी नज़रों में आपका अनुभव अमृत्यु का रहता है। ज़्यादातर समय आपका परिचय अमृत्यु से रहता है|

मौत आपको दिखायी नहीं देती। और जैसे-जैसे विज्ञान का, तकनीकी का, दवाओं का, चिकित्सा-शास्त्र का, विकास होता जा रहा है, वैसे-वैसे मृत्यु और टलती जा रही है न? दूर होती जा रही है| पहले तो फिर भी ये होता था कि मौतें ज़्यादा हो जाती थीं। छोटे बच्चे पैदा होते थे, उनकी मृत्यु हो गयी। जवान लोगों की मौत हो गयी। वो सब भी नहीं होता|आदमी की औसत आयु विश्व भर में अब अस्सी साल पहुँच रही है, यूरोप के देशों में तो अस्सी साल से ज़्यादा है, जापान में भी! तो मौत अगर आपकी नज़रों में सिर्फ़ शरीर के चेतनाशून्य हो जाने का नाम है, तो वो मौत तो विरल हो गयी है| विरल माने कम, एकदम रेयर (दुर्लभ), कभी-कभार घटने वाली|

तो मौत आपको क्यों दिखायी देगी? आपको तो अपने चारों तरफ बस गुलज़ार ज़िन्दगी दिखायी देगी। ज़िन्दगी है, ज़िन्दगी की बहार है! मौत कहाँ है? और जहाँ मौत घट भी रही है, वो घटना आपसे अक्सर छुपा दी जाती है|उदाहरण के लिये, रोज़ अरबों जानवर कटते हैं| पर आपको मौत दिखायी देती है क्या? कहिए! उनको तो काटा ही आपसे छुपाकर जाता है क्योंकि अगर आपको दिख गया कि आप जिसको अपनी थाली का भोजन समझ रहे हैं, वो वास्तव में किसी का शरीर है जिसको क्रूरतापूर्वक काटा गया है। उसका माँस छीला गया है। और आपकी थाली में भोजन बनाकर परोस दिया गया है, तो आप खा ही नहीं पाएँगें| तो मौत छुपा दी जाती है|

तो पहली बात तो मौत की घटना कम हो रही है, थोड़ी बिरली हो गई है। दूसरी बात जहाँ हो भी रही है, वहाँ छुपा दी जाती है। और तीसरी बात, जहाँ आपने देख भी ली वो मौत ,उसको मौत का नाम नहीं दिया जाता। उसको कोई और ज्यादा आकर्षक, अलंकृत, सुन्दर नाम दे दिया जाता है| विकास का नाम दे दिया गया| बात समझ रहे हो?

उदाहरण के लिये, अब कहीं पर लोगों के बसने के लिए जंगल काटा जा रहा है। तो आप ये थोड़े ही कहोगे कि देखो, जंगल मार दिया गया| आप कहोगे, ‘शहर का विकास हो गया।’ आप कहोगे, ‘एक शहर को जीवन मिला।’ आप ये थोड़े ही कहते हो, ‘एक जंगल को मौत मिली|’ तो नामकरण गलत कर देते हैं| तो कई तरीकों से मौत से हमारा परिचय ही बड़ा कम और बड़ी दूर का रहता है| समझ रहे हो?

तो फिर इसलिए आपको जो मौत है, वो कहीं दिखायी नहीं देती है और इसलिए आपको संसार निस्सार नहीं पता चलता| संसार निस्सार किसको पता चलता है? बाबा, संसार निस्सार उसको पता चलता है जिसको जीवन कहीं नहीं दिखायी देता, बस मौत-ही-मौत दिखायी देती है|आप कहेंगे, ‘ऐसा तो साहब है नहीं!’ जीवन हम कैसे कह दें, कहीं नहीं है। ‘हम तो जीवित हैं न?’ जब तक तुम अपने आपको जीवित समझ रहे हो पगले! तब तक तुम जीवन में ही फँसे रहोगे, जीवन मुक्त नहीं हो पाओगे|

जीवन से मुक्त वही हो सकता है, इस गीता के अवधूत की स्थिति में वहीं पहुँच सकता है, जिसको ज़िन्दगी में ही मौत दिखायी देने लगे। जो इंतज़ार न करे कि प्राण पखेरू उड़ने का समय आएगा तब अपनेआप को मुर्दा मानूँगा। जो कहे कि मैं तो अभी ही मुर्दा हूँ| मुझमें ऐसा है कहाँ कुछ जिसको मैं जीवित बोलसकूँ? इसको ज़िन्दगी कहते हैं?

मैं बचपन में एक गाना सुना करता था, अमिताभ बच्चन की आवाज़ में था, जिसमें वो जो नायक है पिक्चर का वो सब छोटे-छोटे बच्चों को एक गाना सुना रहा है|कुछ ऐसे शुरू होता था, ‘घने जंगलों से गुज़रता हुआ मैं चला जा रहा था! अमावस की वो रात थी! ऐसे करके। (गायन करते हुये) घने जंगलों से गुज़रता हुआ, मैं चला जा रहा था!’ ऐसे, ‘मेरे पास आओ मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनाऊँ!’ और सब छोटे-छोटे बच्चे हैं|

मैं बच्चा था, मैं सुनता था। तो बाकी तो सब ठीक था लेकिन इसकी जो आखिरी पंक्ति थी, वो मुझे अचरज में डाल देती थी और कुछ इशारा करती थी, जीवन की प्रकृति के बारे में| अन्त में ये जो,ये जो गीत सुनाया जा रहा है, इसमें ऐसा होता है कि ये कहते हैं कि घने जंगलों से गुज़रता हुआ मैं चला जा रहा था और तभी शेर आता है। और शेर इनको दौड़ाता है। शेर से इनका मुकाबला होता है और अन्त में कहते हैं, ‘खुदा की कसम बस मज़ा आ गया, मुझे मारकर बेशर्म खा गया!’

समझियेगा! तो छोटे बच्चे सामने बैठे हैं और ये जो पात्र है अमिताभ बच्चन का, ये कह रहा है, (दोबारा धीरे-धीरे गाते हुये) ‘खुदा की कसम बस मज़ा आ गया, मुझे मारकर बेशर्म खा गया!’ शेर की बात हो रही है, खा गया! तो एक बच्चा बोलता है, ‘खा गया! लेकिन तुम तो ज़िन्दा हो!’ तो आखिरी पंक्ति आती है जिस पर गीत खत्म हो जाता है| ‘ज़िन्दा हूँ? ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!’ बस! लेकिन तुम तो ज़िन्दा हो! बच्चा बोलता है, अपनी बाल सुलभ आवाज़ में, (बच्चे की आवाज़ में बोलते हुए) ‘लेकिन तुम तो जिंदा हो!’ ‘ज़िन्दा हूँ? ये जीना भी कोई जीना है प्यारे!’

तो मैं सुनूँ, मैं ऐसे ही चार-पाँच साल का रहा होऊँगा। और बार-बार इस बात का मतलब समझने की कोशिश करूँ, ये क्या बोल रहा है। ये कह रहा है कि शेर इसको खा गया। शेर अगर इसको खा गया तो ये गाना कैसे सुना रहा है? और गाना सुना रहा है तो इसकी चोरी उस बच्चे ने पकड़ ली है|वो कह रहा है, ‘तुम तो ज़िन्दा हो।’ तो ये कह रहा है, ‘ये जीना भी कोई जीना है।’ ये अपनेआप को मुर्दा क्यों बोल रहा है, जबकि अभी ये ज़िन्दा था? मैं इस पर खूब खोपड़ीलगाऊँ, बात समझ में नहीं आये, लेकिन कुछ इशारा मिलता था|

आपको वो इशारा नहीं मिलता क्या? आप अपनेआप को देखते हैं, आपको नहीं लगता, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू! और नहीं लगता, तो जीवन आपको कभी निस्सार नहीं लगेगा| जो सिर्फ़ मौत में मौत देखता है, वो जीवन से आसक्त ही रहेगा। जीवन से विरक्त वही हो सकता है, जो ज़िन्दगी में भी मौत देखता है|आप ज़िन्दगी में मौत देख कहाँ पाते हैं? आप तो बड़े ठाठ के साथ, बड़ी चौड़ के साथ अपनेआप को ज़िन्दा ही बताए जाते हैं। कहाँ से ज़िन्दा हैं आप, बताइएगा? आपकी एक-एक हरकत पूर्व निर्धारित है। आप कर नहीं रहे, आपसे बस हो रही है|

आप कहें, ‘नहीं साहब! हम भी करते हैं।’ ‘अच्छा, देखते हैं कैसे? चलो एक मुर्दा ले आओ।’ मुर्दा ले आए, ठीक है! कहें, ‘मुर्दे में, आपमें क्या अन्तर है?’ ‘आप अपनेआप को जीवित बोलते हैं। आपमें, मुर्दे में क्या अन्तर है?’ कहें, ‘हम चल-फिर सकते हैं, गतिविधि कर सकते हैं। मुर्दा तो नहीं करता न!’ ‘अच्छा नहीं करता, देखो, मुर्दे का हाथ उठाया, उठा हाथ कि नहीं उठा? और फिर मुर्दे का हाथ छोड़ा, देखो नीचे गया कि नहीं गया?’

तो आप बोलेंगे, ‘नहीं-नहीं-नहीं-नहीं! ऐसे थोड़ी ही!’ मुर्दे का हाथ आपने उठाया इसलिए उठा, आप एक बाहरी ताकत हैं| मुर्दे का हाथ आपने उठाया इसलिए उठा और फिर मुर्दे का हाथ आपने छोड़ा तो गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे गया। गुरुत्वाकर्षण भी बाहरी ताकत है| मुर्दे ने खुद तो कुछ नहीं किया न? इसलिए मुर्दा, मुर्दा है| चलो इतनी सी बात तो तुम्हें समझ में आयी कि जो स्वयं कुछ ना करे उसे कहा जाता है, मुर्दा|

मुर्दा होने की निशानी ये नहीं है कि आपके हाथ-पाँव हिलेंगे नहीं। जिनके हाथ-पाँव हिल रहे हैं, वो भी मुर्दे हो सकते हैं। मुर्दे के हाथ-पाँव भी हिलाये जा सकते हैं न?तो हाथ-पाँव हिलने भर से आप जीवित नहीं कहला सकते| बिलकुल हो सकता है कि जिनके हाथ-पाँव बिलकुल चल रहे हैं, जो गति करते, चलते-फिरते, खाते-पीते नज़र आ रहे हैं, वो भी मुर्दे हों| हो सकता है न?मुर्दे के मुँह में भी कुछ डालो तो डल सकता है कि नहीं डल सकता? बोलो! और मशीनें ऐसी आ गयी हैं कि एकदम मुर्दे आदमी को भी तुम बहुत लम्बे समय तक कृत्रम रूप से ज़िन्दा रख सकते हो| उसकी धड़कन चलती रहेगी, उसका मस्तिष्क चलता रहेगा। तुम तकनीकी तौर पर कह सकते हो कि आदमी अभी मरा नहीं। है न?

तो मुर्दा होने की पहचान ये नहीं है कि तुम्हारा शरीर गति करना बंद कर देगा। गति तो मुर्दे का शरीर भी कर सकता है| मुर्दा होने की पहचान ये है कि तुम्हारे भीतर वो निजता नहीं रह जाती, वो स्वैच्छिकता नहीं रह जाती कि तुम एक प्राणवान व्यक्ति कहला सको, है न?तुम आत्मिक रूप से कुछ नहीं कर पाते। तुम स्वयं नहीं कर रहे, तुमसे करवाया जा रहा है| किसी और ने आकर तुम्हारा हाथ उठा दिया, तो हाथ उठ गया। तो तुम मुर्दा हो? ठीक! फिर पृथ्वी ने, यानि कि भौतिक ताकतों ने तुम्हारा हाथ नीचे खींच दिया, तुम्हारा हाथ गिर गया। तो तुम मुर्दा हो। ठीक?

अब तुम अपनी ज़िन्दगी देखो, तुम बताओ, तुम भी खुद कुछ करते हो क्या? या ये दूसरी ताकतें ही तुमसे करवा लेती हैं? जो स्वयं कुछ न करता हो, जिससे दुनिया की दूसरी ताकतें ही सब करवा रही हों, वही तो मुर्दा कहलाता है, पागल!तुमने खुद क्या किया आज तक? तुमसे जो करवाया, दूसरों ने करवाया। तुम कहोगे, ‘नहीं! हमारे बहुत सारे निर्णय तो हमारे रहे हैं। हम खुद करते हैं। ये है! वो है!’ दुनिया भर की गाथा सुनाओगे|ये जो तुम कह रहे हो न कि तुम्हारे निर्णय हैं! तुम्हारे विचार हैं! तुम्हारी इच्छाएँ हैं! वो सब भी तुम्हारे भीतर, दूसरों ने भर दिये हैं| तुम कहाँ हो इन सारी चीज़ों में?

जानते हो, मुर्दे डकार भी लेते हैं! मुर्दे के पेट में अगर गैस भरी हुई है और तुम पेट दबा दो, मुर्दा डकार ले लेगा| माने कि शरीर से सम्बन्धित भी जो गतिविधियाँ हो रही हैं,अब वो जो डकार है वो किसी बाहर वाले आदमी ने तो नहीं उसमें डाल दी। शरीर कर रहा है न?माने शरीर भी जिसका काम करता हो, अब जब डकार ली गयी, तो आवाज़ भी निकली होगी गले से, माने शरीर भी जिसका बोल रहा हो, वो भी ज़रूरी नहीं है कि ज़िन्दा हो। वो भी मुर्दा हो सकता है| तुम भी ज़्यादातर काम जो कर रहे हो, वो या तो तुमसे दूसरे करवा रहे हैं, या तुम्हारा शरीर तुमसे करवा रहा है। तुम ज़िन्दा कैसे कहे जा सकते हो?

तुम जो कुछ भी कर रहे हो, या तो तुमसे समाज करवाता है या तुमसे तुम्हारा शरीर करवाता है। तुम ज़िन्दा कैसे कहे जा सकते हो, बताओ? जब तक तुम झूठ-मूठ ही अकड़ करके अपनेआप को मानते रहोगे कि मैं जिंदा हूँ! मैं जिंदा हूँ! तब तक तुम्हें जीवन निस्सार दिखेगा ही नहीं|

जीवन निस्सार उसी होशियार आदमी को दिख सकता है, जिसमें ये दृष्टि है कि वो देख पाये कि मैं लगता तो हूँज़िन्दा, हूँ बिलकुल मुर्दा| क्योंकि आत्मा से नहीं चलता मेरा जीवन| या तो सामाजिक प्रभावों से चलता है या शारीरिक प्रभावों से चलता है|

जिसका भी जीवन समाज से चल रहा हो या शरीर से चल रहा हो, वो मुर्दा कहलाता है| हाथ तुम्हारा किसी ने उठा दिया है। किसने उठा दिया? किसी व्यक्ति ने उठा दिया है। तो ये सामाजिक प्रभाव है। और उसके बाद अपने ही वज़न के कारण तुम्हारा हाथ नीचे गिर गया, ये शारीरिक प्रभाव है| समझ में आ रही है बात?

आम आदमी का जीवन ऐसे ही चलता है। उससे पूछो, ‘कुछ भी तूने क्यों किया?’ तो वो कहेगा, ‘मैंने किया, उसने नहीं किया।’ या तो समाज ने करा या शरीर ने करा या दोनों ने मिलकर करा|उदाहरण के लिए, आपने कोई आदमी-औरत देखा। उसको देखने के कारण आपके शरीर में उत्तेजना बढ़ गयी| आपके शरीर में रसायनों का, हॉरमोंस का प्रवाह होने लग गया| तो आप कहते हो आपको प्रेम हो गया। ये किसने करवाया? शरीर ने करवाया! उसके बाद जब आप ज़्यादा हिलने-मिलने लग जाते हो उस आदमी-औरत से, तो आपको विवाह करना पड़ता है| आप कहते हो, ‘मैंने विवाह किया।’ पर आपने विवाह नहीं किया, किसने करवाया? समाज ने करवाया|

प्रेम शरीर ने करवाया, विवाह समाज ने करवाया| जिसको आप प्रेम बोलते हो, वो वास्तव में बस एक शारीरिक घटना थी। प्रेम शरीर ने करवाया और शादी समाज नेकरवायी|लेकिन दोनों ही चीज़ों में आपका दावा क्या रहता है? ‘साहब, मैंने इश्क़ किया और फिर मैंने शादी की|’ आपने कुछ नहीं किया पांडू! आप हो ही नहीं। आप मुर्दा हो, मुर्दा कुछ कर सकता है! आप होते तो कुछ करते भी। आप हो ही नहीं! यू डोंट एक्सिस्ट (आपका अस्तित्व नहीं है)|

आपके साथ घटनाएँ हो रही हैं, आप कर कुछ नहीं रहे| आपके साथ जो कुछ हो रहा है या तो आपका बदन कराता है या आपके आसपास की परिस्थितियाँ, समाज इत्यादि|जो ये बात देख लेगा उसको निस्सार दिखायी देने लग जाएगा, उसका वर्तमान जीवन। और जिसको ये मुर्दापना निस्सार दिखायी देने लग जाता है, वो फिर वास्तविक जीवन में प्रवेश करता है| वो बिलकुल दूसरी चीज़ है| उसकी बात मैं आपको क्या बताऊँ! जियो तो जानो! ये जो अपनी ही लाश ढोते फिर रहे हो, इसको तुम ज़िन्दगी बोलते हो! कमाल है!

YouTube Link: https://youtu.be/58fPWBZkfuQ?si=py3gJscxihmOAYt5

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