जैनों ने विरोध किया, हिंदुओं ने क्यों नहीं? (तीर्थाटन बना पर्यटन) || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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जैनों ने विरोध किया, हिंदुओं ने क्यों नहीं? (तीर्थाटन बना पर्यटन) || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता१: आचार्य जी, थैंक यू अपना समय देने के लिए, हम सभी को। तो हम सभी यहाँ पर आपस में एक विषय पर स्पेशली हाल ही में जो तीन घटनाएँ घटी हैं उनके ऊपर चर्चा कर रहे थे, और चर्चा करते वक़्त हमने यह पाया कि वो जो घटनाएँ हैं वो काफ़ी महत्वपूर्ण है, रोचक हैं और साथ ही गम्भीर हैं।

आचार्य प्रशांत: कौन सी घटनाएँ हैं।

प्र१: तीन घटनाएँ हैं हाल ही में घटी हैं, पिछले एक-डेढ़ महीने में। पहली है जैनियों से सम्बन्धित, मैं ख़ुद भी एक जैन हूँ। सम्मेद शिखर जी में वहाँ उस पूरी जगह को जो कि जैनियों का सबसे प्रमुख तीर्थ है, वहाँ पर उस जगह को टूरिस्ट प्लेस बनाने की कोशिश की जा रही थी।

पहली घटना यह थी जो हाल ही में घटी है। दूसरी घटना जोशीमठ से सम्बन्धित है, जहाँ पर ज़मीन जो है धँसने की बात वहाँ पर हो रही थी और वो भी उसमें जो ज़्यादातर कॉन्ट्रीब्यूशन (योगदान) है वो शायद मैनमेड एक्टिविटीज (मानव सम्बन्धित क्रिया-कलाप) का ही है।

और तीसरी जो घटना है वो गंगा विलास के बारे में है। जो कि अगेन टूरिज्म (पर्यटन) से ही रिलेटेड (सम्बन्धित) है। रिलीजियस टूरिज्म से रिलेटेड (धार्मिक पर्यटन) है। तो हम जब चर्चा कर रहे थे आपस में तो हमने ये पाया कि जो तीनों ही विषय हैं, तीनों ही घटनाएँ हैं— ये साझे रूप से किसी ओर इशारा कर रही हैं।

तो वो इशारा क्या है? यह बहुत ज़रूरी है कि हम आपसे जानें कि असल में बात है क्या। तो इस पर कृपया बताएँ।

आचार्य: तो आप लोगो ने चर्चा क्या करी है आपस में और ये लैपटॉप इसमें आप क्या डेटा, फैक्ट्स वगैरह क्या लेकर आयें हैं, पहले मुझे थोड़ी ब्रीफिंग दीजिए।

प्र२: एक्चुअली (वास्तव) एक बड़ा अच्छा सा कॉन्ट्रास्ट (विरोधाभास) देखने को मिल रहा था। एक तरफ़ जहाँ पर जो जैनियों की जो श्राइन (तीर्थ स्थल) है, जिसको हम सम्मेद शिखर जी बोलते हैं — उसको जैसे ही सरकार ने इको टूरिज्म स्पॉट डिक्लेयर (पर्यावर्णीय पर्यटन स्थल की घोषणा) किया तो उनकी ओर से बहुत बड़ा विरोध आया।

और उन्होंने फिर एक स्टेटमेंट , कल या परसों मेरे ख़्याल से, उन्हीं संस्थाओं में से किसी एक ने कहा था कि हम नहीं चाहते कि सम्मेद शिखर जी दूसरा जोशीमठ बन जाए।

तो मुझे वो स्टेटमेंट पढ़कर एक बहुत बड़ा कॉन्ट्रास्ट दिखा कि एक तरफ़ हम देख रहे हैं कि जहाँ जैनी अपने जो उनके धर्म स्थल हैं, उनको लेकर चाहते हैं कि वो जैसे आज पिलग्रिमेज (तीर्थ स्थल) की जगह हैं वो पिलग्रिमेज की जगह ही रहे, वो टूरिज्म स्पॉट न बन जाएँ।

और उसके दूसरे कॉन्ट्रास्ट में हम यह पाते हैं कि वाराणसी जैसी जगह हो या हमारा उत्तरांचल हो, ये जगहें पिलग्रमिज से हट के पूरी तरह से टूरिज्म की तरफ़ जा चुकी हैं और टूरिज्म की तरफ़ जब वो पहुँची हैं तो उनका हश्र जो हो रहा है वो हमारे सामने है।

तो ये कॉन्ट्रास्ट हमें बहुत अलग लग रहा था देखने में। मैं उसे समझना चाहता था कि ऐसा क्यों है?

आचार्य: और। और क्या।

प्र: मेरे मन में सर कुछ फंडामेंटल क्वेशन उठ रहे थे कि रिलिजियस टूरिज्म (धार्मिक पर्यटन) चीज़ क्या होती है? ये क्या बला है? रिलीजियस तो पिलग्रेमेज होता है टूरिज्म का तो अर्थ ही है कुछ ऐसा जो धार्मिक नहीं है, मौज-मस्ती के लिए किया जा रहा है।

रिलिजियस तो पिल्ग्रिमेज होगा, रिलिजियस टूरिज्म क्या बला है? तो ये सवाल मेरे मन में उठा।

प्र२: साथ में गंगा विलास सुनने में थोड़ा अजीब लग रहा था, एक तरफ़ गंगा है, एक तरफ़ विलास है। तो जैसे अंग्रेजी में ऑक्सीमोरान बोलते हैं तो सुनने में थोड़ा अजीब लगेगा कि एक साथ कैसे घट रहे हैं।

आचार्य: गंगा और विलास ये दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं? भोग और विलास एक साथ चलते हैं। भोग-विलास, ये गंगा-विलास कहाँ से आ गया?

प्र३: धार्मिक पर्यटन।

आचार्य: धार्मिक पर्यटन। ये कहाँ से आ गयी बात। अच्छा! बढ़िया! अच्छा है आप लोग पहले से ही इस पर अपना जो ज़मीनी काम, ग्राउंड वर्क है कर चुके हैं, ठीक है। तो हम वॉर्म्डअप हैं। मामला तेजी से आगे बढ़ेगा। आप बताइए कुछ, आपका इसमें क्या सोचा है, क्या मुद्दा है।

प्र४: तो एक बात जो निकल कर आ रही थी, जब हम डिस्कस (चर्चा) कर रहे थे कि डेवलपमेंट , (विकास) जो हम जिस दिशा में जा रहे हैं कि हमें जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ाना है, डेवलप करना है देश को।

तो टूरिज्म बीइंग ए सोर्स ऑफ डेवलपमेंट (पर्यटन विकास का एक कारण होने से) ये जो गंगा विलास अभी इसके बारे में भी हम पढ़ रहे थे, तो कितनी सारी जॉब्स क्रिएट होंगी उससे और एक इको सिस्टम बन रहा है।

इनफैक्ट हम ये भी पढ़ रहे थे कि वाराणसी में वहाँ से तो वो जो क्रूज है गुजरेगी साथ में वहाँ पर टेंट सिटी बनायी गयी है। ये टेंट सिटी ऐसी जगह जहाँ पर शादियाँ होंगी और टूरिज्म होगा।

आचार्य: मैंने टेंट सिटी के बारे में सुना ज़रूर है पर मेरे पास तथ्य, आँकड़े, डेटा और फैक्ट्स नहीं है। तो आप लोग लेकर आये होंगे तब तो मैं उस पर कुछ बोल पाऊँगा अन्यथा मुझे इसमें गहरी सूचना उपलब्ध है नहीं।

तो आप लोग वो सब लेकर रखिएगा यह लैपटॉप वग़ैरह में। इसी तरीके से चूँकि आप लोग पहले ही बातचीत कर चुके हो तो आप लोगों के पास एक तरह की एडवांटेज (अनुकूल परिस्थिति) है, वो ये कि आपको आँकड़े इत्यादि — मैं मानता हूँ कि — पता होने चाहिए।

तो इस चर्चा में आपका काम होगा कि मुद्दों के जितने भी अलग-अलग पक्ष हैं, पहलु हैं और उनसे सम्बन्धित जो तथ्य हैं, सूचनाएँ हैं, खबरें हैं और आँकड़े हैं, आप वो मुझे मुहैया कराते रहें। ठीक है।

अब जहाँ से बात शुरू हो रही है — उसमें जो सबसे पहले मेरे मन में आ रहा है, वो ये है कि देखो, ये धर्म चीज़ क्या है, और पर्यटन चीज़ क्या है। तो मैं तो वहीं से शुरू करूँगा, भई जहाँ से मैं आज तक करता आया हूँ।

जिन लोगों ने मुझे पढ़ा है, सुना है, पिछले कुछ सालों से, उन्होंने तो शायद अनुमान भी लगा लिया होगा कि मैं शुरुआत कहाँ से करने वाला हूँ। मैं तो शुरुआत अहम् से ही करूँगा। क्योंकि हर चीज़ की शुरुआत ही वहीं से होती है (हँसते हुए)। अहम्। अहम् माने ‘मैं’।

उसको आप फिर थोड़ा सा विस्तृत रूप में जीव भी बोल सकते हो, व्यक्ति बोल सकते हो। अंग्रेजी में उसको ईगो बोलते हैं। इगो माने वो सब नहीं जैसा लोकभाषा में माना जाता है घमंड प्राइड वगैरह। ‘मैं’ भाव, मैं।

तो हमारे भीतर जो ‘मैं’ होता है न, इसके पास बस दो ही रास्ते होते हैं — कहने को हजारों होते हैं, कदम-कदम पर हमको चौराहे मिलते हैं। चौराहे भी नहीं मिलते हैं, दसियों दिशाएँ हमें लगता है कि फूट रही हैं हर बिंदु से।

लेकिन उन सबको अगर हम थोड़ा ऊपर से देखें विहंगम दृष्टि से, तो कुल मिलाकर रास्ते होते दो ही हैं — एक रास्ता होता है धर्म का, जिसको मैं कहूँगा इस चर्चा के परिप्रेक्ष्य में 'तीर्थाटन' का, वो धर्म का रास्ता है।

और दूसरा रास्ता होता है — इसी चर्चा के संदर्भ में — 'पर्यटन' का। तो मन सिर्फ़ मात्र यही दोनों काम कर सकता है, जीवन में वो कहीं भी, किसी भी स्थिति में हो, किसी भी काल में — या तो तीर्थाटन, या पर्यटन।

आपने आज तक ज़िन्दगी में जो भी निर्णय लिए हैं, आपने, मैंने, दुनिया के हर व्यक्ति ने; अतीत में, आगत में, वो सारे निर्णय बस इन्हीं दो रास्तों में समा जाते हैं। या तो आपने तीर्थाटन चुना होगा या आपने पर्यटन चुना होगा।

तीर्थाटन माने मन का उस दिशा जाना जहाँ उसे मुक्ति मिल जाएगी, निर्वाण मिल जाएगा, मोक्ष मिल जाएगा, सत्य मिल जाएगा, आत्मा मिल जाएगी, सच्चाई मिल जाएगी— वो मन की असली चाहत है, वो मन की असली चाहत है।

और पर्यटन वो रास्ता है जहाँ मन को कुछ रूचिकर मिल जाएगा, मनोरंजक मिल जाएगा, उत्तेजक मिल जाएगा वो पुरानी आदत है।

तीर्थाटन बनाम पर्यटन, और असली चाहत बनाम पुरानी आदत ये कुल मुद्दा है आज की चर्चा का, जितना आप की बात से मैं समझ पाया ठीक है। क्या— तीर्थाटन बनाम पर्यटन, असली चाहत बनाम पुरानी आदत। पुरानी आदत मन की।

अहम् से शुरू कर रहे हैं और अहम् के ही इर्द-गिर्द जो पूरा संसार और माहौल बनाता है उसको क्या बोलते हैं? मन, तो मन के सामने बस यही दो दिशाएँ होती हैं।

सदा अनगिनत जो दिशाएँ होती हैं; हम कह रहे हैं वो इन्हीं दो दिशाओं में समा जाती है। या तो मन करेगा तीर्थाटन या फिर मन करेगा पर्यटन।

तीर्थाटन माने मन का प्रेम असली चाहत और पर्यटन माने मन की वृत्ति पुरानी आदत। तो मन फिर वो इकाई है जो सदा इन दो के मध्य फँसा रहता है द्वन्द्व में। जैसे रस्साकसी चल रही हो इन दोनों के बीच में।

चाहत और आदत के बीच में, प्रेम और वृत्ति के बीच में, तीर्थाटन और पर्यटन के बीच में। और उनके बीच में कौन है, मन। वो कभी इधर जाता, कभी उधर जाता, कभी उधर जाता, कभी इधर।

आजकल किधर को जा रहा है। आजकल किधर को जा रहा है, वो पर्यटन की ओर जा रहा है। ये अभागी छूट उसको सदा मिली होती है, वो चुन सकता है कि किधर को जाना है।

इसलिए मैं इतनी बार बोला करता हूँ – मुक्ति अगर चाहिए तो मुक्ति छोड़नी पड़ती है। ये जो हमें झूठी मुक्ति मिली हुई है न, चुन लो किधर को जाना है। यह झूठी मुक्ति हमें सच्ची मुक्ति नहीं मिलने देती।

ये जो हमें झूठी फ्रीडम (स्वतंत्रता) मिली हुई है – यही हमको रियल फ्रीडम (असली स्वतंत्रता) नहीं मिलने देती क्योंकि जो झूठी फ्रीडम , ये जो झूठी स्वतंत्रता है, इसका उपयोग अहम् हमेशा करता है पर्यटन के लिए। हाँ, सच्ची मुक्ति के विरुद्ध जाने को।

बीच में अहम् खड़ा है और आपने उसको ये अधिकार दे रखा है कि बेटा तीर्थाटन की ओर जाना या पर्यटन करना और जैसे ही आपने उसको ये अधिकार दे दिया कि तू स्वतंत्र है चुनाव के लिए तो वो चुनता हमेशा उल्टी चीज़ है, कुछ ग़लत ही चुनता है वो।

तो आजकल क्या चुना जा रहा है, पर्यटन। ऐसा हर आदमी चुन रहा है। तो फिर सरकार भी इन्हीं आदमियों की तो चुनी हुई है। भाई दुनियाभर के, चलो दुनियाभर को छोड़ो, भारत भर के लोगों का जो चुनाव है, उसी चुनाव का नतीजा तो सरकारें होती है न — चाहे राज्य सरकार हो, चाहे केंद्र सरकार हो।

तो यही सब जो सरकारें हैं ये कहती हैं जब इनको पर्यटनवादी मन ने ही चुना है हमारी सरकारें कहती हैं जब हमको पर्यटनवादी मन ने ही चुना है तो फिर हम पर्यटन को भी प्रोत्सान देंगे।

और तीर्थाटन होता है पर्यटन का धुर विरोधी। जो तीर्थाटन में चला गया उसकी पर्यटक वृत्ति जो है फिर वो विगलित होने लगती है, पर्यटक का मतलब ही होता है प्रेम नहीं है, इधर-उधर भटक रहे हैं। कभी यहाँ जाके थोड़ा मनोरंजन कर लिया, कभी वहाँ जाकर के कुछ रुचिकर मिल गया, कभी उधर चले गये – दिल बहल गया।

ये क्या होता है? पर्यटन, पर्यटन का मतलब यह कि वो प्रेम मिला नहीं जिसकी हमको हमेशा से तलाश थी। तो इन्हीं सब भटके हुए लोगों ने सरकारें चुनी है, ऐसी भटकी हुई सरकारें हैं; वो कर रही है पर्यटन को प्रोत्साहित।

पर्यटन को प्रोत्साहित करना भी चलो कोई बात नहीं, अच्छी बात है। कभी-कभार दिल बहलाव शायद सबको चाहिए, लेकिन तीर्थाटन की क़ीमत पर पर्यटन को प्रोत्साहित करना।

तीर्थ स्थलों को ही पर्यटन केंद्र बना देना, बड़ी मज़ेदार बात है, काल ठहाका मारे इतनी मज़ेदार बात है। यह चल रहा है यह सबकुछ। आप लोगों ने जो स्पेसिफिक (विशिष्ट) मुद्दे हैं वो पकड़े हैं, तो कौन सी सरकार है, कौन सा केंद्र है। कहीं पर्वत को लेकर ऐसा किया जा रहा है, कहीं-कहीं नदी को लेकर किया जा रहा है। जोशीमठ धँस ही रहा है, वो जो पूरा प्रांत है— उत्तराखंड उसको एक बहुत बड़ा बस पर्यटन का अड्डा बनाने की कोशिश है।

प्र: तो मुद्दा ये उठाया जाता है कि जिससे तीर्थाटन बढ़ सके इसीलिए पर्यटन बढ़ाया जाता है।

आचार्य: यह कैसे होगा? ये सुनने में तो मुझे बड़ी मज़ेदार बात लगी। हमसे ये कहा जा रहा है कि यहाँ से भेजेंगे पर्यटक। यहाँ से जो रवाना होगा वो होगा पर्यटक और वो वहाँ पहुँच के बन जाएगा साधक। ये चमत्कार कैसे होने वाला है, कौन सा हमें नेता मिल गया जो ये करके दिखाएगा।

यहाँ से पर्यटक भेजा था और वहाँ पहुँच के वो साधक बन गया। ऐसा कैसे कर लोगे भाई। इसलिए वेदान्त का थोड़ा बहुत अध्ययन होना ज़रूरी है। शिक्षित होना अच्छा होता है, है न। वेदान्त कहता है, ‘आदि में ही अन्त है।‘ जो बनकर शुरुआत करोगे वही बने रहकर के अन्त करना तुम्हारी मज़बूरी हो जाती है। जो पर्यटक बन के शुरुआत करेगा वो साधक बनकर समाप्त नहीं होने वाला।

हालाँकि हमारी आकांक्षा यही रहती है कि ग़लत शुरुआत का भी हमको कोई सही नतीजा मिल जाए। लेकिन ग़लत शुरुआतों के सही नतीजे नहीं मिलते।

प्र: वो कहते हैं कि साधक है जो पर्यटक बन कर के वहाँ जा रहे हैं। साधक हैं जो पर्यटक बन कर के जा रहे हैं।

आचार्य: अच्छा साधक बन कर के जाते हैं तो वहाँ प्रवेश नहीं मिलता? या साधक बन कर के जाते तो टोल टैक्स ज़्यादा लगता?

प्र: साधक बनकर के जाते तो शायद और दुर्गम होता वहाँ पहुँचना; पर पर्यटक बन कर जाते हैं तो वहाँ पर आपको सुविधा होगी, होटल मिलेंगे।

आचार्य: अच्छा, तो हैं तो साधक पर वहाँ पहुँचना चाहते हैं सुविधापूर्वक। अच्छा, अच्छा, अच्छा तो जिन्होंने उन स्थलों को जान बूझकर के दुर्गम जगहों पर बसाया था वो बेचारे ग़लती कर बैठे वो।

प्र: ये कह सकते हैं कि उस जमाने में शायद टेक्नोलॉजी इतनी अच्छी नहीं थी इस चक्कर में शायद।

आचार्य: टेक्नोलॉजी अगर अच्छी नहीं थी तो तर्क तो ये कहता है कि फिर तो और ज़्यादा सुगम जगहों पर बसाना चाहिए था। कि टेक्नोलॉजी अच्छी नहीं है तो दुर्गम जगह पर बसाएँगे तो वहाँ लोग पहुँचेंगे कैसे।

अगर टेक्नोलॉजी अच्छी नहीं थी तब तो तर्क ये कहता है कि तीर्थंकरों को, ऋषियों को और आचार्य शंकर जैसे लोगों को तीर्थ स्थल और ज़्यादा साधारण, सुगम जगहों पर स्थापित करने चाहिए थे। क्योंकि टेक्नोलॉजी नहीं हैं, साधन नहीं हैं पहुँचने के, तो लोग तभी तो नही पहुँच पाएँगे। बिलकुल बगल के गाँव में बना दो तीर्थ। तीर्थ का दुर्गम होना उसकी एक विधि है।

तीर्थ का दुर्गम होना ही उस जगह को तीर्थ बनाता है बाबा, ठीक वैसे जैसे आन्तरिक जगत में मन के लिए आत्मा तक पहुँचना दुर्गम है। दुर्गम माने जहाँ का गमन आसान न हो, जहाँ को जाना आसान न हो। ठीक। वैसे जैसे आन्तरिक जगत में मन का आत्मा तक पहुँचना, मन का मुक्ति तक पहुँचना दुर्गम है, उसी का एक बाहरी प्रतीक बनाया गया कि जीव का तीर्थ तक पहुँचना दुर्गम रहे।

बाहर अगर कुछ सुगम बना दिया तो आपको भ्रांति हो जाएगी न कि भीतर भी मामला सुगम है। और अहंकार ऐसी ही भ्रांति में जीना चाहता है, वो तो चाहता है कि यही लगे कि आसान है, झट से हो जाएगा।

तो जिन्होंने तीर्थ ऐसे-ऐसी अलभ्य जगहों पर बसाए, जहाँ पहुँचना बहुत कठिन हो। लोग चलते थे जब तीर्थ स्थलों पर जाने के लिए तो वो जो मृत्यु उपरांत कर्मकांड होता है उसका कुछ अंश निपटाकर जाते थे, कि क्या पता लौटें कि न लौटें।

और वो जो अपना मृत्यु का कार्यक्रम था जो अन्त का स्वीकार था, वो तीर्थाटन में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात होती है – अन्त का स्वीकार। मैंने स्वीकार कर लिया है कि मैं एक ऐसी यात्रा पर निकला हूँ, जिसमें आवश्यक नहीं है जाओ और वैसे ही वापस आओ।

मन जब तक यह स्वीकार नहीं कर लेगा कि कुछ ऐसा है जहाँ पहुँचना ज़रूरी है, भले वहाँ पहुँच के मैं बचूँ, न बचूँ, तब तक तीर्थ हो ही नहीं सकता। क्योंकि तीर्थ जगह वो है जहाँ पहुँचकर आप बचे ही नहीं। तीर्थ की परिभाषा यही है कि वहाँ जो जाए फिर वापस लौटकर न आये। यह संकेत में बात हो रही है; यह न हो कि…आप सब बुद्धिमान लोग हैं।

तो कोई समस्या नहीं चाहिए। तीर्थ की परिभाषा ही यही है कि वहाँ जो जाए वो लौटकर न आये। अगर आप जाते हैं किसी तीर्थ स्थल पर या किसी भी अन्य धर्मस्थल पर और जैसे गये थे वैसे ही लौट भी आते हैं तो आपने कोई धार्मिकता दिखाई नहीं, आपका कोई तीर्थ हुआ ही नहीं। आप तो यूँही गये, पत्थर छूकर के और पानी में भींजकर के वापस आ गये। आपके भीतर देवत्व स्पर्श ही नहीं कर पायी।

प्र: माफ़ करिएगा अगर मैं आपका इशारा ग़लत पकड़ पा रहा हूँ तो, क्या आप ये कह रहे हैं कि जो प्रोसेस है, पूरा जो कभी महीने, छह महीने ले जाते हैं, बात उसमें है न कि देव में या किसी मूर्ति में।

आचार्य: अच्छा! पकड़ा। तो अगर जैसे ही आप हेलिकॉप्टर चला देते हो आपने सब ख़त्म कर दिया। क्योंकि बात थी ही उस दुर्गम रास्ते पर चलकर, कुछ उस प्रक्रिया में, तो एक बार आपने वो रास्ते की दुर्गमता छीन ली तो समझ लीजिए नब्बे प्रतिशत खेल तो समाप्त हो गया।

मैं उसमें कुछ अपवाद रखने को फिर भी तैयार हूँ, देखिए जैसे कोई वृद्ध महिला है, कोई अपंग हो गया, कोई एकदम अपंग ही हो गया कोई, ठीक है। लेकिन हृदय में उसके वास्तविक प्रेम छलछला रहा है, वो नहीं चल के जा पाएगा, तो उसके लिए आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध करा दीं; उतना चल जाता है, उससे ज़्यादा नहीं चलता।

और किसी अपंग को या वृद्ध महिला को आवागमन की सुविधा उपलब्ध करा देना एक बात है। मुझे समझाओ उसका मनोरंजन से क्या ताल्लुक़ हो गया। उस जगह पर आप मनोरंजन का साधन दे दें इससे कौन से बेचारे विकलांग को, दिव्यांग को या वृद्धजन को या बीमार व्यक्ति को लाभ होने जा रहा है।

साहब, ये बताइए न मुझे? इसे टूरिज्म नहीं कहा जाता, रिलिजियस टूरिज्म ; उन्होंने बिलकुल ठीक बोला था। उन्होंने बोला, मैंने भी गौर करा, ये रिलिजियस टूरिज्म कौन सी चीज़ हो सकती है। ये किस प्रकार का विरोधाभाषी वक्तव्य हो गया, भाई रिलिजियस टूरिज्म क्या हो गया।

एक बात, या तो रिलिजियस बात होगी या वो टूरिस्ट की बात होगी, ये इन दोनों का अद्भुत संयोग कैसे हो गया। एक्च्वली टूरिज्म करना है पर रिलिजियस का ठप्पा लगाना है। बस वही है, सोशल है।

मोरल सोशल सेक्शन अपनेआपको ये भी दिखा दिया कि हाँ, हाँ गये थे और तीर्थ भ्रमण कर, आ गये हैं। करा कुछ नहीं है मनोरंजन करा है, लेकिन अपनी नज़रों में एक तरह की फिर पवित्रता का प्रमाण-पत्र पा लेना है, कि भई हम नैतिक आदमी, अच्छे आदमी हैं, हम तो देखो।

जा मनोरंजन के लिए रहे तीर्थ स्थल पर भी सैर-सपाटा, खाना-पीना, मौज-मस्ती यही सब करना है। ये कुछ नहीं है कुल मिलाकर के एक ऐसे समय का संकेत है जिसमें अहंकार बहुत प्रबल है, बहुत तेजी से जीत रहा है और धर्म को खा गया है।

देखिए, अब जो बोलने जा रहा हूँ, उस पर बहुत ध्यान से सुनिएगा बात को। एक अहंकार होता है जो धर्म के साथ चलता है, सचमुच उसके तो कहने ही क्या, आनन्द, बिरला होता है कोई, मिल जाए ऐसा मज़ा, कठिनाइयाँ आये, कुछ आये लेकिन फिर भी मस्ती। बात ही बन्द, ख़त्म।

एक होता है जो धर्म का विरोध करता है, खुला विरोध। मैं उसको भी थोड़ा सा मासूम मानता हूँ, क्योंकि उसकी कथनी-करनी एक जैसी है। उसको धर्म किसी भी कारण से नहीं जँच रहा। तो या तो धर्म से हट गया, बिलकुल तटस्थ हो गया। अपने को बोलने लग गया धर्मनिरपेक्ष इत्यादि, बहुत लोग बोलते हैं आजकल।

या उसने यही कह दिया कि मैं धर्म विरोधी हूँ साहब। मुझे धर्म से कुछ चिढ़ है, एलर्जी है। मैं इन लोगों के साथ भी एक हद तक सहानुभूति रख लेता हूँ। सबसे गड़बड़ लोग मालूम है कौन से होते हैं, जो धर्म के इतने धुर विरोधी होते हैं कि धर्म को खा जाते हैं।

ये लोग अपनेआप को धार्मिक बोलते हैं, ये हर समय धर्म की बातें करते हैं और धर्म के नाम पर पर्यटन करते भी हैं और पर्यटन को बढ़ावा भी देते हैं। यह हर समय धर्म-ही-धर्म की बात करते हैं और इनका अहंकार इतना प्रबल होता है कि वो धर्म को भी खा गया होता है।

उसने धर्म का भी उपभोग और उपयोग कर लिया होता है। ये लोग बहुत ख़तरनाक होते हैं और दुर्भाग्य की बात है कि आज का समय ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, ऐसे ही लोगों का बाहुल्य है।

यही लोग वोट देते हैं और यही लोग चुने जाते हैं। फिर यही लोग सरकारों में आकर के उस तरह के निर्णय लेते हैं, जिन निर्णयों पर आप लोगो ने चर्चा करी है।

प्र: और ये भारत में ही क्यों देखा जा रहा है?

आचार्य: भारत में धार्मिकता को बड़ा महत्त्व दिया गया न, तो इसलिए भारत में अगर आप एक नैतिक आदमी हैं, मोरैलिटी का तक़ाज़ा यह हो जाता है कि आप धार्मिक अपनेआप को दिखाएँ। भारत धार्मिक देश रहा है। कहते हैं भारत धार्मिक देश रहा है, इतने सारे धर्मों की माँ रही है ये भारत भूमि।

तो भारत में आप खुले आम नहीं बोल सकते कि मैं विधर्मी हूँ, एथीस्ट, एग्नोस्टिक, रिलिजियस, इर्रिलीजियस, एंटी रिलिजियस ये सब भारत में अपनेआप को बोलना थोड़ा तकलीफ़ का काम होता है। सामाजिक मान्यता नहीं मिलेगी।

विदेशों में सुविधा है वहाँ आप खुलेआम घोषित कर सकते हो कि मैं नास्तिक भी हूँ और मैं धर्म का विरोधी भी हूँ और आप कई बार आकर चौराहे पर खड़े होकर के एक सीधे-साधे घोषणा कर सकते हो, आप एक लेक्चर दे सकते हो जिसमें धर्म का भरपूर तार्किक विरोध किया जा रहा हो।

भारत में आप वो नहीं कर सकते। तो भारत में हर व्यक्ति को, लगभग हर व्यक्ति को घूम-फिरकर के यह दर्शाना होता है कि हूँ तो मैं धर्म के साथ ही। ख़ासतौर पर अगर आप राजनीति वगैरह में हैं तो आप यह कह ही नहीं पाएँगे भारत में, कि धर्म आपको बेवकूफ़ी की बात लगती है, भले ही आपको लगती हो।

तो नतीजा ये हुआ है कि ऐसे लोग जो भीतर से धर्म से बिलकुल खार खाते हैं, जिनका माइंड बिलकुल भी रिलिजियस नहीं है, वो अपनेआप को दर्शाते हैं कि हम रिलिजियस हैं। ताकि उनको वोट मिल जाएँ और उनको मिल भी जाते हैं।

प्र: रिलिजियस सेंटिमेंट्स को

हाँ, हाँ।

भारत में यह कह पाना कि आप धार्मिक नहीं है बड़े ख़तरे की बात है और चालाक लोग इस बात को समझ जाते हैं। तो उनका भले ही धर्म से कोई ताल्लुक न हो, न उनमें ज्ञान है, न ध्यान है, न भक्ति, न श्रद्धा, कुछ नहीं उनके पास।

उन्होंने आज तक चार धर्म ग्रंथ कभी छूकर नहीं देखे, खोलकर पढ़ना तो बहुत दूर की बात है उनसे कहो की चार प्रमुख ग्रंथों के नाम बता दो तो बता न पायें। वो भी अपनेआप को धार्मिक बताए रहते हैं। धार्मिक अपनेआप को घोषित करने के फायदे बहुत हैं। ठीक है।

अपनेआप को धार्मिक बताकर के वो महत्त्वपूर्ण पदों पर पहुँच जाते हैं और फिर वहाँ पहुँचकर के वो अपने असली रंग दिखा देते हैं। उन्हें धर्म से कोई लेना-देना तो है नहीं। तो फिर वो वहाँ पर पहुँच कर क्या करेंगे, वो धार्मिक स्थल को पर्यटन की जगह बना देंगे। ये होने लग जाता है।

लेकिन इसमें सवाल उन दो-चार व्यक्तियों का नहीं है जो ऐसे बीड़ा लेते हैं या उसमें और तमाम तुम नौकर शाहों को भी जोड़ लो, ब्यूरोक्रेट्स को, पूरी टीम को जोड़ लो। तो भी वो मान लो दस-बीस-पचास हो जाएँगे। वो उस पूरी टीम की बात नहीं है, दस-बीस-पचास लोग की।

आप बोलें कि वो जो पूरा मंत्रालय है वही ठीक नहीं है उसने ऐसा कर दिया। बात उस जनता की है जो वोट देती है। वो पूरी जनता ही मरी जा रही है मनोरंजन के पीछे, क्योंकि हमारे जीवन में सच्चाई नहीं है, तो विकल्प के तौर पर मनोरंजन के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

सच्चाई ही आनन्द देती है, सच्चाई आपको मौज में रखती है, और जब नहीं होती तो आपको कुछ तो चाहिए जीने के लिए। नहीं तो मर जाओगे डिप्रेशन (तनाव) में।

तो फिर आपको चाहिए मनोरंजन और हो आप — मान लो थोड़ा पुराने तरीके के आदमी — तो आप ये तो कर नहीं सकते कि डिस्कोथिक में खुलेआम नाच लो। आपकी नैतिकता और मर्यादा आपको करने नहीं देगी।

तो फिर आप क्या करते हो? जैसे सब कस्बों में, छोटे शहरों में, गाँव में होता है वो पूरी एक बस भरी जाती है और क्या बोलते हैं कि हम कहाँ जा रहे हैं — हम तीर्थाटन जा रहे हैं या कोई संयुक्त परिवार है, तो सब मिलकर के दो इनोवा करेंगे। ठीक है। दस जने, चौदह जने हो गये, वो सब मिलकर दो इनोवा करेंगे वो सब क्या बोलेंगे, हम कहाँ जा रहे हैं, बोलेंगे तीर्थ करने जा रहे हैं और मस्त नाचेंगे‌।

वो बेचारी महिलाएँ जिनको कहीं नाचने को नहीं मिलता, कहीं उनको मनोरंजन नहीं मिलता, बाहर जाने को नहीं मिलता घर से। एक दकियानूसी, सड़ी-गली सोच कि समाज में फँसी हुई है। पितृसतात्मक संस्कृति है उसके बन्धनों में जकड़ी हुई है। कहीं मिलता नहीं अब नाचने को तो उनका भी ख़ूब मन करता है, तो उनको नाचने को फिर तीन ही मौके मिलते हैं— शादी हो जाए, मुँडन-उँडन हो जाए घर में इस तरह कोई उत्सव हो जाए, कोई तीज-त्यौहार हो जाए या फिर तीर्थाटन हो जाए। तो वहाँ फिर बढ़िया अपना या फिर कोई कथावाचक आ गया तो वहाँ ख़ूब मिल जाता है।

यह समझ में आ रही है बात?

चाहिए मनोरंजन ही सबको। जो ट्रूली रिलिजियस माइंड है, सच्चा धार्मिक मन। वो देखने को नहीं मिलता। क्या? सच्चा धार्मिक मन नाचता नहीं है? नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।

नाची तो मीरा भी थीं, नाचे तो चैतन्य भी थे, नाचे तो बुल्ले शाह भी थे।

तो नाचते तो हैं पर उस नाचने की गुणवत्ता दूसरी होती है। वो नाच बोध से उद्भूत होता है, जहाँ आप नाच उठे क्योंकि आप वो जान गये। आप इसलिए नहीं नाच रहे हैं क्योंकि आप नाचने के लिए ही दीवाने हो रहे थे।

यह ज़्यादातर लोग जो धर्म के नाम पर पर्यटन करते हैं और नाचते हैं, इनको तो तलब ही नाचने की थी, ये ऐसा थोड़े ही कि राम के लिए गये थे और राम मिल गये, इसलिए नाच उठे। ये तो गये ही नाचने के लिए थे और नाच उठे। अलग-अलग बातें है।

मीरा को नाचने से क्या मतलब या मीरा को गाने से क्या मतलब, उनको तो मतलब श्रीकृष्ण से था और जब श्रीकृष्ण उनके बहुत समीप आ जाते थे तो नाचने लगती थीं। उन्हें शायद पता भी न होता हो कि वो नाच रही हैं, वो एक अलग श्रेणी का, एक अलग आयाम का नृत्य हो गया।

और ये जो ज़्यादातर लोग हैं जो जाते हैं तीर्थ की जगहों पर पर्यटन करने, जिसको सरकारें भी प्रोत्साहन दे रही है। ये तो जाते ही इसीलिए हैं कि चलो भाई, ज़िन्दगी बड़ी उबाऊ है, किसी घटिया नौकरी में फँसे हुए हैं, बेईमानी भरी दुकान चलती है, चलो थोड़ा कुछ रसीला हो जाए, मनोरंजक हो जाए ज़िन्दगी में। कुछ रंग, कुछ बहार उतरे। इनका तो यह हिसाब है। इनका तो खेल दूसरा है।

प्र: एक तर्क आचार्य जी आई लाइक टू प्ले द डेविल्स एडवोकेड। अब वर्मा जी का लड़का है और उनकी बेटियाँ हैं, दोनों की उम्र अट्ठारह-सोलह साल है, अब वो कह रहे हैं कि ठीक है न कि इस उम्र में जाकर दारू पिएँ, नशा करें, डिस्को में उल्टी करें, रात को इधर-उधर करें। इससे अच्छा हमारे साथ जा रही हैं।

अपने साथ में पूरे परिवार के साथ नाचेंगे-खेलेंगे एक सही संस्कृति में, कल्चर में तो रहेंगे कम-से-कम दारू और नशे में घुसने और वहाँ पार्टी करने से बढ़िया है न कि एक अच्छे संगीत पर, हनी सिंह के गाने पर नाचने से बढ़िया है न कि कीर्तन पर नाच रही है।

आचार्य: देखो वो कोई भी घटिया काम कर रहा हो ठीक है, उसने कम-से-कम जो उच्चतम है उसको तो अपने लिए बर्बाद नहीं कर लिया न, मैं तुमसे पूछता हूँ, बता देना।

उदाहरण के लिए एक बात यह है कि एक व्यक्ति है जो अपने घर में बहुत बीमार हुआ पड़ा है, ठीक है। और घर में वो तमाम ऐसे काम कर रहा जो उसे बीमार कर देंगे।

उदाहरण के लिए वो सड़ा-गला खा रहा है; बहुत तला-भुना खा रहा है, कुछ नशा कर रहा है, शराब बहुत पी रहा है; कुछ भी घर में ऐसे तमाम काम होते हैं, व्यायाम नहीं करता। लेकिन शहर में एक अस्पताल है बहुत अच्छा अस्पताल अपनी जगह खड़ा हुआ है, ठीक है। यह पहली स्थिति है।

दूसरी स्थिति बताता हूँ। ये जो व्यक्ति है जो घर में तमाम ऐसे तरह के काम करता है जो उसको बीमार करेंगे इसने जाकर के अस्पताल में ही वो सारे काम करने शुरू कर दिया है और अस्पताल को बर्बाद कर दिया इसने।

यह अपने घर में हर समय पार्टी करता था और पार्टी में एकदम गन्दा खाना तेल ही तेल और ये और वो, मुर्गा-मटन-मछली ये सब खा रहा था लेकिन ये जो कुछ भी कर रहा था, कहाँ कर रहा था, घर में कर रहा था, अपने घर में कर रहा था। अब इसने क्या करा कि ये चला गया अस्पताल, ठीक है और अस्पताल में जाकर के उसने वही सारे काम करना शुरू कर दिये जो पहले अपने घर में करता था। थोड़े ज़्यादा सांस्कृतिक तरीके से, अस्पताल में खुले आम यह नहीं कह सकता कि मैं तो यहाँ पार्टी करने आया हूँ। लेकिन ले-देकर काम वो मूल रूप से, भाव रूप से कर अस्पताल में भी वही सारे रहा है जो घर में करता था। और ये करके उसने अस्पताल की भी दशा बिलकुल बिगाड़ दी, ठीक है। आई.सी.यू. में बुफे लगा हुआ है जिस जगह पर क्रिटिकल केयर दी जाती थी वहाँ पर मनोरंजन दिया जा रहा है। बताओ इन दोनों स्थितियों में से ज़्यादा घातक स्थिति कौन सी हो गयी? अपने घर में हर तरह का नाटक करना, बेवकूफियाँ करना, लेकिन अस्पताल को बख्श देना, अस्पताल को छोड़ देना। यह एक श्रेणी पर बिलकुल कुछ ग़लत हुआ है; निश्चित रूप से ग़लत हुआ है और दूसरा काम ये है कि तुमने जाकर अस्पताल को भी भ्रष्ट कर दिया। बताओ दोनों में से ज़्यादा बड़ी त्रासदी क्या है?

कोई फॉलोबैक ऑप्शन नहीं बचा अब तुम्हें कोई नहीं बचा पायेगा, तुम अपने घर में जो कुछ भी कर रहे थे कम-से-कम इतनी तो राहत उपलब्ध थी न कि एक दिन एम्बुलेंस आती तुमको ले जा के अस्पताल में डाल देती; बच जाते, पर अगर तुमने अस्पताल को ही बर्बाद कर दिया तो अब न तो तुम बच सकते न कोई और बच सकता। कोई एम्बुलेंस नहीं आ सकती तुमने अस्पताल ही बर्बाद कर दिया। तीर्थ स्थल क्या होते हैं? अस्पताल होते हैं। अपने घर में तुम जो कुछ भी करते थे तो करते थे ये क्या चल रहा है की तुमने रिलिजियस टूरिज्म चला करके अस्पताल को बर्बाद कर दिया तुमने तीर्थ को ही अगर पर्यटन का अड्डा बना दिया।

तो तीर्थ कहाँ होगा? अब अस्पताल कहाँ बचा? मौन कहाँ लगेगा? अब एकांत कहाँ मिलेगा? अब साधना कहाँ होगी? दुनियादारी से भाग करके आदमी जाता था सत्य की शरण लेने; जहाँ सत्य की शरण मिलती थी तुमने उस जगह को ही दुनियादारी का अड्डा बना दिया। तो अब सत्य कहाँ मिलेगा? बस इतनी सी बात है कि जो लोग ये सबकुछ कर रहे हैं ख़ुद नहीं चाहते कि सत्य कहीं बचे। वो तो ख़ुद मनोरंजन की तलाश में हैं। उन्हें बड़ा अच्छा लगता है मनोरंजन का एक केंद्र और मिल गया चलो चलते हैं।

प्र: अभी रीसेंट में बात हुई है जो पहला मुद्दा भी था सम्मेद शिखर जी से सम्बंधित जो कि जैनियों का प्रमुख तीर्थ स्थल है तो वहाँ पर जब इस तरीके से चीज़ें प्रपोज की जा रही थीं तो बहुत ज़्यादा जैनियों की तरफ़ से विरोध आया था उस चीज़ को लेकर। के पहले बात हुई कि इसको इको टूरिज्म बनाएँगे; क्योंकि वो ईको सेंसटिव जोन है फिर उसको भी मना कर दिया। फिर कहा कि नहीं रिलिजियस टूरिज्म बनाएँगे उसको भी फिर मना कर दिया। तो बोला जैन रिलिजियस टूरिज्म बनाएँगे अब तो कोई दिक्कत नहीं है, कि जो आपका ही है लेकिन डटे हुए हैं कि बनाना ही है; तो उसपर उन्होंने मना कर दिया।

पर यही चीज़ और मेरे सामने ही हुआ है अगर मैं ऋषिकेश के बारे में बात करूँ— ऋषिकेश में हमारे पहले कैम्प्स होते थे और ओवर द यर चीज़ें इतनी बदल गयी है अब हमें सोचना पड़ता है की हम उन जगह पर जाएँ भी या नहीं। जहाँ से शायद सारे कैम्स की शुरुआत ही हुई थी। के बात करूँ बनारस की भी। तो ऐसा क्यों होता है कि ऐसा क्यों हुआ, देखने मिला कि जैनियों के तीर्थ स्थल पर बात आई तो वो सामने आये उन्होंने उसके लिए इतना भी कॉम्प्रोमाइज करने को वो तैयार नहीं हुए, पर जहाँ पर हिन्दू धर्म, उनकी तीर्थ स्थलों की बात आती है तो वहाँ पर एक कॉम्प्रोमाइजिंग नेचर आ जाता है, कि ठीक है कर रहे हैं तो कोई बात नहीं और इसीलिए बनारस की जो पूरी हालत है वो बिलकुल ही बदल गयी है, ऋषिकेश की जो पूरी हालत है वो बिलकुल ही बदल गयी है, तो ऐसा क्यूँ होता है?

इसमें मैं एक चीज़ और जोड़ना चाहूँगा कि वहाँ पर जो रहने वाले लोग हैं वो भी कहीं-न-कहीं चाहते हैं कि ऐसा कुछ हो जाए कि हमारी आमदनी बढ़ जाए, टूरिस्ट और ज़्यादा आना शुरू हो जाए।

आचार्य: मैं इससे पूर्णतः सहमत नहीं हूँ।

प्र: पर हाँ, मोटा-मोटा पूरा समाज, जो पर्यटक है वो भी चाह रहा है कि वो धार्मिक पर्यटन करे। राजनेता जो वो व्यवस्था बना रहे हैं वो भी यही चाह रहे।

आचार्य: पूरा-पूरा समाज नहीं, उनका प्रश्न ही यही है, वो कह रही हैं कि जैन समाज ने तो करा विरोध, पूरा समाज कहाँ चाह रहा है? तो आप पूछ रहे हैं कि जैन समाज ने क्यों करा विरोध और हिन्दू समाज क्यों नहीं करता? तो मैं बोलने जा रहा हूँ उससे आपको आनन्द आएगा— एक जैन होने के नाते; आपने पूछा कि जैनों ने कॉम्प्रोमाइज (सहमत हो जाना) क्यों नहीं कर लिया? जैनों ने कॉम्प्रोमाइज कर लिया होता तो जैन होते ही नहीं! ये जो पूरी जैन धारा है; इसका तो उद्भव ही नॉन कॉम्प्रोमाइज में था न। जैनों ने कॉम्प्रोमाइज कर लिया होता तो जैन सारे हिन्दू होते। भाई एक मुख्य धारा चल रही थी;– सनातन धारा, उसमें से ये बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि उपधाराएँ क्यों फूटी? क्यों उपजी? क्योंकि उन्होंने कहा "हम कॉम्प्रोमाइज नहीं करेंगे" जो मुख्य धारा थी सनातनी वो इतनी दूषित हो गयी थी; कुरीतियों के चलते, कर्मकांड के चलते, न जाने कितनी मूर्खतापूर्ण हिंसक कुप्रथाएँ आ गयी थीं – वर्ण व्यवस्था दूषित हो गयी थी और अत्याचारी जाति प्रथा बन गयी थी – उसी के कारण तो जैन एक अलग पंथ स्थापित हुआ न। तो कॉम्प्रमाइज तो जैन तब से नहीं कर रहे हैं; इसीलिए तो जैन बचे हुए हैं। नहीं तो पचास-साठ लाख हैं भारत में बस, जैन बचे ही नहीं रह पाते। यह बात सिक्खों पर भी लागू होती है। मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि आप कहें कि आप सिक्खों के धर्मग्रंथों या धार्मिक स्थलों के साथ किसी छेड़-छाड़ का प्रस्ताव लेकर आये और सिक्ख उसको स्वीकार कर ले – हो ही नहीं श पाएगा। कल्पना में मुझे नहीं दिखाई देता और मुझे बहुत गौरव है सिक्खों पर – के वो इस तरह की कोई चीज़ कभी स्वीकार नहीं करने वाले। नहीं स्वीकार करी थी तभी तो सिक्ख धारा का जन्म हुआ; नहीं तो सिक्ख होते ही नहीं हिन्दू चल रहे थे; सिक्ख कहाँ से आते?

तो ये मूल बात है कि हमें नहीं स्वीकार करना है। मुट्ठी भर जैन हैं, सिक्खों की तादाद बहुत ज़्यादा नहीं है – पर उन्होंने अपने मन में फिर भी अपेक्षतया हिन्दूओं से ज़्यादा धार्मिकता और पवित्रता रखी है, इसीलिए वो बच्चे भी हुए हैं। और मैं थोड़ा और सोचूँ तो वजह और भी है – इसी में एक सबसे ज़्यादा जो ज़ोर था उनका टूरिज्म के ख़िलाफ़ वो था शराब और माँसाहार। कि लोग वहाँ यदि आएँगे तो ये सब जो है वहाँ पर रहेगा। देखिए हिन्दू धर्म को न बोल दिया गया है कि ये तो एक सर्वग्राही धर्म है— जिसमें सबकुछ चलता है। बोल दिया गया कि आप दाएंँ चलो की बाएँ चलो आप तब भी हिन्दू हिन्दु ईज अ वे ऑफ लाइफ वे ऑफ लाइफ दैट इनक्लूड आल पोसिबल वेस नोट एनी वन पर्टिकुलर वे ऑफ लाइफ (हिन्दू एक जीवन जीने का तरीका है जिसमें सबकुछ समाहित है इसमें कुछ विशिष्टता नहीं है)। इस तरीके से ये जो धारणा बना दी गयी है हिन्दू धर्म की; इसने हिन्दू धर्म को कहीं का नहीं छोड़ा है ठीक है।

सिखों के पास अपना केंद्रीय ग्रंथ है, जैनों के पास भी अपना केंद्रीय दर्शन है। अहिंसा शब्द बोलते ही आपको जैन याद आएँगे, हिन्दुओं के पास मुझे बताइए कौन सा केंद्रीय ग्रंथ है? हिन्दू माने क्या? आपने कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा तब भी हिन्दु, अपने किसी ग्रंथ का नाम नहीं बता सकते तब भी हिन्दु, कोई एक ग्रंथ है नहीं इतने सारे ग्रंथ हैं; उन सब ग्रंथों में जो आम हिन्दू है वो किसी ग्रंथ को केंद्रीय या सर्वोच्च स्थान देता ही नहीं। मैं इतनी बार बोल चुका हूँ कि मैं जब बोलता हूँ कि भाई लोगों 'गीता पढ़ लो' और मैं बताता हूँ कि गीता आत्मा के एकता पर ज़ोर देती है, तो गीता के और उपनिषदों के विरोध में लोग आकर के मुझे मनुस्मृति और गरुड़ पुराण का हवाला देने लग जाते हैं। हिन्दू धर्म माने ऐसे लोग जिनके लिए गीता और गरुड़ पुराण एक है और उपनिषद् और मनुस्मृति एक बराबर है। सर्वोच्च स्थान किसको देना है इनको पता नहीं है।

तो पहली बात तो ग्रंथ कोई पढ़े नहीं, दूसरी बात ग्रंथ अगर पढ़े भी हैं तो जो हजारों ग्रंथ हैं; उनमे से केन्द्रीय कौनसा है लोगों को इस बात का कुछ पता नहीं है। फिर आते हैं दर्शन पर— मैंने कहा था ग्रंथ और दर्शन, कौन सा दर्शन – छह तो प्रमुख ही दर्शन हैं आस्तिक, दो-तीन नास्तिक दर्शन हैं जो प्रमुख दर्शन हैं, उनकी भी न जाने कितनी शाखाएँ, धाराएँ, उपधाराएँ, प्रशाखाएँ हैं। कोई कुछ भी मान ले एकदम फ्री मार्केट डेमोक्रेसी चल रही है, जिसको जो मानना है मानते हो, फिर भी हिन्दु कहलाओगे। तो फिर कुछ भी करते रहो; सबकुछ करने की छूट है, यहाँ तक की अपने ही तीर्थ स्थल को बर्बाद कर देने की भी छूट है; सब चलता है। जब कुछ भी कर सकते हो तो अपने ही तीर्थ स्थल में आधुनिकीकरण और सौंदर्यीकरण के नाम पर बहुत सारे मन्दिर क्यों नहीं तोड़ सकते, कुछ भी कर सकते हो। जैनों में ऐसा नहीं हो सकता, कोई जैन अगर मांस खा ले तो मुझे नहीं लगता वो अपने आप को जैन कह पाएगा। खुले आम तो नहीं खा सकता; छुप-छुप के मैं जानता हूँ बहुत सारे जैन मांस खाने लग गये हैं। पर कोई जानकर कि मैं जैन हूँ और खुले आम मांस खा रहा हूँ तो उसका मुँह पिचक जाएगा बोला ही नहीं जाएगा, ये बात इतनी बेतुकी हो जाएगी कि तुम कहाँ के जैन हो भाई जो तुम माँस खा रहे हो।

इसी तरीके से कोई सिक्ख अगर बोल दे कि मैं गुरुग्रंथ साहिब को नहीं मानता, आदि ग्रंथ का मैं सम्मान ही नहीं करता। तो वो सिक्ख कहलाएगा ही नहीं, अगले दिन से वो सिक्ख जमात से बाहर हो जाएगा। श भाई तुमको अगर गुरुग्रंथ साहिब को ही नहीं माना तो तुम सिक्ख कहाँ से हो गये?

यहाँ हिन्दूओं में तो — नहीं हम गीता को नहीं मानते व, उपनिषद् नहीं मानते, हम कुछ नहीं मानते फिर भी हम हिन्दू क्यों है? क्योंकि हमारे बाप हिन्दू, तुम्हारे बाप के हिन्दु होने से तुम हिन्दू थोड़ी हो जाते हो! हम होली-दिवाली मनाते हैं तो हम हिन्दू ।हैं हम रोटी और कद्दू की सब्जी खाते हैं तो हम हिन्दू हैं। हम जन्माष्टमी पर खीर चटाते हैं तो हम हिन्दू हैं। ऐसे हिन्दू हो जाते हैं; तो हिन्दु में कुछ भी चलता है। दो चीज़ें होती हैं जो वास्तव में धर्म के केंद्र में होती है। पहली बात दर्शन और दूसरी बात वो ग्रंथ जिसमें उस दर्शन का एक्सपोजीशन होता है।

हिन्दुओं में ये दोनों चीज़ें होकर भी नहीं है। हिन्दूओं में ग्रंथ भी मौज़ूद है और वो ग्रंथ हैं – उपनिषद् और दर्शन भी मौज़ूद है वो दर्शन है – वेदान्त । वास्तव में सनातन धर्म यही है उपनिषद् और वेदान्त ठीक है। और वेदान्त मैं जब कहता हूँ तो उस उपनिषदों में आप ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता और जोड़ दीजिए। लेकिन हिन्दू सौ विचारों में, सौ दर्शनों में भटका हुआ है, उसको कोई बताने वाला नहीं है। बल्कि उसको भटकाने वाले न जाने कितने लोग हैं, कितने लोग हैं जो उसको हज़ार तरीके से भटका रहे हैं। तो इसलिए फिर वो कुछ भी बर्दाश्त कर लेता है। हाँ, जिस चीज़ पर भड़कता है वो ये है कि उसका जो जीने का तरीका है; जो उसका बोल-बातचीत, व्यवहार, आचरण, आदतें पुरानी जिसको अपनी संस्कृति बोल देता है, जब उस पर हमला होता है तो वो भड़क जाता है। माने जो बिलकुल बेकार की बात है उसमें भड़क जाता है, उसकी आदतों पर हमला करो भड़क जाता है, लेकिन जो मूल बात होती है उसके पास है नहीं और तब भी उसे न बिलकुल बुरा लगता है न दर्द होता, न आहत होता, न चोट लगती – भड़कना तो बहुत दूर की बात है।

तो इसलिए हिन्दू कुछ भी स्वीकार कर लेते हैं। उन्होंने अपनी नदी जितनी गन्दी कर ली सबसे प्रमुख नदी जिसको हिन्दू माँ बोलते हैं। अरे कहाँ यह सम्भव है कि कोई और कर लेता, कैसे कर लेते। तुम कानपुर में जितना गन्दा करा गया ये जो पूरा चमड़ा उद्योग है टैनरीज, गंगा के प्रदूषण के अगर आप दस प्रमुख कारण लिखेंगे तो उसमें से एक ये भी आएगा; और ये सब सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम चला है न जाने कितने दशकों से; अभी भी चल रहा है‌। अभी भी चल रहा है, चमड़ा उद्योग को प्रोत्साहित किया जा रहा है, टेनरीज को और ज़्यादा सब्सिडाइज तक कर देते हैं।

प्र: एक और हम स्टेटिस्टिक पढ़ रहे थे कि थ्री ट्रिलियन (१ अरब) माइक्रो प्लास्टिक प्रतिदिन गंगा नदी से गंगा बेसिन से बंगाल पहुँच रहा है। तो वो समुद्र को भी खराब कर रहा है, पूरी एक्वेटिक लाइफ (समुद्री जीवन) को खाएगा।

आचार्य: बिलकुल ठीक है, आपको पता है; देश भर में जितना अब जो भैंसे का, भैंस का भी मांस होता है कहते तो उसको बीफ ही हैं। देश भर में बीफ का जितना उत्पादन होता है। उत्पादन बोलते हुए मुझे बड़ा बुरा सा लगता है, ऐसा लगता है जैसे कोई जड़ पदार्थ है; उत्पादन किया जा रहा हो, पर देश भर में जितनी भैंसे कटती हैं उसमें से आधी उत्तर प्रदेश में कटती हैं। भारत से जितना बीफ का निर्यात होता है उसमें से लगभग आधा या आधे से ज़्यादा उत्तर प्रदेश से होता है। ये गंगा का प्रदेश है, ये हिन्दू हार्टलैंड है। यह गंगा का प्रदेश है और अतीत से लेकर आज तक सब सरकारें इसका न सिर्फ़ समर्थन करती रही हैं बल्कि इसको सक्रिय रूप से बढ़ावा देती रही है। पिंक रेवोलूशन, पिंक रेवोलूशन— बोलेंगे कि इससे तो और ज़्यादा रोजगार बढ़ेगा न और हम जितना ज़्यादा भैंसों को काट-काट के भैंसों का मांस निर्यात करें वग़ैरह-वग़ैरह।

तो ये सब चलता है, मतलब जहाँ आपके इतने बड़े-बड़े तीर्थ हैं। अभी कुछ साल पहले तक उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था, तो ऐसा समझ लीजिए कि देश भर में हिन्दूओं के जितने पूज्य तीर्थ हैं;उनमें से आधे से ज़्यादा तो फिर संयुक्त उत्तर प्रदेश में हुआ करते थे। जितने भी हिमालय तीर्थ हैं; वो सब उत्तर प्रदेश में आते थे, उसके अलावा आपका मथुरा-वृंदावन-काशी और प्रयाग और अयोध्या और छोटे-मोटे तो अनगिनत न जाने कितने अनगिनत हर जिले में छोटे-मोटे तीर्थस्थल हैं। तो उत्तर प्रदेश ही जैसे हिन्दूओं की पुण्य भूमि और तो उत्तर प्रदेश को तो फिर जबर्दस्त रूप से एक हिन्दू धर्म क्षेत्र होना चाहिए था, पूरे प्रदेश को जैसे तीर्थ स्थल होना चाहिए था। लेकिन नहीं उत्तर प्रदेश में जितना बुरा हाल रहा है धर्म का और हिन्दूओं ने होने दिया आज भी होने दे रहे हैं। गंगा का बुरा हाल कर रखा है, गाय का बुरा हाल कर रखा है और गीता का बुरा हाल कर रखा है। जिन तीन चीज़ों का संबंध आम हिन्दू धर्म से जोड़ता है – कहते गौ-गंगा-गीता इनका सबसे बुरा हाल उत्तर प्रदेश में ही है। ये क्यों है?

जो आपने कहा सब चलता है; सनातन धर्म में सब चलता है बस वेदान्त नहीं चलता है, श्रीकृष्ण का वक्तव्य नहीं चलता है, वेदव्यास का ब्रह्म सूत्र नहीं चलता है – बाक़ी हिन्दू धर्म में सबकुछ चलता है, बस जो केंद्रीय और सर्वोच्च है वो नहीं चलता है। कुछ भी करो सब चलता है कोई बात नहीं, मांस खा रहे हो, हिंसक हो घोर अज्ञानी हो तब भी हिन्दू हो। जैनों में ऐसा नहीं हो पाएगा, वहाँ कुछ तो सीमाएँ खींची हैं न, बौद्धों में नही हो पाएगा, सिक्खों में नहीं हो पाएगा और इसाई, मुसलमानों में भी नहीं हो पाएगा, यहूदियों में नहीं हो पाएगा‌।

हिन्दूओं में सब चलता है तो यहाँ कोई किसी भी तरह का दुस्साहस कर लेता है। उसको झेल जाते हैं। हाँ शोर हम कब मचाते हैं? जब तथा-कथित जो हमारी गौरवशाली संस्कृति है, उसमें लगता है कि उसके विरुद्ध कुछ हो रहा है। भाई मूल बात तुम्हारा ग्रंथ और तुम्हारा दर्शन होता है, ये जो इतनी हिंसा हो रही है ये तुम्हारे दर्शन के विरुद्ध है, तुम्हें तब शोर मचाना चाहिए लेकिन तब तुम नहीं शोर मचाते।

प्र: ऐसा क्यूँ हुआ कि जो बाक़ी धर्म हैं उनमें संस्कृति और दर्शन इतने घुले नहीं, लेकिन इनमें घुल गये, एक तरीके से संस्कृति इतना डोमिनेट नहीं कर गयी दर्शन के ऊपर।

आचार्य: देखो संस्कृति पुराना रवैया होती है, तो तुम जितने पुराने होगे संस्कृति उतनी हावी होती जाएगी। और तुम जितने पुराने होगे तुम्हारे धर्मग्रंथ तुमसे उतने दूर के होते जाएँगे। भैया अगर सिक्खों को लेंगे उदाहरण के लिए तो उनके ग्रंथ या उनका जो केंद्रीय ग्रंथ है वो उनसे महज छह-सात सौ साल दूर खड़ा हुआ है उतना भी नहीं बल्कि तीन सौ क्योंकि उनके शिखर रूप, आखिरी रूप तो जो दशम गुरु थे उन्हीं के समय में लिया था। अब आप कहें कि उपनिषद् कब के हैं, तो आपसे बहुत दूर के हो गये; लेकिन आपकी जो सांस्कृतिक धारा है वो वो बड़ी पुरानी है और वो आपके बिलकुल निकट की है। क्योंकि आदत का एक प्रवाह है और वो चला आ रहा है। आदत जितनी पुरानी होती है उतनी ही गहराती है; और ग्रंथ जितनी दूर का होता है आपके लिए उतना धूमिल होता जाता है। संस्कृति माने आदत, जैसे आप जीते आये हो; आपने जो आदत चला रखी है उसको संस्कृति कहते हैं। और इसीलिए वो गाँव-गाँव बदलती रहती है, इसी लिए वो काल-काल बदलती रहती है। आदत पुरानी होती है तो जड़ पकड़ती है; जड़ पकड़ रखी है उसने और ग्रंथ जितना दूर होता जाता है आपके लिए उतना धुंधला पड़ता जाता है। आपका उससे रिश्ता छूटता जाता है। ये हुआ है हिन्दूओं के साथ।

प्र: कहीं, कहीं जैनियों में भी पाती हूँ। क्योंकि बचपन से जैन में मेरी पूरी परवरिश हुई है; और जैसे कहते हैं – दर्शन, जैन दर्शन क्या है एग्जैक्टली अहिंसा, त्याग – इनके बारे में ही बचपन से आपको सिखाया जाता है। यह बताया जाता है कि जैन धर्म माने ये तो क्या जैन धर्म इन ही बातों तक सीमित है?

आचार्य: अगर अहिंसा और त्याग भी बता दिया जाता है घर में तो मोटे तौर पर लगभग पूरी बात बता दी गयी है। क्योंकि जैन धर्म मुक्ति का धर्म है, जैन धर्म का उद्देश्य है जीव की मुक्ति और एक छोटी सी बात जैन दर्शन कहता है, बहुत जटिल नहीं है – कि जीव पर उसके कर्मों के धब्बे लग जाते है, कर्मों के अणु चिपके होते हैं।

और जीव का उद्देश्य है ऐसे काम करना जिससे उसे अपने पुराने कर्मों से मुक्ति मिल सके। पुराने कर्म उसकी आत्मा से चिपके हुए हैं, जैन धर्म इसी प्रकार से कहता है। आत्मा शब्द का ही प्रयोग करता है। कहता है, ‘पुराने कर्म आपके, आत्मा से चिपके हुए हैं, वो झड़ जाएँ, निर्जरा हो जाएँ, आप मुक्त हो गये, उसके बाद आप मुक्त हो गये।

तो जो उसमें त्याग वाली बात है वह बहुत महत्वपूर्ण है,क्योंकि आपने पदार्थ के ही लालच में अपने ऊपर कर्मबंध लगा लिया था। तो उसी पदार्थ का आपको त्याग करना पड़ेगा, अगर आपको मुक्त होना है।

इसी तरीके से हिंसा — आप किसी-न-किसी लोभ में दूसरे जीव को कष्ट पहुँचाते हो। कुछ अपना ही पाना होता है और आपको जो चाहिए वो आपको मिल नहीं सकता भौतिक रूप से, जब तक आप किसी-न-किसी को कष्ट न दे रहे हों, क्योंकि सब जीवों की मूल वृत्तियाँ एक ही होती हैं। जो आपको चाहिए वो किसी दूसरे को भी चाहिए।

उदाहरण के लिए आप चल रहे हो, जो जगह आपको चाहिए वह जगह एक चींटी को भी चाहिए, तो दोनों में प्रतिस्पर्धा हो गयी, दोनों की मूल वृत्ति एक है, क्या, जगह पाने की। कोई भी जीव है, तो उसको अपना एक स्पेशल (विशेष) अस्तित्व चाहिए होता है, तो आपको भी चाहिए। आपने क्या करा, आपने कहा वो जगह मुझे चाहिए तो आपने चिंटी में पाँव रख दिया।

तो बात ये नहीं है कि आपने चिंटी को मारा है, बात ये है कि आपने, चिंटी ने, जगह के लिए, दोनों ही किसी लोभ में थे जैसे ही तुम लालच में काम करोगे तो कर्म तुमसे चिपक जाएगा, या कहो तुम कर्म से चिपक गये। चिपकेंगे नहीं तो कैसे उसका फल मिलेगा। तो इसलिए अहिंसा बहुत आवश्यक है।

कर्म से चिपकना माने की आप उसे बार-बार दोहराओ, कर्म के फल की आकांक्षा रखना और त्याग का क्या अर्थ हुआ फिर, कर्म के फल का त्याग कर देना, निष्काम कर्म हुआ। निष्काम कर्म पर

प्र: इसमें एक चीज़ और थी आप तो कहते हैं वेदान्त मुक्ति का धर्म है तो जैन धर्म भी मुक्ति का कैसे हुआ?

आचार्य: जैन धर्म भी मुक्ति का धर्म है, सिक्ख भी मुक्ति का धर्म है, बौद्ध धर्म भी मुक्ति का धर्म है और वेदान्त के अलावा योग भी मुक्ति की ही बात करता है। सांख्ययोग भी मुक्ति की ही बात करता है। तो फिर यह अलग धाराओं की ज़रूरत ही क्यों पड़ी? वेदान्त ही काफ़ी था। देखो, वेदान्त अगर देखो, तो जैन और बौद्ध से अलग नहीं है।

कोई ऐसा मूल उनमें अन्तर नहीं है, हालांकि जो जैन धर्म में पूरी तरह से द्वैतवादी है वेदान्त का तो शुद्धतम अर्थ ही अद्वैत होता है। लेकिन अलग इसलिए करना पड़ता है क्योंकि वेदान्त के नाम पर जो कुछ होने लगता है वो स्वीकार्य नहीं होता है।

जब हम कहते हैं न कि — उदाहरण के लिए कि गौतम बुद्ध ने — आम धारणा है कि वेदों को अस्वीकार कर दिया। ग़लत बात है, गौतम बुद्ध ने वेदों को स्वीकार किया था, उन्होंने वेदों के नाम पर जो चल रहा था उसको अस्वीकार किया था। गौतम बुद्ध को तो मैं कहता हूँ कि वेदान्त का उनसे बड़ा ज्ञाता, उनसे ऊँचा शिखर, उनसे जबर्दस्त प्रैक्टिशनर दूसरा नहीं हुआ है।

लेकिन अगर आपने वेदान्त के नाम पर, वेदों के नाम पर, आत्मा के नाम पर, हर तरह की हिंसा और नालायकी और शोषण कर रखा हो, तो फिर यह ज़रूरी हो जाता है कि उस पूरी शब्दावली को ही त्याग दिया जाए।

आप आत्मा, आत्मा बोलकर के समाज का शोषण कर रहे हो तो फिर किसी बुद्ध को बोलना पड़ता है 'अनात्मा'। आप वेदों का नाम लेकर के घोर हिंसा कर रहे हो, बली चढ़ा रहे हो और ये सब कर रहे हो तो फिर किसी महावीर को बोलना पड़ता है 'अहिंसा'।

इसका अर्थ ये नहीं है बिलकुल भी, एकदम आप लोग भ्रमित मत हो जाइएगा। कि अहिंसा और वेदान्त अलग-अलग है। अहिंसा और वेदान्त को अलग कर दिया तो इसका मतलब है वेदान्त माने हिंसा। दुनिया जानती है कि जैन धर्म अहिंसा का धर्म है, कितनी ऊँची बात है, कितनी सुन्दर बात है।

मुझसे तो कई लोग बोल चुके हैं यह पक्के जैनी हैं । क्योंकि विग्निज्म और जैन मत तो अनिवार्य रूप से एक साथ चलेंगे। विगनिज्म के केंद्र में भी करुणा ,है किसी जीव पर कोई हिंसा नहीं होनी चाहिए और वही बात जैन धर्म के केंद्र में भी है।

तो एक वेदांती और जैन अलग नहीं हो सकते। लोग आकर के बोलते हैं कि आप तो जैनी हैं इससे आप समझ जाइए कि वेदान्त मत और जैन क्या वास्तव में परस्पर भिन्न हैं। जो सच्चा वेदांती होगा, जैनों को अपना लगेगा।

बिलकुल वो हिंसा कर ही नहीं सकता और जो एक सच्चा जैन होगा वो एक वेदान्ती को अपना भाई लगेगा। भेद तो सब झूठे लोगों में होते हैं, जो वेदान्त को नहीं जानता, उसको जैन धर्म पराया लगेगा, उसको बौद्ध भी सब पराए ही लगेंगे, उसको सिख भी पराए लगेंगे।

मैं जब श्री गुरुग्रंथ साहिब को पढ़ता हूँ, उसपर बोलता हूँ, तो मुझे तो ऐसा ही लगता है कि जो सबसे आधुनिक उपनिषद् है, वहीं मेरे सामने खुला हुआ है। कितनी बार मैंने पाया कि मैं एकांत में, मौन में – और मैं क्या कर रहा हूँ, अरे! ये क्या है मुझे पता भी नहीं चलता और मैं गुनगुना रहा होता हूँ एक ओंकार।

ठीक वैसे जैसे मैं श्रीमद्भगवद्गीता का कोई श्लोक कभी-कभी गुनगुनाने लगता हूँ। एक हैं मेरे लिए दोनों और वो एक हैं ही। अलग क्यों फिर बनाना पड़ा उनको, क्योंकि जो चीज़ इतनी शुद्ध होती है न, उसके अशुद्ध होने की सम्भावना उतनी बढ़ जाती है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो चीज़ है ही बहुत शुद्ध।

गन्दी चीज़ों को कौन गन्दा करेगा, तो गन्दी चीज़ जैसी है वैसी बहुत लंबे समय तक चल सकती है। जो शुद्ध चीज़ है वो बहुत जल्दी दूषित हो जाती है। वेदान्त की बात इतनी शुद्ध और इतनी महीन, इतने सूक्ष्म कि वो समय-समय पर बहुत जल्दी-जल्दी वो दूषित होती जाती है।

आदमी का अहंकार किसी शुद्ध चीज़ को बर्दाश्त नहीं कर पाता और फिर जब वो अशुद्ध हो जाता है, वेदान्त की बात को विकृत करके, तोड़-मरोड़कर के रख दिया जाता है जनता के सामने। उल्टी-पुल्टी रीतियाँ, व्यवस्थाएँ, परम्पराएँ बना दी जाती हैं और उनको संस्कृति में शामिल कर दिया जाता है।

तो फिर चिन्तकों को, मुनियों को, ऋषियों को, समाज सुधारकों को, समय-समय पर आकर के फिर शुद्धता का कार्यक्रम चलाना पड़ता है। उसी शुद्धता के कार्यक्रम की परिणति होती है कि फिर उसमें से कई बार नई-नई धार्मिक धाराएँ ही पैदा हो जाती है। धार्मिक धाराओं को पैदा करना सुधारकों की मज़बूरी होती है, क्योंकि जो पूरी पुरानी व्यवस्था होती है न, वो सुधरने को राजी नहीं होती।

अब महावीर कोई बात कह रहे हैं और मान लो उस समय जो उनका प्रभाव क्षेत्र था भारत, मान लो उस समय उत्तर भारत में एक करोड़ लोग थे; इतने भी नहीं रहे होंगे पर मान लो। अब एक करोड़ लोगों में उनकी बात सुनने को, उनके जीवन काल में तैयार ही हो रहे हैं मात्र दस हज़ार लोग।

और महावीर कोई महत्वाकांक्षी व्यक्ति तो थे नहीं; अपने में परिपूर्ण, तृप्त, मौन व्यक्ति हैं। बहुत वो बोले भी नहीं अपने जीवनकाल में। वो क्या करें कुल दस हज़ार लोग हैं, बाक़ी लोग उनकी बात सुनने को राजी नहीं हैं।

क्योंकि बात इतनी शुद्ध है, इतनी सच्ची है कि अगर उसको स्वीकार किया जाए तो अहंकार टूटता है। पुरानी व्यवस्था, पुरानी संस्कृति टूटती है। तो लोग सुनना नहीं चाहते। तो और ये जो दस हज़ार लोग हैं इनको अब सच्चाई पता लग गयी है, ये पुरानी व्यवस्था के साथ चल नहीं सकते।

तो फिर हारकर के एक नई व्यवस्था बनानी पड़ती है। अगर गौतम बुद्ध हो या वर्धमान महावीर हों, वो ऐसा कर पाते कि जो मुख्य धारा थी सनातन धर्म की; उसी को शुद्ध कर पाते तो उनको एक नया धर्म चलाने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती।

पर मुख्य धारा किसी भी सुधार को स्वीकार नहीं करती है, मुख्य धारा आदत से मज़बूर होती है, बड़ी अड़ियल होती है अपने स्वार्थ से मजबूर होती है, अपने अज्ञान से विवश होती है। तो जब भी कोई सुधारक आता है वो उसका पुरज़ोर विरोध करती है, उसको जान से मारने को तैयार हो जाती है।

तो फिर जो सुधारक होता है उसको मजबूर होकर के अपने गिने-चुने भाइयों को, अनुयायियों को लेकर के एक नया पंथ ही निर्मित करना पड़ता है, और कोई रास्ता बचता नहीं है।

कोई विरोध नहीं है। विशुद्ध वेदान्त और जैन धर्म में कोई विरोध नहीं है, दोनों का जो कुल मिलाकर के लक्ष्य है वो यही है – मुक्ति। जैन धर्म बोल देता है ऐसे कि आत्मा को मुक्ति देनी है, अपने कर्मों के माध्यम से। और वेदान्त आत्मा कि जगह अहम् का इस्तेमाल करता है।

वेदान्त कहता है, ‘अहम् को मुक्ति देनी है।‘ लेकिन बात बहुत सीधी सी है, जीव है जो बन्धनों में जकड़ा हुआ है, उसको मुक्ति की ओर ले जाना है, यही जैन धर्म भी चाहता है; यही वेदान्त भी चाहता है, बात एक ही है।

बीच-बीच की जो पूरी व्याकरण है जो टर्मिनोलॉजी है बस उसका अन्तर है और कुछ नहीं। अब आप अगर शब्द लोगे जैसे — कशाय या पुद्गल तो ये आपको वेदान्त में नहीं मिलेगा। ठीक है। या निर्जाल लोगे। ये भी आपको वेदान्त में आसानी से नहीं मिलेंगे।

तो आप किस तरीके से डिफाइन (परिभाषित) कर रहे हो और आपने अपने पर जो भाषा संसार है वो कैसे रचा है उसका अन्तर है। शुरुआत भी एक है कि जीव बन्धन में है और लक्ष्य भी एक है कि जीव को मुक्ति तक ले जाना है। तो दोनों एक ही चीज़ है।

प्र: आज का जो समय है, आज का जो युग है, उसमें सबसे ज़्यादा जो समस्या सामने दिखती है, जिसको आप भी बहुत प्वाइंट आउट करते हैं, वो रहता है एक तो भो कंजम्शन (भोग) दूसरा हिंसा,‌ वायलेंस और इन दोनों के ही एक तरीके से ख़िलाफ़ जो है जैन धर्म स्थापित हुआ था।

जहाँ पर त्याग की बात होती है और अहिंसा की बात होती है पर आज जब मैं ख़ुद ही जैन परिवारों को या जैनियों को देखती हूँ तो उस दर्शन से काफ़ी छिटका हुआ पाती हूँ। वो शायद इस वजह से भी है क्योंकि कल्चर या आस-पास का पूरा माहौल ही उस तरीके का हो गया है।

आचार्य: नहीं। देखो, उसका कारण यही है कि महावीरों को आते रहना चाहिए। बेवजह ही नहीं था कि चौबीसवें थे महावीर। गिनती चौबीस में रुकनी नहीं चाहिए थी। मेरी बात बहुत बुरी लगेगी, उनसे मैं क्षमा माँग लेता हूँ। पर मैं फिर भी यही कहूँगा चौबीस पर गिनती रुक जाती है न, तो लोग भटकने लग जाते हैं, लोगों को चाहिए होता है।

अच्छी बात हो, आदर्श स्थिति हो कि सब लोग आध्यात्मिक रूप से आत्मनिर्भर हों उन्हें कोई नहीं चाहिए हो पथप्रदर्शक। पर चाहिए होता है। जैनों को चाहिए कि आये पच्चीसवें आयें। फिर कह देता हूँ, ‘बात विचित्र लग रही हो तो मुझे अज्ञानी मान करके माफ़ कर दीजिएगा।‘ वरना क्या होता है , समाज का दबाव इतना भारी होता है कि आम इंसान बेचारा हार जाता है। समाज का दबाव इतना भारी होता है कि आम इंसान बहुत अकेला अनुभव करता है, हार जाता है।

जैनी कुल पचास से सत्तर लाख हैं भारत में, अभी हुई नहीं जनगणना होगी तो शायद पैंसठ से सत्तर लाख आएँगे कुछ और मान लो दुनिया के बाक़ी देशों में कुछ लाख, चन्द लाख और उसमें जोड़ लो बहुत छोटी संख्या है और व्यापारी वर्ग है। जैन सब व्यापार में ही हैं।

अब ये व्यापार में हैं इनके ग्राहक सब कौन, हिन्दू लोग। सप्लाई चेन है, फॉरवर्ड लिंकेज किससे है, हिन्दू से। पीछे सप्लायर कौन है, वो भी हिन्दू है। पैसा उठाते हैं मान लो बैंक से, वहाँ भी सब कौन हैं, हिन्दू हैं। इनका जो पूरा इको सिस्टम ही है वो किससे भरा हुआ है, हिन्दूओं से।

तो फिर जो साधारण आदमी की साधारण स्वार्थ बुद्धि, व्यापार बुद्धि होती है वो उसको अपनी विशिष्टता लेकर नहीं चलने देते। जब आपके सारे तार जुड़े हिन्दुओं से हैं तो आपको पता भी नहीं चलता कि ले-देकर आप भी हिन्दू बन जाते हो।

प्र: और जब आप हिन्दू कह रहे हैं तो वो वाला है कि लाइफ जैसा भी हो वाला जैसा।

आचार्य: साधारण हमारा जो सांस्कृतिक हिन्दू होता है वो हिन्दू। असली हिन्दूओं की बात नहीं कर रहा। वो बेचारे है कहाँ भारत में, उनको तो मैं कहता हूँ की भारत भर में एक हज़ार न मिले ढूँढने से।

तो जैनों के जिनसे तार बँधे हुए हैं वो सब यही तो हैं सांस्कृतिक हिन्दू। खरीद-फरोक्त में जो लगे हैं यह सब यही लोग हैं। तो आपकी जो साधारण व्यापार बुद्धि, स्वार्थ बुद्धि होती है वो आपको वैसा ही बना देती है।

जैसे हिन्दू कभी नहीं पढ़ता अपने वेदान्त को, अपनी गीता को वही चीज़ जैनों में आ गयी है। उनसे भी पूछ लो कि अपने प्रमुख ग्रंथ बता दो उन्हें न पता होगा। उनके लिए भी जो धर्म है वो मात्र रवायती हो गया है, रिचुलिस्टिक।

मन्दिर चले जाना है, ये कर देना है, वो कर देना है। तमाम होंगी उसमें प्रथाएँ, परम्पराएँ, आप बेहतर जानती होंगी आप जैन हैं। ये हिन्दूओं की ज़्यादा संगति कर लेने का असर है। और जैन धारा का स्वस्थ बने रहना हिन्दूओं के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है‌।

समझिएगा आप बात को, क्योंकि जिस वजह से हिन्दूओं से छिटक करके एक अलग जैन धारा बनी, वो वजह आज भी क़ायम है। जैन धर्म रोगी हिन्दू समाज में दवाई की तरह आया था, कुछ बहुत ग़लत हो गया था हिन्दूओं के साथ। जिसकी दवाई बनकर आया था जैन मत और वो चीज़ जो ग़लत हो गयी थी हिन्दूओं के साथ, वो आज भी विद्यमान है, हिन्दूओं में आज भी वो ग़लती उतनी ही मौज़ूद है।

तो हिन्दूओं को आज भी जैन दवाई की उतनी ज़रूरत है, जैन दवा खाना चाहिए और जैन दवा खाना अगर मरीज़ों जैसा ही हो गया तो मरीज़ की दवा कौन करेगा? मैं फिर बोल रहा हूँ, ‘सन्त वाणी क्या होती है? वो दवाई होती है। समाज सुधारक क्या होते हैं? वो भी दवा ही हैं। तीर्थंकर सब क्या होते हैं? वो भी दवाई हैं।‘

और सनातन धारा मैंने कहा, ‘वो अपने केंद्र में इतनी शुद्ध है कि बार-बार अशुद्ध होती रहती है, ख़ास तौर पर जब उस पर स्वार्थ हाथ लगा देते हैं। तो वो बार-बार अशुद्ध होती रहती है। अशुद्ध होने को मैं कह रहा हूँ रोगी हो जाना, तो उसे ये सब दवाइयाँ चाहिए होती हैं।

तो जैन सुधरे रहें, जैन एक बहुत ऊँचा आदर्श प्रस्तुत करें यह जैनों के लिए तो ज़रूरी है ही, यह हिन्दूओं के लिए भी बहुत ज़रूरी है। जैन ही अगर छिटक गये, जैन ही अगर अपने जैन मार्ग से छिटक गये तो हिन्दुओं को अहिंसा कौन सिखाएगा?

मैं बहुत मासूम सा सवाल कर रहा हूँ। हिन्दू तो सब माँसखोर हुए जा रहे हैं, बोलो, ‘हिन्दूओं को त्याग कौन सिखाएगा?’ और एक जैन मुनी त्याग की जिस ऊँचाई को स्पर्श करता है वो ऊँचाई हिन्दुओं के लिए बड़ी अद्भुत होती है‌।

जैनों के जो व्रत होते हैं उनमें जो सख्ती, जो कड़ाई होती है और स्वयं के प्रति जो निर्ममता होती है, वो आदर्श हिन्दूओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अगर जैन भी लुचुर-पुचुर, ढीले पड़ गये तो हिन्दुओं का क्या होगा।

तीन चौथाई हिन्दू माँसाहारी हो चुके हैं और जो बचे-खुचे हैं, वो मरने की तरफ़ बढ़ रहे हैं। क्योंकि वो ज़्यादातर पुराने लोग हैं, नई पीढ़ी तो यही कह रही है— पर्यटन करना है लेट्स हैव सम टूरिज्म , हर जगह मौज मारने की है। तो जानवर की छाती के भीतर जो खून है, वो हमारी मौज मारने के लिए ही है।

तो कौन सिखाएगा अहिंसा और कौन बताएगा त्याग। तो कितनी अजीब बात है कि सनातन धर्म के केंद्र में जो अमृत है वेदान्त, जो कुल इतनी सी बात बोलता है कि अहम् हो तुम, स्वयं को पहचानो।

उसका केंद्रीय प्रश्न ही है ये — कोहम? अहम् हो तुम स्वयं को पहचानो। जगत में फँसकर मत रहो। जगत कुछ नहीं तुम्हारी छाया है, अपनी छाया को चाटकर के किसी को अमृत नहीं मिला आज तक। तो क्या जगत को चाट रहे हो, अपनी छाया को चाटकर के किसको क्या मिल जाना है; जगत को चाटना छोड़ो।

मुक्ति ही जीवन का लक्ष्य है और मुक्ति आती है आत्मबोध से। तुम अपनेआप को जान लोगे कि अहम् हो तो मुक्त हो जाओगे। बस ज्ञान मुक्ति का रास्ता है, ये जो बात है; इस बात ने दुनियाभर की सारी अच्छाई और ऊँचाई को प्रेरित करा है।

भारत में ही नहीं भारत से बाहर भी, आदि काल में ही नहीं आज भी मैं बहुत विचार से और बहुत गौरव से कहा करता हूँ कि भारत ने विश्व को आत्मा दी है। वेदान्त ने विश्व को आत्मा दिया।

और ये कितनी एक ओर तो बात त्रासदी की है, दूसरी ओर रोचक भी है कि जिस सनातन धारा के पास वेदान्त है, वो वेदान्त को छोड़कर न जाने और किन चीज़ों से चिपक गयी, अंधविश्वास में चिपक गयी, प्रथा-परम्परा, संस्कृति इन झमेलों में उलझ गयी; और जो मूल बात है; जो मूल दर्शन है उसको त्याग दिया। और वो जो मूल दर्शन है, उसी ने अभिव्यक्ति पायी अन्य जगहों पर जाकर के।

तो जो “माखन-माखन सन्तों ने खाया, छाछ जगत बपरानी।” तो सनातन धारा का जो माखन था, उसी को पश्चिम भी ले गया। प्लेटो — कहते हैं — भारत आया था और गंगा तट पर रहा था कुछ दिन, वही बात जीजस के बारे में बोली जाती है।

पश्चिम के न जाने कितने गणमान्य विचारक हैं, कवि हैं, वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक; सबको लेकर के या तो साक्ष्य उपलब्ध हैं या उन्होंने स्वयं ही कहा है या अनुमान लगाया जाता है कि वो भारत ज़रूर आये थे। माखन-माखन सन्तों ने खाया। जो सनातन धारा का माखन है वो पूरे विश्व ने खाया है।

उसी माखन से सम्बन्धित है जैन धर्म, बौद्ध, सिक्ख और तमाम अन्य बातें। लेकिन जो हिन्दू समाज है वो अपने ही माखन से वंचित रह गया, वो अपनी छाछ पकड़कर बैठा हुआ है‌। वो अपनी छाछ पकड़कर pबैठा हुआ है। माखन पूरी दुनिया में बँटा, हिन्दू अपने ही माखन को नहीं जानते। हिन्दू जानते ही नहीं हैं कि उनके पास जो पूरा भंडार है ग्रंथों का, उसमें से कौन सा ग्रंथ पूजनीय है। न जाने कहाँ इधर-उधर भटके हुए हैं, कुछ नहीं पता।

प्र: जो सनातन धर्म में जो ओपन एंडड नेस (खुलापन, स्वतंत्रता) है अनलइक जुडाईसम, क्रिशच्न रिलिजंस— जहाँ पे एक टेक्स्ट है, कमांडमेंट्स हैं, एक प्रॉफेट है। ये जो ओपन एंडड नेस है इसको आप लूजनेस बता रहे हैं, कि यह एक लूजनेस है।

आचार्य: उसी को आप प्लूरिज्म (कोई एक केंद्र नहीं होता जिसमें) वगैरह और ये सब बोलते हो। अरे भैय्या सिखाएगा कौन? मैं जब भी बोला करता हूँ कि ये तो पहचानो तुम्हारा केंद्रीय ग्रंथ, केंद्रीय दर्शन तो कई बार लोग यही कहते हैं कि ये क्या कर रहे हो आप, आप क्या हिन्दू धर्म को भी वही बना दोगे? हमारी तो ताक़त हमारा अनेकत्व है। वो जो भी तुम्हारी ताक़त है वो तुमको समझाएगा कौन? या बैठे-बिठाए ताक़त हो जाती है‌। ताक़त किसी की तो होनी चाहिए न, कोई है ही नहीं तो ताक़त कैसी? देअर मस्ट बी सम बडी टू बी पॉवरफुल, वो कोई तो होगा न भाई, आप ये भी कहो अगर की सहिषुणता और उदारवाद हमारी ताक़त है, सबकुछ स्वीकार कर लेना; भाई तो कोई ग्रंथ तो होना चाहिए; जो ये ताक़त आपको बताएगा, नहीं तो ताक़त आपको कहाँ से पता चलेगी? बताने वाले आपको ये नहीं बताते कि ये सब जो बातें बताई जाती है इनका ओरिजिन (उद्भव) तो वेदान्त में है। इनका ओरिजिन तो वेदान्त में है, और वेदान्त से दूर हो गये तो अपनी इन ताकतों से भी दूर हो जाएँगे।

आपको ये तो बता दिया की हिन्दू धर्म ऐसा है-वैसा है, ये है-वो है। ठीक है, अच्छी बात है; पर जैसा भी हिन्दु, जिसकी आप ऊँची बातें बताते हो ये सब ऊँची-ऊँची बातें कहाँ निहित है, लिखी कहाँ है? वो वेदान्त में है, वेदान्त पढें। ऊँची बातें आपको कौन बताएगा? आपको कैसे मिलेंगी ऊँची बातें? प्लूरलिज्म का भी सही अर्थ क्या है ये आपको कौन बताएगा; अगर आपने उपनिषद् ही नहीं पढ़े तो। एंड कैन द हिन्दू बी रियली टोलरेंट ईफ दे डोंट नो उपनिषद् (क्या हिन्दू वास्तविकता में सहनशील हो सकता है अगर उसे उपनिषद् का ही आता-पता नहीं है)? तो उपनिषदों को हटा दें ये कौन सा लिबरलिज्म है भाई? या प्लूरलिज्म है? यह कौन सा है ?

कोई केंद्रीय सत्ता होगी नहीं तो आप फिर जो बात बोल रहे हो बड़ी अतार्किक हो जाती है। आप बोलते हो कि हिन्दू धर्म की विशेषता है या की एक हिन्दू में यह विशेषता होती है। मैंने पूछा हिन्दू है कौन? तो आप कहते हो किस विशेषता की बात कर रहे हो, फिर तो हिन्दू कोई है ही नहीं, फिर तो शब्द हटा दो। भाई किसी के होने के लिए उसकी परिभाषा होनी चाहिए और परिभाषा का मतलब होता है सीमा, जो चीज़ सीमित नहीं हो सकती परिभाषित नहीं हो सकती। तो कहीं तो आपको सीमा रेखा खींचनी पड़ेगी, कहीं तो आपको कोई शर्त लगानी पड़ेगी कि आप अगर हिन्दू हो तो आपको इस शर्त को पूरा करना पड़ेगा, और हिन्दू होने की शर्त यह होती है की आपको उपनिषदों का, गीता का, वेदान्त का ज्ञान होना चाहिए। ये ज्ञान अगर आपको नहीं है तो आप हिन्दू नहीं कहला सकते। अन्यथा यह ऐसी ही बात हुई की मैं कह दूँ की मेरा तोता हिन्दू है, या कोई भी जा रहा पेड़ का बन्दर हिन्दू है। फिर तो कोई भी हिन्दु है। या मैं कह दूँ कि अफ्रीका के सब निवासी हिन्दू हैं। अगर हिन्दू होने की कोई शर्त ही नहीं, कोई परिभाषा ही नहीं तो फिर कोई भी हिन्दु है, ऐसा थोड़ी होता है।

प्र: तो जैसे जुडे क्रिश्चयन रिलिजन की बात रही है, ऑर्गेनाइज स्ट्रक्चर में या मक्का में कोई तीर्थ स्थल को पर्यटन स्थल बनाने की कोशिश करे तो वहाँ पर एक कोई है, कोई व्यक्ति है या कोई एक ऑर्गेनाइज्ड (सुव्यवस्थित) तरीके से वहाँ से प्रतिक्रिया आएगी, रोक आएगा उस पर। तो हिन्दू धर्म में यह क्यों नहीं है?

आचार्य: नहीं बहुत बढ़िया बात है, ये अच्छा मुद्दा उठाया आपने। देखिए बहुत अच्छी बात है कि कोई यहाँ पर केंद्रीय अथॉरिटी नहीं है; चाहिए भी नहीं, होने भी क्यों चाहिए? साधारण हिन्दू काफ़ी होना चाहिए ऐसी मूर्खताओं का विरोध करने के लिए। जैन वहाँ बहुत सारे आचार्य मुनि हैं सब ने संयुक्त रूप से आवाज़ उठाई और जो सर्वसाधारण जैन समाज था वही उठ कर सामने आया सड़कों पर आया, पर यहाँ तो समाज को ही पर्यटन करना है अन्तर यह है। अन्तर यह नहीं है कि आपके पास एक केंद्रीय अथॉरिटी नहीं है प्रभुसत्ता संपन्न, बात यह है कि आपका जो आम हिन्दू है वही मदमस्त हो चुका है; नशे में चूर है, उसको बस मजे मारने हैं। उसको बता दिया गया है कि जीवन का उद्देश्य क्या है? खुशी, और खुशी मिलती है भोग से; उसके पास जीने के लिए कोई दर्शन नहीं है, और जब आपके पास जीने के लिए कोई दर्शन नहीं होता न; तो आपके पास जीने के लिए बस आपकी पशुता होती है।

दो ही केंद्र होते हैं जहाँ से आदमी जी सकता है— या तो आपके पास जीने के लिए एक ठोस दर्शन हो, नहीं तो जो आपकी पुरानी जन्मगत, पशुता होती है; वो पर्याप्त होती है, वही आपको जिलाए चलेगी या आपसे ज़िन्दगी के सारे काम कराए चलेगी। हिन्दूओं के पास दर्शन नहीं है और मैं यह बात बोलता हूँ तो लोगों को समझ में नहीं आ रही और संस्कृति वगैरह दर्शन का विकल्प नहीं हो सकते। आप किसी को संस्कारों से कितना भी भर दें कोई फर्क नहीं पड़ता, संस्कार दर्शन का विकल्प नहीं होते भाई।

प्र: आप जो बात कह रहे हैं वो किसी भी सामान्य मध्यम वर्गीय हिन्दू के लिए सुनना, उसके गले से नहीं उतरेगी। क्योंकि उसने बचपन से जो कुछ हिन्दू धर्म जाना है चाहे वो उसके रीति-रिवाज हों आस-पास के, चाहे वो त्यौहार हों उनमें दर्शन तो कहीं दूर-दूर तक नहीं है।

आचार्य: तो इसी लिए तो हिन्दू धर्म की इतनी बुरी हालत है। आज हिन्दू धर्म की इतनी बुरी हालत है, और बुरी हालत में इसलिए नहीं बोल रहा की दूसरे धर्म हिन्दूओं पर चढ़े आ रहे हैं, या तमाम तरह का बाहरी कोई ख़तरा पैदा हो गया है हिन्दू धर्म के लिए। हिन्दू धर्म की बुरी हालत इसलिए है क्योंकि कोई हिन्दू नहीं जानता कि वो हिन्दू है क्यों, और हिन्दू होने का अर्थ क्या होता है। कोई सोचता है कि वो तिलक लगा लेगा तो हिन्दू हो जाएगा, कोई सोंचता है तीज त्यौहार मना लेगा तो हिन्दू हो जाएगा, कोई सोचता है मैं फलाने कर्मकांड कर लूँगा तो हिन्दू हो जाऊँगा। कोई सिर घुटा के हिन्दू हो रहा है, कोई जनेऊ पहन के हिन्दू हो रहा है, लेकिन हिन्दू होने का अर्थ क्या है कोई नहीं जानता। ये हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी है, ये प्राण घातक कमजोरी होती है, ये छोटी-मोटी कमजोरी नहीं होती।

प्र: कुल मिलाकर हो यह रहा है की आपने शोर तो समाज में ऐसा मचा दिया है की आप किसी दूसरे से सुरक्षा की कोशिश कर रहे हो लेकिन अन्दर आप ख़ुद को मार रहे हो।

आचार्य: आप हो ही नहीं। ख़ुद को मारने के लिए भी ख़ुद को होना पड़ेगा, आप हो ही नहीं। आप माया हो बस, जो होती नहीं है; पर प्रतीत होती है, की है। लोग कहते हैं हिन्दू ख़त्म हो रहा है, मैं पूछता हूँ हिन्दु है कहाँ ख़त्म होने के लिए? होगा तब ख़त्म होगा न। सिर्फ़ इसलिए कि किसी का नाम है मान लो रवि प्रसाद या रीता वर्मा या कुछ और नाम ले लो अंकुश शर्मा, वो हिन्दू थोड़े ही हो गया। पर हमको ऐसा लगता है कि किसी का नाम है रीता वर्मा या अंकुश शर्मा तो नाम के कारण आप हिन्दू हो गये। नहीं, साहब आप हिन्दू हो ही नहीं तो ख़तरा कहाँ से आएगा? अभी जो बात है वो ये नहीं है हिन्दू को बचाओ, अभी तो बात ये है कि हिन्दू को पैदा करो। और पैदा हिन्दू माँ के गर्भ से नहीं होता, हिन्दू उस दिन पैदा होता है जिस दिन वो वेदान्त में निष्णात हो जाता है। बाक़ी सब लोग हो जाते होंगे माँ के गर्भ से पैदा, एक सनातनी कभी माँ के गर्भ से नहीं पैदा हो सकता। माँ के गर्भ से तो सिर्फ़ और सिर्फ़ पशु पैदा होते हैं सब। आप एक छोटे बच्चे को देखिए और एक पशु को देखिए उनमें बहुत आपको अन्तर मिलेगा ही नहीं। गर्भ से सब सिर्फ़ पशु ही पैदा होते हैं, गर्भ से सब शरीर पैदा होते हैं।

सनातनी वो है जो अपने आप को चेतना माने, जो अपने आप को देह मान के जी रहा है वो सनातनी है ही नहीं। अभी मैं सुन रहा था एक सज्जन थे वो प्रवचन दे रहे थे, वो बोल रहे थे – “हिन्दू की सबसे बड़ी पहचान या सबसे बड़ी मर्यादा होती है कि वो माँ-बाप की आज्ञाओं का पालन करता है”। और ये अपने आप को सन्त बता रहे हैं और संतों के सारे लक्षण दर्शा रहे हैं, पहनावा,‌दाढ़ी, बोलचाल इत्यादि। कोई इनको बोलने वाला नहीं है कि बाबा तुम कितने देह भाव से भरे हुए हो।

सनातनी तो वो है जो अपनेआप को देह भाव से मुक्त करने का प्रयास करे और तुम बात कर रहे हो देह के माँ-बाप की। जब कहते हो की सबसे बड़े माँ-बाप हो गये तो आपने सबसे बड़ा किसको बना दिया? देह को बना दिया, क्योंकि माँ-बाप तो देह के ही माँ-बाप हैं। तो आप किसको पूज रहे? सबसे बड़े अगर माँ-बाप हैं तो फिर आप देह को पूज रहे हो, माने आप पशु को पूज रहे हो। आप कहाँ के सनातनी हो? जो अपनेआप को चेतना जाने और जो अपनेआप को बद्ध चेतना; बन्धन में फंसी हुई चेतना जाने वो सनातन होता है, जिसके जीवन का लक्ष्य मुक्ति मात्र हो वो सनातन होता है।

प्र: कुछ समय पहले आपने अभी कहा कि प्लेटो भारत आये; गंगा तट पर बैठे। या इशू के विषय में भी वर्णित है तो उनका जो आना रहा होगा सुख-सुविधाओं के अभाव में; क्या वो ही असली तीर्थ है?

आचार्य: ये हुई न बात, वो असली तीर्थाटन है। वो असली तीर्थाटन है जो आप इसलिए नहीं जा रहे हो कि आप की संस्कृति का तक़ाज़ा है, कि जाओ फलाने तीर्थ हो कर के आओ। जब एक प्लेटो भारत आता है, और गंगा तट पर बैठ जाता है – वो हुआ असली तीर्थाटन। वो संस्कृति की वजह से नहीं आया है, वो नैतिकता की वजह से नहीं आया है, वो किसी के साथ नहीं आया है और मौज-मस्ती करने तो बिलकुल ही नहीं आया है, और हेलिकॉप्टर पर चढ़ के, एसयूवी कार में बैठ के सुविधापूर्ण तरीके से तो सोच भी नहीं रहा आने की, यह हुआ असली तीर्थाटन। न वो अपने आप को जन्म से सनातनी बोल रहा है, न वो यहाँ की भाषा जानता है, कुछ नहीं जानता है; वो बस मुमुक्षा के मारे आया है। कह सकते हैं प्रेम के मारे आया है। जब मुमुक्षा हो, जब प्रेम हो, मात्र तब तीर्थाटन होता है।

प्र: आधुनिक भारत की बात हो और उसमें जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का नाम न हो।

आचार्य: तो जो बात पूरी पूरी दुनिया में ही चल रहा है, तो भारत में भी चल रहा है।

प्र: तो मैं इस चीज़ को इस तरह भी देख रहा था, क्योंकि भारत को कहा जाता है स्प्रिचुअल कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड (विश्व की आध्यात्मिक राजधानी) तो इसलिए भारत में यदि टूरिज्म का बढ़ावा देना चाहेंगे; तो कहीं-न-कहीं जो आध्यात्मिक, जो धार्मिक जगह हैं; वहीं पर आप उन्हें लेकर आओगे, वही दिखाओगे। तो अभी मैं आमोद के साथ बैठकर डिस्कशन (चर्चा) कर रहा था कि कहीं-न-कहीं जो पूरी जीडीपी वाली दौड़ है इसमें हम जिन ताकतों से लड़ रहे हैं, जिन ताकतों से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश कर रहे हैं; वो सारी की सारी वही है, जो एक समय पर इम्पीरियल फोर्सेस (साम्राज्यवादी ताकतें) थी, जिन्होंने दुनिया पर कब्जा किया; वहाँ से रिसोर्सेस (ऊर्जा के संसाधन) लिए और आज वो उसी के साथ अपने जीडीपी को और अपनी पूरी ग्रोथ को बढ़ा कर बैठे हुए हैं।

उसमें एक दूसरा एक आउटलायर (बाहरी) जो हमें दिखता है; वो है चाइना, जिसने एक समय पर अपने पूरे देश को एक पूरे फेस (दौर) से गुजारा, चालीस से पचास साल का ग्रोथ फेस; जो अभी भी शायद चल ही रहा है। जिसके बाद आज वो उनसे कंपीट कर पा रहे हैं। तो कहीं-न-कहीं भारत की आँखों में भी एक सपना है वैसा ही हो कुछ, वैसे ही जाने का, एक वैसे ही सुपर पॉवर बन जाने का।

तो मैं देख रहा था की चाइना की जो पूरी की पूरी जीडीपी है; उसमें कुछ शायद बारह परसेंट के आस-पास टूरिज्म का भी योगदान है, तो कहीं-न-कहीं हम भी अपनी ओर से कोशिश करते हैं कि जो भारत में छह प्रतिशत टूरिज्म योगदान देता है; उसको हम दस-बारह तक लेकर जाएँ। और एक रिपोर्ट भी है कि वन फिफ्टी मिलियन डॉलर्स ( एक सौ पचास लाख यूएस डॉलर्स) साइज ऑफ द टूरिज्म इंडस्ट्री इस राइट नाव (अभी के टाइम पर पर्यटन उद्योग इतना बड़ा है) और ये टू फिफ्टी मिलियन (ढाई सौ लाख यूएस डॉलर्स) प्रोजेक्टेड है ट्वेंटी थर्टी तक। इस दिशा में बढ़ना चाह रहे हैं।

तो कहीं-न-कहीं इस तरह के जो प्रोजेक्ट हैं, हम इसको अगर इस तरह भी कंपेयर करें कि चाइना के पास जो लैंड मास (भूखंड) है तो वही अपनेआप में इतना बड़ा है कि उसमें नेचुरल रिसोर्सेस बहुत कुछ है। चीज़ें कैपिटलाइज कर सकते हैं। भारत से तीन गुना है, भारत से तीन गुना है और भारत के पास सीमित रिसोर्सेज है, लोग बहुत ज़्यादा हैं; तो पॉपुलेशन डेंसिटी (जनसंख्या घनत्व) का भी एक दबाव है।

तो ये सारी चीज़ें कुछ ऐसा एक कॉकटेल बना देती है; जहाँ पर भारत जो है टूरिज्म को भी बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है, भारत मैनुफेक्चरिंग में भी हाथ डालना चाहता है, भारत सबकुछ करना चाहता है। एक चीज़ ऐड करना चाहूँगा टूरिज्म इस ग्रेट सोर्स ऑफ फॉरन एक्सचेंज (पर्यटन विदेशी मुद्रा के अदला-बदली का एक अच्छा कारक है)।

आचार्य: और जब आपके पास ट्रेड सरप्लस (लेन-देन में बढ़ोतरी) न हो तो आपको ये चाहिए होता है, ख़ास तौर पर जब आप इम्पोर्ट डिपेंडेंट हों फ्यूल एनर्जी के लिए ही आप एम्पोर्ट डिपेंडेंट हो इतने बुरे तरीके‌ से।

प्र: जो अभी गंगा विलास है वो इसी डायरेक्शन में हैं। जो पूरा-पूरा थाईलैंड है; थाई भी तो मुझे जानकारी ज़्यादा नहीं है, टूरिज्म में है उनकी इकॉनमी मेजरली टूरिजम पर डिपेंड करती है।

आचार्य: वो एक एक्सपोर्टिंग नेशन भी है।

प्र: टूरिज्म से वो इतना फल-फुल रहा है देश और उसका स्प्रिचुअल टूरिज्म और रिलिजियस टूरिज्म का भी है।

आचार्य: देखो यार, अगर, अगर टूरिज्म ही करना है तो कर लो खुल्ला, ठीक है। उसमें तीर्थ स्थलों को तो बर्बाद मत करो, और जहाँ जो करना है करो, तुमको इतना बड़ा तुम्हारा पूरा जो पश्चिमी तट है, वो उसमें बीच (समुद्र का किनारा) ही बीच है, सब वेस्टर्न घाट हैं, पूरे कर लो वहाँ जो करना है, लेकिन तीर्थ स्थलों को बर्बाद न करना और ये प्रकृति से सम्यक रिश्ता रखना धार्मिकता के मुख्य लक्षणों में से एक है।

आपके जो तीर्थ स्थल हैं वो ज़्यादातर ऐसी जगहों पर हैं जो इकोलॉजिकल हॉटस्पॉट्स हैं, जहाँ प्रकृति अत्यन्त संवेदनशील है। जोशी मठ में देख रहे क्या हो रहा है, तुम केदारनाथ में जबर्दस्त कंस्ट्रक्शन करोगे, तुम्हें क्या लगता है वो झेल लेगा।

तो आप धार्मिक स्थलों के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते वो ऐसी जगहों पर बसाए ही नहीं गये हैं कि जहाँ आप बहुत उपद्रव कर लें और धर्मस्थल फिर भी उसको झेल ले जाएँ। वो इस तरीके से रचे गये हैं अगर उनको आपको बचाना है, तो आपको प्रकृति से सही रिश्ता रखना पड़ेगा‌। आप वहाँ जाकर के भोग-विलास करोगे, चलेगी ही नहीं बिलकुल।

प्र: अभी जो आचार्य जी, प्रयास है वो ये है और अगर मैं एक गुड फेथ के साथ देखूँ तो जो करना वो चाह रहे हैं कि दे आर वांटिंग टू पोपुलराइज दोज़ स्पॉट्स (वो चाह रहे हैं ये जगहें प्रसिद्ध हों)। वो जो धाम हैं, वो जनमानस तक मशहूर बनें। सब वहाँ पहुँच सकें आराम से।

आचार्य: पर क्या करने पहुँच रहे हैं वहाँ, तुम जगह को क्या कहकर विज्ञापित कर रहे हो, तुम उस जगह को क्या कह कर विज्ञापित कर रहे हो?

प्र: पर क्या ऐसा है कि एक पिलग्रिमेज की परिभाषा में निहित है कि वो कभी पॉपुलर हो नहीं सकता?

आचार्य: नहीं, पॉपुलर हो जाए बट फोर द राइट रीजन (परन्तु सही कारण के लिए), किन कारणों से आप जनमानस में ऐसा चेतना का अभियान चलाएँ की लोगो में शिव के प्रति, राम के प्रति, श्रीकृष्ण के प्रति, प्रेम का ऐसा सागर फूट पड़े की लोग कहें हमें जाना है।

हमें काशी जाना है, हमें केदार जाना है। वो एक बात होती है कि जन मानस में कोई ज्ञानी, कोई ऋषि, कोई सन्त आ गया और उसने जन मानस में चेतना की ऐसी लहर पैदा करी कि लोग उतावले हो गये की महादेव के लिए हम जाएँगे केदार। वो एक बात है।

और दूसरी बात आप पूरे उत्तराखंड को एक लग्जरी रिसॉर्ट बना दो और लोग वहाँ पहुँच रहे हैं चिकन खाने के लिए, हनीमून मनाने के लिए, बियर पीने के लिए, यह बिलकुल ही अलग बात है न।

तो कारण महत्वपूर्ण चीज़ होती है, ले-देकर वेदान्त भी आख़िर किस चीज़ पर आकर आश्रित हो जाता है, नियत, चाहत। क्या तुम्हारी कामना की दिशा क्या है। ठीक है।

हमसे यही सवाल पूछा जाता है बोलो, ‘क्या चाहिए? सांसारिक बन्धन या मुक्ति का आनन्द अमृत?’ जो तुम्हें चाहिए वो तुम्हें मिल जाएगा, श्रीकृष्ण भी भगवद्गीता में यही बोलते हैं कि जो मुझे जिस रूप में भजता है मैं उसके साथ वैसा ही रूप रख लेता हूँ।

जो तुम्हें चाहिए मैं दे दूँगा। तुमको अगर माया ही चाहिए तो माया दे दूँगा और तुमको अगर साक्षात श्रीकृष्ण चाहिए तो तुम्हें श्रीकृष्ण मिल जाएँगे। तो ये तो आपकी चाहत पर है कि आप किसलिए जा रहे हो वहाँ पर। सही कारणों से जाओ न।

प्र: लव मेक्स दैट वर्क पॉसिबल (प्रेम इस कार्य को आसान बनाता है)? मैं अगेन (दुबारा) इसमें मतलब मेरे लिए भी काफ़ी स्ट्राइकिंग (विचित्र) था जो जैन्स ने एग्जाम्पल डिस्प्ले (उदाहरण प्रस्तुत करना) करा। एक तरीके से मतलब नो कॉम्प्रोमाइज (कोई समझौता नहीं) वाला ईवन (यहाँ तक) उसके लिए शायद बहुत ज़्यादा जागरूकता नहीं, शायद अभी जो प्यार की आपने बात कही, वो जो लव फैक्टर (प्रेम कारक) है, दैट वर्क्स (काम करता है)।

आचार्य: इतना तो कहो न कि कुछ तो ऐसा है जिसको हम बर्बाद नहीं होने दे सकते। चलो छोटी-मोटी चीज़ें ज़िन्दगी में बर्बाद होती रहती हैं, बहुत कुछ है जो बचाया नहीं जा सकता। पर दो-चार बातें तो रखो न जीवन में जिनको कह सको कि इसको हम किसी को नहीं छूने देंगे, आपके तीर्थ स्थल उनमें से आते हैं।

और यही वजह है कि आप पाते हो कि दुनियाभर में जितने भी लोग हैं, उनमें सबसे कम साफ़-सफ़ाई हिन्दूओं के मंदिरों में होती है।

आप एक गुरुद्वारे में जाकर वहाँ की सुजता देखेंगे तो एक स्तर की होती है और आप जो साधारण हिन्दू मन्दिर होते हैं — कुछ अपवादों की बात नहीं कर रहा — जो साधारण हिन्दू मन्दिर होते हैं उनमें सफ़ाई, सुजता का वो स्तर पाया ही नहीं जाता, क्योंकि हम ये भाव ही छोड़ चुके हैं कि कुछ तो ऐसा है न जो मन से परे है, जो जीवन से परे है, जो इंसान के स्पर्श से परे है, जिसको गन्दा करा ही नहीं जा सकता।

हमने सबकुछ गन्दा कर दिया, हमने हर चीज़ को अहंकार के दायरे में ला दिया, सबकुछ हमारे लिए स्पर्श की, भोग की वस्तु बन गया, हम धर्म का ही भोग कर बैठे।

प्र: आचार्य जी अध्यात्म और धर्म और संस्कृति के बीच में आदर्श सम्बन्ध क्या होना चाहिए?

आचार्य: सबसे आगे अध्यात्म, क्योंकि शुरुआत होती है अहम् से, किसी भी चीज़ की दुनिया में, कुछ भी हो, उसकी शुरुआत अहम् से होती है; मुझसे, ‘मैं’। वो मेरे लिए है, मैं उसके बारे में सोच रहा हूँ, मुझसे उसका सम्बन्ध है इसलिए सोच रहा हूँ, मैं हूँ इसीलिए सोच रहा हूँ। अहम् सबसे पहले आता है तो अध्यात्म सबसे पहले।

अध्यात्म का मतलब है अहम् में पैठ करना, अहम् को जानना, अहम् को समझना। अध्यात्म सम्भव हो सके इसके लिए धर्म एक माहौल खड़ा करता है, एक व्यवस्था खड़ा करता है, ताकि अध्यात्म सुचारू रूप से चल सके। तो धर्म, अध्यात्म के पीछे आता है और धार्मिक गतिविधियाँ, सामाजिक स्तर पर ठीक से चलती रहे इसके लिए फिर संस्कृति आती है।

तो सबसे ऊपर आता है अध्यात्म, अध्यात्म से नीचे आता है धर्म और इससे भी नीचे आती है संस्कृति।

लेकिन खेल हो गया है उल्टा। लोगों ने संस्कृति को सबसे ऊपर बैठा दिया है। लोग सोचते हैं संस्कृति सबकुछ होती है। संस्कार ही सबकुछ होता है। संस्कार बहुत नीचे की चीज़ होती है, उसको तो अध्यात्म के पीछे-पीछे चलना पड़ता है। संस्कार को तो अध्यात्म का सेवक होना पड़ता है।

यहाँ उल्टा खेल रहा है। अध्यात्म का कुछ पता नहीं और संस्कार पकड़कर बैठे हैं और कुछ तो वो जो सब संस्कार होंगे, वो अध्यात्महीन होंगे। वो सामाजिक संस्कार होंगे, वो पारम्परिक संस्कार होंगे, वो आध्यात्मिक नहीं होंगे संस्कार।

और आमतौर पर जो चीज़ें पारम्परिक होती है वो आध्यात्मिक नहीं होती। हमने एक उलटा रिश्ता बना लिया है। जो सोचते हैं कि सिर्फ़ इसलिए कि कुछ पारम्परिक है तो आध्यात्मिक भी होगा, ऐसा नहीं होता।

प्र: आचार्य जी, क्योंकि हम अभी चाइना का एग्जाम्पल ले रहे थे और यूएस भी एक एग्जाम्पल है इसके लिए, तो ऐसी जगह जहाँ पर अध्यात्म नहीं है, चाइना में तो स्टेट (राज्य) की पॉलिसी है कि नहीं होना चाहिए। ऐसी जगहों पर भी हम देखते हैं कि बल है और विकास हो रहा है। तो फिर इसको कैसे समझा जाए?

आचार्य: वहाँ पर अध्यात्म विकृत तो नहीं हुआ, है ही नहीं तो बच गया। सबसे दयनीय स्थिति तब होती है जब अध्यात्म हो और विकृत हो। अध्यात्म हो तो शुद्ध होना चाहिए, नहीं तो एकदम न हो, तो भी ठीक है।

उच्चतम स्थिति, आदर्श स्थिति तो यही है कि व्यक्ति, समाज और समाज के नेता सब अध्यात्म पर ही चलें। पर अगर अध्यात्म नहीं है तो भी वो स्थिति उस स्थिति से तो बेहतर है जहाँ पर अध्यात्म का एक विकृत रूप प्रचलित कर दिया गया है।

और भारत में विकृतियाँ-ही-विकृतियाँ फैला दी गयी हैं। इसलिए आप पाते हो कि चीन जैसे देश बहुत सारे मामलों में भारत की अपेक्षा बेहतर हैं। वहाँ धर्म है ही नहीं। भारत में विकृत धर्म है। शुद्ध धर्म भारत में जिस दिन आ गया भारत चीन से बहुत आगे निकल जाएगा।

प्र: रेखा के बारे में बात करी थी या कुछ ऐसा हो ज़िन्दगी में जो बहुत सीक्रेट (गुप्त) हो, जिसकी जो रेखा है, आप उसे पार न करो। तो सिखिज़्म में जैसे गुरुग्रंथ साहिब के प्रति वो चीज़ दिखाई देती है या जैनिज़्म में अहिंसा के प्रति वो चीज़ दिखाई देती है, तो हिन्दूज़्म में या हिन्दूओं के लिए वो चीज़ क्या होती है या क्या होनी चाहिए?

आचार्य: होती तो कुछ भी नहीं है, क्या होनी चाहिए, कितनी बार बोला मैंने इसी चर्चा में, ’वेदान्त।‘ जो हिन्दू लगातार आत्म-जिज्ञासा में नहीं जी रहा वो झूठे ही अपनेआप को हिन्दू बोल रहा है।

वेदान्त माने आत्म-जिज्ञासा, जिसका नतीजा होता है आत्मज्ञान, जिसका नतीजा होता है मुक्ति। आत्म-जिज्ञासा से प्रक्रिया शुरू होती है, आत्मज्ञान तक जाती है और उसकी निष्पत्ति होती है मुक्ति में। ये हिन्दू है जिसमें आत्म-जिज्ञासा लगातार चलती रहे, जो अपने प्रति लगातार सवालों से भरा हुआ रहे। वो हिन्दू है।

प्र: जब हम अहिंसा की बात करते हैं तो वो भी थोड़ा सा कर्म सम्बन्धी हो जाता है कि चींटी है तो उसको परेशान नहीं करना है या गुरुग्रंथ साहिब में भी जो ग्रंथ है वो भी एक ऑब्जेक्ट की तरह है, जिनके प्रति जो है वो आपका…।

आचार्य कम-से-कम आप गुरुग्रंथ साहिब का पाठ तो सुनते हैं लगातार, वेदान्त के कितने मंत्रों का पाठ भी सुनते हैं? उपनिषदों के महावाक्य भी क्या पता हैं लोगों को? उपनिषदों के नाम भी पता हैं क्या? उपनिषदों के नाम छोड़ो ये जो नाम है उपनिषद् ये भी कितने लोगों को पता है?

प्र: इट रिमाइंड मी ऑफ दोज डेज व्हेन अवर स्टूडेंट्स से एड-वेट (इससे मुझे वो दिन याद आ रहे हैं जब हमारे छात्र एडवेट कहते थे)।

आचार्य आप अद्वैत लिख देते हो उसको लोग पढ़ते हैं एड-वेट, ये तो हिन्दूओं का हाल है और बनना है तुर्रम-ख़ान, तो कैसे होगा? ये लैपटॉप आप लेकर बैठे हैं उसमें क्या है छुपा हुआ?

प्र: डिस्कशन (चर्चा) कर रहे थे इंडिया, चाइना इनकी ग्रोथ (विकास) का, उसी को लेकर कुछ चीज़ें शेयर करना चाहूँगा।

यहाँ हम पढ़ रहे थे कि गंगा — हम भी देखते हैं तो हमे लगता है कि — दुनिया की जो सबसे बड़ी नदियाँ हैं उसमें शायद गंगा टॉप फाइव, टॉप टेन (मुख्य पाँच, मुख्य दस) में आती होगी। तो हमने एग्जैक्ट डेटा (सटीक विवरण) ढूँढने की कोशिश करी तो पता चला कि दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में तीन-चार नम्बर पर गंगा आती है और उसमें हमने दुनिया का सबसे बड़ा रिवर क्रूज (नदी क्रूज) बनाने की कोशिश की है।

तो हम इसमें एक चीज़ और पढ़ रहे थे कि चाइना में भी एक रिवर क्रूज है जहाँ पर रिवर क्रूज चलता है और वहाँ पर और भी उसके अलावा जो आपका वाटर वेव्स (जल लहरें) हैं वो ट्रैफिक वहाँ रहता है, तो वहाँ पाया गया था कि वहाँ पर एक डाल्फिन पायी जाती थी।

तो दो-हज़ार-छह में फंक्शनली एक्सटिंक्ट डिक्लेयर (कार्यात्मक रूप से विलुप्त घोषित) कर दी गयी थी। क्योंकि वहाँ पर वाटर वेव्स बहुत ज़्यादा बढ़ गया था।

इसी तरह से गंगा में एक गैंजेटिक डॉल्फिन पायी जाती है और कहा जा रहा है कि जो क्रूज होता है उसकी जो आवाज़ होती है, वो उसके लिए बहुत हानिकारक होगी, क्योंकि वो डॉल्फिन होती है वो प्राकृतिक रूप में ब्लाइंड (अन्धी) होती है। वो ईको के थ्रू (द्वारा) अपने को नेविगेट करते हैं मैनूवर (पैंतरेबाज़ी) करती है और वहाँ पर यदि कोई इतनी बड़ी बॉडी (शरीर) होगी जो आवाज़ कर रही है तो उसके साथ इंटरफेयर (हस्तक्षेप) करेगी।

आचार्य: मुझे इस क्रूस की ज़्यादा जानकारी नहीं है इसके बारे में बताइए— कहाँ से चलेगा, कहाँ को जाएगा, क्या उद्देश्य है, और कौन लोग हैं, क्या कैपेसिटी है, कितना पैसा है? ये सब बताइए।

प्र: इसकी शुरुआत हो रही है बनारस से, वाराणसी से और ये डिब्रूगढ़ असम तक जाएगा, तो इसकी यात्रा कुछ बंग्लादेश का भी नाम है। इसकी यात्रा कुछ इस तरह से है कि अगर मै फैक्चुअली (असल में) बोलूँ तो तीन हज़ार-दो-सौ किलोमीटर जाने वाला है और पचास जगह पर रुकेगा बीच-बीच में।

आचार्य: तो ये शुरुआत हो रही है आपकी वाराणसी, आगे होते-होते पटना जाएगा, पटना से होते-होते कोलकाता जाएगा। फिर वहाँ से प्रवेश करेगा बांग्लादेश में। अच्छा! और फिर वहाँ से ही और ऊपर की ओर यह ब्रह्मपुत्र में पहुँच जाएगा। भारत फिर बंग्लादेश, फिर असम, फिर असम में ब्रह्मपुत्र को पकड़ लेगा।

प्र: जी क्रूज इतना बड़ा है कि शायद इसमे ट्वेंटी एट रूम हैं और इसमें अराउंड साठ लोग रह सकते हैं। और इसकी जो क़ीमत बताई जा रही है वो पर पर्सन (प्रत्येक व्यक्ति) पचास से पचपन लाख की बताई जा रही है।

आचार्य: ये लाइफ लॉन्ग मेम्बरशिप (जीवन भर सदस्यता) का है क्या?

प्र: पचास दिन का क्रूज है, उसका है। जिसको करने के लिए एक को पचास से पचपन लाख रूपए देने हैं।

आचार्य: तो ये आम भारतीय के लिए तो नहीं है।

प्र: अभी जो फर्स्ट बैच है जर्मन टूरिस्ट का है और अगले दो साल के लिए बुक है पहले से। ये मार्च 2024 तक बुकिंग है इसमें।

आचार्य: और इसका बनारस से क्या सम्बन्ध है फिर, मेरे बनारस में तो कोई ऐसा नहीं है जो इसमें चल पाएगा।

प्र: दो दिन पहले पटना में अटक गयी थी, लेकिन कहा गया कि वो पटना में अटकी नहीं थी वो…।

आचार्य: ये कौन कर रहा है, यह सरकार कर रही है? कोई प्राइवेट पार्टी है? सरकार ने प्राइवेट बेसिकली सरकार ने वॉटर वे डेवलप (पानी में रास्ते को विकसित) किया है, उसमें प्राइवेट पार्टी के पास काम करने का अधिकार है।

प्र: बट इट सपोर्टेड बाय द पर्सन प्रोपरेटर ऑफ वाइल्ड लाइफ कंजरवेटर (लेकिन इसका समर्थन किया गया है वन्य जीवन संरक्षकों द्वारा)।

आचार्य: जो क्रूज है यह बाहर का चलन है, क्योंकि जो सब धनकुबेर लोग होते हैं दुनियाभर के। भारत के संदर्भ में तो क्रूज का नाम भी मैंने ज़्यादा सुना ही नहीं था।‌ यह तो एक अमेरिकन, यूरोपियन खेल रहता है।

आमतौर पर तो क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) के कांटेक्स्ट (प्रसंग) में क्रूज का नाम बड़े असम्मान से लिया जाता है, कि एक किलोमीटर चलने में एक हवाई जहाज भी जितना प्रदूषण करता है क्रूज शिप्स और आठ सौ से कई गुना ज़्यादा करते हैं। क्या मैं सही कह रहा?

प्र: हाँ।

आचार्य: ये सही कह रहा हूँ न? एक्सट्रीम कंजमशन, एक्सट्रीम (अत्यधिक खपत ) है। मतलब माहौल को गन्दा करने में, क्लाइमेट चेंज में क्रूज जितना करते हैं एमिशन (उत्सर्जन) पर किलोमीटर (प्रति किलोमीटर), वो हवाई जहाज से भी कई गुना होता है।

प्र: तथ्य जो आपको बताना चाहूँगा। अध्ययन में पता चला है कि एक क्रूज जितना प्रदूषण पैदा करता है वह बारह हज़ार कारों के द्वारा किए गये प्रदूषण के बराबर होता है।

आचार्य: सिर्फ़ ट्वेल थाउजंड कार्ज (बारह हज़ार कार)? ओके (ठीक है), माने बनारस भर की करें एक तरफ़, गंगा विलास एक तरफ़ — बराबर का धुआँ और बराबर का क्लाइमेट कैटेस्ट्राफी (जलवायु में तबाही)।

प्र: सूखा कचरा भी है, क्योंकि इतने सारे लोग हैं, इतना विलासिता होने वाली है क्रूज के अन्दर, वो सारा-का-सारा कहाँ जाएगा?

आचार्य: देखिये, ये क्या है! हो गया! समझ गये, अभी बहुत सारे और फैक्ट्स बताएँगे आप लोग, बताते रहिए; अच्छी बात है। लेकिन ये क्या है, ये इतने में समझ में आ रहा है। यह कुछ नहीं है, अहंकार इतना प्रबल हो गया है कि वो धर्म को ही भोग रहा है।

धर्म, अहंकार को सिखाता है कि बेटा भोग कम करो, अहंकार ने पलटकर धर्म से कहा, ‘ मैं तुझे ही भोग लूँगा।‘ यह चल रहा है और यह कुछ नहीं है। धर्म ने अहंकार से कहा, ‘कम भोग, भोगने से मुक्ति नहीं मिलती। भोगने से बस एक तात्कालिक तुम्हें राहत मिल जाती है, इसको तुम सुख बोलते हो। भोग-भोगकर कुछ नहीं पाओगे।‘

तो अहंकार ने अपने पैने, हिंसक, दाँत दिखाये धर्म को और बोला, ‘तू मुझे सीख दे रहा है, मैं तुझे ही भोग डालूँगा।‘ अहंकार धर्म को ही भोग ले रहा है और धर्म का उपयोग करके कई तरीके के सुख लूट रहा है। अहंकार धर्म का उपयोग करके धन का सुख लूट रहा है, सत्ता का सुख लूट रहा है, मनोरंजन का सुख लूट रहा है; यह चल रहा है। बस ये है।

पचपन लाख रूपए, ये आंकड़ा ठीक नहीं हो सकता, कुछ ग़लत बोल रहे हो। नहीं एक्चुवली इसमें है क्या? जैसे पचास दिन का पूरा ट्रिप है तो एक दिन का एक लाख रुपया है, तो ऐक्चवली ऊपर से जो खाएँगे-पीएँगे वो तो अलग ही होगा।

प्र: इसको डिक्लियर किया गया है दुनिया का सबसे बड़ा रिवर क्रूज , लेकिन ऐक्चवली इस तरह के क्रूज अभी भी देश में चलते आ रहे हैं।

आचार्य: अच्छा ये कहाँ चल रहे हैं?

प्र: ये अलग-अलग, छोटे-छोटे एरिया में, नदी में चल रहे, गंगा में चल रहे हैं। बिहार में पटना, कोलकाता, कोलकाता से ढाका की तरफ़ है, छोटे-छोटे रूट पर चल रहे थे। पहले से चल रहे हैं।

आचार्य: तो फिर इस बेचारे को क्यों बदनाम कर रहे हो?

प्र: लोंगेस्ट रिवर क्रूज डिक्लेयर किया गया है, इसलिए इसको एक तरह से फ्लैग ऑफ किया गया है। और वो भी, क्रूस वेडिंग सीन कौन बना रहा है, जो टेंट सिटी की बात कर रहे थे।

आचार्य: भाई, वो धार्मिक जगह है, बुक तो ठीक है पर वेडिंग सीन से क्या उसका सम्बन्ध है?

प्र: मतलब पॉश चीज़ रिवर फ्रंट पर पॉश टेंट सिटी है।

आचार्य: टेंट सिटी है तो उसका वेडिंग से क्या सम्बन्ध है?

प्र: वो डेस्टिनेशन वेडिंग की जगह बनेगी जैसे आप एग्जॉटिक जगहों पर जाकर शादी करना चाहते हैं वैसा।

आचार्य: बनेगी या बन गयी है?

प्र: बन चुकी है।

आचार्य: तुम्हें कैसे पता?

प्र: फोटोज है, और उसमें बुकिंग कैसे करवाना है वो सब है।

हम बनारस के घाट की बात कर रहे, वहाँ पर दो नए घाट बनाये गये थे स्पेसिफिकली इसी काम के लिए बनाये हैं।

तो बनारस के घाट आरतियों से याद है, जब मरते थे तो कहते थे कि बनारस ले जाओ।

प्र: टेंट सिटी मे, टेंट में रहने का पचास हज़ार रुपए हैं एक रात का।

आचार्य: पूरी बारात का?

प्र: एक बराती का।

आचार्य: संस्था को डोनेट कर दो, शादी में अगर तुम दस प्रतिशत भी कम खर्चा करके थोड़ा इधर हमको दान-दक्षिणा कर दो तो भारत का और सनातन धर्म दोनों का ज़्यादा कल्याण हो जाएगा।

प्र: विला की एक टिकट में तो।

आचार्य: विला नहीं विलास — गंगा विलास। पर यही है न, तुम और क्या करोगे धर्म के नाम पर। त्याग से तुम्हें मतलब नहीं, साधना से तुम्हें मतलब नहीं, ज्ञान से तुम्हें एकदम ही कोई मतलब नहीं, पढ़ने-लिखने से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। तो तुम धर्म के नाम पर यही सब करोगे कि शादी हो, मौज हो, गंगा में जरा विलासिता हो, यही सब चलेगा फिर धर्म के नाम पर, और क्या चलेगा।

प्र: मतलब थोड़ी अजीब सी चीज़ है कि जब पता चला था कि अयोध्या में अब राम मन्दिर बनने वाला है तो सबसे पहली बात जो मुझे सुनाई दी थी आस-पास के लोगों से, ये थी कि अब अयोध्या में ज़मीन खरीदो दाम बढ़ने वाला है।

आचार्य: जो आम हिन्दू है, उसके लिए धर्म का और क्या मतलब है, धर्म एक भोगने की चीज़ है। धर्म का भी उपयोग करके लाभ उठाना है। तो कहीं अगर विशाल मन्दिर बनाया जा रहा है तो उससे वहाँ पर प्रॉपर्टी खरीद लो, लोग आएँगे होटल बना लो, लोग ठहरेंगे और टैक्सी सर्विस वहाँ चालू कर दो।

यही सब और जितनी टूरिज्म की चीज़ें होती हैं सब कर लो। हमने खा लिया, हम धर्म को भोग गये पूरा। और धर्म को हम जितना भोगते हैं उतना और विवश हो जाते हैं चिल्लाने के लिए कि हम धार्मिक लोग हैं।

आज आम हिन्दु जितनी ज़ोर से चिल्ला रहा है, मैं धार्मिक हूँ, और हिन्दूओं में अपनेआप को ये सनातनी कहने वालों की और कट्टर हिन्दू कहने वालों की संख्या आज जितनी बढ़ी हुई है, उतनी कभी नहीं बढ़ी हुई थी। और यह संयोग की बात नहीं है कि आज हिन्दू धर्म जितना रसातल में गिरता जा रहा है, उतना कभी नहीं गिरा हुआ था।

प्र: इसको हिन्दू धर्म की पॉवर की तरह ‘प्रोजेक्ट’ किया जाता है।

आचार्य: क्या पावर है, यह कौन सी पॉवर है, इसमें क्या पावर है? धर्म होता है इंसान का मन ठीक रखने के लिए, तुमने धर्म को वो डेस्टिनेशन वेडिंग और भोग-विलास की चीज़ बना दिया, इसमें पावर है या पागलपन है?

प्र: आज हम इतने पावरफुल पोजीशन में है कि अगर हमें धार्मिक जगहों पर भी जाना है तो हम बेसिकली क्रूज में जा सकते हैं।

आचार्य: तो ये तो अहंकार की अभिव्यक्ति है न, ये तो अहंकार की अभिव्यक्ति है। इसमें धार्मिकता कहाँ है, धार्मिकता में तो विनम्रता होती है।

प्र: इसमें जो ऑप्टिक्स है, इकोनमिक फोटोज आते हैं।

आचार्य: मै समझ गया बात, ज़्यादा लोग जाएँगे, क्रेडिट मिलेगा, पैसा मिलेगा ऑप्टिक्स, गुड इकोनॉमिक , ठीक है। अट्रैक्ट मोर प्यूपल (ज़्यादा लोग आकर्षित) खींचे चले आते हैं उस जगह पर। ज़्यादा लोगों को उन जगहों पर खींचना है लेकिन क्यों?

प्र: विलास के लिए।

आचार्य: तो विलास ही तो होगा।

प्र: स्टार्टेड विथ स्परिचुअल रिलिजियस (आध्यात्मिक धार्मिक रूप में शुरुआत) पर्यटन।

आचार्य: तो इसमें क्या होगा?

प्र: इससे कुछ नहीं पर सुनने में बहुत गौरव वाली बात लगती है न कि मेरा देश इतना महान है।

आचार्य: मुझे तो नहीं लगती गौरव वाली बात, जो जितना नासमझ होगा उसको ही उतनी ज़्यादा गौरव वाली बात लगेगी, और नासमझों के लिए ही यह सब है गौरव का खेल। पूरा द हिन्दू प्राइड।

प्र: जैसे अभी आपने थोड़ी देर पहले कहा था कि सभी नहीं बट जनरली जो हिन्दू मन्दिर भी होते हैं, तो वहाँ इतनी साफ़-सफ़ाई नहीं दिखाई जाती, तो उसी का ही कॉन्ट्रास्ट एक तरीके से सामने रखा गया है।

आचार्य: कहीं साफ़-सफ़ाई हो सिर्फ़ इतने से वो जगह मन्दिर थोड़े ही हो जाएगी, फिर तो जितने होटल हैं फाईव स्टार सब मन्दिर हैं। साफ़-सफ़ाई नहीं रहती उसका मूल कारण साफ़ करना पड़ेगा न, साफ़-सफ़ाई नहीं रहती क्योंकि हममें वास्तव में धार्मिकता नहीं है।

इसका मतलब थोड़े ही है कि साफ़-सफ़ाई रखने भर से तुम धार्मिक हो जाओगे। फिर तो तुम किसी भी जगह को बिलकुल चिकना कर दो, साफ़ कर दो। एक साफ़ बूचड़ खाना ले लो जितने भी ये सी फूड कंपनीज हैं ज़्यादातर, वो स्लॉटर, हाउसेज भी ऑपरेट करते हैं। वो बहुत साफ़ रहते होंगे, वहाँ तो सब सिक्स सिग्मा प्रोसेस से एकदम व्यवस्थित रखा जाता है।

तो वो बूचड़ खाने क्या मन्दिर हो जाएँगें, क्योंकि साफ़ है। सफ़ाई स्रोत नहीं होती सफ़ाई लक्षण होती है। धार्मिकता जहाँ आती है, वहाँ सुचिता आ जाती है, इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम किसी जगह पर सुचिता ला दोगे तो जगह धार्मिक हो जाएगी।

तो सफ़ाई भर करने से क्या हो जाएगा? बहुत साफ़ आप एक बूचड़ खाना बनाते हैं, बूचड़ खाने, मैं फिर बोल रहा हूँ जो एमएनसी बूचड़ खाने हैं, जाकर देखो कितने साफ़ रहते हैं, अस्पतालों जितनी सफ़ाई होती है वहाँ। जो बड़े-बड़े फाइव स्टार अस्पताल होते हैं वो बहुत साफ़ होते हैं, उतने ही साफ़ स्लॉटर हाउसेस होते हैं, जो बड़े स्तर वाले होते हैं। तो क्या वो क्या धार्मिक जगहें हो गई?

प्र: एक चीज़ मैंने और देखी है, जो लोग बाहर यूजुवली जाते हैं टूरिज्म के लिए वो बाहर जाते हैं, वह देखते हैं कि जो फोरेन में जैसे कि यूरोप में किन-किन जगहों को बेचा जा रहा है, आपको एग्जांपल वेनिस से है। वहाँ जाकर उन चीज़ों को देखकर कहते हैं, ‘अरे! इसमें क्या ख़ास बात है, इससे बड़े चीज़ (मक्खन) तो हमारे देश में है, इसको हम प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं।

और मैंने देखा कहीं-न-कहीं वही मानसिकता है जो फिर यहाँ पर देश में हर छोटी चीज़ को बहुत बड़ा करने की हम कोशिश कर हैं, एक्सप्लॉएट (शोषण) करने की कोशिश कर रहे हैं।

आचार्य: पश्चिम से जो चीज़ लेनी चाहिए वो हम नहीं ले रहे, पश्चिम का जो कचड़ा है वो हमे बड़ा आकर्षित करता है। पश्चिम से आप अनुशासन सीखो, पश्चिम से आप विचार, प्रवीणता सीखो, वो सोचते हैं इसीलिए वहाँ से पिछले सौ-दो-सौ सालों में दार्शनिक निकले, चिंतक निकले, फिर वैज्ञानिक निकले। ऐसे ही थोड़ी पश्चिम विज्ञान का केंद्र रहा है और भारत में विज्ञान की दुर्दशा है। वो सोचते हैं। पश्चिम से सीखो न कि वो बैठकर के विचार करते हैं, वो नई-नई चीज़ों का संकल्प उठाते हैं, अभिकल्पना, डिजाइन करते हैं और फिर उनका उत्पादन भी करते हैं, इनोवेशन होता है वहाँ पर। ये सब सीखो पश्चिम से अनुशासन सीखो, वर्क एथिक्स (कार्य की नैतिकता) सीखो।

प्र: मतलब ये जो आपने जितनी भी चीज़ें बोलीं, कि अनुशासन हो गया या वर्क एथिक्स हो गया या विचार करना हो गया, सोचना हो गया और उसको डिजाइन करना हो गया, इनवेंट करना हो गया। जितनी भी चीज़, यही सारे तो उन्होंने दिमाग़ लगाकर के क्रूज बनाया।

आचार्य: डिसिप्लीन वर्क , मैं कह रहा हूँ ये गुण हैं उनके पास। ठीक है। ये उनसे लो और इन गुणों को संचालित करो एक धार्मिक मन से, जहाँ पर ये जोड़ आता है फिर वहाँ चमत्कार होता है।

प्र: उनके हिसाब से जब धार्मिक मन से उन्होंने इसको करा तो उससे फिर उन्होंने परपजलेस क्रूज बनाने की जगह उसे रिलिजियस क्रूज बना दिया।

आचार्य: नहीं तुम्हारे पास टेक्नोलॉजी है, उस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल तुम थोथे मनोरंजन के लिए ही कर सकते हो या फिर ऐसी चीज़ों के लिए कर सकते हो; जो तुम्हारे समस्याओं से, रूढ़ियों से, अंधविश्वास से मुक्ति दिलायेंगे।

जैसे मैं बार-बार उदाहरण दिया करता हूँ — न्यूक्लियर पावर है तुमको अपेक्षतया क्लीनर एनर्जी देता है। अब उससे या तो तुम जैसे यहाँ रोशनी है रोशनी कर लो, या तुम किसी पूरे एक शहर की बत्तियाँ बुझा दो, शहर को बर्बाद कर दो, बम डाल दो एक। ठीक है।

तो टेक्नोलॉजी क्या है, उसका क्या इस्तेमाल होगा— यह तो तुम पर निर्भर करता है न, लेकिन टेक्नोलॉजी हो तो सही भारत के पास।

तो हमने तो अंधविश्वासों में जीना सीख लिया है न, टेक्नोलॉजी आती है विचार से और भारत ने विचार को रख दिया है किनारे, तार्किकता, बुद्धिमत्ता, वैचारिकता इसको हम अच्छा मानते ही नहीं, हमें अच्छी लगती है अंधश्रद्धा, अंधविश्वास। ये सब इसमें हमारा ज़्यादा रहता है।

तो जो चीज़ें पश्चिम से सीखनी चाहिए वो हम नहीं सीखते और हम पश्चिम से वो उठा रहे हैं जो पश्चिम का कचड़ा है, पश्चिम का भोगवाद। पश्चिम का भोगवाद पश्चिम का रोग है, उनका रोग हम ले रहे हैं और हमारे अपने रोग हमारे पास पहले से मौजूद हैं। और वहाँ से हम आयात कर रहे हैं उनके भी रोग, हम इतने होशियार लोग हैं।

प्र: उस रोग से परेशान होकर के मुक्त होने के लिए तो वो भारत आते हैं।

आचार्य: पश्चिम अपने ही रोग से परेशान है, भोगवाद से और उससे आज़ाद होने के लिए वो, उनमें से कुछ लोग भारत आया करते हैं, और भारत पश्चिम को आदर्श बनाकर, पश्चिम का रोग ही आयात कर रहा है। और पश्चिम में बहुत कुछ ऐसा है जो अनुकरणीय है, उससे हमारा कोई वास्ता नहीं है, उसकी ओर हम नहीं देखते, क्योंकि उसको अपनाने में मेहनत करनी पड़ेगी, मेहनत कौन करे?

प्र: हमारा पूरा-का-पूरा पास्ट इस तरीके का रहा है, स्पेशली जो पिछले काफ़ी सालों का, हज़ार सालों का है। तो भीतर एक भूख रहती है और कहती है भोगने की, कि हमेशा आपके ऊपर जिन्होंने राज करा उन्होंने ही भोगा है, आपने कभी नहीं भोगा।

आचार्य: तो आप भी भोगोगे, आप भी भोगो, मुँह खुला रहता है हमेशा। धर्म के नाम पर भोगो। अब कर लो मूर्खताएँ हैं, आजमा लो यही करना है तो, मिलेगा कुछ नहीं।

प्र: मतलब जो परवरिश भी होती है आम घर में वो यही होती है बचपन से कि चलो आपके माता-पिता नहीं भोग पाये तो अब आप भोगोगे। पर इसपर जो जीडीपी का आर्ग्युमेंट होता है, ग्रोथ थ्रू कंजम्शन (उपभोग के माध्यम से वृद्धि) ये कुछ और कंट्रीज में सक्सेसफुल रहा है कि पहले कंजमशन क्रिएट (उपभोग निर्माण) करो फिर डिमांड (माँग) बढ़ेगा, उनको लगे कि चाहिए, चीज़ें चाहिए, फिर इंडस्ट्री भी डेवलप (विकसित) होगी।

आचार्य: भाई, काहे का कंजम्शन, कंजम्शन का एंड प्रोडक्ट एंड डिजायरेबल क्या है? व्हाट यू वांट टू अचीव थ्रू कंजमशन (आप उपभोग से क्या पाना चाहते हैं), वेलफेयर (कल्याण)। वेलफेयर हो रही है, क्या वेलफेयर हो रही है?

प्र: एम्प्लॉयबिलिटी (रोजगार) और जितने भी होते हैं बाज़ारर से सम्बन्धित।

आचार्य: वेलफेयर कैसे हो रही है बताओ मुझे। मैं उदाहरण देता हूँ। तुम कोई बर्गर बेचने वाली, मटन, चिकन बर्गर बेचने वाली किसी कम्पनी का बर्गर खरीद लो, तुमने जीडीपी में बहुत इज़ाफ़ा कर दिया, क्योंकि तुमने पहले तो ऐसी चीज़ खरीदी जिसको बनाने में बहुत श्रम लगा है, पूरा स्लॉटर हाउस ऑपरेट हुआ है उसके लिए।

पहले वो जो चिकन था या सूअर था उसको ज़बरदस्ती पैदा किया, उसको खिला-खिलाकर बड़ा करा, उसमें बहुत लगा है पैसा। फिर तुम खाओगे तो तुम बीमार पड़ोगे, तो उससे अस्पताल चलेगा और फिर अस्पताल तुमको दवाई प्रिस्क्राइब करेगा, तो उससे फार्मेसी इंडस्ट्री चलेगी।

पूरी देखो जीडीपी कितना बढ़ रहा है। नालायकी के कामों से जीडीपी दनादन बढ़ता है। तुम्हारी लड़ाई हो जाए, तुम भी बंदूक खरीदने पहुँच जाओ, वो भी बंदूक खरीदने पहुँच जाए, जीडीपी बढ़ गया, वेपन सेल हो गयी न, जीडीपी बढ़ गया। तुम दोनो गले मिल जाओ, जीडीपी एकदम नहीं बढ़ेगा।

जीडीपी के लिए बहुत ख़तरनाक बात होगी अगर तुम दोनों गले लग जाओ। कोई अर्थशास्त्री नहीं बोलेगा कि दो लोग गले मिल जाएँ तो जीडीपी बढ़ जाता है। लेकिन जो तुम्हारा पूरा वेपन्स कॉम्प्लेक्स है, हथियार की इंडस्ट्री है, जितनी रंजिशें बढेंगी वो जीडीपी को उतना बढ़ाएगी।

माँ बच्ची को दूध पिला रही है जीडीपी बढ़ता है इससे। मुझे चाहिए वो पाउडर बाज़ार से, उससे जीडीपी बढ़ जाता है, तुरन्त बढ़ जाता है। लेकिन जीडीपी के बढ़ने से तुम्हें क्या मिल रहा है।

मुझे समझ में नहीं आता इतना जीडीपी कर देना, उतना जीडीपी कर देना है, और लोग बिलकुल बौराये जा रहे जीडीपी खाओगे क्या? क्या करोगे जीडीपी का, क्या मिलेगा जीडीपी से?

तुम जितने बीमार हो जाओ घर में एक आदमी बीमार हो जाए जीडीपी बढ़ने लग जाता है। ज़्यादातर जो काम कर रहे हैं वो इस लायक ही नहीं है कि वो करे जाएँ, पर उन कामों के करने से जीडीपी बढ़ रहा है।

प्र: पर उस काम का विकल्प क्या है, मतलब लोग क्या करेंगे?

आचार्य: देखो तुम अभी एक साइकिल (चक्र) में फँसे हुए हो जिसमें तुम एक घटिया काम करके पैसे लाते हो, ताकि तुम उसे किसी घटिया जगह पर खर्च कर सको। जब आप कहते हो लोग घटिया काम नहीं करें तो क्या करेंगे। मैं कहता हूँ घटिया खर्च नहीं करेंगे।

यहाँ मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जिनके पास दो जून का निवाला नहीं है, इस चर्चा से उनको अभी अलग रखो। तो उनका तर्क मत देने लग जाना कि अरे! पर बहुत सारे लोग हैं, जो कि दिन में कमाते हैं रात को खाते हैं, वो तो मर जाएँगे। उनकी नहीं बात कर रहे हैं, वो बेचारे तो शोषित लोग हैं।

मैं जो ज़्यादातर लोग हैं दुनिया के, उनकी बात कर रहा हूँ, जो कमाते हैं और खर्चते हैं। जो कमाकर के सिर्फ़ खाते हैं, निवाला लेते हैं उनकी नहीं बात हो रही है। और वैसे लोग अब बहुत कम हैं जो खाने के लिए कमाते हैं।

भारत में उनकी तादाद अभी भी काफ़ी है पर दुनियाभर में अगर तुम देखोगे तो उनका अनुपात बहुत कम हो गया है। जो कमाते हैं सिर्फ़ इसलिए कि किसी तरीके से पेट चला सकें। ज़्यादातर लोग ये जो इतनी बड़ी वर्जनिंग मिडल क्लास पॉपुलेशन, मिडल क्लास, लोअर मिडल क्लास ये क्या कर रही है, ये कमा रही है ताकि ये खर्च कर सके।

तो तुम अगर कहोगे, ‘साहब, बेवकूफ़ी का काम करके कमाएँगे नहीं तो जिएँगे कैसे?’ मैं कहूँगा जिस दिन इतनी बेवकूफ़ी का काम करके कमाना नहीं है उस दिन ये यह भी जान जाएँगे कि बेवकूफ़ी की जगह खर्चना नहीं है।

अभी तुम क्या सोच रहे हो कि महीने का तुम अगर एक लाख खर्च करते हो, तो एक लाख तो तुम्हे खर्च करना-ही-करना है, तो कहते हो कि मुझे सवा लाख कमाना है।

जिस दिन तुम्हें समझ में आ गया कि तुम्हें इस एक लाख को खर्च करने की कोई ज़रूरत नहीं, कुछ नहीं मिल रहा। ये खर्चा तुमको बेवकूफ बनाकर तुमसे करवाया जा रहा है, ये खर्च करने में तुम्हारे लिए कुछ रखा नहीं है, तुम्हारा शोषण हो रहा है; कि तुम्हें हर महीने एक लाख खर्च करना पड़ता है।

जिस दिन तुम थोड़े से समझदार हो गये और तुम्हें समझदार बनाने का काम करता है धर्म। इसलिए धर्म ख़तरनाक है बाज़ार के लिए, इसलिए बाज़ार फलता-फूलता रहे इसके लिए आवश्यक है कि धर्म को नष्ट कर दिया जाए। इसलिए विकास के नाम पर बहुत आवश्यक हो जाता है कि धर्म को नष्ट कर दिया जाए, वरना बाज़ार फलेगा-फूलेगा नहीं।

तो धर्म जब तुम्हें ये बुद्धि दे देता है तुम्हारे खर्चे फिजूल हैं, तो तुम्हारा एक लाख का खर्चा बचा, तुम्हारा खर्चा कितने का हो गया कम हो कर के, पच्चीस हज़ार का। तुमको सवा लाख वाला काला धंधा करना नहीं है, तुम्हें जगह-जगह जाकर के आत्मा बेचनी नहीं है, कि सवा लाख तो मुझे कमाना ही है तो मैं आ गया हूँ गुलाम बनने के लिए, ख़ुद को बेचने के लिए, नहीं करना ये सब।

पच्चीस हज़ार तुम्हारा खर्च है, वो तुम्हें दिख गया कि इतना तो करना ही करना है, जीने भर के लिए पच्चीस हज़ार तो खर्च करने हैं, तो तुम कहोगे पच्चीस हज़ार मेरा खर्च है मेरा तीस हज़ार में भी काम चल जाएगा, कोई समस्या नहीं, बच गये गुलामी से,‌ क्योंकि जो तुम्हें सवा लाख दे रहा था, मुफ्त में तो दे नहीं रहा था; तुम्हारा खून चूस के दे रहा था। तुमने कहा, ‘नहीं चाहिए। उतना चाहिए ही नहीं, उतना तू रख ले अपना पैसा अपने पास, मैं तीस में खुश हूँ, मेरा खर्चा पच्चीस है।‘

लेकिन तुम्हे एक लाख नहीं खर्च करना इतने भोग की ज़रूरत नहीं है। ये बात तुमको नहीं समझ में आएगी अगर तुम धर्म से, अध्यात्म से, वेदान्त से दूर हो, और यही तुम्हारी सजा है वेदान्त से दूर होने की। तुमको जबर्दस्ती के खर्चे पालने पड़ेंगे।

प्र: हाइपोथेटिकली (परिकल्पित) समझना है इसको अगर मैक्रो लेवल (अति सूक्ष्म स्तर) पर, अगर ऐसा हो गया, लोगों को समझ में आ गया बहुत मास मूवमेंट (जनआंदोलन) हो गयी तो अब ग्लोबलाइज्ड वर्ल्ड (वैश्विकृत दुनिया) में इंडिया का अगर ऐसा हो गया संकुचन तो जो बाहर की दुनिया के साथ रिश्ता है, वहाँ पर तो वो लोग ऐसा नहीं सोचेंगे, तो इतना इंटर कनेक्टेड (परस्पर जुड़े) है।

आचार्य: उससे नुक़सान क्या हो जाएगा? ठीक है चलो स्पेसिफिक एग्जामपल दो, नुक़सान क्या हो जाएगा? बहुत सारी हम बेवकूफ़ी के काम कर रहे थे, हमने करने बन्द कर दिये; तो इससे वैश्विक स्तर पर हमारा स्थान या हमारी ताक़त कैसे कमज़ोर हो जाएगी?

प्र: जो चीज़ हम इम्पोर्ट करते हैं।

आचार्य: नहीं करोगे, अब तो तुम्हें उतना फिर फॉरन रिजर्व नहीं चाहिए, बच गये।

प्र: पर उसका विकल्प हमें चाहिए इंडिया में।

आचार्य: विकल्प क्यों चाहिए? तुम्हारा ऑयल कंजम्शन (तेल की खपत) ही कम हो गया, कम हो गया। कम पड़ नहीं रहा, कम ही कर दिया, बिना किसी नुक़सान के तुमने अपना पर कैपिटा फ्यूल (प्रति व्यक्ति ईंधन) कम कर दिया। क्योंकि तुम्हें दिख गया कि ज़्यादातर जो तुम्हारा यूजेज (इस्तेमाल) ही था वो वेस्टफुल (अपव्ययी) था, उससे कुछ नहीं मिल रहा था, बस तुम एनर्जी जला रहे थे, ये सोचकर कि इससे कुछ मिल रहा है।

जैसे एक आदमी दिनभर अपनी गाड़ी घुमाए पूरी दुनिया में, ये सोचकर कि वो कहीं पहुँच रहा है, तो इससे फ्यूल कंजम्शन तो ख़ूब हो रहा है, पर उसे मिला क्या? हम ऐसे ही अपनी गाड़ी घुमाते हैं।

तुम एक बात सोचों, एक आम आदमी — अगर में थोड़े से बड़े शहरों की बात करूँ, अपने दिन के दो से चार घंटे सड़क पर गुजारता है। फ्यूल से मुझे याद आ रहा है। उसे क्या मिल रहा है? पर आपको ऐसा लग रहा होता है कि आप कुछ कर रहे हो, मैं अभी ऑफिस के लिए ड्राइव कर रहा हूँ, आपको लगता है आप कुछ कर रहे; जबकि आप कुछ नहीं कर रहे हो, बस आपको भ्रम हो गया है कि आप कुछ कर रहे हो।

ये जो प्रोसेस है घर से ऑफिस तक जाने का तेल जलाकर के, मुझे बताओ इसमें किसको और कितना वैल्यू एडिशन (मूल्यवर्धन) हो रहा है? बताओ न वैल्यू एडिशन कहाँ है इसमें? देअर इस नो वैल्यू एडिशन (कोई मूल्यवर्धन नहीं है)। लेकिन लगता है लगातार यही कि कुछ कर रहा हूँ, कुछ बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहा हूँ, और आपके दिन के जो दस, बारह हाई एनर्जी के प्रोडक्टिव (उत्पादक) घंटे होते हैं उसका आपने कितना बड़ा प्रतिशत सिर्फ़ सड़क पर जला दिया है तेल जलाते हुए।

आप तेल जलाना कम करते हैं बताइए, इससे आपको क्या नुक़सान हो जाएगा। आप कभी सोच भी नहीं पाते हो कि आपको जो भी आपकी तनख़्वाह मिल रही होगी, वो तनख़्वाह आपको आठ घंटे काम करने की नहीं, बारह घंटे काम करने की मिल रही है।

उसी काम के कारण आपको सड़क पर चार घंटे लगाने पड़ते हैं, वो सड़क पर ही नहीं लगते, आप वहाँ जाने के लिए पहले तैयार हो गये, फिर वहाँ से लौटकर आओगे और आने-जाने में ज़्यादा थक जाओगे, बजाय काम के आठ घंटे का। काम तो आपको क्या ही थकाएगा, लेकिन जो ड्राइविंग है चार घंटे की आपको इतना थका देगी कि फिर आप लौटकर के आपको तीन घंटे अतिरिक्त सोना पड़ेगा।

तो कुल मिलाकर के आठ घंटे काम के और सात घंटे काम का ब्याज चुका रहे हो आप, इसमें कौन सा वैल्यू एडिशन है? अगर आप जितने भी अपने अनप्रोडक्टिव (निष्फल) काम हैं, जो आप सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि आप बेहोश हो, क्योंकि आपके जीवन में अध्यात्म नहीं है।

अध्यात्म ही होश लाता है। आप बेहोश हो इसलिए बहुत सारे काम कर रहे हो, वो आपने बेहोशी वाले काम सब काट दिये, तो बताइए क्या नुक़सान हो गया आपको या अर्थव्यवस्था को?

प्र: पर जैसे इंडिया का जो माइक्रो जूलरी, गोल्ड एंड डायमंड कटिंग, अबाउट बाय वैल्यू फिफ्टीन पर्सेंट होगा, हट जाएँगे अगर अध्यात्म आ गया, तो वी हैव क्वेशन ऑफ अनएम्प्लॉयमेंट।

आचार्य: जिस दिन अध्यात्म आ गया उस दिन सिर्फ़ जेम्स ज्वेलरीज हटेंगे या वो जो मन होता है जो जेम्स एन ज्वैलरीज माँगता है वो भी हटेगा? वो मन हटेगा न पहले, तभी तो गहनों की माँग हटेगी। जिस पुरुष का या जिस महिला का मन ऐसा हो गया कि वो जान गयी है कि जीवन में गहने माने शरीर, गहने किस पर पहनते हो? शरीर पर, शरीर ही सबसे ऊँची चीज़ नहीं होती, की शरीर को ही सजा रही हूँ, शरीर पर सोना लाद रही हूँ, शरीर को ऐसा कर रही हूँ की लुभा रही हूँ। वो महिला फिर एक नए शरीर को जन्म देने में कितनी उत्सुक रह जाएगी? जो महिला यह जान गयी की शरीर इतना महत्वपूर्ण नहीं है, वो महिला अब एक नए शरीर को जन्म देने में कितना उत्सुक रह जाएगी? बहुत कम न, तो फिर जितने लोग रोजगार ढूँढ रहे उनकी संख्या भी कम हो जाएगी।

तो जो आप तर्क देते हो कि बेरोजगारी बढ़ जाएगी, वो बेरोजगारी कैसे बढ़ जाएगी? जो रोजगार ढूँढ रहे हैं वही कम हो जाएँगे। बेरोजगारी तब बढ़ती है न जब आबादी उतनी ही रह जाती है लेकिन नौकरी कम हो जाती। भाई आबादी भी कम हो जाएगी, क्या आप ये साफ़ नहीं देख रहे हो कि एक व्यक्ति जो एक ग़लत काम कर रहा है वो कितने जबर्दस्त तरीके से वैल्यू डिप्लीशन (कम करना) कर रहा है। मैं अगर ज़िन्दगी में ग़लत काम कर रहा हूँ; तो मैं ज़्यादा बीमार पडूँगा न, मैं ज़्यादा बीमार पड़ रहा हूँ तो इससे ओवर ऑल जो रिसोर्सेज है कंट्री के वो बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं? वो इन एफिशियंट यूटिलाइजेशन (अपनी पूर्ण क्षमता के हिसाब से उपयोग में ना लाना) हो गया न। मैं अपनी दवाई पर अगर बहुत सारा पैसा लगा रहा हूँ तो वो एक एफिशियंट यूटलाइजेशन है रिसोर्स का? या अगर मैं किसी क्रिएटिव प्रोसेस पर पैसा लगा रहा हूँ वो एफिशियंट यूटिलाइजेशन है?

आप जेम्स एन जूलरी में काम कर रहे हो इस मोस्ट इन एफिशियंट यूटिलाइजेशन ऑफ योर मनी। तो अगर वो इंडस्ट्री बन्द होगी तो पूरे देश का पैसा ज़्यादा एफिसिएंटली कहीं पर इन्वेस्ट होगा, किसी बेहतर, किसी क्रिएटिव काम में इन्वेस्ट होगा। एंड इफ द ईंड गोल ऑफ ऑल इकॉनमिक्स (और ऐसा कोई भी काम जिसका कोई मूल्य हो और उसका अंतिम उद्देश्य है उस मूल्य का मानव के जीवन की बेहतरी) इस ह्यूमन वेलफेयर, तो ह्यूमन वेलफेयर क्या ह्यूमन क्रिएटिविटी से नहीं आती है? तो ये जो आर्गूमेंट होता है फलानी इंडस्ट्री बन्द कर दोगे तो लोग अनइम्प्लॉयड हो जाएँगे, ये कितना शैलो (उथला) आर्गूमेंट है। मैं तो इस आर्गूमेंट में बोला ऐसा करते हूँ – मर्डर और डकैती भी अलाव कर देते हैं, उनको क्यों बन्द कर रहे हैं? वो भी तो इंडस्ट्री है और एम्प्लॉयमेंट देती है। भाई ऑर्गेनाइज्ड क्राइम अपने आप में एक ऑर्गेनाइज्ड इंडस्ट्री है न, क्यों नहीं कहते कि अगर मैंने ऑर्गेनाइजर क्राइम बन्द कर दिया तो बेचारे लोग अनएम्प्लोयड हो जाएँगे, क्यों नहीं कहते?

तो एम्प्लॉयमेंट का तर्क इसका कोई अर्थ नहीं होता है। आप एक ग़लत काम से लोगों को रोकेंगे वो बेहतर काम की ओर जाएँगे और बेहतर ज़िन्दगी जिएँगे, कभी यह मत कहिए की ग़लत काम रोक दिया तो फिर लोग क्या करेंगे? लोग कुछ बेहतर करेंगे और बेहतर दिख नहीं रहा तो किसी बेहतर चीज़ का सृर्जन करेंगे, मजबूर होकर सृर्जन करना पड़ेगा।

प्र: उन्होंने जैसे इंडिया का एग्जाम्पल लिया था और बाक़ी कंट्रीज का एग्जाम्पल लिया था तो एक आम आदमी के नजरिए से देखा जाए तो ये बातें जो है उन पर लागू होती है, पर एक जो तर्क आता है वो यह भी आता है कि फिर आप डिफेन्स को फण्ड कैसे करोगे? बिकॉज आप पर फिर अटैक्स होंग बाहर से, तो आप उस चीज़ को कैसे रोकोगे?

आचार्य: उसके लिए कर दो फंडिंग जितनी करनी है। डिफेंस को अगर आप एक लेजिटमेट नीड (सार्थक ज़रूरत) मानते हो जो की माना जाना चाहिए, एक ऐसे लोग जो ऊँचा काम कर रहे हैं, उनको बहुत अपनी सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए। एक कोमल लता होती है, उसको तो और ज़्यादा बाढ़ लगा के बचाना पड़ता है, एक बड़ा वट वृक्ष उसको बचाना नहीं पड़ता, पर जो चीज़ जितनी सुकोमल और सुंदर होती है उसको उतना बचना पड़ता है।

तो आप लगाइए डिफेंस पर पैसा कौन रोक रहा है, वो आप के पैसे का एक बड़ा अनुपात होना चाहिए जो आप डिफेंस की ओर ले जा रहे हैं। भाई अभी आप अपना जो पूरा डिफेंस है, उसपर जीडीपी का लगभग ढाई प्रतिशत लगाते हो, भारत की बात कर रहा हूँ। पाकिस्तान जैसे देश लगभग छह प्रतिशत लगाते हैं। आप बढ़ा दो आप क्या तो उल्टा-पुल्टा काम में लगा रहे हो। जीडीपी नहीं चाहिए कम जीडीपी चलेगा और मैं जीडीपी का बीस प्रतिशत लगाने को तैयार हूँ डिफेंस पर, बीस प्रतिशत डिफेंस पर लगा दूँगा और लेकिन साथ ही साथ फिर बीस प्रतिशत मैं शिक्षा पर और स्वास्थ्य पर लगाऊँगा, बाक़ी चीज़ों पर लगाना नहीं है न मुझे। आपके पास ढ़ाई प्रतिशत ही बचता डिफेंस को, क्यों? बाक़ी सब कहाँ चला जाता है? साढ़े संतानबे प्रतिशत कहाँ चला गया? वो मूर्खता में चला गया, बहुत सारा उसका हिस्सा, तो बचे हुए ढ़ाई प्रतिशत को डिफेंस पर लगाया।

तो मतलब जीडीपी को कम हो जाने दो मूर्खता की सारी चीज़ें हटा दो और फिर बीस प्रतिशत लगाओ न जीडीपी का डिफेंस पर कौन रोक रहा है। सुनो एक बात अच्छे से “गुड स्प्रिचुएलिटी इस गुड इकोनामिक्स” (अच्छी आध्यात्मिकता ही अच्छा अर्थशास्त्र है)”, जो चीज़ स्प्रिचुअली अच्छी नहीं है न वो इकोनोमिकली भी अच्छी नहीं हो सकती। ऊपर-ऊपर से लगेगा कि स्प्रिचुअली यह चीज़ अच्छी नहीं है लेकिन इकोनोमिकली अच्छी है, पर जब पूरा कैल्कुलेशन करोगे, जब तूम फैक्टर इन करोगे सभी लागत को, तो तुमको समझ में आएगा कि वो चीज़ इकोनॉमिकली भी अच्छी नहीं है। जो चीज़ स्प्रिचुअली ठीक नहीं है वो बैड इकोनमिक भी होगी, यह नियम है। ज़्यादातर लोग इस नियम को समझते नहीं है, यहाँ तक कि जो लोग अपनेआप को आध्यात्मिक बोलते हैं वो भी नहीं समझते, अर्थशास्त्री तो नहीं समझते हैं; धर्म शास्त्री भी नहीं समझते। हम इसको आइदर और (ये या ये) लेते हैं। हम सोचते हैं जो स्प्रिचुअल बंदा होता है वो इकॉनमिक्स थोड़े ही जानता है, और जो इकॉनमिक्स का बंदा होता है उसको स्प्रेचवलिटी से क्या लेना-देना। ये जो हमने डिजोनेंस, ये जो जो भेद हमने निर्मित किया है इसी का नतीजा है कि दुनिया बर्बाद हो रही है।

इकॉनमिस्ट तो मटेरियलिस्ट होता है।

बिलकुल, मैं उदाहरण देता हूँ छोटा सा अपने मुँह मियां मिट्ठू बनने के लिए। लोग मुझको सोचते हैं कि ये शिक्षक हैं, आचार्य हैं, मुझसे जब भी आते हैं तो मुझसे यही पूछते हैं कि अच्छा ये वेदों, वेदान्त में कुछ बता दीजिए। ये सब बातें किसी को सूझता ही नहीं कि मुझसे इकॉनमिक्स की चर्चा करें, कोई मुझसे पूछना ही नहीं चाहता कि ये जो संस्था है; ये आप कैसे चला रहे हो, और ये संस्था चल पा रही है; इसका वित्तीय प्रबन्धन हो पा रहा है, यह चमत्कार से कम नहीं है। हम जितना कुछ कर रहे हैं अपने इतने सीमित संसाधनों में, वो कैसे सम्भव हो पाया मुझसे कोई जानना ही नहीं चाहता। लेकिन सम्भव इसलिए हो पा रहा है क्योंकि गुड स्प्रिचुएलिटी इज आलसो गुड फाइनेंशियल मैनेजमेंट, एंड इफ आई एम स्प्रिचुअल, दैन दैट विल शो इन माई फाइनेंशियल मैनेजमेंट आलसो (अगर मैं एक आध्यात्मिक आदमी हूँ, तो वह मेरे वित्तीय कामों में दिखेगा)।

मुझे पता है न कौन सी कोस्ट बेकार है, मैंने काट रखा है, और उनको काटना सिर्फ़ एक स्प्रिचुअल आदमी के लिए सम्भव है। नहीं करूँगा, और मुझे पता है कौन सी कोस्ट ज़रूरी है; मैं उसपे बेधड़क हो के इतना खर्च करता हूँ की कोई आम आदमी सुन ले तो बेहोश हो जाए, अरे इतना पैसा इस दिशा में जा जा रहा है। कहाँ से आता है? बहुत नहीं है हमारे पास, पर जितना है सबकुछ सब काम में लगा देते हैं जो सही है उसमें, बाक़ी खर्चे हम करते ही नहीं। कहाँ खर्चा करना है, कहाँ नहीं खर्चा करना है; वैल्यू स्टेटमेंट वो फाइनेंस नहीं सिखाएगा आपको, वो आपकी वैल्यू सिखाते हैं आपको और वैल्यूज आपको कौन देगा? समाज नहीं दे सकता वैल्यू, वैल्यूज तो आपको अध्यात्म ही देता है। कौन सी चीज़ का मूल्य करना है, कौन सी चीज़ बेकार की है उसका कोई मूल्य नहीं यह बात आपको कौन बताएगा? यह बात मुझे ऋषियों ने बताई, ये बात मुझे वेदान्त ने बताई,‌ मेरा पूरा फाइनेंसियल मैनेजमेंट वहाँ से चलता है।

बात काफ़ी रुचि प्रद है, वेदान्त इन इकॉनमिक्स।

वेदान्त के बिना हो ही नहीं सकता, सारी समस्या यह है कि सब फाइनेंस मिनिस्टर बन के बैठ जाते हैं, वेदान्त उन्हें पता नहीं, जिस दिन फाइनेंस मनिस्ट्री वेदान्त के नीचे होगी; उस दिन देखना तुम भारत की इकॉनमिक्स और वर्ल्ड बैंक में जिस दिन बैठ गया कोई वेदांति उस दिन तुम पूरे विश्व को देखना। वर्ल्ड बैंक में एक बैठाओ वहाँ एक बार वेदांतियों को फिर देखो क्या होता है।

हाऊ बुद्धा वुड हैव रन हिज ऑर्गेनाइजेशन सोच के देखो न, बुद्ध को तुम यह सोचते हो कि बैठे हुए हैं पेड़ के नीचे, ध्यान कर रहे हैं। भाई इतना बड़ा संघ चला रहे थे वो बिना पैसे के चला लिया था क्या? लेकिन संघ भी कैसे चलाना है, संघ का वित्तीय प्रबन्धन भी कैसे करना है, संघ की अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी; ये भी बात एक बुद्ध ही समझ सकते हैं। जो बुद्ध नहीं है वो एक संघ न चला पाये देश कैसे चला लेगा!

कैसे वो खंडहर जैसा जो बेलूर था वहाँ से निकल कर उन्होंने पूरा मिशन खड़ा कर दिया।

बिलकुल, पर विवेकानंद की जो व्यवहारिक बुद्धि है उस पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता, क्योंकि हम जान बूझ कर एक भेद बना के रखना चाहते हैं। अरे ये तो आध्यात्मिक लोग हैं, बुद्ध हों, विवेकानंद हों इनका सम्बन्ध पैसों से मत जोड़ो, पैसों से मत जोड़ो। बिना पैसों के ही उन्होंने इतना बड़ा संघ और मिशन चला लिया? “गुड स्प्रीचुलिटी ईस गुड इकॉनमिक्स”

प्र: एक डायग्रेशन है इस सब्जेक्ट से बढ़ी। पैसा गन्दी बात, गन्दी बात है कमिंग फ्रॉम के नहीं पैसा तो ख़राब चीज़ है।

आचार्य: पाखंड और क्या कुछ नहीं, कहीं-न-कहीं हम सबको पता है हम गंदे लोग हैं, और हमारी सबसे बड़ी प्यास है पैसा, हमे भी पता है हम गंदे लोग हैं तो इम्प्लिकेशन है कि पैसा गन्दा हो गया। मैं गन्दा मुझे पैसे से प्यार है तो पैसा भी गन्दा ही होगा, ये चल रहा है।

– या पैसा कमाने के लिए आपको क्या क्या गंदे काम करने पड़ते हैं।

हाँ, और क्या अपनी चाहतों को पूरा करने के लिए आपको पैसा चाहिए वो आपसे तमाम तरीके के ऐसे काम करता है जो आपको भीतर से ही नष्ट कर देते हैं।

प्र: एक मिशनरी पैसे को कैसे देखता है?

आचार्य: संसाधन है भाई, काम उसके बिना नहीं चलेगा। यहाँ से वहाँ जाना है उसके लिए पैसा चाहिए, संसारी के लिए पैसा ईंड (अन्त) होता है और मिशनरी के लिए पैसा मीन्स होता है‌।

प्र: मैंने एक बार ये सवाल पूछा था एक आईआईटी इंजीनियर से तो उनकी ज़िन्दगी में परपस यही था की मुझे बहुत पैसा कमाना है, जो कि जनरली होता ही है। तो मैंने पूछा की आपने बहुत पैसा अगर कमा लिया तो आप क्या करेंगे? तो बोले मैं उससे समय खरीदूँगा, माने मुझे समय मिलेगा चीजें करने के लिए, तो मैंने कहा उस समय में आप क्या करना चाहेंगे? वो मैं तब सोचूँगा।

आचार्य: सो देखो पहली चीज़ होनी चाहिए फिलोसॉफी (तत्व ज्ञान) ज़िन्दगी में, उसके बाद कुछ भी और होता है। कुछ भी और फिलोसॉफी के बाद ही आता है। अगर आपके पास फिलोसॉफी नहीं है तो आप आदमी नहीं हो, आप जानवर हो। तो दुनिया की निन्यानबे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत आबादी जानवरों की ही है। दे हैव नो सेंट्रल पॉइंट टू लिव फ्रॉम, लिव बाय। ऐसे ही बस जी रहे हैं स्कैटर्ड मास हैं, देअर इज नो सेंटर एट आल (केन्द्र कुछ भी नहीं) ऐसे एक चूरे की तरह, एक पाउडरी मास, स्कैटर चूरा, चूरा, इधर चूरा, उधर चूरा, हवा आती है चूरा बह जाता है ऐसा चूरा। फिलोसॉफी आपको जीने के लिए एक धुरी देती है यह एक एक्सेस अब इसके इर्द-गिर्द अपना जीवन चला लो, लेकिन अब आपका जीवन छितराएगा नहीं, कहीं बह नहीं जाएगा।

प्र: सम बडी लाइक हिटलर वी वुड से ही हैड अ बैड फिलोसॉफी। बट सम बडी हू हैज फोर्स इन हिज लाइफ , उसकी फिलोसॉफी तो है। ऐसे आम लोगों जैसे नहीं कि जिनकी कोई फिलोसॉफी नहीं, इनकी वृत्तियाँ इनकी फिलोसॉफी है।

हाऊ टू नो इफ समबडी इज लिविंग विद गुड ऑर बैड फिलोसॉफी (कैसे जानें कि कोई अच्छे या ख़राब दर्शन के साथ रहा रहा है)? एक हिटलर जैसा इंसान जिसके जीवन का कुछ तो संकल्प था, भले ही हो सकता है कि वह कोई ग़लत संकल्प हो लेकिन ऐसे आम लोगों जैसा नहीं है। एक आग्रही जिसके पास जीवन में कुछ संकल्प होता है, तो कैसे पता करें कि कोई इंसान सही संकल्प के साथ जी रहा है या ग़लत संकल्प के साथ?

आचार्य: जो उद्देश्य होगा दोनों के संकल्प का उसमें पूरी तरीके से अन्तर होगा। अच्छा संकल्प का उद्देश्य आपके उत्थान के लिए होगा, आपके निर्वीण के लिए होगा। लेकिन जो बड़ा संकल्प है उसका उद्देश्य होगा संकल्प लेने वाले को ताक़तवर बनाना। हिटलर मुक्ति के पीछे नहीं था, हिटलर का संकल्प ताक़त के पीछे था और यहाँ बात ख़त्म हो जाती है; आगे कोई चर्चा नहीं हो सकती इसपर।

प्र: कहा जाता है कि नीत्से से; हिटलर से प्रभावित था?

आचार्य: नीत्से जिस पॉवर की बात करते थे वो पॉवर बहुत मिसअंडरस्टूड (ग़लत अर्थ निकाला जाना) है। जब अभी जो पिछली टेड टॉक शो हुई थी उसमें मैंने इसी बात पर बोला था कि नीत्से कितने मिशअंडरस्टूड हैं। नीत्से ने जिस पॉवर की बात करी है वो, वो पॉवर नहीं है जो आपको संसार में चीज़ें दिलवाता है। वो, वो पॉवर है जो इंटरनली डायरेक्टेड (आन्तरिक दिशा की ओर) होता है, जिसके द्वारा आप स्वयं को जीतते हो और बल्कि दो अलग-अलग उसके नाम हैं जर्मन में और मुझे याद नहीं आ रहा।

क्राफ्ट एंड ग्राफ्ट शायद?

और वो दो उसके अलग-अलग नाम हैं तो एक पॉवर है जिससे आप दुनिया जीतते हो; जैसे हिटलर ने कोशिश करी थी, और एक पॉवर होता जिससे आप स्वयं को जीतते हो और फिर महावीर कहलाते हो। तो नीत्से वास्तव में जब सुपरमैन कह रहे हैं तो वो महावीर चाहते हैं, लेकिन वही होता है जितनी ऊँची बात होती है, उसकी विकृति उतनी ज़्यादा आसान हो जाती है। तो हिटलर ने उसको पकड़ के कहा कि ठीक है मैं सुपरमैन हूंँ, बहुत सारा पॉवर इकट्ठा करूँगा। द विल टू पॉवर इज फंडामेटल (आपके अन्दर की प्रतिज्ञा, ताक़त पाने की, यही जीवन का मूल आधार है)।

प्र: आज के टॉपिक पर लौटते हैं, अगर जो रिलिजियस टूरिज्म है तो जो ताकतें रिलिजियस टूरिज्म करवाना चाह रही हैं, इनकी व्यवस्था कर रही हैं शहरों में उनकी क्या फिलोसॉफी है?

आचार्य: वही— विल टू पॉवर , पॉवर इकट्ठा कर लो, सबकुछ है। ज़्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वैसे लोग कभी बैठकर के स्वयं से प्रश्न भी करते हैं क्या, कि मेरी फिलोसॉफी (दर्शन) है क्या।

अगर एक बार अपनेआप से पूछ लें तो आत्म-जिज्ञासा की शुरुआत हो गयी, तो आत्मजिज्ञासा शुरू हो गयी तो आत्मज्ञान दूर नहीं रहता फिर। ऐसे लोग कभी पूछते ही नहीं की मेरी फिलोसॉफी क्या है।

वो बस अपना, जो मुझे लग रहा है वही करना है, वही फिलोसॉफी है। विचार अगर करते भी हैं तो बस इसलिए की कामनाएं कैसे पूरी हो, सारा उनका विचार, जोड़-तोड़, चालाकी इसमें लगी रहती है की कामना तो बना ली है; अब उसको पूरा कैसे करना है? वो कभी ये थोड़े विचार करते हैं कि विचारक कौन है, वो कभी ये थोड़ी पूछते हैं कि मेरे सारे विचार आ कहाँ से रहे हैं, उनका विचार तो यह रहता है किये मैंने लक्ष्य बना लिया है, और इसको हासिल कैसे करना है, बताओ कौन सी चतुराई दिखाएँ की फलाना लक्ष्य मुझे मिल जाए, उनका तो ऐसे ही रहता है।

प्र: लक्ष्य भी हो सकता है आचार्य जी उन्होंने ख़ुद न बनाया हो वो परम्परा ने दे दी।

आचार्य: ख़ुद का मतलब तो आत्मा होता है, स्वयं का विशुद्ध अर्थ तो आत्मा होता है। उनके लक्ष्य आत्मा से थोड़ी आते हैं। हिटलर के लक्ष्य आत्मा से थोड़ी आ रहे थे, उनके लक्ष्य भी सब सामाजिक ही होते हैं, या दैहिक होते हैं, या तो उनकी देह से लोभ उठ रहा है, या कुछ कामना उठ रही है, या फिर समाज ने उनको बता दिया कि फलानी चीज़ पानी होती है, उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं। तुम हिटलर का पूरा अगर वृतांत पढ़ोगे जीवन का, तो हिटलर के अतीत में ही वो तत्व बैठे हुए थे जिन्होंने उसको ताक़त का भूखा एक तानाशाह बना दिया। तो सामाजिक प्रभाव थे सब।

प्र: अगर ये ताकतें द स्टेट रेप्रेजेंटेटिव हों, और प्रोमोटिंग रिलिजियस टूरिज्म हो, आत्मविचार अगर उनके जीवन में आये तो अभी टनल में चल रहा जेसीबी रुक जाएगा?

आचार्य: बिलकुल रुकेगा, रुकेगा लेकिन इतना ही नहीं होगा कि बस एक आइसोलेटेड इंसिडेंट (अलग घटना) ही हो जाएगा, कि टनल (सुरंग) का जेसीबी रुक जाएगा। सबकुछ बदल जाएगा, हमारी समस्या ये रहती है कि हम जब अध्यात्म वग़ैरह की बात करते हैं तो हम फ्रेगमेंटेड थिंकिंग (खंडित सोच) में ऑपरेट (संचालित) करने लग जाते हैं।

वही जैसे कहा था कि भाई, अगर ज़ेम्स एंड ज्वेलरी (रत्न और आभूषण) बन्द हो गयी तो अनएम्प्लॉयमेंट (बेरोज़गारी) बढ़ जाएगा। भाई, ज़ेम्स एंड ज्वेलरी बन्द होंगे ही नहीं जब तक पूरे समाज में एक व्यापक परिवर्तन नहीं आता। सबकुछ बदल चुका होगा न, सिर्फ़ एक इंडस्ट्री नहीं बन्द हुई होगी, उस इंडस्ट्री का उपभोग करने वाला मन भी तो बन्द हो गया होगा, और मन अब किसी दूसरी रचनात्मक दिशा में चल दिया होगा।

तो हम ये नहीं समझते हैं कि जब ऐसी चीज़ें होती हैं तो वो बहुत एक यूनिवर्सल (विश्वव्यापी), व्यापक तरीके से होती है। आइसोलेटेड (पृथक) तरीके से नहीं होती है। सबकुछ बदल जाता है।

जैसे लोग कहते हैं कि अगर सब बुद्ध हो गये तो फिर ये सब इंडस्ट्रीज कैसे चलेगी, दुनिया कौन चलाएगा। भाई, सब बुद्ध हो गये तो तू भी तो बुद्ध हो गया, तो फिर ये सवाल कौन पूछेगा, अगर सब बुद्ध हो गये तो। तुम सवाल फिर ये कर रहे हो, सब बुद्ध हो गये बस मैं बुद्ध नहीं हुआ।

तुम अपने लिए सवाल पूछ रहे हो, अगर सब बुद्ध हो गये तो तुम भी बुद्ध हो जाओगे और तुम भी बुद्ध हो जाओगे तो फिर ये सवाल पूछने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।

प्र: अगर सिर्फ़ जीडीपी पॉइंट ऑफ व्यू (सकल घरेलु उत्पाद दृष्टिकोण) से देखेंगे तो एक सिद्धार्थ का बुद्ध बनना तो एक नाइटमेअर (बुरा अनुभव) जैसा है। जीडीपी का लेंस लगाकर हर चीज़ देखते हैं तो।

आचार्य: इसीलिए तो जीडीपी पसंद नहीं करता — न सिद्धार्थों को, न बुद्धों को।

प्र: क्योंकि उसके बढ़ने के लिए ज़रूरी है कि एक आम व्यक्ति हमेशा रेसलेस रहे और जो पूरा आध्यात्मिक है या वेदान्त है वो उसी का ही इलाज करता है। तो ये तो बिलकुल ही विपरीत है।

आचार्य: साइज ऑफ जीडीपी (सकल घरेलु उत्पाद का आकार) बिलकुल ऐसा हो सकता है कि साइज ऑफ डिजीज (बीमारी का आकार) का द्योतक हो। मैं इससे ये नहीं कहना चाहता कि जहाँ जीडीपी कम होगा, वहाँ अनिवार्य रूप से डिजीज कम होगी। ये तो मैं बिलकुल भी नहीं कहना चाहता, लेकिन इतना निश्चित है कि जहाँ जीडीपी बहुत ज़्यादा होगा, वहाँ बहुत सम्भावना है कि बीमारी बहुत ज़्यादा होगी, बीमारी जितनी होती है जीडीपी उतना बढ़ता है। और कई बार जीडीपी को और बढ़ाने के लिए और बनाये रखने के लिए बीमारी को बढ़ाना ज़रूरी हो जाता है।

प्र: टूरिज्म (पर्यटन) में श्रीलंका का एग्जाम्पल (उदाहरण) था लास्ट ईयर (पिछले वर्ष) का। तो इसमें भी ख़तरा है कि आप अगर टूरिज्म पर आश्रित करोगे, जस्ट थिंकिंग (बस सोच) कि पॉलिसी लेवल (नीति स्तर) पर क्या सोचकर इंडिया में भी उस डायरेक्शन (दिशा) में हम बढ़ रहे हैं?

आचार्य: ख़ैर, श्रीलंका में तो और भी बात हुई थी, दे‌ वयर स्पेंडिंग मोर देन देअर मींस मोस्टली डेब्ट फाइनेंसिंग (वह अपनी आय से ज़्यादा खर्च कर रहे थे जो की एक उधारी पर चलने वाली अर्थव्यवस्था होती है)।

तो वो तो दूसरा ही था मामला। लेकिन जीडीपी आख़िरी चीज़ नहीं है मैक्रो लेवल पर और माइक्रो लेवल पर इनकम आख़िरी चीज़ नहीं है। न तो पर्सनल इनकम आख़िरी चीज़ है, न नेशनल इनकम आख़िरी चीज़ है। ठीक। आख़िरी चीज़ क्या है, ये जानने के विज्ञान को ही कहते हैं अध्यात्म। जो आपको आख़िरी माने अन्तिम तक ले जाता है। आख़िरी पता कर लो जीवन सुधर जाता है, जीवन एकदम ठीक हो जाता है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=CBysdEQDY9w

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