जगत पदार्थ, तो स्त्री वस्तुमात्र || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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जगत पदार्थ, तो स्त्री वस्तुमात्र || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: सर, औरतों को शादी के उपरान्त अपने पति का उपनाम क्यों लगाना पड़ता है?

वक्ता: मेघना, अगर देख पाओगी तो बात साफ़-साफ़ खुल जाएगी। तुमने देखा है जब लोग घर बनाते हैं, तो घर के साथ क्या करते हैं? मित्तल साहब ने घर बनाया और उसके सामने क्या लिखा है? ‘मित्तलस्’। वो पूरी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि – “यह घर मेरी संपत्ति है। मुझसे पूछे बिना इसमें प्रवेश मत कर जाना”। घर पर अपना नाम लिखना बहुत ज़रूरी है।

पुराने समय में लोग घर के बर्तनों तक पर अपना नाम लिखते थे, कटोरों पर, चम्मचों पर नाम अंकित रहते थे। पड़ोसियों को बता रहे हैं, “उठा मत ले जाना, इस पर मेरा नाम अंकित है। अगर उठा ले गए तो पकड़े जाओगे।” लोग ट्रेन में चलते थे, तो संदूकों पर अपना नाम लिखकर चलते थे। ऐसा आज भी होता है। यह करके तुम दुनिया को सूचना दे रहे हो, “यह जायदाद मेरी है, छूना मत। छू दिया तो लड़ाईयाँ हो जाएँगीं।” तो समझ ही गयीं होंगी मेघना?

श्रोता(जिन्होंने प्रश्न किया था): तो क्या इसका मतलब यह है कि लड़कियों का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है?

वक्ता: जो भी कोई यह कहे कि यह स्त्री मेरी है, जो उसे संपत्ति की तरह देखता है, उस पर मालकियत जताता है कि यह मेरी जायदाद है, उसके लिए तो औरत मात्र पदार्थ ही है: चम्मच की तरह, कटोरी की तरह, मकान की तरह, संदूक की तरह। जिस भी आदमी ने यह किया है कि औरत के नाम के आगे अपना नाम जोड़ दिया है, उसने औरत को पदार्थ से ज़्यादा कुछ नहीं समझा है। “मेरी है।”

देखा है कभी, लोग गाड़ी खरीदते हैं, मोटरसाइकिल ख़रीदते हैं, उस पर भी अपना नाम लिख देते हैं? “टीनू की बाइक!”

(हँसी )

अब यही टीनू जब शादी करेंगे तो बीवी के माथे पर भी खोद देंगे, “टीनू की वाइफ!”

(फ़िर हँसी )

एक ही मन है, एक ही चित्त है। ऐसा चित्त जो कब्ज़ा करना चाहता है, जो भोगना चाहता है, जो कहता है, “मेरी संपत्ति है”, जो कहता है, “मेरी चीज़ है”। उसको इंसान नहीं दिखाई पड़ रहा। उसको सिर्फ़ शरीर दिखाई पड़ रहा है, उसको सिर्फ चीज़ दिखाई पड़ रही है।

हिन्दुस्तान में तो पुराने समय में जब धन गिना जाता था, तो ऐसे गिना जाता था। “अच्छा बताइए कितना पशु धन है आपके पास?” तो लोग पशु धन बताते थे कि इतनी गायें, इतनी भैंसें हैं। फिर पूछा जाता था, “स्त्री धन कितना?” फिर लोग बताते थे कि घर में औरतें कितनी हैं। तो जैसे पशु धन, वैसे स्त्री धन।

एक तरफ घर में गायें और भैंसें बंधीं हुई हैं, उस जगह को सार कहते हैं। और दूसरी तरफ घर में औरतें बंधीं हुई हैं, उस जगह को बेडरूम और रसोई कहते हैं। कोई विशेष अंतर नहीं है। तुम आज भी देखोगे तो पाओगे कि ऐसे कई देश हैं जहाँ औरतों को गाड़ी चलाने का ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं मिलता। कई ऐसे देश हैं जहाँ की अदालतों में औरतों की गवाही की कीमत पुरुषों की गवाही की अपेक्षा आधे वज़न की मानी जाती है। एक देश में तो लम्बे समय तक कुछ समुदायों में यह माना गया कि औरत में आत्मा जैसा कुछ होता ही नहीं है, वो सिर्फ़ वस्तु है। तो यदि तुमने किसी स्त्री का संहार कर दिया है तो कोई विशेष बात नहीं।

*(व्यंग्य करते हुए) “*चीज़ ही तो तोड़ी है। मेरी चीज़ थी, तोड़ दी। मेरा गुलदस्ता है, रखूँ या तोडूँ, तुम्हें क्या? कौन-सी अदालत मुझे सज़ा देगी?”

औरतों ने चीज़ बने रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दूसरे यदि तुम्हें वस्तु समझते हैं, तो क्या तुमने अपने आप को कभी वस्तु से अलग जाना है? तुम तो खुद वस्तु बनी रहती हो। यह सजना, सँवरना, यह क्या है? और ज़हरीली बात यह हुई है कि औरतों ने यह मान लिया है कि उनकी सार्थकता ही इसी में है कि पुरुष उनकी तारीफ करें, कि पुरुष उन्हें स्वीकार करें।

श्रोता १: सर, आजकल तो लड़कियों से ज़्यादा, लड़के सजते-सँवरते हैं।

वक्ता: यह हो कर रहेगा। ठीक कह रही हो। क्योंकि मन एक ही है। जो आदमी स्त्री को वस्तु की तरह इस्तेमाल कर रहा है, वह अपने मित्रों को भी वस्तु की तरह इस्तेमाल कर रहा है। भले ही वह उसके पुरुष मित्र ही क्यों न हों। जो औरत अपने आप को चीज़ की तरह देखती है, वह निश्चित रूप से पूरे संसार को चीज़ कि तरह ही देखेगी। वह अपने पति को भी चीज़ के रूप में ही देखेगी। स्त्री और पुरुष, दोनों ही एक दूसरे को वस्तु के रूप में ही देखते हैं, एन ऑब्जेक्ट ऑफ़ कनसम्पशन, भोग की वस्तु। हाँ, पुरुष का ज़ोर ज्यादा चलता है, तो वो औरत के नाम के आगे अपना नाम भी लिख देता है। अगर कुछ ऐसा हो सके कि औरतों का ज़ोर ज़्यादा चल सके, तो वो पुरुषों के नाम के आगे अपना नाम लगा लेंगी। वो कहेंगी, “तू मेरी चीज़ हुआ।”

(हँसी )

पर, मूलभूत से कुछ बदला नहीं है। दोनों ही एक दूसरे को चीज़ की तरह ही देख रहे हैं, “तू चीज़ बड़ी है मस्त, मस्त”। तुम समझ रहे हो कि यह मन कैसा है? यह मन ऐसा है जो दुनिया में सिर्फ और सिर्फ मैटीरेअल, पदार्थ देख पाता है। बात आदमी-औरत तक सीमित नहीं है। यह वो आदमी है, जो नदी बह रही हो, तो नदी को गंदा कर देगा। उसका सिर्फ़ एक ही काम है- नदी का उपभोग करना। वह पहाड़ों को नग्न कर देगा, पेड़ काट डालेगा क्योंकि उसका एक ही काम है, पहाड़ का शोषण करना। उसके लिए पूरी दुनिया ही एक चीज़ भर है, उसे नोच डालो, चीर डालो। उसका पेट कभी भरता नहीं है। वो कितना भी खाता है, कितना ही भोग करता है, उसकी लालसा बनी रहती है।

तुमने देखा होगा कि पुराने ज़माने में पुरुष एक नहीं, पाँच-पाँच स्त्री रखता था। पचास भी, पाँच हज़ार भी, क्योंकि भूख शांत ही नहीं हो रही। प्यास बुझ ही नहीं रही। चीज़ें कभी प्यास बुझा पाती भी नहीं। प्यास थोड़ी देर बुझेगी, फिर उठेगी। फिर तुम और चीज़ें इकट्ठा करते चलते हो।

उस आदमी से सावधान रहना जो दुनिया में मात्र वस्तुएँ देखता हो। उसके लिए किसी का शरीर भी मात्र वस्तु ही रहेगा। उदाहरण के लिए, मैंने अभी बात की कि हम नदियों और पहाड़ों को कैसे देखते हैं। तुम देखो कि हम जानवरों को कैसे देखते हैं। तुम एक जानवर लेते हो, तुम समझ ही नहीं पाते हो कि यह एक जीता-जागता प्राणी है। तुम उसके पंख नोच डालते हो, उसके शरीर में लोहा डाल देते हो, तुम उसके टुकड़े-टुकड़े कर देते हो, उसका माँस खा जाते हो।

यही काम फिर पुरुष स्त्री के साथ भी करता है। ठीक यही काम ही तो है कि माँस नोच डालना है, क्योंकि तुम्हारे लिए वो एक वस्तु मात्र है। पर जब तुम यह एक पक्षी के साथ करते हो, पशु के साथ करते हो, तुम्हें ख्याल भी नहीं आता कि तुम किस मन से कर रहे हो। यह एक बलात्कारी मन है। वो घास पर चलेगा तो घास का भी बलात्कार करेगा।

आज जानवरों की, पौधों की हज़ारों प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं हैं। यह क्यों विलुप्त हुईं? क्योंकि हमने उनको मात्र वस्तु समझा। “खाओ, पीयो, भोग करो, यह इसलिए ही तो हैं। यह इसलिए ही तो हैं कि हम इनका शोषण कर सकें।” आज पृथ्वी का औसत तापमान सामान्य से करीब आठ डिग्री औसतन बढ़ चुका है, और आने वाले बीस-तीस सालों में और बढ़ जाएगा। तुम्हारे जीवन काल में ही कई शहर समुद्र में विलीन हो जाएँगे।

आदमी ने पूरे जगत को मात्र चीज़ समझ रखा है। ग्लेशिअर पिघलते हैं तो पिघलने दो। पशु, पक्षियों को मार दो। इन्हें खा जाओ। “यह इसलिए ही हैं ताकि हम इन्हें खा सकें।” पुरुष कहेगा, “औरतें इसलिए ही तो हैं ताकि हम इनका भोग कर सकें।” स्त्री कहेगी, “पुरुष इसलिए ही तो हैं ताकि हम इनके साथ मौज मना सकें।” ये राह मात्र महाविनाश की ओर जाती है, और हम महाविनाश के बहुत करीब हैं।

इस महीने में ऐसा मौसम वैश्विक जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल क्लाइमेट चेंज, का सूचक है। तुमने मौसम को वस्तु समझा, यह उसका नतीजा है। यह चारों तरफ जो प्राकृतिक आपदाएँ हो रहीं हैं, कहीं तूफ़ान, कहीं भूकम्प, यह सब महाविनाश की आहटें हैं। मन क्योंकि वही है, जिसे सब कुछ मात्र भोगना है। उड़ाओ बड़े-बड़े हवाई-जहाज़, भले ही उससे सारा वातावरण नष्ट होता हो। बनाओ और मिसाइलें और न्यूक्लिअर बम, भले ही उससे दुनिया सौ बार तबाह होती हो।

बचो ऐसे मन से!

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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