जब ईश्वर से भरोसा उठने लगे || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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जब ईश्वर से भरोसा उठने लगे || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी तो लगता है ईश्वर पर भरोसा रखो, वह सब ठीक कर देगा, लेकिन यह भरोसा मैं हमेशा क्यों नहीं रख पाती?

आचार्य प्रशांत: कोई भरोसा वगैरह मत कर लेना। तुम तो भरोसा भी अपनी योग्यतानुसार और अपने पैमानों पर ही करोगे। तुम कहोगे कि अगर तुमने इस-इस तरह की योग्यता और पात्रता दिखाई, तब तू मेरे भरोसे के काबिल है। तूने मुझे सुख दिया, तूने मुझे आराम दिया, तुझसे मेरी इच्छाएँ पूरी हुईं, तो तू मेरे भरोसे के काबिल है।

सत्य पर भरोसा करना भी उतनी ही बड़ी भूल है, जितनी बड़ी भूल है उस पर भरोसा न करना। जो सत्य में यकीन रखते हैं वह उतने ही अँधेरे में गिरते हैं, जितने कि वह जो सत्य में यकीन नहीं रखते। तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना है, भरोसा करना तो बस मानसिक गतिविधि है।

हर भरोसे, हर विश्वास के पीछे कारण होगा और कारण तुम्हारे अहम् और तुम्हारे स्वार्थ से जुड़ा हुआ होगा। सत्य पर भरोसा नहीं किया जाता, सत्य के सामने नमन किया जाता है। भरोसा करके तो तुम सत्य को क्षुद्र बनाए दे रहे हो। यह कभी मत कहना कि मुझे सत्य पर, कि ईश्वर पर, कि ब्रह्म पर भरोसा है, भरोसा तो बहुत छोटी बात है।

विश्वास और श्रद्धा में अंतर होता है। श्रद्धा की कोई वजह नहीं होती, श्रद्धा कोई विचार नहीं होता, श्रद्धा का कोई कारण नहीं होता, श्रद्धा का कोई वजूद ही नहीं होता। विश्वास के पीछे कारण भी होता है, विश्वास के आगे परिणाम भी होता है, विश्वास में अपेक्षा भी होती है और विश्वास की एक निश्चित अवधि भी होती है।

विश्वास तुम्हारा होता है, श्रद्धा के तुम होते हो। विश्वास तुमसे छोटा होता है, श्रद्धा तुमसे बहुत बड़ी होती है। और श्रद्धा का अर्थ होता है, हम मूक हो जाएँगे, हम कुछ कह ही न पाएँगे, हम तुम्हारे बारे में विचार ही न कर पाएँगे। तुम इतने बड़े हो कि हम यह भी न कह पाएँगे कि तुम बहुत बड़े हो। ‘बड़ा’ शब्द भी तुम्हारे आगे निरर्थक है, ‘बड़ा’ शब्द भी तुम्हारे आगे असंगत है, ‘बड़ा’ शब्द भी तुम्हारे आगे छोटा है। हम मुँह ही न खोलेंगे, हम मन को यह धृष्टता करने ही न देंगे कि हम तुम पर भरोसा भी करें।

यह कहना भी कि ‘मालिक, अब तो सबकुछ तेरे हाथ में है, तुझ पर भरोसा किया’, इस बात का प्रमाण है कि अभी तुमने सबकुछ तो नहीं दिया मालिक को, अभी भी तुमने भरोसा करने का हक़ तो अपने पास ही रखा है। और भरोसा करने का हक़ अगर तुम्हारे पास है तो भरोसा न करने का हक़ भी अभी तुम्हारे ही पास है। जिस हक़ से आज भरोसा कर रही हो उसी हक़ से कल भरोसा करना छोड़ भी दोगी। सत्य न छोटा है, न बड़ा है, न सुंदर है न असुंदर है। सत्य बुरा तो नहीं ही है, अच्छा भी नहीं है।

तुमने कहा कि मुझे भरोसा है कि तू मुझे गिरने से बचा लेगा, कि मुझे भरोसा है कि गिरूँगी तो सहारा दे लेगा। कहाँ को गिरोगे? श्रद्धा का अर्थ होता है कि गिरेंगे भी तो तुम में ही गिरेंगे। तुमसे ही गिरे हैं, तुम में ही गिरेंगे और तुम में ही होते हुए गिरेंगे, अब बोलें क्या?

बोलने के लिए कोई खाली स्थान तो चाहिए, जहाँ तुम न हो। तुमसे ही आदि है, तुमसे ही अंत है और बीच में भी तुम ही हो, तो बोलें कैसे? बोलने के लिए कहीं हम भी तो होने चाहिए, जो बोले। शुरू से अंत तक तो तुम ही तुम बैठे हो, हम बोले कहाँ और किसको? संबोधित किसे करें? किस मुँह से बोलें? जिस मुँह से बोल रहे हैं वह भी तुम ही हो, जो शब्द तुम्हें संबोधित कर रहे हैं वह शब्द भी तुम ही हो, तो बोलना ही बड़ी मूर्खता होगी।

बोलना फिर ऐसा हो गया, जैसे किसी विक्षिप्त का आत्मप्रलाप। अपनेआप को ही संबोधित करके बातें किए जा रहा है। पागलों को देखा है न? पागल का नाम है राजू। अब राजू अपनेआप से ही बातें करे जा रहा है। जब कोई यह करना शुरू कर दे तो तुम कहते हो, पगला गया। परमात्मा से प्रार्थना करना ऐसा ही पागलपन है। परमात्मा क्या खुद से प्रार्थना करने आएगा? अगर मात्र वही है तो तुम प्रार्थना किससे कर रहे हो? फिर तो पागलों वाली बात हुई न, कि राजू अपनेआप से ही बात करे जा रहा है। वैसे ही तुम परमात्मा से प्रार्थना करे जा रहे हो। परमात्मा से प्रार्थना भी करते हो, फिर यह भी कहते हो कि मैं भी तू, तू भी तू और तेरे अलावा किसी की हस्ती नहीं।

जब उसके अलावा किसी की हस्ती नहीं तो तुम कौन हो जो उस पर भरोसा कर रहा है! वह खुद आया है अपनेआप पर भरोसा करने? तुम देख रहे हो कि भरोसा करके तुमने अपना अलगाव कायम रखा? तुम देख रहे हो कि भरोसा करके तुमने अपनी अलग सत्ता बरक़रार रखी? तुम देख रहे हो कि भरोसा करना कितने अहंकार की बात है? पर नहीं, हम कहते हैं, जो भरोसा न करे वह अहंकारी, जो भरोसा करे वह भक्त।

जो भरोसा करे वह भी उतना ही अहंकारी है, कोई भक्ति नहीं है भरोसे में। सब भरोसे वालों का एक ही अंजाम होना है, क्या? उनका भरोसा टूटेगा। और जिस दिन तुम्हारा भरोसा टूटेगा, उस दिन तुम कहोगे, ‘भगवान ने धोखा दिया’। उस दिन तुम्हारे पास नास्तिकता का एक और कारण आ जाएगा। तुम कहोगे, "साहब, आपको पता भी है, हमने भगवान पर कितना भरोसा किया था! अरे, दिल ही नहीं रखा उसने हमारा। बड़ी भक्ति बजायी हमने, खूब प्रसाद चढ़ाए, खूब व्रत किए और मन्नत हमारी पूरी नहीं हुई।"

तुम देख रहे हो, भरोसा करके तुम क्या आयोजन कर रहे हो? तुम नास्तिकता का आयोजन कर रहे हो। क्योंकि भरोसे तो टूटेंगे, तुम्हारे भरोसे हैं। तुम ही टूटते-बिखरते रहते हो, तुम्हारे भरोसे कैसे बचेंगे! तुम्हारा आजतक कुछ भी टूटने से बचा है? बोलो, कुछ भी तुम्हारा आजतक टूटने से बचा है? मन टूटा है, विश्वास टूटे हैं, सपने टूटे हैं, दाँत टूटे हैं, हड्डियाँ टूटी हैं, कंघी करते हो तो बाल टूटे हैं। तुम्हारा टूटने से बचा क्या है, तो भरोसा कैसे नहीं टूटेगा?

आज तो भावना के उद्वेग में कह रही हो, ‘बड़ा भरोसा है!’ वह किसी का नहीं है, वह बड़ा बेवफ़ा है। वह एक पैसे की कद्र नहीं करेगा तुम्हारे भरोसे और तुम्हारे विश्वास की। वह मनचला है, वह बस अपनी चलाता है। कोई और है नहीं न, किसकी चलेगी? अकेला ही है तो अपनी ही चलाता है। और जब अपनी चलाएगा तो तुम्हारा भरोसा फिर छिन्न-भिन्न हो जाएगा। भरोसों के चीथड़े लेकर घूमोगी। फिर गाना गाना, अता उल्ला खां के, “वफा ना रास आई, तुझे ओ हरजाई।” यहाँ सब बैठे हैं टूटा हुआ दिल लेकर, हमने वफ़ादारी की और वफ़ा का सिला क्या मिला? “अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का, यार ने ही लूट लिया घर यार का।” यह सब बड़े भरोसेवाले लोग थे। भरोसे का अंजाम? वही, क्षत-विक्षत हृदय। लेकर घूम रहे हैं, जैसे चूहों ने चड्ढी कुतर दी हो।

चुप हो जाओ। कुछ तो छोड़ दो जिस पर तुम्हें निर्णय नहीं रखना, जिसके बारे में तुम्हें कोई अभिमत नहीं रखना। कुछ तो छोड़ दो जिस पर तुम्हें कोई टिप्पणी नहीं करनी। कुछ तो छोड़ दो जो तुम्हारी पकड़ से बहुत बाहर है क्योंकि तुम्हारे बहुत क़रीब है। क्यों तुम्हें हर क्षेत्र में विशेषज्ञ बनना है? कहीं पर तो मौन हो जाओ।

तुम जब भी जानोगी अंश को ही जानोगी और अंश को जानना ख़तरनाक हो जाता है। पूरी बात इतनी बड़ी और इतनी सरल है कि तुम्हें कभी समझ नहीं आएगी। तुम्हें समझ में आए इसके लिए बात का जटिल होना, पेचीदा होना ज़रूरी है। जो कुछ अतिशय सरल हो वह तुम्हें समझ में नहीं आ सकता। तुम्हें समझ में नहीं आएगा, तुम धोखा खाओगी। और इल्ज़ाम किस पर जाएगा? जिस पर भरोसा कर रहे थे। तुम भरोसा करोगी कि सुख देगा, वह सुख नहीं देता। तुम भरोसा करोगी कि तुम्हारा मान रखेगा, वह मान नहीं रखता।

हो सकता है कि तुम विपरीत ध्रुव पर पहुँच जाओ। तुम भरोसा करने लगो कि वह दुख ही देगा, उसकी दुख देने में भी रूचि नहीं है। हो सकता है कि तुम प्रचलित संन्यासियों जैसी हो जाओ और तुम मानने लग जाओ कि वह तो बस छीनता है, वह तुम्हारी इस धारणा का मान भी नहीं रखेगा, एक दिन वह कुछ बरसा देगा तुम्हारे ऊपर। और तब तुम छाता भी तान के घूमोगी तो ऐसी वृष्टि होगी कि भीग जाओगी। वह बरसा रहा है छप्पर फाड़ के, किवाड़ उखाड़ के। तुम्हारी यह धारणा भी टूटी कि छीनता ही रहता है।

जब कहोगी कि छीनता रहता है तो दे देगा। जब कहोगी, ‘देता रहता है’ तो कुछ पाओगी ही नहीं। हर हाल में तुम्हें तो निराशा ही लगनी है। जितनी बार तुम्हें निराशा लगेगी, उतनी बार तुम कहोगी, ‘वफ़ा न रास आयी, तुझे ओ हरजाई। हर मंगलवार प्रसाद चढ़ाया, अड़तीस बार सत्र में बैठी तो नतीजा क्या मिला? घोड़ा चाहिए था, हाथी मिला।’

प्र२: अस्तित्व का किसी के प्रति कोई प्लान (योजना) नहीं है?

आचार्य: किसी के प्रति न प्लान है, न ज़िम्मेदारी है। और जब तुम इस बात से मुक्त हो जाते हो कि कोई ऐसी योजना होनी चाहिए जो तुम्हारी समझ के भीतर हो, जो तुम्हारी परिभाषाओं के भीतर हो, तब उस अयोजना में बड़ा आनंद पाते हो। तब इस अनायोजित खेल में खिलाड़ी हो जाते हो।

कबीर कहते हैं कि चिंता मेरी हरि करें, “चिंता मेरी राम करें, मैं करूँ आराम।” अब राम क्या चिंता कर रहे हैं, कबीर को कुछ पता थोड़े ही है। पता होने के लिए जगना तो चाहिए, कबीर तो आराम कर रहे हैं। छोड़ दिया, योजना है कि योजना नहीं है। "अरे, भाड़ में जाए यह सवाल! हमें जानना ही नहीं है कि योजना है कि योजना नहीं है।"

अब आए तुम मैदान में! अब तुमने परमात्मा के साथ परमात्मा होकर खेलना शुरू किया। सिर्फ़ तभी खेला जा सकता है। कहे, "ठीक है, तू जैसा हम भी वैसे क्योंकि हम तू ही तो हैं। तू बताता नहीं, हम पूछेंगे नहीं। तू न बता! तू जैसा हम वैसे।" अब परमात्मा भी खुश होता है, कोई मिला अपने जैसा, यह भाई अपने जैसा लग रहा है, यह खिलाड़ी है!

सारा खेल ही यही है न कि जो हो, उसी के जैसे हो जाओ। तुम कुछ और होने की ही कोशिश में लगे रह जाते हो। वह कहता है, ‘हम अपनी चालें समझाएँगे नहीं।’ तुम क्यों समझने को उतावले हो? तुम कहो, ‘हमें समझना ही नहीं।’ हो जाओ वैसे। पगला है वो, तुम भी पगला जाओ। वह मनचला है, तुम भी मनचले हो जाओ। वह बेफ़िक्र है, तुम भी हो जाओ। उसका सब ऐसे ही है, बेमतलब, तुम भी ऐसे ही खेलो।

अब वह तो वहाँ बैठा हुआ है, उसे किसी की फ़िक्र नहीं। तुम फ़िक्र कर रहे हो कि वह क्या सोच रहा है, उसकी योजना क्या है मेरे लिए। व्हॉट इज़ द ग्रैंड प्लान? (वह महान योजना क्या है?) घंटा बजाते रहो, द्वार नहीं खुलेगा।

प्र: यदि कुछ देर के लिए हम सब भूल जाएँ और सिर्फ़ भविष्य पर ध्यान दें?

आचार्य: अरे! भविष्य में भी तो वही बैठा हुआ है! कि भविष्य में कोई और आ जाना है? वर्तमान और भविष्य अलग-अलग हैं क्या? जो अभी है वही कल है। जिस सत्ता की आज बात कर रहे हो कि उस पर बड़ा भरोसा करते हैं, वही सत्ता तो कल भी रहनी है न, अचल, अक्षुण्ण, ठीक जैसी आज है। तो कल किस विशेष की तैयारी है?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=qrQOCvDglpk

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