श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर - जीवन वृतांत

"मुझे आश्चर्य होता है ये देखकर कि कैसे भगवान ने चार करोड़ बंगालियों को बनाते हुए, एक आदमी को भी जन्म दिया।"

जिस 'आदमी' की बात यहाँ गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर कर रहे हैं, उनके लिए एक बार गांधी जी ने कहा था,

"विद्यासागर की उपाधि उन्हें उनके ज्ञान के लिए मिली थी, लेकिन वे करुणा और उदारता के भी सागर थे।"

श्री ईश्वरचन्द्र 'विद्यासागर' का जन्म 26 सितंबर, 1820 को हुआ था। बचपन में हमारा उनसे परिचय होता है एक ऐसे बालक के रूप में जिसे शिक्षा से बहुत प्रेम था। जो अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए हर प्रकार की मुश्किलों का सामना करता, पर कभी हार नहीं मानता।

लेकिन उनकी चुनौतियाँ यहाँ ख़त्म नहीं हुई थीं। विद्यासागर जी आधुनिक भारत के सबसे महत्वपूर्ण समाज सुधारकों में एक हैं।

अपनी आरामदायक और सुख-सुविधापूर्ण ज़िंदगी के बीच हम ये भूल ही जाते हैं कि हमारी ये सारी प्रगति किन लोगों के कंधों पर खड़ी है।

जानिए श्री ईश्वरचन्द्र 'विद्यासागर' ने हमारे समाज को कैसे सुधारा:

🔹 शिक्षा प्रणाली में सुधार: विद्यासागर जी संस्कृत व बंगाली भाषा के बहुत बड़े विद्वान थे। लेकिन साथ ही वे अंग्रेज़ी भाषा का महत्व भी समझते हैं। जब उन्होंने 'संस्कृत कॉलेज' में आचार्य का पद संभाला तो शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव किए।

➖ उन्होंने भारतीय दर्शन के साथ-साथ पाश्चात्य दर्शन को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया। स्वयं अंग्रेज़ी भाषा सीखी व कॉलेज के छात्रों के लिए भी अनिवार्य की।

➖ उनका कहना था कि पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करने की बजाय यदि उनकी भाषा को सीखा जाए तो संभवतः आने वाले वर्ष़ों में भारतीय अंग्रेजों को पछाड़ सकेंगे।

➖ ये उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि आने वाले वर्ष़ों में अंग्रेजी व भारतीय भाषाओं के विद्वान् ही स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी बने। क्योंकि उनके पास देशभक्ति की भावना के साथ-साथ दूसरे देशों द्वारा स्वतंत्रता-प्राप्ति या क्रांति की गहरी समझ भी थी।

➖ जाति के आधार पर प्रवेश पर उन्होंने ही रोक लगाई। उनके प्रयत्नों से सभी जातियों के छात्रों को कॉलेज में शिक्षा पाने का अधिकार मिल सका।

🔹 स्त्री शिक्षा: नवंबर 1857 व मई 1858 के दौरान विद्यासागरजी ने लगभग 25 स्कूल खोले। लेकिन उन दिनों हिंदू समाज अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए नहीं भेजा करता था।

➖ पर विद्यासागरजी जी ने लड़कियों की निशुल्क शिक्षा का प्रबंध किया। ना तो उनसे फीस ली जाती थी और ना ही उन्हें किताबें खरीदने की आवश्यकता थी। यहाँ तक कि दूर से आनेवाली लड़कियों के लिए वाहनों की व्यवस्था भी की जाती।

➖ जब तक सरकार की ओर से उन्हें कोई सहायता नहीं मिली, तब तक वह स्कूल का खर्च तथा शिक्षकों का वेतन अपनी जेब से देते रहे।

🔹 बाल-विवाह, विधवा-विवाह व कुलीन बहुपत्नी प्रथा: उन दिनों बंगाल में बहु-विवाह प्रथा जारी थी। किसी एक वृद्ध महाशय की मृत्यु से पाँच, सात या फिर दस-बीस कन्याएँ तक विधवा हो जातीं थीं। वे सब प्रायः कम उम्र की होती थीं।

➖ विधवाओं के सशक्तिकरण के लिए विद्यासागर जी 'विधवा-विवाह' के समर्थन में साक्ष्य जुटाने में लगे थे। गहन अध्ययन के बाद उन्होंने कुछ संस्कृत श्लोक खोज निकाले, जो शास्त्र-सम्मत दृष्टि से विधवा-विवाह को समर्थन देते थे। और हिंदू-समाज में उनका प्रचार-प्रसार किया।

➖ उनके संघर्षपूर्ण आंदोलन के परिणाम स्वरूप 26 जुलाई, 1856 को विधवा-विवाह अधिनियम पारित कर दिया गया। लेकिन इन सारी कुरीतिओं की जड़ें छिपी थीं 'कुलीन बहुपत्नी प्रथा' और 'बाल-विवाह' में।

➖ 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ी सरकार इतनी चौकन्नी हो गई थी कि भारतीय रीति-रिवाजों व परंपराओं में हस्तक्षेप कर कानून नहीं बनाना चाहती थी। जिसके कारण विद्यासागर जी का शेष जीवन इन्हीं कुरीतिओं से लड़ते हुए बीता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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