इस व्यक्ति पर भरोसा थोड़ा कम करें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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इस व्यक्ति पर भरोसा थोड़ा कम करें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप तो जानते हो कि यहाँ अमेरिका में न्यू ऐज फिलोसॉफी (नये युग के दर्शन) का बहुत ज़्यादा ज़ोर है। और हमने जब बात की थी। और आपने कई वीडियोज़ में इस बात का जिक्र किया है कि अपने खुद के ऊपर भरोसा आपको कम करना होगा। मतलब स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) में आपकी हमेशा ये सीख रही है कि अपने ऊपर भरोसा कम कीजिए। और यहाँ पर अपने ऊपर भरोसा रखने पर ही ज़्यादा ज़ोर रहता है। और अब इसमें थोड़ी असमंजसता यह भी है कि जैसे हम एक तरफ़ कहते हैं कि अपने ऊपर भरोसा कम होना चाहिए और दूसरी तरफ़ हम यह भी कहते हैं कि अपनी समझदारी से काम लेना है।

तो इन दो चीज़ों में थोड़ा कन्फ्यूज़न (भ्रम) सा रहता है। हम स्पिरिचुअलिटी में जितना डीपली (गहरे) जाते हैं तो हमें अपनी संकल्प शक्ति को भी इस्तेमाल करना होता है। तो वो फिर अपने ऊपर के विश्वास से नहीं आता है तो फिर वो कहाँ से आता है। फिर एक तरफ़ आप कह रहे हो कि अपने ऊपर भरोसा कम करना है और दूसरी तरफ़ आप कह रहे हो कि अपनी समझदारी से भी काम लेना है। तो इस पर थोड़ा मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: देखिए आप दो हैं। हम सब दो हैं। उसकी पहचान हमें बहुत साफ़-साफ़ होनी चाहिए इन दोनों में से जो एक भरोसे के लायक नहीं है। और उस पर भरोसा न करना ही दूसरे के प्रति भरोसा या श्रद्धा की बात है। आप उसकी पहचान करिए जो आपके भीतर है और आपको बहकाता, बरग़लाता रहता है।

जिसने अतीत में भी आपको उल्टे-पुल्टे निर्णयों की तरफ़ धकेला है, जो वर्तमान में भी आपके सामने धुँधलका बनकर, भ्रम बनकर, कभी लालच, कभी डर बनकर खड़ा होता है। उसको पहचानना है। और वो कितनी भी दलीलें दे, वो कितना भी आपको रिझाए, उस पर भरोसा नहीं करना है। और दलीलें देने को, आकर्षित करने को, रिझाने को ज़्यादा तत्पर वही रहता है।

जो दूसरे हैं आप, उसको बोलचाल से बहुत मतलब नहीं होता। वो अपनी कीमत जानता है। वो स्वयं को बेचने में बहुत उत्सुक नहीं होता। वो अपनी बोली लगाने के लिए स्वयं को विज्ञापित करता नहीं। उसे मौन ज़्यादा पसन्द है क्योंकि वो स्वयं को जानता है। और उसे किसी तरह की असुरक्षा नहीं है कि हाय! मेरा क्या होगा! मैं जल्दी से चलकर के अपना प्रचार करूँ। तो वो ज़रा चुप रहता है।

जो दूसरा है वो असुरक्षा का मारा हुआ है, बातूनी है, कुटिल भी है। वो अपने बारे में लच्छेदार बातें बताएगा, बढ़-चढ़कर वादे करेगा, आपको खींचेगा, लुभाएगा। तो मैं कहता हूँ, ‘उस पर विश्वास नहीं करना है।’ आमतौर पर हम इसी पर विश्वास करते हैं और इसे आत्मविश्वास का नाम देते हैं।

आत्मविश्वास क्या है? जो आत्म है ही नहीं उस पर विश्वास करने को हम कहते हैं, आत्मविश्वास। सेल्फ कॉन्फिडेंस क्या है? नो सेल्फ पर विश्वास करने को हम कह देते हैं, सेल्फ कॉन्फिडेंस। कॉन्फिडेंस जिस पर है वो सेल्फ है ही नहीं, और उसको हम कह रहे हैं सेल्फ कॉन्फिडेंस। मैं कहता हूँ, ‘उससे बचकर रहना है।’

आत्मविश्वास में ‘आत्म’ जैसा कुछ है ही नहीं। आप जिस पर विश्वास कर रहे हैं वो पराया है, वो अनात्म है, वो बाहरी प्रभाव है, वो जैविक वृत्ति है; लेकिन वो बहुत पारंगत है अपनेआप को बेचने में। वो अपनी बिक्री अच्छी कर लेता है, सेल्समैन बढ़िया है वो। अपना ढिंढोरा पीटेगा खूब, कहेगा, ‘मैं ये, मैं वो।’ पचास चीज़ें अपने बारे में बोलेगा और कहेगा, ‘मैं ही तो ‘आत्म’ हूँ। मैं ही आत्म हूँ, मेरी सुनो, मेरी मानो। और उसकी मानकर के आपकी होती है दुर्गति, तो इसलिए मैं कहता हूँ कि (अपने पर कम भरोसा करो)।

तो हम क्या करें? हम आत्मविश्वास की जगह ‘आत्मा विश्वास’ बोलें? नहीं, गड़बड़ हो जाएगी क्योंकि विश्वास तो किसी विषय पर, सब्जेक्ट , वस्तु पर ही किया जा सकता है।

जो आप असली हैं वो कोई विषय या वस्तु होता नहीं, तो उस पर जो विश्वास होता है वो एक खास तरह का विश्वास है जिसमें आप किस पर विश्वास कर रहे हैं इसका आपको भी पता नहीं, इसीलिए वो विश्वास करने के लिए दम चाहिए। उस खास विश्वास को श्रद्धा या फेथ कहते हैं। उसका कोई विषय नहीं होता।

आत्मविश्वास या सेल्फ कॉन्फिडेंस का हमेशा एक विषय होता है। आत्मविश्वास ऐसा है कि मैंने रट लिए हैं न सारे सवाल, तो अब परीक्षा में जो भी आएँगे, मैं उनका उत्तर दे लूँगा। क्यों? मैंने रट रखा है। या कि मैंने परीक्षा पत्र पहले से ही पता कर लिया है। मैं जानता हूँ ये पाँच सवाल आ रहे हैं, इन पाँचों को मैंने रट लिया। ये आत्मविश्वास है।

आत्मविश्वास हमेशा एक सीमित दायरे के भीतर काम करता है। वो कहता है, ‘मैं प्रसन्न हूँ, मैं विश्वास में हूँ जब तक ये पाँच सवाल ही आ रहे हों परीक्षा में।’ वो पाँच सवाल आ गये अगर, तब तो बढ़िया है। श्रद्धा बड़ी सुरक्षित चीज़ होती है। उसको अपने पर पूरा भरोसा होता है। उसके पास कोई विषय नहीं है। आत्मविश्वास के पास विषय है। विषय क्या है? वो पाँच प्रश्न। वो कहता है, ‘ये पाँच प्रश्नों को चूँकि मैं जानता हूँ, इसीलिए मुझे आत्मविश्वास है।’ अभी कोई आकर बता दे कि ये पाँच सवाल नहीं आ रहे, तो जो कॉन्फिडेंस है वो तुरन्त गिर जाएगा। आपने तैयारी करी इन पाँच सवालों की, या आपको किसी ने बता दिया था कि यही पाँच सवाल हैं, परीक्षा में आ रहे हैं। आप आत्मविश्वास से भरपूर हैं। तभी खबर लग जाए कि नहीं साहब, ये तो नहीं आ रहे पाँच, कुछ अलग ही आ रहा है। तो आप एकदम परेशान हो जाएँगे, आपका आत्मविश्वास रफू चक्कर हो जाएगा।

श्रद्धा दूसरी चीज़ होती है, उसको कुछ नहीं पता। उसके पास कोई विषय नहीं है। वो नहीं जानती कि परीक्षा में क्या आएगा, क्या नहीं। लेकिन कुछ और है जो उसको पता है, जिसके कारण उसे कोई परेशानी नहीं, वो शान्त है; शान्त है, सुरक्षित है। कोई उससे पूछे, ‘क्यों है तुम्हें इतना भरोसा?’ कहेगी, ‘भरोसा है भी क्या? मुझे नहीं लगता, मुझे कोई भरोसा है। मैं तो बस सहज हूँ, मैं तो शान्त हूँ।’ यहाँ कोई विषय नहीं है। यहाँ पर बात इस चीज़ पर निर्भर ही नहीं है कि यही पाँच सवाल आएँगे कि नहीं आएँगे‌।

ये पाँच सवाल आयें, कोई और पचास सवाल आयें, कुछ आये, कुछ न आये; हमें फ़र्क ही नहीं पड़ता। जैसे एक भीतरी तैयारी है बहुत अलग तरह की। एक ऐसी भीतरी तैयारी जो परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती। न परिस्थितियों पर निर्भर करती है, न परिणाम पर निर्भर करती है। वो श्रद्धा है, वो फेथ है।

कॉन्फिडेंस बहुत छोटी चीज़ होती है। वो परिस्थितियों पर निर्भर करती है और परिणाम की बाट जोहती है। सही परिणाम नहीं आया तो आपका कॉन्फिडेंस खराब हो जाता है तुरन्त। इसीलिए जो लोग आज आपको बहुत ज़्यादा आत्मविश्वासी, कॉन्फिडेंट या मोटिवेटेड देखते हैं, एकदम आत्म-प्रेरणा से भरपूर। दो-चार बार उनके साथ हादसे हो जाएँ, प्रतिकूल परिणाम आ जाएँ, आप पाते हैं कि वो बिलकुल ढह गये हैं।

ये ढहना होगा ही इसीलिए क्योंकि वो चीज़ ही हल्की है, घटिया है, नकली। उसमें कोई ज़्यादा जान होती नहीं। मैं बहुत कम बात करता हूँ उसकी जिसका भरोसा करा जा सकता है। मैं बात करता हूँ उसकी जिसका भरोसा नहीं करना चाहिए। आप उसका भरोसा नहीं करिए। और उसका भरोसा न करने में ही भरोसा है उसके प्रति जिसका भरोसा मानना चाहिए। समझ रहे हैं? उस पर भरोसा न होता, तो नकली चीज़ों को नकारने की ताकत कहाँ से आती। उसी ने तो दी है।

झूठ को नकारने में ही सच है। सच को स्वीकारने में सच नहीं है क्योंकि सच को आप जैसे ही स्वीकारेंगे, वो सच झूठ बन जाएगा; आपने स्वीकार लिया न। आप क्यों स्वीकार रहे हो, आप कौन होते हो सच को स्वीकारने वाले। आप इतने बड़े हो गए! आप सच को स्वीकारिये नहीं, आप झूठ को नकारते चलिए।

झूठ को नकार रहे हैं आप, तो समझ जाइए कि पीछे से ताकत सच ही दे रहा होगा। वरना मैं झूठ का पुतला! मुझमें इतनी जान कहाँ से आ जाती कि मैं झूठ को नकार देता! झूठ का पुतला झूठ को नकार रहा है। ये तो कोई जादू हुआ है। वो जादू जिसने करा है, बस चुपचाप उसको एक मौन नमन कर लीजिए। ज़्यादा न उसकी बात करिए, न उसकी ओर देखिए, न उसके बारे में सोचिए। वो आपके पीछे है। वो आपके आधार में है। वो आपकी जड़ में है।

पेड़ को शोभा नहीं देता कि वो बार-बार मिट्टी खोदकर के अपनी जड़ को देखने का प्रयास करे। गड़बड़ हो जाएगी न। पेड़ में बड़ी उत्सुकता आ गयी है। और वो कह रहा है, ‘मुझे जड़ देखनी है अपनी, जड़ देखनी है।’ और वो मिट्टी खुदवा रहा है कि जड़ दिखाओ। अंग्रेज़ी में चलता है, ‘क्यूरियोसिटी किल्ड द कैट (जिज्ञासा ने बिल्ली को मार डाला)। ये क्यूरियोसिटी किल्ड द ट्री (जिज्ञासा ने पेड़ को मार डाला) हो जाएगा।

कुछ बातें ऐसी हैं जिनको जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उनका बोध सिर्फ़ परोक्ष रूप से हो सकता है। सिर्फ़ परोक्ष रूप से। जिसने कह दिया, ‘मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो गया’, वो झूठा। जो नहीं है ठीक, उसको मना करते चलिए। और ये आस लेकर के तो कभी आइए ही मत कि किसी दिन वो मिल जाएगा जो असली है। जो असली है वो आपके सही कर्मों के पीछे खड़ा हुआ है। वो मिला तो हुआ है, वो ऐसे ही मिलता है।

ये उसका तरीका है। यही उसकी अदा है। आप उसे विवश नहीं कर सकते कि मेरी आँखों के सामने आ जाओ। उसकी अदा है ये। उसका स्टाइल है कि वो आँखों के पीछे रहता है। आप उसको ज़्यादा अगर परेशान करेंगे कि दिखाई दो, दिखाई दो, तो आप उसे खो देंगे। आपको कैसे पता चलता है कि आपकी आँखें भीतर से ठीक हैं। आपकी आँखें भीतर से ठीक हैं, ये आपको कैसे पता चलता है?

प्र: देख सकते हैं। देख सकते हैं।

आचार्य: क्या देख सकते हैं? कि भीतर से ठीक है?

प्र: सामने।

आचार्य: हाँ, तो बाहर की चीज़ें दिखाई दे रही हैं। बस यही प्रमाण होता है इस बात का कि आँखें भीतर से ठीक हैं। दुनिया में आपको सही-गलत पता चल रहा है। आप दुनिया में सार-असार का भेद कर पा रहे हैं। आप अपने भीतर बैठी माया को भी साफ़-साफ़ देख पा रहे हैं। बस इसी से पता चलता है कि आपकी आँखें भीतर से ठीक हैं। बाहर का सब साफ़-साफ़ पता चलता रहे, यही प्रमाण है बस कि भीतर सबकुछ ठीक है।

भीतर क्या है, ये आप जानने निकलेंगे तो कुछ हाथ आएगा नहीं। मैं भीतर माने वृत्तियों की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं भीतर से बात कर रहा हूँ सत्य की। उसको कोई खोजने निकलेगा तो कुछ नहीं मिलेगा। वृत्तियों को मैं भीतरी मानता ही नहीं, वृत्तियाँ तो बाहरी ही हैं न। तो वृत्तियों को देखना और संसार को देखना एक ही बात है। दोनों बाहरी चीज़ें हैं।

प्र: पर इसी मतलब इस बात को कम्यूनिकेट (सम्वाद) कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। तो इसीलिए एक संकोच कहिए या थोड़ा एक नकारात्मक रुख भी हो जाता है कि नहीं, पता नहीं, नहीं समझ पाएँगे। तो उसमें थोड़ा हौसला कम हो जाता है। मतलब मैं...

आचार्य: देखिये, जब मैंने लोगों से बात करनी शुरू करी थी तो मुझे ऐसा कोई हौसला नहीं था कि लोग समझ ही लेंगे। बात हौसले की नहीं होती। बात आवश्यकता की होती है, अनिवार्यता और प्रेम की होती है। लोग समझना नहीं चाहते, ये बात मुझे तब भी पता थी और आज तब से ज़्यादा पता है। लोग समझने लगते हैं तो स्वयं ही अपनी समझ को रोक देते हैं, क्योंकि समझना खतरनाक है। ये शायद तब मैं बहुत नहीं जानता था, आज बिलकुल स्पष्टतया जानता हूँ।

तो इस आश्रय पर काम नहीं किया जाता कि सामने वाला समझ ही लेगा, समझ ही लेगा। क्या पता समझेगा, नहीं समझेगा, मुझे क्या मालूम। अभी अपने साथ दो सौ लोग जुड़े हुए हैं। कितने समझ रहे हैं, कितना समझना ही नहीं चाहते। मुझे क्या पता? लेकिन आवश्यक है कि कोशिश की जाए। विकल्प क्या है? कोशिश नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे? तो आदमी इसलिए काम करता है।

परिणाम की आशा से काम नहीं किया जाता। मान लीजिये पता ही चल जाए कि परिणाम कुछ नहीं आना, तो कोई और काम कर लेंगे क्या। जो सही काम है वो तो करना ही है न, परिणाम कुछ आये, आये, न आये, क्या करेंगे हम। हाँ, इतना है कि जब आपका पक्का होता है इरादा, और आपको साफ़ पता होता है कि ये काम करने लायक है, चीज़ समझाने लायक है। और आपको बार-बार असफलताएँ मिलती हैं, तो आप फिर इन्हीं प्रयोगों से, नये-नये तरीके ढूँढ लेते हैं।

हर असफलता से आपको अपने विरोधी, अपने दुश्मन के बारे में कुछ और पता चलता है नया। कि अच्छा! वो ऐसा भी दाँव खेलता है। अच्छा! मैं ऐसा करता हूँ तो वो ऐसा कर लेता है। तो हर प्रयोग आपको और बेहतर स्थिति में ला देता है अगली जीत के लिए, अगले सफल प्रयोग के लिए।

प्र: आध्यात्मिकता में जैसे अपने ऊपर काम करने को लेकर हम कोई संकल्प उठाते हैं। तो ये जो संकल्प हम लेते हैं वो संकल्प अपनी समझदारी से आ रहा है या किसी एक्स्टरनल इन्फ्लुएंस (बाहरी प्रभाव) की वजह से या मतलब आत्मविश्वास है इसमें कहीं। ये कैसे पता चलेगा। मतलब वो संकल्प बस इतना पता होना ज़रूरी है कि वो संकल्प ज़रूरी है बस। और इसके आगे वो संकल्प सही भी है, या नहीं है।

आचार्य: वो संकल्प इनमें से किसी भी स्रोत से नहीं आना चाहिए। किसी भी संकल्प का सही स्रोत अपना दुख होता है। आपको पता होना चाहिए कि आपका दुख कहाँ पर है, आपकी पीड़ा, बन्धन कहाँ पर है। वो संकल्प वहाँ से आता है। और उसके बाद कौनसी दुविधा रह जाती है कि ये संकल्प ठीक है या नहीं। दुख आपका स्वभाव नहीं। दुख से मुक्ति आपको चाहिए ही है। तो अगर आप दुख से मुक्ति का संकल्प ले रहे हैं, तो उसमें दुविधा क्या बची कि अरे! पता नहीं ठीक है कि नहीं है।

कैसे ठीक नहीं है? दुख को मिटाना गलत कैसे हो सकता है। जब आनन्द के बिना हम छटपटाते हैं, तो आनन्द तक पहुँचना गलत कैसे हो सकता है। बाकी जितनी बातें आपने बोलीं, वो काम नहीं आएँगी। कोई बाहरी व्यक्ति बोल रहा है, ‘फलाना संकल्प ले लो।’ आप ले लेंगे। कोई दूसरी आवाज़ आएगी बाहर से, वो कहेगी, ‘नहीं, पुराना संकल्प बेकार है।’ आप उसको त्याग देंगे।

इसी तरीके से कोई मानसिक लहर चलेगी, जो कहेगी कि आज ऐसा संकल्प उठा लो, आगे ऐसे करेंगे। आप कर लेंगे, फिर कुछ दिनों बाद फिर छोड़ देंगे। आज क्या २३ जनवरी है, बहुत लोगों ने १ जनवरी को संकल्प उठाये होंगे और अभी तेईस दिन में ही वो ध्वस्त भी हो गये होंगे। तो वो सब इसीलिए होता है क्योंकि हमें हमारे दुख की पहचान ही नहीं होती।

हम वातावरण को देखकर, बाहरी प्रभावों के तले कोई संकल्प कर लेते हैं। या भीतर से कोई ऐसी लहर उठी, कोई किसी क्षण का आवेग था और उसमें आकर के हमने कोई बात सोच ली। खुद से कोई वादा कर लिया और कह दिया कि ये तो मेरा अब संकल्प है। ये सब चीज़ें नहीं हैं। सबसे पहले अपने दुख की साफ़ पहचान होनी चाहिए। और ये साहस होना चाहिए स्वीकार करने का कि यहाँ मैं बन्धन में हूँ। देखिये, यहीं पर अटकते हैं सब।

हम मानते ही नहीं हैं कि फलानी चीज़ मेरा बन्धन है। क्योंकि ये मानना खतरनाक हो जाता है न। मान लेना कि बन्धन में हो, उसी क्षण संकल्प का जन्म हो जाता है। और वो संकल्प फिर अनिवार्य बन जाता है

हम उस अनिवार्य संकल्प का जोखिम उठाना नहीं चाहते। हम उतने श्रम को अपने लिए अनिवार्य बनाना नहीं चाहते। तो हम एक बहुत सस्ती तरकीब लगाते हैं अपने ऊपर। हम कहते हैं, ‘हम मानेंगे ही नहीं कि समस्या है।’ जब हम मानेंगे ही नहीं कि समस्या है, तो समाधान के खतरे उठाने ही नहीं पड़ेंगे।

कौन माने कि समस्या है। सब ठीक है। मान लिया कि गाड़ी खराब है, तो बनवानी पड़ेगी या नयी लेनी पड़ेगी। सबसे अच्छा है कि मानो ही मत कि कुछ खराब है।

प्र: जो चीज़ विवेक से उठती है। मतलब डिस्क्रेशन (विवेक)। मतलब अपनी समझदारी से जो उठ रही है, तो वही सही है।

आचार्य: मैंने कहा, ‘जो चीज़ आपके दुख से उठ रही है, सिर्फ़ वही आपको सही रास्ता दिखा सकती है‌।’ अपने मूल दुख पर उँगली रखने का साहस दिखाएँ। मूल दुख, ये दुख नहीं कि—दुख भी बहुत सारे क्षणिक होते हैं, कि आये और चले गये, उनको लेकर के संकल्प नहीं किये जाते। जो आपका मूल दुख है उसको पहचानिए, जो बना ही रहता है पार्श्व में लगातार।

स्थितियाँ आती रहती हैं, सुख भी आते रहते हैं। लेकिन उन सुखों के पीछे भी एक दुख है जो बना ही रहता है पीछे। उसको पहचानिए और उसको मिटाने का संकल्प लीजिये। ये संकल्प चिरस्थायी होगा, क्योंकि वो दुख भी स्थायी है। ये संकल्प आपका चलेगा, ये लम्बा चलेगा। और ये संकल्प जब मिटेगा तब इसका मिटना शुभ होगा, क्योंकि इस संकल्प के मिटने का मतलब होगा कि दुख भी मिट गया।

प्र: धन्यवाद आचार्य जी।

YouTube Link: https://youtu.be/8yGkEx8oxjs

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