इस एक चीज़ पर मरते हैं सब || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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इस एक चीज़ पर मरते हैं सब || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। अध्यात्म के बारे में या उपनिषद मैंने पढ़े नहीं हैं लेकिन जितना आपसे समझ आता है, उसको मैं अपने जीवन में लाने की कोशिश करता हूँ। मगर अब परेशानी ये है — पहली चीज़ पढ़ाई से संबंधित है, मैं किसी विषय में कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं अपने काम से संतुष्ट हूँ, मैं ठीक-ठाक काम कर लेता हूँ, इस संदर्भ में कि मैं अपने काम से खुश हूँ।

मगर मैं अभी जितना कर पा रहा हूँ, उससे ज़्यादा करना चाहता हूँ। जब मैं अपने सहकर्मी को देखता हूँ तो पाता हूँ कि उसका झुकाव पैसों की तरफ़ है अर्थात पैसा उसके लिए प्रेरणा-शक्ति है, तो वो उसके पीछे पागलों की तरह काम करता है। मेरे खुद के लिए ऐसी कोई केंद्रीय चीज़ नही है; तो किसी दिन पढ़ाई अच्छी हो जाती है, जैसे कभी लगातार दो-दिन तक पढ़ लिया, या फिर कभी ऐसा होता है कि एकदम ही पढ़ना छूट जाता है। तो इस परेशानी को कैसे हल किया जाए?

आचार्य प्रशांत: देखो वही समस्या आ जाती है न। जिनका धर्म पैसा है, वो अपने धर्म के लिए बड़ी निष्ठा रखते हैं, और जो सच्चाई का नाम लेते हैं, उनमें अपने धर्म के लिए निष्ठा नहीं है; इसीलिए सारी सत्ता, सारी ताक़त उन लोगों के पास है। कभी तुम एक मेकेनाइज़्ड स्लॉटर-हाउस (यंत्रीकृत कसाईखाना) को देखना, क्या ज़बरदस्त उसकी व्यवस्था है; उन लोगों को पैसा चाहिए और उस पैसे के लिए उन्होंने इतना शानदार सिस्टम (प्रणाली) बनाया हुआ है। हॉर्वर्ड के एमबीएज़ उसको संचालित कर रहे हैं, उसकी एफिशिएंसी (दक्षता) ज़बरदस्त है, जस्ट इन टाइम सारा उसमें प्रॉसेस चल रहा है।

और फिर तुम जाओ, किसी आश्रम को देख लो, वहाँ की अव्यवस्था देखो। जो लोग पैसे के पुजारी हैं, जो पाप के पुजारी हैं, वो इतने समर्पित हैं अपने पूज्य को, कि जमकर काम करते हैं, पूरी मेहनत करते हैं। केएफसी बहुत वेल-रन (अच्छा चलने वाला) आर्गेनाइजेशन (संगठन) है, और काम क्या है उनका? मुर्ग़ा मारना। और बहुत स्मूथ (निर्बाध) उसका मैनेजमेंट (प्रबंधन) है, क्या प्रोफेशनलिज़्म (व्यावसायिकता) है! और क्या उनके पास ताक़त है! पॉलिटिकल क्लाउड (राजनीतिक ताक़त) भी रखते हैं वो, ऐसे ही नही आप एमएनसी बन जाते।

और दूसरी ओर धार्मिक संस्थाएँ हैं, लुचुर-पुचुर, कोई दम नहीं, कोई दिलासा नहीं। यही समस्या है न। आप भी देखो न, आप यहाँ आए, अच्छी बात है, लेकिन आप अपने-आपसे पूछिए — आपके मन का, जीवन का कितना प्रतिशत इस काम की ओर, इस संस्था की ओर या सच्चाई की ओर समर्पित है? आप यहाँ जैसे भी हो, आप अभी कल से जा कर के बहुत वफ़ादार कर्मचारी बन जाओगे, एकदम आज्ञाकारी। यहाँ पर आप बोल सकते हो कि “मैं सुबह की मॉर्निंग एक्टिविटी में नही गया,” वहाँ पर बिल्कुल समय पर जा कर कार्ड स्वाइप करोगे; यही समस्या है।

अधर्म के पास इतना आकर्षण है और इतनी ताक़त है कि वो सबको आज्ञाकारी बना लेता है और एक सुचारू व्यवस्था चला लेता है; कोई उसके साथ चीं-चपड़ नहीं करता, कोई आवाज़ नहीं उठाता, सब चुप-चाप पीछे-पीछे उसका अनुसरण कर लेते हैं। जब धर्म की बात आती है, तो वो फिर ऐसा हो जाता है, कि “हाँ ठीक है, हमने अपने जीवन का दो प्रतिशत धर्म को दे दिया न, बहुत है।" दो प्रतिशत आप किसको दे रहे हो? धर्म को; तो अट्ठानबे प्रतिशत किसको दे रहे होगे? अधर्म को; तो अब समझ रहे हो न, कि दुनिया में कौन जीत रहा है और क्यों।

आप ही देख लीजिए न, कि आपने-अपने समय का, जीवन का, अपनी शक्ति का कितना प्रतिशत किधर लगा रखा है। पैसे की पूजा करते समय हम बिल्कुल सुपर एफिशिएंट (अतिकुशल) हो जाते हैं, और क्या हमारा कॉनसन्ट्रेशन (एकाग्रता) होता है; सच्चाई की बात करते समय हम बिल्कुल लुंज-पुंज पड़ जाते हैं।

साहस दिखाना होगा! साहस का तो कोई विकल्प ही नहीं है न। बातचीत कर्म का विकल्प नहीं हो सकती, कुछ चीज़ें तो सीधे-सीधे कर के दिखानी होती हैं।

ये आप ग़ौर करिएगा, ख़ुद ही देखिएगा, कि जो काम जितना गिरा हुआ होता है वो काम उतना ज़्यादा निष्ठा के साथ कर रहे होते हैं लोग, और ऊँचे-से-ऊँचा काम बदहाली में चल रहा होता है। ये हमारे मूल्यों का खेल है। काम गिरा हुआ होगा भले ही, पर उसमें मिल जाता है पैसा, तो उसको हम बिल्कुल जान लगा कर करते हैं, डेडिकेटेड एम्प्लॉयी (समर्पित कर्मचारी) बन कर। कितना मज़ा आता है जब तमग़ा मिल जाता है, “स्टार एम्प्लॉयी ऑफ़ द क्वॉर्टर।” और उस काम में हमारे घर वाले और हमारी स्थितियाँ भी सहायक होती हैं; आपके माता-पिता, घर के लोग कोई आपको नहीं रोकेंगे।

आपकी अभी कोक-पैप्सी में नौकरी लग जाए, घर वाले कितने खुश हो जाएँगे, आपके पति या आपकी पत्नी बिल्कुल नाचने लगेंगे, कहेंगे, “देखो, एमएनसी में नौकरी लग गई, पैसा मिलेगा!" क्या फ़र्क पड़ता है कि वो ऐसे ही कुछ फ़ालतू की चीज़ बेच रहे हैं, लेकिन उसमें आपको स्थितियों का भी पूरा सहयोग मिलेगा। वहाँ पर आपको दफ़्तर जाने के लिए आपकी श्रीमती जी या श्रीमान जी खुद जगाएँगे, "अरे! उठो-उठो ऑफिस जाओ, कोक में नौकरी कर रहे हो, जाओ-जाओ।“ “केएफसी में नौकरी कर रहे हो, जाओ न!”

अब क्या फ़र्क पड़ता है कि आप केएफसी में नौकरी करते हैं या केएफसी का जिसने सॉफ़्टवेयर बनाया, उस सॉफ़्टवेयर फ़र्म में नौकरी करते हैं। सॉफ़्टवेयर भी आप किसी दूसरी कम्पनी के लिए ही तो बनाते हैं। वो कम्पनी कौन-सा पुण्य का काम कर रही होगी, जिसके लिए आप सॉफ़्टवेयर लिखते हो बड़ी ईमानदारी से, स्वामी भक्त बन कर? लेकिन उस काम में सब सहायक हो जाते हैं, और आप भी एकदम, “यस सर, श्योर सर, व्हाई नॉट सर, ऑफ़कोर्स सर।"

और जब अध्यात्म की बात आती है तो? (विचारमग्न होने का अभिनय करते हुए) "आप मुझे थोड़ा और कन्विंस (आश्वस्त) करिए, अभी हमें पूरा भरोसा नही हुआ।' “ओह हो! या, यू आर ऑलमोस्ट देयर, बट (आप लगभग करीब हैं पर) दाल में कुछ काला है।" बॉस के सामने तो ज़बान नहीं चलती, मुँह नहीं खुलता; उपनिषदों के सामने कहते हैं, "या-या, दे आर राइट, बट यू नो दे स्पेकुलेट अवे टू मच।" (हाँ-हाँ, ये ठीक हैं, पर ये कल्पना बहुत करते हैं) वो पैसा नहीं देते न। कभी उनमें भी लगाओ स्क्रैच एन विन लॉटरी (खरोंचो और जीतो)। श्वेताश्वतर उपनिषद के ऊपर ऐसे स्क्रैच करो, तो लकी ड्रा निकलेगा; खटा-खट, खटा-खट (बिकेगा)।

और ऐसा नहीं है कि सही काम में पैसा नहीं है; बस बात इतनी-सी है कि इस वक़्त जिनके पास पैसा है वो सब ग़लत लोग हैं। पैसा ताक़त है, पैसे को भी सही लोगों के हाथ में आना होगा। ये बहुत आपने भ्रामक छवि बना रखी है, कि अगर मैं अच्छा आदमी बन गया तो भूखों मरूँगा, ये तोड़ना पड़ेगा। अच्छे बन कर सफल हो कर दिखाइए; सही काम करके पैसा अर्जित कर के दिखाइए। मुझे अच्छा नहीं लगता, लोग आते हैं, कहते हैं, "पहले मैं नौकरी कर रहा था और मेरे पास पैसा बहुत था, लेकिन मेरे पास शांति नहीं थी। अब मैंने नौकरी छोड़ दी है, अब मैं भिखारी हूँ, पर मेरे पास शांति बहुत है आचार्य जी, ये आपकी शिक्षाओं से हुआ है।" मैंने कहा, "मेरा नाम मत लेना इसमें! भिखारी कहीं का! निकल यहाँ से!" मैं आपसे कह रहा हूँ कि जहाँ सत्य है वहाँ शक्ति को होना चाहिए, और आप कह रहे हैं कि "नहीं-नहीं-नहीं, मैं तो...।" आप भी तो इसी सिद्धान्त को सत्य साबित कर रहे हैं न, कि “घटिया काम में ही पैसा है, और जब मैंने घटिया काम छोड़ दिया तो अब मेरे पास कुछ नहीं है।"

मुश्किल होगा, मैं मानता हूँ, लेकिन उतना भी मुश्किल नहीं है; इट्स वर्थ इट (ये इस लायक है) कोशिश करिए, थोड़ा ज़्यादा मुश्किल होता है, लेकिन हो सकता है। जितना कर सकते हैं उतना तो करिए। और एक बात भूलिएगा नहीं, हर आदमीं के भीतर आपका एक दोस्त है, उसको आत्मा कहते हैं; आप अगर सही काम कर रहे हो तो आपके बहुत सारे दोस्त हैं। तो इतने भी अकेले नहीं आप कि कहो कि अरे! सब लोग कर रहे हैं (गलत काम), द क्राउड विल विन (भीड़ जीत जाएगी)।

दुनिया की हर भीड़ के भीतर आपका एक दोस्त है; आप काम इस तरह से करिए कि उसको जागृत कर सकें। क्यों महाकाव्यों में यही सब जीतते हैं हमेशा? रावण, कंस, दुर्योधन, शिशुपाल, यही जीतते हैं क्या? और कृष्ण भिखारी थे, कि राम भिखारी थे? गौतम बुद्ध के पास बल नहीं था? बोलिए न? आचार्य शंकर के पास बल नहीं था? तो किसने कह दिया कि सच्चाई के पास ताक़त नहीं हो सकती? हमने तो बार-बार देखा है कि सच ही जीतता है; आपका इरादा होना चाहिए। आपने इरादा ही बना लिया है झूठ को जिताने का, आपने ही सिनेसिज़म (गलत धारणा) पकड़ लिया है, तो फिर सच कैसे जीतेगा?

हमें तो कहा जाए कि एक कहानी लिखो रामायण की और बच्चों को सुनाओ, तो हम तो यही सुनाएँगे, “रावण हैड द फ़ायर पॉवर (रावण के पास अग्नि-शक्ति थी), रावण हैड द गोल्ड (रावण के पास सोना था), रावण हैड द आर्मी (रावण के पास सेना थी), रावण वाज़ द सुपरस्टार (रावण महानायक था), रावण वाज़ द सुपर पावर ऑफ़ दैट टाइम (उस समय रावण सबसे शक्तिशाली था)।“ आप सोचिए न, आपको बताया न गया होता कि राम-रावण की लड़ाई में कौन जीतता, और आपको बस बता दिया गया होता कि रावण की ऐसी स्थिति है और राम की ऐसी स्थिति है, तो आप तत्काल क्या निष्कर्ष निकालते, कौन जीता? रावण। लेकिन नहीं होता ऐसा, राम जीत सकते हैं, आप पहले से ही हतोत्साहित मत हो जाइए। आपने तो हथियार डाल रखे हैं, कि रावण ही तो जीतेगा, और ज़िंदा रहने के लिए पालतू होना ज़रूरी है।

धूमिल की पंक्ति है, "ऐसा नहीं है मैं ठंडा आदमी हूँ, मेरे भीतर भी आग है, पर उस आग के चारों ओर चक्कर काटता एक पूँजीवादी दिमाग़ है, जो बात को कभी क्रांति की हद तक आने नहीं देता।" आग सबके भीतर है, आत्मा है उस आग का नाम, और वो आग जीतती भी है; आप बस डरे बैठे हैं, “नहीं-नहीं, नहीं-नहीं,” आप प्रोपेगैंडा (दुष्प्रचार) का शिकार हैं।

कम-से-कम जिन लोगों के पास अभी लाइबिलटीज़ (देनदारियाँ) नहीं हैं, मैं उनसे कह रहा हूँ, "तुम मत बिक जाओ।" जो लोग तीस-पैंतीस, पैंतालीस पार कर गए, वो तो कहते हैं, "अब क्या करें? घर में बच्चे हैं और मकान की ईएमआइ (किश्त) है," इस तरह की बातें करते हैं। तुम्हारे पास अभी वो सब-कुछ नहीं है; तुम ये भरोसा रखो कि सही ज़िंदगी भी जी जा सकती है, भिखारी नहीं होना पड़ेगा। साफ़-सुथरा जीवन जी कर के भी पैसा कमाया जा सकता है; सम्मान भी पाया जा सकता है, ताक़त भी पायी जा सकती है, जीता जा सकता है। तो तुम ग़लत जगह घुटने मत टेक देना।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=xQ6oa08eho4

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