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लेख
इन्द्रियों के पीछे की इन्द्रिय है मन || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक देव पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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वजाइया वाजा पउण नउ दुआरे परगट कीए दसवा गुपतु रखाइआ।। ~ नितनेम (अनंदु साहिब)

आचार्य प्रशांत: ‘आनन्द साहिब’ से है कि उसने शरीर के वाद्य यन्त्र में साँस फूँकी और नौ द्वार खोल दिये लेकिन दसवें को छुपाकर रखा। दसवाँ द्वार कौनसा है? कौनसा हो सकता है दसवाँ द्वार? मन का है। नौ द्वार हैं शरीर के जो बाहर की ओर खुलते हैं, हम सब जानते हैं। ठीक है न? जिनको आप कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ बोलते हो। नौ द्वार हैं जो बाहर की ओर खुलते हैं। एक दसवाँ दरवाज़ा भी है जो भीतर की ओर खुलता है, वो छुपा हुआ रहता है। बस इतनी ही बात कह रहे हैं।

शरीर में जो कुछ है वो संसार के होने का आभास कराता है। वो नौ दरवाज़े हैं जो बाहर की ओर खुलते हैं। शरीर क्या है? शरीर वो जो संसार के होने का आभास कराये। शरीर का हर दरवाज़ा संसार से संयुक्त है — आँखें, ज़बान, नाक, हाथ, जननेन्द्रियाँ, त्वचा, सबकुछ। ये क्या करते हैं? ये संसार के रिसेप्टर्स (ग्राही) हैं, एंटीना (आकाशी तार) हैं ये कि संसार से सिग्नल (संकेत) आ रहे हैं और ये — अब संसार से सिग्नल (संकेत) आ नहीं रहे हैं, ये संसार क्रिएट (निर्मित) करते हैं।

हमारी चूक ये होती है कि हम कहते हैं कि संसार है, उसका कोई ऑब्जेक्टिव एग्ज़िस्टेंस (वस्तुनिष्ठ अस्तित्व) है और उससे जो सन्देश आते हैं, वो आँखें पकड़ती हैं। हमें यही लगता है न कि आँख बन्द भी कर लो तो भी दुनिया तो है ही है। और सबकुछ इसी बात की गवाही देता है कि आँख न भी रहे तो दुनिया रहेगी। बात बिलकुल झूठी है। आँखें न रहें तो दुनिया नहीं रहेगी क्योंकि दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नहीं है।

दुनिया क्या है? कुछ है नहीं। जो आँखें दिखाती हैं उसका नाम दुनिया है। ये न कहिए कि आँखें दुनिया को दिखाती हैं। सूक्ष्म अन्तर है, समझिएगा। आँखें दुनिया नहीं दिखातीं, जो आँखें दिखाती हैं वो दुनिया है। नहीं समझे? आँखें दुनिया नहीं दिखातीं, जो आँखें दिखाती हैं वो दुनिया है। आँखें न रहे तो दुनिया नहीं रहेगी। कई बार यहाँ कह चुका हूँ कि दुनिया में कोई न रहे देखने वाला, तो सूरज नहीं उगेगा। ये बात काउंटर इंट्युटिव (अन्तः प्रज्ञा के विपरीत) लगती है, बहुत अजीब लगती है कि ऐसा कैसे हो जाएगा, देखने वाला नहीं रहेगा तो सूरज नहीं उगेगा?

हाँ भाई, नहीं उगेगा। क्योंकि सूरज है ही नहीं। सूरज जैसी कोई चीज़ नहीं है, सूरज क्या है? जो आँखें दिखाती हैं वो सूरज है। सूरज का अपना कोई अनाश्रित अस्तित्व नहीं है। उसका कोई अपना ऑब्जेक्टिव, फ़्री, इंडिपेंडेंट एग्ज़िस्टेंस (वस्तुनिष्ठ, स्वतन्त्र अस्तित्व) नहीं है। पर ये बात बहुत भयानक लगती है।

प्रश्नकर्ता: सर, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हो गयीं। बाक़ी चार कौनसी हैं?

आचार्य: जब ज़बान का इस्तेमाल करते हो स्वाद के लिए तब तुम उसको बोलते हो कि कर्मेन्द्रिय है। जब ज़बान का इस्तेमाल करते हो बोलने के लिए तब वो दूसरी इन्द्रिय बन जाती है। उसके अलावा तुम फिर द प्वाइंट ऑफ़ एक्सक्रीशन (गुदा द्वार), द प्वाइंट ऑफ़ रिप्रोडक्शन (जननेन्द्रियाँ) इनको भी जोड़ देते हो, तो ऐसे करके चार और जुड़ जाती हैं। तो तुम अपनी पाँच इन्द्रियों की बात करते हो तो उसमें तुम गुदा द्वार, जननेन्द्रियाँ इनको नहीं जोड़ते हो कि उनको भी जोड़ देते हो?

क्वेश्चन इज़ नॉट टू मच अबाउट काउंटिंग देम, द क्वेश्चन इज़ अबाउट सीइंग दैट द बॉडी एज़ एन इंस्ट्रुमेंट हैज़ एवरीथिंग दैट इज़ रिलेटेड टू द वर्ल्ड। यू कैन काउंट एट ऑर यू कैन काउंट एलेवन, दैट डज़न्ट मैटर। एट ऑर एलेवन, इट इज़ ऑल इन रिलेशन टू द वर्ल्ड, इन रिलेशन टू द ऑब्जेक्ट, बट देयर इज़ ओन्ली वन सेन्स दैट टर्न्स विदिन (प्रश्न उन्हें गिनने का नहीं है, प्रश्न ये देखने का है कि एक साधन के रूप में शरीर में वो सबकुछ है जो संसार से सम्बन्धित है। आप आठ गिन सकते हैं या ग्यारह गिन सकते हैं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आठ या ग्यारह, ये सब संसार के सम्बन्ध में है। वस्तु के सम्बन्ध में लेकिन एक ही भाव है जो भीतर की ओर मुड़ता है)।

'आनन्द साहब' में कहा जा रहा है कि उसको उन्होंने छुपा दिया — “दसवा गुपतु रखाइया।” नौ दिखा दिये हैं, दसवाँ गुप्त है। संन्यासी कौन है? जिसने इस गुप्त को खोज निकाला। नौ तक तो सभी जाते हैं, पैदा होते ही नौ तक सब चले जाते हैं। दसवें तक जो पहुँच गया, उसने सत्य को जान लिया। दसवें तक जो पहुँच गया, उसने जान लिया सत्य को।

श्रोता: उसने मन को जान लिया।

आचार्य: उसने मन को जान लिया। ये नौ ही मन है, दसवाँ वो बिन्दु है जहाँ से तुम मन को देखते हो जो साक्षी हो गया। ये जो नौ हैं, ये मन हैं और दसवाँ वो बिन्दु है जहाँ से मन को देखते हो। साक्षी होने का मतलब होता है राजा हो जाना क्योंकि अब मैं जान गया तुझे। अब तेरा ग़ुलाम नहीं रह सकता। ओशो बार-बार जो कहते हैं, 'संन्यास भोग की कला है’, बहुत बेहतरीन वक्तव्य है। संन्यासी के अलावा और कौन भोग सकता है? हमारी हालत तो वो रहती है न जो भर्तृहरि ने कहा था कि तुम भोग को नहीं भोगते, भोग तुम्हें भोगता है।

संसारी कौन? भोग जिसे भोग ले। और संन्यासी कौन? जो भोग को भोग ले। बस यही अन्तर है दोनों में, संन्यासी और संसारी में। भोगते दोनों हैं। संसारी वो जिसे भोग भोग ले। समझ रहे हो बात को? जो निकले तो भोगने, शिकारी ख़ुद यहाँ शिकार हो गया। और संन्यासी कौन? जो भोग को भोग ले, यही अन्तर है, वो जान जाता है पूरा हिसाब-किताब।

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