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लेख
फ़िल्में, टीवी, मीडिया, और आज का पतन || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
28 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आज के समय में व्यक्ति के पतन में फ़िल्मों और टेलीविज़न की बहुत बड़ी भूमिका नज़र आती है। कृपया इस विषय पर कुछ कहें।

आचार्य प्रशांत: बस एक चीज़ है जो अध्यात्म की सबसे बड़ी दुश्मन है, वो है - प्रचलित संस्कृति। और प्रचलित संस्कृति का वर्तमान में सबसे बड़ा वाहक है - सिनेमा। तुम्हें जो भी कुछ सिखा रहा है, यकीन मानो वो सिनेमा सिखा रहा है। और ये भी मत कह देना कि, "सिनेमा तो समाज का दर्पण है तो सिनेमा वही दिखा रहा है जो समाज में पहले से मौजूद है", — ग़लत बात। समाज में बहुत कुछ मौजूद है, सिनेमा सब कुछ नहीं दिखाता। सिनेमा भले ही वो सब चीज़ें ही दिखाता हो जो समाज में मौजूद हैं, पर सिनेमा उनमें से कुछ चीज़ें चुन-चुन कर दिखाता है जो तुम्हें उत्तेजित और आकर्षित करती हैं।

समाज में तो संत भी हैं, मुझे बताना संतों पर कितनी पिक्चरें बनती हैं? जो लोग कहते हैं न अगर सिनेमा बुरा है तो इसका कारण यह है कि समाज बुरा है, सिनेमा तो बस वही दिखा रहा है जो समाज में है। समाज में क्या कबीर और रैदास नहीं हैं? तुम्हारी पिक्चरों में कबीर और रैदास का ज़िक्र भी कितनी बार आता है?

तुम्हें बर्बाद करने में अगर एक चीज़ का सबसे बड़ा योगदान रहा है, तो वो है - फ़िल्में और टी.वी.।

ये बात मैं घर के बड़े-बूढ़े की तरह नहीं कह रहा, जो ऊब जाता है टी.वी. की आवाज़ से। यह बात मैं बहुत ध्यान और विचार के बाद कह रहा हूँ। हम सब की चेतना हमारी चेतना है ही नहीं; हमारी चेतना फ़िल्मी है।

तुम सब ने बहुत कुछ सीख रखा है और बहुत तुम्हारी धारणाएँ हैं, और तुम्हारी वो सब धारणाएँ टी.वी. और सिनेमा से आ रही हैं। तुम भले अपने आप को शिष्य नहीं मानते हो, लेकिन तुमने गुरु बहुत बना रखे हैं। और तुम्हारे गुरु यही सब हैं जो फ़िल्मों के परदे पर नज़र आते हैं, जो पर्दे के पीछे हैं—पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक और ये फ़िल्मी कलाकार, जो कि कलाकार भी कम ही हैं, उनमें से अधिकांश तो जिस्मों के सौदागर हैं। अधिकांश का गुण यह नहीं है कि उन्हें अभिनय की कला आती है, उनमें से अधिकांश का गुण यह है कि उन्होंने अपना जिस्म कामुकता की दृष्टि से उत्तेजक बना रखा है। अगर बात सिर्फ़ अभिनय कला की होती, तो उनमें से बहुत सारे हैं जो कहीं नज़र नहीं आते।

तुम्हें पता भी नहीं है कि जिनको तुम 'अपने' विचार कहते हो, वो वास्तव में 'फ़िल्मी' विचार हैं। जिनको तुम 'अपनी' भावनाएँ बोलते हो, वो वास्तव में फ़िल्मों ने दी हैं तुमको; पर उन भावनाओं को लिए-लिए फिरते हो, उन भावनाओं को पोषण देते हो, उन्हीं भावनाओं पर जीते हो, मरते हो। यहाँ तक कि तुम्हारे चेहरे के जो भाव हैं, वह भी तुम्हारे नहीं है। तुम्हारे देखने का जो तरीक़ा है, ये जो टेढ़ी-तिरछी चितवन है, ये भी तुम्हारी नहीं है, तुमने फ़िल्मों से सीखी है। कभी-कभी तो तुम्हें देखकर के साफ़ बताया जा सकता है कि ये तुम किस फ़िल्म के किस दृश्य की नकल कर रहे हो। कभी-कभी तो तुम्हारी लिखी बात पढूँगा, व्हाट्सएप इत्यादि पर, और कहूँगा, "ये उन्नीस-सौ-सत्तासी में पिक्चर आई थी, उसकी अभिनेत्री ने मध्यांतर के ठीक पहले जो बोला था, वहाँ से आ रहा है।" और जिन देवी जी ने ये लिखकर भेजा है, उन्हें पता भी नहीं है कि वह सिर्फ़ नकल कर रही हैं, बेबसी में नकल कर रही हैं। उन्हें लग रहा है कि, "यह तो मेरे जज़्बात हैं, मेरे व्यक्तिगत जज़्बात हैं।"

कुछ व्यक्तिगत नहीं है। हमें सिखाने वाला, हमें संस्कारित करने वाला, हमारे भीतर मूल्य और धारणाएँ भरने वाला अगर अभी कोई एक सबसे बलशाली और प्रभावी संस्थान है, तो वो है - सिनेमा। वो सिनेमा हमारे उन्नयन का, हमारी तरक़्क़ी का भी वाहक बन सकता था, पर खेद की बात है कि वो हमें नर्क में धकेलने का कारण बना हुआ है। जो मूल्य सिनेमा के पर्दे पर दिखाए जाते हैं वो अति गर्हित मूल्य हैं।

जब तुम पिक्चर में कहते हो कि कोई हीरो है, नायक है, तो उसमें नायकत्व होना भी तो चाहिए न? हीरोज़्म होना भी तो चाहिए न? पर देखो, तुम्हारा हीरो वास्तव में कौन है - एक लुच्चा! ग़ौर से देखना कि जिनको तुम 'हीरो' कहते हो, उनके किस ऑन स्क्रीन परसोना (परदे पर पात्र) को तुम सबसे ज़्यादा पसंद करते हो - जब वो लुच्चे हैं, लफंगे हैं! और तुम बिलकुल बाग-बाग हो जाते हो, क्योंकि बुराई अच्छाई से ज़्यादा आकर्षित करती है हमेशा।

प्र: क्या ये व्यक्तिगत गुण है या सामान्य प्रवृत्ति?

आचार्य: ये हमेशा होता है। चूँकि हम अहम् हैं, इसीलिए हमें दुनिया के हज़ार दरवाज़े दिखाई देते हैं। वहाँ का (ईश्वर का) तो एक ही दरवाज़ा है न?

ज़्यादा हमेशा क्या है जो हमें आकर्षित करेगा? वो, जो भ्रामक है। उपस्थिति हमारे लिए ज़्यादा हमेशा उसी की रहती है। ‘हीरो’ एक पवित्र शब्द है, हर कोई नहीं हीरो हो जाता। 'नायक' का मतलब होता है वो जो तुम्हारा नेतृत्व कर सके। 'नायक' का मतलब होता है वो जिसको तुम आदर्श की तरह देख सको।

देखो तुम्हारी पिक्चरों में कौन नायक बना बैठा है! वो उसको नायक बना देते हैं, तुम उसका अनुकरण भी कर ले जाते हो। घटिया-से-घटिया आदर्श सामने रख रहे हैं तुम्हारे ये निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, नायक, नायिकाएँ, सब! तो कहना ही क्या! गिरे-से-गिरा जो आदर्श हो सकता है जीवन का वो तुम्हारे सामने रखा जा रहा है, और तुम अपनी बेहोशी में उसको पिए जा रहे हो, स्वीकार किए जा रहे हो।

कौन है तुम्हारा नायक? मुझे बताना कि ये जो तुम्हारे सबसे ज़्यादा प्रचलित हीरो हैं, इन्होंने श्रद्धा दर्शाता कोई पात्र अभिनीत किया है कभी? कर सकते भी हैं? बताओ मुझे? यहाँ बैठे हो तो तुम सब, कहते हो कि श्रद्धा सबसे ऊँची चीज़ है, तुम्हारे इन नायक-नायिकाओं ने किसी श्रद्धालु का कोई किरदार अदा किया है कभी? हाँ, अहंकार का ख़ूब किया है। “मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, मैं ऐसी हूँ, मैं वैसी हूँ, मैं ये कर दूँगी, मैं वो कर दूँगी।” फिर तुम्हें ताज्जुब है कि दुनिया में इतना अहंकार क्यों फैला हुआ है, क्योंकि जिनको तुमने अपना हीरो बना रखा है, जिनको तुम अपनी हीरोइन बोलते हो, वही ऐसे हैं। समाज का अधिक-से-अधिक ज़हर सिनेमाघरों से आ रहा है।

तुम्हारे बहुत सारे हीरो-हीरोइन तो ऐसे हैं जो कोई ढंग का किरदार अदा ही नहीं कर सकते। मुझे बताना तुम्हारे आज के कलाकारों में कौन है जो कबीर साहब का किरदार अदा भी कर पाए? कम-से-कम तुम्हारे जो टॉप के हीरो हैं, इनमें तो कोई भी नहीं है। तुम कल्पना भी नहीं कर पाओगे कि उनमें से कोई...

कबीर का किरदार अदा करने के लिए कबीर साहब की कुछ समझ तो होनी चाहिए। निर्देशक भी नायक को क्या बताएगा कि कबीर कैसे थे, जब कबीर से उसकी कोई समीपता ही नहीं। हाँ, उनकी समीपता लुच्चों और लफ़ंगों से है, तो ये वो बड़ी आसानी से बता देते हैं कि—लफंगई कैसे करनी है, बदतमीज़ी कैसे करनी है स्क्रीन पर, किसी की गाड़ी कैसे ठोकनी है, लड़की कैसे उठानी है, घूँसा कैसे मारना है, अश्लीलता कैसे करनी है—ये निर्देशक आसानी से बता भी लेते हैं, और नायक और नायिका आसानी से अभिनीत भी कर लेते हैं क्योंकि वो ऐसी ही दुनिया से आ रहे हैं। उनकी दुनिया में कबीरों की कोई जगह नहीं। इसीलिए तुम्हारी पिक्चरों में ना मीराबाई पाई जाएँगी, ना कबीर पाए जाएँगे, ना अष्टावक्र पाए जाएँगे, ना बुद्ध पाए जाएँगे, ना जीज़स पाए जाएँगे।

पश्चिम में तो फिर भी कोई पिक्चर बन जाए जिसमें जीज़स का कुछ नाम हो, भारत में तुम नहीं बना पाओगे कोई पिक्चर याज्ञवल्क्य के ऊपर, अरुणि के ऊपर, गौतम के ऊपर, भारद्वाज के ऊपर, कश्यप के ऊपर। तुम्हारे पटकथा लेखकों ने ये नाम ही नहीं सुने होंगे। वो दाऊद इब्राहिम पर पिक्चर बना लेंगे, क्योंकि उन्हें दाऊद इब्राहिम का सब कुछ पता है। वो उसी माहौल में रहे हैं। वही उनका चुनिंदा माहौल है। उनसे कहा जाए, “अष्टावक्र पर बना देना”, वो कहेंगे, “कौन सा वक्र?” उच्चारण भी नहीं कर पाएँगे। और तुम चले जाते हो इनकी पिक्चरों को सुपरहिट बनाते हो। सौ, दो-सौ, चार-सौ, आठ-सौ करोड़ का व्यापार कराते हो। साँप को दूध पिलाते हो।

ये कुछ दिखा रहे हैं पर्दे पर, ऐसा जो तुम्हारी चेतना को ऊँचाई दे? देखे जाते हो, देखे जाते हो। और कह देते हो 'मनोरंजन’—ये मनोरंजन नहीं है; ये मनोविकार है।

मनोरंजन ही है, असल में 'रंजन' शब्द का दो तरफ़ा अर्थ होता है; 'रंजन' का एक अर्थ होता है - खेल; रंजन का दूसरा अर्थ होता है - गंदगी। जब किसी चीज़ पर कोई दाग-धब्बा लग जाता है तो उसको कहते हो कि वो चीज़ रंजित हो गई। तो ये मनोरंजन ही है। ये मन को गंदा करने के काम हैं। और उनको आगे बढ़ाने का काम कर रहा है तुम्हारा बाकी का मीडिया। तुम कोई अभी न्यूज़ वेबसाइट खोल लो, उसमें हर तीसरी ख़बर में एक अर्ध-नग्न नारी का चित्र होगा-ही-होगा। और ऐसी-ऐसी नारियों की ख़बरें होंगी जिनका तुमने नाम नहीं सुना। पर उनका नाम तुम्हें बताया जा रहा है। उन नारियों को तुम्हारे लिए प्रासंगिक बनाया जा रहा है, जबकि उनसे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं।

तुमसे कहा जा रहा है, “ये है लेडी बेबी की नवीनतम बिकिनी।” इससे पहले तुम्हें पता भी नहीं था कि लेडी बेबी है कौन! ये कहाँ की देवी हैं जिनका हमें नाम ज़रूर पता होना चाहिए? पर तुमसे कहा जा रहा है, “क्या तुमने लेडी बेबी की नवीनतम बिकिनी तस्वीरें देखीं हैं?” या "लेडी बेबी की ये नवीनतम बिकिनी तस्वीरें आपके अंदर आग लगा देंगी।" तुम्हें पहले से ही पता है कि मुझे आग कैसी लगती है? तुम तो बड़े त्रिकालदर्शी हो भाई।

प्र: दस बातें जो आपको पता होनी चाहिए लेडी बेबी के बारे में।

आचार्य: "दस बातें जो आपको पता होनी चाहिए लेडी बेबी के बारे में।" मुझे पता होना चाहिए? दस बातों में तुमने कभी बताया कि भैया उपनिषद भी पढ़ लो, ध्यान भी कर लो, भजन भी कर लो? ये तुम कभी नहीं बताओगे कि "दस चीज़ें जो तुम्हें अवश्य करनी चाहिए", लेकिन “लेडी बेबी के बारे में दस बातें जो आपको पता होनी चाहिए।" दस नंगी तस्वीरें लगी रहेंगी और उसी के नीचे एक और ख़बर होगी, “लेडी बेबी ने ट्रोल्स को कैसे चुप किया!” क्योंकि किसी ने लेडी बेबी को बता दिया कि, "देवी जी, कपड़ों की कमी हो तो हम दे दें। एक-दो तस्वीरें, बस एक-दो कपड़े पहनकर भी खिंचवा दिया करिए।" किसी ने इतना लिख दिया लेडी बेबी को और ये दुनिया भर की स्त्रियों पर आक्रमण हो गया, ‘नारीवाद’ पर आक्रमण हो गया। तो लेडी बेबी उसका कुछ अध-कतरा जबाव लिखेंगी। और पूरा मीडिया लेडी बेबी के समर्थन में उतरेगा; “लेडी बेबी का सैवेज रेसपौंस कुछ ट्रोलर्स को!” तुम कहोगे, “यही तो ख़बर है! क्या ख़बरें हैं!”

अब चित्त वासना से नहीं भरेगा तो काहे से भरेगा? इसी की तो ख़ुराक भीतर जा रही है। तुम मुझे खोज के दिखा दो किसी न्यूज़ वेबसाइट पर जिद्दू कृष्णमूर्ति का नाम। वो नाम नहीं लेना चाहते। वो इन बातों को छुपा कर रखना चाहते हैं कि किसी को ख़बर ना लगे। वो एक-से-एक भद्दे और बेकार आदमी का नाम छापेंगे, बल्कि तुम जितने भद्दे, जितने बेकार और जितने ज़्यादा दूसरों को नर्क में डालने वाले हो, उतना वो तुमको और ज़्यादा प्रोत्साहित करेंगे।

बताना, किसी अखबार में तुमने रमण महर्षि का नाम आख़िरी बार कब पढ़ा था? या निसर्गदत्त का? ये साज़िश है, इसको समझो। यह जानबूझकर के उनके नामों को छुपा रहे हैं, दबा रहे हैं। जिनके नाम सबसे ऊपर होने चाहिए, ये उनके नामों को सामने नहीं आने देना चाहते हैं। और ये किनके नाम सामने ला रहे हैं? कोई आँख मार दे, उसको ये जी-जान से प्रमोट करेंगे। आँख मारी! पूरे ब्रह्मांड में हलचल मच गई, ऋषि जन, देवता जन, मुनि जन सब काँप उठे! “आँख मारी रे!” ये चीज़ें आगे बढ़ाई जा रही हैं।

एक देवी जी ने दीवाली पर एथनिक वियर के नाम पर ब्रा पहन कर फोटो खिंचा दी, पूरा मीडिया लगा है उनके समर्थन में, “ये तो तुम्हारी अभिव्यक्ति का अधिकार है। यही तो मौलिक स्वतंत्रता है।” और इनके बारे में कुछ कहना नहीं, नहीं तो हम कह देंगे कि, “तुम तो फेमिनिस्म के विरोधी हो। ख़बरदार जो तुमने मुँह खोला तो।” देवी जी दिखा रही हैं कि दीवाली के दिन श्री राम के अयोध्या आगमन का स्वागत वो कर रही हैं, और वो इतनी मदहोश हुई हैं श्री राम के प्रेम में, कि ब्लाउज़ भूल गईं। भक्तों की तो यही दशा होती है न? वो कुछ भी भूल जाते हैं। देवी जी चोली भूल आईं। और सिर्फ दो-चार मिलियन उनको लाइक्स मिल गए, पद्रह-बीस मिलियन फोलोअर्स मिल गए होंगे।

ब्रह्म और ब्रा में तुम्हें अच्छे से पता है कि क्या चुनना है!

बहुत-बहुत उत्कृष्ट साहित्य है जिसपर पिक्चरें बन सकती हैं। बहुत सशक्त माध्यम है सिनेमा और उसपर ऊँचे-से-ऊँचे काम होने चाहिए। और उसकी जगह वहाँ पर लफंगई चल रही है।

प्र: कहीं इसकी वजह हम लोग तो नहीं हैं?

आचार्य: नहीं, बिलकुल नहीं। तुम्हें क्या लगता है कि तुमको अगर कोई ऊँची चीज़ परोसी जाएगी तो तुम उसे देखोगे ही नहीं? ऐसा है क्या? अगर ऐसा है तो जब टी.वी. पर महाभारत आती थी तो सड़क पर कर्फ़्यू क्यों लग जाता था? कुछ अच्छा भी दिखाया जाएगा तो तुम देखोगे, पर दिखाने वाले की नियत तो होनी चाहिए न। उसके लिए तो ज़्यादा आसान तरीक़ा यही है कि कुछ वाहियात दिखा दो, लोग ज़्यादा आसानी से चंगुल में आ जाएँगे।

हाँ, एक बात ज़रूर है, बीच-बीच में जब कभी-कभार धार्मिक विषयों पर कोई फ़िल्म या सीरियल बनता भी है, तो वो इतना भद्दा बनाया जाता है कि जिनकी पहले धर्म में आस्था रही भी हो, उनकी भी आस्था ख़त्म हो जाती है वह सीरियल वगैरह देखकर के। अब क्या बोलूँ?

प्र: आचार्य जी, एक प्रकार का सिनेमा होता है जिसको तथाकथित कलात्मक सिनेमा कहते हैं।

आचार्य: वो कोई कला नहीं है। उस कलात्मक सिनेमा में भी अहंकार उतना ही प्रबल है। कई दफ़े तो जिसे तुम कलात्मक सिनेमा बोलते हो, वो तुम्हारे बाज़ारू, मेनस्ट्रीम सिनेमा से ज़्यादा घातक होता है।

मैं यहाँ पर सिनेमा के दो हिस्से इस आधार पर नहीं कर रहा हूँ कि व्यावसायिक पिक्चरें कौन सी हैं और कलात्मक पिक्चरें कौन सी हैं। विभाजन का आधार मैं कला और कला की अनुपस्थिति को नहीं रख रहा हूँ। विभाजन का आधार मैं अहंकार की उपस्थिति को रख रहा हूँ।

ये भी एक भ्रांति है कि जो पैरेलल सिनेमा है, जो तथाकथित आर्ट मूवीज़ हैं, इनमें कुछ खास होता है। ये और ज़्यादा भद्दी होती हैं। हाँ, इनके कलाकारों में बड़ा अहम् होता है कि, “हम असली कलाकार हैं!"

प्र: आजकल ‘बिग बॉस’ नामक एक नाटक बहुत प्रसिद्धि पा रहा है। मेरे मित्रगण आधी रात को दस या बारह या कभी-कभी दो बजे तक इसे देखते हैं। समझ में नहीं आता कि लोग इसे क्यों देखते हैं। इसमें तो बहुत कचरा है। सारे क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्धि पा रहा है।

आचार्य: अब क्या करें? मैं तो चाहता हूँ कि इस पूरे सिनेमा को ज़बरदस्त चुनौती दूँ। मैं तो चाहता हूँ जिन लोगों को उसकी लत लग चुकी है, नशे में गिरफ़्तार हो चुके हैं, उनको किसी तरीक़े से होश में लाऊँ।

प्र: पर आपने प्रयास किया है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जा सकता।

आचार्य: इतना नहीं आसान है। वहाँ पर अफीम, हीरोइन, कोकीन सब कुछ है, और आप जा रहे हो उनको बेसन का लड्डू चटाने, इतनी आसानी से उनकी लत थोड़े ही छूट जाएगी।

प्र: आचार्य जी, पर आपने एक ‘शिप ऑफ़ थीसिस’ नामक मूवी देखने की सलाह दी थी...

आचार्य: अरे बाबा! कितनी चली वो? मैं ज़िक्र ना करता तो आधे जो यहाँ हैं उन्हें नाम ही ना पता चलता, ना पता होगा।

प्र: कौन सा जहाज़?

आचार्य: कौन सा जहाज़! लो सुन लो। उनकी बात मत करो। वैसी बनती हैं दस हज़ार में से एक, और वो दूसरे सप्ताह तक नहीं पहुँच पातीं, पहले वीकेंड पर ही उतर जाती हैं वो।

प्र: तो हमारे प्रचलित सिनेमा निर्देशक किस बात को निशाना बनाते हैं?

आचार्य: (व्यंग करते हुए) मूलाधार चक्र को! तुम नहीं जानते हो कि कहाँ पर ट्रिगर होते हो उनको देखकर? ट्रिगर भी होते हो, फायर भी हो जाते हो!

प्र: आचार्य जी, दूरदर्शन पर ‘उपनिषद गंगा’ नामक एक धारावाहिक प्रसारित किया जाता है, पर अधिकांश लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं है।

आचार्य: कैसे पता चलेगा? बात समझो। जब तुम एक लुच्ची पिक्चर को पाँच-सौ करोड़ दे दोगे, तो तुमने किसके हाथ में पाँच-सौ करोड़ रुपए की ताक़त रख दी? एक लुच्चे के हाथ में तुमने पाँच-सौ करोड़ की ताक़त रख दी। अब वो उन पाँच-सौ करोड़ का क्या इस्तेमाल करेगा?

प्र: और लुच्ची पिक्चर बनाएगा।

आचार्य: बनाएगा ही नहीं, उनका ज़बरदस्त प्रचार करेगा, तुम्हारे ही दिए हुए पैसे से। तुम्हारे ही दिए हुए पैसे से वो तुम्हारे ही ऊपर प्रचार थोप देगा, अब तुम उपनिषद गंगा कैसे देख पाओगे? उनके हाथों में ताक़त तुम्हीं तो दे रहे हो टिकट ख़रीद-ख़रीद कर, बिना ये सोचे कि अब वो इस ताक़त का इस्तेमाल तुम्हारे ही ख़िलाफ़ करने जा रहे हैं।

प्र: आपने कहा था कि ये उनकी साज़िश है, उनकी क्या साज़िश है?

आचार्य: उनकी ये साज़िश है कि यह पूरी दुनिया को अपने ही जैसा बना देना चाहते हैं। इनके पास ना धर्म है, ना सत्य है।

जिसके पास ना धर्म होता है, ना सत्य होता है, उसे धर्म और सत्य से बहुत बड़ा ख़तरा और दुश्मनी होती है।

और उसका प्रकट या अप्रकट मिशन एक ही होता है; धर्म को खत्म कर देना है, सत्य को छुपा देना है।

तो अगर पिक्चर भी बनाएगा या उपन्यास भी लिखेगा तो उस उपन्यास की कहानी कुछ भी हो, उसका आख़िरी उद्देश्य एक ही होगा—यह साबित करना कि सत्य जैसा तो कुछ होता ही नहीं।

प्र: कई फ़िल्मों में तो अध्यात्म का मज़ाक भी उड़ाया जाता है।

आचार्य: ज़बरदस्त तरीक़े से मज़ाक उड़ाया जाता है, ताकि जितने लोग ध्यान और भक्ति के मार्ग पर बढ़ रहे हैं वो निरुत्साहित हो जाएँ।

प्र: जो ऐसी फ़िल्में बना रहे हैं, उन्हें क्या मतलब होगा?

आचार्य: दो मतलब हैं; पहली बात तो यह कि वो वही दिखा रहे हैं जो बिक रहा है। जो बिक रहा है उससे उनको अर्थ की, धन की, ताक़त की प्राप्ति हो रही है। दूसरी बात है कि जो अधार्मिक आदमी होता है वो भीतर-ही-भीतर धर्म से घोर डरा हुआ होता है। उसके लिए बहुत ज़रूरी होता है कि वो जहाँ कहीं धर्म का ज़रा भी अवशेष बचा हो, उसे मिटा दे। अंधेरे को तो एक दिए से भी बहुत डर लगता है न? जो अंधेरे का पुजारी होगा, उसे तो दूर टिमटिमाता एक दिया भी घोर शत्रु लगेगा। वो उसे मिटाने के लिए उत्सुक रहेगा।

प्र: पर उसे हमारी धारणा से तो कोई मतलब होगा नहीं?

आचार्य: बिलकुल मतलब है, क्योंकि वो ये स्थापित करना चाहता है कि धर्म जैसा कोई होता ही नहीं, कुछ है ही नहीं। धर्म का एक भी दिया अगर कहीं भी है तो वो उसके लिए ख़तरा है। इसीलिए तुम अक्सर पाओगे कि धार्मिक आदमी धर्म का प्रचार करे ना करे, अधार्मिक आदमी अधर्म का प्रचार ज़रूर करेगा, और धर्म का उपहास उड़ाएगा।

तुम्हारी फ़िल्मों में इसीलिए धर्म की इतनी खिल्ली उड़ाई जाती है, क्योंकि उन्हें धर्म से बहुत ख़तरा है। समझो तो, दुनिया अगर धार्मिक हो गई तो इनकी पिक्चरें कौन देखेगा? तुम्हें अगर ज़रा होश आ गया, तुम्हें अगर ज़रा अक्ल आ गई, तो इन निर्देशकों की और अभिनेताओं की तो दुकानें बंद हो जाएँगी न? तो उनके लिए बहुत ज़रूरी है कि तुमको बेहोश रखें।

प्र: आपने कहा था कि यदि ये लोग अच्छी फ़िल्में बनाएँगे तो...

आचार्य: ये बना सकते ही नहीं। तुम फ़िल्म वही तो बनाओगे जैसे तुम होओगे! तुम अपने लुच्चे अभिनेताओं की ओर देखो, मैं कह तो रहा हूँ, और मुझे बताओ कि इनमें से कौन है जो कबीर साहब का किरदार अदा कर सके? तुम अपनी अभिनेत्रियों की ओर देखो, मुझे बताना कि इनमें से कौन है जो मीरा का भाव परदे पर दर्शा सके? बताओ न, इनमें से है किसी में लल्लेश्वरी वाली गरिमा?

तुम ऐसे कह रही हो कि "अगर वो अच्छी पिक्चरें भी बनाएँगे...” जैसे कि उनके पास विकल्प हो! ज़रा दिमाग में अपने इन निर्देशकों की फ़ेहरिस्त लाओ और मुझे बताओ कि इनमें से किसमें दम है, किसमें काबिलियत है कि एक अच्छी आध्यात्मिक पिक्चर बना दे?

आध्यात्मिक पिक्चर बनाने के लिए अध्यात्म का ‘अ’ तो पता होना चाहिए न? कैसे बना देंगे? ये वही बनाते हैं जो ये हैं, और कुछ बना सकते नहीं।

प्र: कुछ निर्देशक प्रयास करते हैं जागरुकता फैलाने की...

आचार्य: कौन है जो इन पिक्चरों को देख करके उपनिषदों की तरफ़ बढ़ जाएगा? कौन है? उनमें भी धर्म का उपहास ही बनाया गया है। लोग वैसे ही धर्म की ओर नहीं जाना चाहते, आप और बता दो कि धर्म माने तो बाज़ार-बाजी।

प्र: तथाकथित धर्म...

आचार्य: अरे, तथाकथित धर्म तो बाज़ार-बाजी है। लोग वैसे ही नहीं धर्म की ओर जा रहे, तो आपने उनको एक कारण और दे दिया कि अब तो तुम दुनिया के बाज़ार में ही मशगूल रहो। रोगी को अगर आप ये बता रहे हो बार-बार कि निन्न्यानवें प्रतिशत दवाएँ नकली हैं, तो इससे उसका मर्ज़ चला जाएगा क्या?

प्र: पर उस फ़िल्म में वन गॉड (एक भगवान) की बात की है।

आचार्य: उससे आपको वन गॉड मिल गया था, या ज़रा सी प्रेरणा मिली थी उधर जाने की?

प्र: पर कम-से-कम प्रयास तो किया।

आचार्य: नहीं। पटकथा लिखी हुई मौजूद है, इतनी कहानियाँ हैं दुनिया के धर्म ग्रंथों में, आपको तो किसी नई स्क्रिप्ट की भी ज़रूरत नहीं है।

प्र: पर वो माइथोलॉजी का उपयोग करते ही हैं।

आचार्य: कितने लोगों ने वो देखीं हैं माइथोलॉजी जो दिखा रहे हैं? आप जिनकी बात बता रहे हैं, वो इतने भद्दे तरीक़े से बनी हैं कि वो पचास लाख का व्यापार ना कर पाएँ, और यहाँ हम बात कर रहे हैं एक के बाद एक पिक्चरों की जो पाँच-सौ करोड़ करती हैं।

कोई 'बिस्मिल्लाह' बोल कर कत्ल करे तो आप बिस्मिल्लाह देखेंगे, या कत्ल को देखेंगे? बार-बार बिस्मिल्लाह की बात करके आप तो कत्ल को छुपा जाना चाहते हैं। उनके लिए भी आवश्यक है, बीच-बीच में लिप सर्विस कर देना, बीच-बीच में ऊपरी श्रद्धांजलि चढ़ा देना। उसकी बात करके तो आप उन्हीं के बहकावे में आ गए कि, "देखिए, दस-हज़ार में एक पिक्चर तो बनी थी न जिसमें भगवान का नाम लिया था।" और नौ-हज़ार-नौ-सौ-निन्यानवे को कहाँ छुपा रहे हो? फिर जैसे दस-हज़ार में से एक पिक्चर में भगवान का नाम होता है, वैसे ही आपके भी जीवन के दस-हज़ार दिनों में से एक दिन में अध्यात्म होता है, ठीक? बात बराबर हो गई, खुश रहिए।

प्र: चुनकर देखना चाहिए।

आचार्य: आप चुनकर देख पाए?

प्र: मैं तो चुनकर ही देखता हूँ।

आचार्य: अरे, फिर तो कहना क्या! फिर तो जब इतना विवेक आ गया है, तो मुक्ति भी मिल ही गई होगी? क्योंकि विवेक और मुक्ति बहुत दिनों तक दूर तो चल नहीं सकते। सही चुनाव का मतलब होता है - विवेक। और विवेक और मुक्ति दूर तो चलते नहीं।

किस धोखे में जी रहे हैं? ये जो यहाँ बैठे हैं न बच्चे, इनसे पूछिएगा कि पिछली दस पिक्चरें कौन सी देखी हैं, फिर थोड़ा ज़मीन का पता चलेगा आपको। यही पूछ लीजिए पिछली कौन सी दस पिक्चर हैं जिनके नाम याद हैं, और फिर उसमें से एक सार्थक नाम बताकर दिखाइए। यहाँ बैठे हैं तो यहीं पर सर्वेक्षण कर लीजिए हाथों-हाथ, पिछले दस गाने पूछ लीजिए कौन से याद हैं और मुझे बता दीजिए उसमें कौन सा ऐसा गाना है जो उसकी (ईश्वर की) याद दिला दे!

बेख़बर मत हो जाइएगा। आप भले ही यह कह दें कि अब इस माहौल के कारण आप ‘स्टूडियो कबीर’ ही सुनते हैं लेकिन घर में और भी लोग हैं, प्रियजन होंगे, दोस्त-यार होंगे, आप अपनी सुरक्षा को तर्क बना करके दूसरों को असुरक्षित कर डालेंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा कि जो प्रदूषण फैला रहे हैं, उनका ज़ोर कितना है। इतने बेख़बर मत रहिए, उनका ज़ोर बहुत-बहुत ज़्यादा है। आपका सौभाग्य है कि आपको ‘स्टूडियो कबीर’ मिल गया, ये मेहरबानी है उसकी (ईश्वर की)। अर्जित नहीं किया था, मिल ही गया बस। सबका ऐसा सौभाग्य नहीं है। ये ना हो कि आपकी ज़िंदगी में वो लोग जिनसे आपको प्रेम है, आपकी बेख़बरी में, सैलाब में बह जाएँ बिलकुल। आप यही सोचते रह जाएँ कि, "अरे नहीं! अच्छी पिक्चरें बन रही हैं, और मेरे बच्चे, मेरे दोस्त, मेरे रिश्तेदार अच्छी पिक्चरें ही देख रहे होंगे।"

आपको ग्रेस (अनुकंपा) ने बचा दिया, सब को बचा दे ज़रूरी नहीं है। तो माहौल में क्या चल रहा है, संसार के क्या तथ्य हैं, इससे पूरी तरह अवगत रहिए। संसार का तथ्य यह है कि ये ऋषिकेश है, कल रात भर यहाँ कहीं किसी शादी में एक फूहड़ गाना लाउडस्पीकर पर बज रहा था। ये ऋषिकेश का हाल हो गया है फ़िल्मों के द्वारा। आप किस दुनिया में हैं? ज़िंदगी में लोग होंगे न जिनकी आप परवाह करते हैं? कल को आप को दिखाई देगा कि वही लोग इन गानों पर नाच रहे हैं। आज ये गाने ऋषिकेश पहुँचे हैं, कल केदारनाथ भी पहुँचेंगे।

आज ही तो हुआ था, वहाँ जो मंदिर है, उसके सामने से गुज़र रहा था मैं। वहाँ बच्चों की एक पूरी टोली आई हुई थी। ठीक उस वक़्त जब तुम लोग पोस्टर चिपकाने गए हुए थे, देखा था वहाँ मंदिर के अंदर फूहड़ गाना चलाया जा रहा था? ये मंदिरों में भी घुस आए, और आप कह रहे हैं, “अरे! नहीं-नहीं, कोई बात नहीं।”

कब चेतेंगे? जब सब बर्बाद ही हो जाएगा?

आज शाम की ही बात है, तुम लोगों ने भी सुना होगा, चौदह से सोलह की उम्र के लड़के-लड़कियाँ थे, किसी स्कूल से लाए गए थे शायद इसलिए कि, आश्रम घूमो, मंदिर घूमो। वो वहीं पर खड़े होकर के बिलकुल ही फूहड़ गाने मंदिर के अंदर चला रहे थे, और कोई उन्हें टोकने वाला भी नहीं था क्योंकि अब सभी ने हार मान ली है। सभी ने ये स्वीकार ही कर लिया है कि अभद्रता जीत ही चुकी है।

प्र: उन्हें भी डर रहता होगा। एक डर अंदर बैठ गया है कि अब ये तो है ही इस जगह पर, इसका विरोध करने से क्या...

आचार्य: अब इसका विरोध करके कुछ होगा नहीं। सब क़रीब-क़रीब हथियार डाल चुके हैं।

प्र: विरोध करने जाएँगे तो पलटवार होगा इसको लेकर...

आचार्य: क्योंकि ज़माना बहुमत का है। बहुमत तो उन्हीं का हो गया।

प्र: आजकल तो भजन भी फ़िल्मी गानों की धुनों पर बनाए जा रहे हैं।

आचार्य: हाँ, ग़लत आदर्श बैठाए जा रहे हैं न! जिस जगह पर किसी कृष्ण को, बुद्ध को, अष्टावक्र को बैठना चाहिए—कहते हैं न - “ आई लुक उपटू समवन (मैं किसी को आदर्श की तरह देखता हूँ)। मन पर किसका कब्ज़ा होना चाहिए? किसी फ़रीद का, बुल्ले शाह का, कबीर साहब का! उसकी जगह मन पर किसका कब्ज़ा हो गया है? और ये बहुत-बहुत ख़तरनाक हालत है।

शीघ्र ही आपको किसी को ये बताने में दिक़्क़त हो जाएगी कि ये आप क्या पढ़ रहे हैं। संवाद ही नहीं हो पाएगा, संबंध ही नहीं बन पाएगा। दुनिया ही अलग-अलग है। आप मानें या ना मानें, लेकिन अब ये आर-पार की ही लड़ाई है। इसमें तटस्थता की गुंजाइश ख़त्म हो चुकी है। क्योंकि ये जो है अब चढ़ आए हैं बिलकुल, ये घरों में घुस आए हैं।

टी.वी., मोबाइल, इंटरनेट के माध्यम से इन्होंने सीधे घर के अंदर हमला बोल दिया है। ऐसा नहीं है कि वो जो कर रहे हैं अपने क्षेत्र में कर रहे हैं, अपने क्षेत्र में नहीं कर रहे हैं, वो अब जो कुछ कर रहे हैं वो आपके घर के अंदर, आपके मन के अंदर कर रहे हैं। उनका निशाना आपका मन है। वो पवित्रतम जगह को गंदा कर देना चाहते हैं। अनुमति नहीं दी जा सकती!

प्र: उनके पास पैसा भी बहुत ज़्यादा है और उनकी ताक़त भी बहुत है।

आचार्य: हम दे रहे हैं। खेल सब पैसे का है। उनको पाँच-सौ करोड़, हज़ार करोड़ हम दे रहे हैं। देखते हो न, पिक्चर रिलीज़ होने से पहले कितने तरीक़ों से वो तुमको फँसाते हैं? पहले हफ़्ते में ही पचास-सौ करोड़ निकाल लेते हैं। जब तक ख़बर फैले कि पिक्चर तो घटिया है, तब तक उनके सौ-करोड़ बन चुके होते हैं।

प्र: आजकल तो नया प्रचलन शुरु हो चुका है, गाँव-गाँव जाकर फ़िल्म का प्रचार करते हैं। सुनियोजित तरीक़े से इसके लिए उद्योग विकसित किया जा रहा है।

आचार्य: जैसे मिशनरी हों। वो मिशनरी ही हैं! किस धर्म के? ये समझ लीजिए कि अधर्म के मिशनरी हैं। इवेंजलिस्ट हैं अधर्म के।

प्र: यदि इसके विरुद्ध बोलने की कोशिश की जाए तो एकदम से...

आचार्य: विकल्प देना पड़ेगा, बोलने भर से नहीं होगा। अगर अभी यहाँ ये सत्र नहीं हो रहा होता, तो मान के चलिए आप में से कई लोग इस वक़्त या तो फ़िल्म देख रहे होते या फिल्मी गाना सुन रहे होते। शिविर के चार-पाँच दिनों में आप में से कई लोगों ने कोई-न-कोई पिक्चर तो देख ही डाली होती। कई नई रिलीज़ आ ही रहीं होंगी, उनका प्रचार भी ज़ोर-शोर से है। जिन्होंने फ़िल्में नहीं देख डाली होतीं उन्होंने कम-से-कम गाने तो ज़रूर ही सुन डाले होते। ये विकल्प उपस्थित है, इसलिए आप उस चीज़ से बच पाए।

सिर्फ़ चेतावनी देने से नहीं होगा। एक सृजनात्मक विकल्प खड़ा करना होगा। विकल्प खड़ा भी करना होगा, और उस विकल्प का ज़ोर-शोर से प्रचार भी करना होगा। ठीक वैसे जैसे वो अपनी पिक्चरों का प्रचार करते हैं।

दुश्मन तो पूरे तरीक़े से प्रचार पर उतारू है, और हम कह रहे हैं, “नहीं साहब! सत्य को प्रचार की क्या आवश्यकता?”

सत्य को ही प्रचार की आवश्यकता है। झूठ तो इतना आकर्षक है कि उसे प्रचार चाहिए नहीं। वो तो बिना प्रचार के ही फैल जाएगा, फिर भी उसका प्रचार होता है। सत्य को ही प्रचार चाहिए।

विकल्प बनाना भी पड़ेगा, और विकल्प को प्रचारित भी करना पड़ेगा।

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