अमीर कौन, ग़रीब कौन || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

6 min
134 reads
अमीर कौन, ग़रीब कौन || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न : सर, पैसा कितना ज़रूरी है? ग़रीबी क्या है?

वक्ता : जिसको और चाहिए – वो गरीब है। जिसे और नहीं चाहिए- वो अमीर है। जिसे ही और चाहिए, बात सीधी है, जो भी कह रहा है कि और मिल जाए, इसका मतलब है कि वो गरीबी अनुभव कर रहा है। तभी तो वो कह रहा है कि और चाहिए। तो गरीब वो नहीं जिसके पास कम है, गरीब वो जिसे अभी और चाहिए।

जो मांगे ही जा रहा है, मांगे ही जा रहा है, वो महागरीब है , उस पर दया करो, तरस खाओ।

एक फ़कीर हुआ, बड़ा नामी, जिंदगी भर लोग आते थे, उसको कुछ न कुछ देकर चले जाते थे, तो उसके पास बहुत इकट्ठा हो गया। मरने का समय आया तो उसने कहा कि जो मुझे सबसे बड़ा गरीब मिलेगा उसी को दे दूंगा ये सब कुछ।

लोगों को पता चली ये बात। लोग इसके सामने ये सिद्ध करने की कोशिश करें कि हमसे बड़ा गरीब कोई दूसरा नहीं। पर वो कहता कि तुम नहीं, तुम नहीं। एक दिन उसके सामने से राजा की सवारी जा रही थी तो उसने राजा से कहा कि रुक। राजा रूक गया। फ़कीर ने उस राजा से कहा कि यहाँ जितना पड़ा है सब ले जा। ये सब तेरे लिए है। राजा कहता है कि ले तो जाऊँगा लेकिन आप क्यों बोल रहे हैं मुझे इसे ले जाने के लिए। फ़कीर कहते हैं कि जो सबसे बड़ा गरीब है इस राज्य में उसके लिए छोड़ा था, तू ही है वो, ले जा। तेरे जितनी भूख किसी और की नहीं। लगातार तू लगा हुआ है और और और और इकट्ठा करने में तो तुझसे ज्यादा भूख किसी और की नहीं। और जिसकी भूख सबसे ज्यादा, वो ग़रीब।

जिसकी भूख सबसे ज्यादा, उससे गरीब और कोई नहीं।

कोई अंत नहीं है इस चाह का, इस दौड़ का। और जो तुम्हारी वास्तविक जरुरत है वो बहुत थोड़ी है। ज़रूरतें बहुत थोड़ी होती हैं और चाह होती है बहुत ज्यादा की। ज़रूरतों तक ही सीमित रहे तुम्हारा एकत्रित करना तो कोई दिक्कत नहीं है।

पर तुम ज़रूरतों से बहुत आगे की सोचते हो। बहुत बहुत आगे की, कामनाओं का कोई अंत नहीं है। जैसे कि एक घड़ा जिसमें छेद हो और तुम उसमें डाले जा रहे हो, डाले जा रहे हो तो वो कभी भर ही नहीं सकता। भर ही नहीं सकता। भरते रहो कभी नहीं भरेगा।

कोई बुराई नहीं है कम पैसा होने में, उससे जाकर के पूछो जिसके पास कम पैसा है। और अगर तुम्हें दिखाई दे कि इसके जीवन में आनंद है, पूर्णता है, ये बंटा हुआ नहीं रहता, ये टुकड़ों में नहीं रहता, ये हर समय चिंता में नहीं रहता तो समझ लेना कि जीवन को इसी ने जिया है, भले ही पैसा कम है इसके पास। अगर वो हँस सकता है खुल के, अगर रात को सोते समय उसको डरावने सपने नहीं आतें और उसको डर नहीं लगा रहता कि मेरा ये हो जाएगा, मेरा वो हो जाएगा- खौफ़ में नहीं जी रहा है वो- तो समझ लेना जीवन इसी ने जिया है।

और किसी के पास बहुत पैसा है पर मुंह देखते ही दिख जाता है कि लो – नाम लखन सिंह मुंह कुकुरन कस। कूकुर- कुत्ता। कि नाम तो है लखन सिंह, कि सबसे ज्यादा इन्होंने ही कमा रखा है, शहर के सबसे बड़े अमीर, और शक्ल ऐसी लटकी हुई ! बुलडॉग। देखा है कितनी उदास शक्ल बेचारे बुलडॉग की ? (सब हँसते हैं)

झाइयां पड़ी हुईं हैं, सिलवटें। गिर रहे हैं, मर रहे हैं , दस तरह के मर्ज़ हो गए हैं। दवाईयाँ खा रहे हैं इतनी इतनी भर भर के, जैसे आदमी चने चबाता है, वैसे ये दवाइयां खाते हैं। तो काहे का इनका जीवन है ? लालच मन में अभी भी इतना है कि क़त्ल कर दें पैसे के लिए। जितना है वो संभाला नहीं जा रहा लेकिन लालच इतना है कि मारने को तैयार हैं, कि और मिल जाए। एक पाँव कब्र में है, दूसरा उधर ही जा रहा है, पर हाथ से बन्दूक चलाने को तैयार हैं कि मरते-मरते भी कुछ और मिल जाये।

अपनी समझ से देखो कि पैसे का जीवन में कितना महत्व होना चाहिए। समाज के पैमानों को मत पकड़ लेना कि तुम्हारा जीवन बेकार है अगर तुमने इतना नहीं कमाया। समाज के पैमानों को बिल्कुल मत पकड़ लेना।

जो अन्दर से बिलकुल खाली होता है, उसी को पैसे की बहुत ज़रूरत पड़ती है।

कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जिनकी अमीरी होती है कुछ पा लेने में। तुम ऐसे बनो कि जिसकी अमीरी है उसके होने में। वो अमीरी तुमसे कोई नहीं छीन सकता। हमारे पास जो है, हमें वो नहीं अमीर बना रहा, कि हमारे पास पैसा है कि गाड़ी है। हम जो हैं, वो हमें अमीर बनाता है।

हमारा होना ही हमारी अमीरी है और इसको कौन छीन सकता है? फिर डर नहीं रहेगा। फिर मज़ा आएगा जीवन में।

श्रोता : सर , फिर इसका मतलब क्या होगा कि मनी इस नथिंग बट फॉर एवरीथिंग?

वक्ता : बेटा, मनी इस एवरीथिंग या नथिंग ये तुम्हे देखना है न। मनी क्या है ? कुछ ऐसा जो तुम इकट्ठा करते हो, वही धन है। जो भी तुम इकट्ठा करना चाहो वही धन है। उसमे तुम्हारी प्रतिष्ठा भी आती है, तुम्हारे सम्बन्ध भी आते हैं। हम सिर्फ पैसा ही नहीं इकट्ठा करना चाहते, हम संबंधों को भी इकट्ठा करते हैं, उनकी तिजोरी बनाते हैं। हम प्रतिष्ठा इकट्ठा करते हैं। हम जिसे एक सोशल क्रेडिट कहा जाता है, वो इकठ्ठा करते हैं – कि काम आएगा कभी। होली- दिवाली सबको मिठाई भेजा करो, काम आएगा। ये भी हम इकठ्ठा करते हैं – सोशल क्रेडिट।

ये सब इकठ्ठा करना एक डर का सबूत है। इसमें तुम्हे खुद जाना पड़ेगा, समझना पड़ेगा कि पैसे का जीवन में कितना महत्व है। ये बिल्कुल भी नहीं कहा जा रहा कि पैसा हो ही न। पैसा अभी अगर न हो तो मैं ये पहन नहीं सकता, तुम यहाँ बैठ नहीं सकते, ये कैमरा नहीं हो सकता। पर याद रखना कि ज़रूरतों में और चाहतों में बहुत अंतर है। और वो सीमा तय करना बड़े विवेक का काम है- कि कहाँ तक मेरी ज़रूरतें हैं और अब कहाँ मेरी चाहतें शुरू हो गयीं हैं। ज़रुरत में कोई बुराई नहीं।

जानो कि ज़रूरत क्या है, फ़िर जानो कि चाहत क्या है।

*संवादपर आधारित।स्पष्टता हेतुकुछ अंशप्रक्षिप्त हैं।*

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories