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लेख
अगले जन्म में क्या बनेंगे आप? || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप पुनर्जन्म से बिलकुल ही इंकार कर देते हैं, जबकि सच ये है कि सिर्फ़ हिंदू धर्म में ही नहीं बल्कि बौद्धों में, सिक्खों में, जैनों में, सबमें पुनर्जन्म को स्वीकारा गया है। यहाँ तक कि जिन संतों के आप बड़े प्रशंसक हैं, उन्होंने भी पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। गीता में भी पुनर्जन्म की बात है। इसके अलावा और भी कई उदाहरण और वृत्तांत हैं जो पुनर्जन्म को साबित करते है। और अगर मौत के बाद कुछ नहीं है तो फिर अध्यात्म की क्या ज़रूरत है? खाओ-पियो ऐश करो।

आचार्य प्रशांत: देखो भाई, मैं पुनर्जन्म को अस्वीकार नहीं करता, मैं व्यक्ति के पुनर्जन्म को अस्वीकार करता हूँ। पुनर्जन्म तो होता है, निश्चित रूप से होता है, पर किसका? जिस भाषा में पहले कहा था उसी को आगे बढ़ाकर फिर समझाता हूँ – अहम् वृत्ति का पुनर्जन्म होता है, व्यक्तिगत अहंकार का नहीं। राजू मरकर काजू नहीं बनेगा। और काजू को बिलकुल नहीं याद आने वाला कि मैं पिछले जन्म में राजू था। और काजू अगर बोले कि ‘मैं पिछले जन्म में राजू था, उससे पिछले जन्म में फाजू था, और उससे भी पिछले जन्म में तराजू था; मुझे अपने तीन जन्म याद हैं’ तो ये जो काजू है, ये बहुत बड़ा धूर्त है।

जो कुछ भी व्यक्तिगत है तुम्हारा, व्यक्तिगत, पर्सनल , वो राख हो जाता है मृत्यु के साथ ही। बचा क्या रहता है? एक वृत्ति बची रहती है, वृत्ति, टेंडेंसी। टेंडेंसी कोई चीज़ नहीं होती, वो बस एक टेंडेंसी होती है, एक वृत्ति होती है, ‘ऐसा होता है'। वृत्ति क्या चीज़ होती है? पुनर्जन्म कैसे लेती है? मैं हूँ, मेरे भीतर दस दोष हैं, मान लो मेरे भीतर डर है, एक दोष उठा लो डर। जो अगला पैदा होता है प्रकृति के समय चक्र में, उसमें भी डर होता है। तो डर ने पुनर्जन्म ले लिया, डर दोबारा पैदा हो गया। हर बच्चा जो पैदा हो रहा है, उसके साथ डर दोबारा पैदा हो जाता है। हर जो बच्चा पैदा हो रहा है उसके साथ मुक्ति की आकांक्षा भी दोबारा पैदा हो जाती है। हर जो बच्चा पैदा हो रहा है उसके साथ भ्रम दोबारा पैदा हो जाता है – ये है पुनर्जन्म।

व्यक्ति का कोई पुनर्जन्म नहीं होता, पर पुनर्जन्म निश्चित रूप से होता है। तुम ये कभी पूछते ही नहीं, ‘किसका पुनर्जन्म?’ मैं पुनर्जन्म की बात का खंडन नहीं कर रहा हूँ, मैं तुम्हें बस साफ़ बता रहा हूँ कि पुनर्जन्म किसका होता है। तुम ये माने बैठे हो कि ‘मेरा ही हो जाएगा’। और उसकी वजह से बहुत बड़े-बड़े मूर्खतापूर्ण कांड होते हैं।

अभी एक गुरुजी हैं, उन्होंने एक योजना चलायी। वो बोले, ‘ऐसा करो’ – सब अमीर लोगों से बोलें, वस्तुतः गुरुओं का अमीर लोगों से ही ज़्यादा संबंध होता है; अगर आप गुरु हैं, बड़े गुरु, व्यावसायिक तौर पर गुरु हैं, पेशेवर गुरु हैं, जैसे सब गुरु लोग होते हैं – तो इन गुरुजी ने कहा, ‘देखो अभी तो तुम अमीर हो, लेकिन हो तो तुम पापी ही, जैसा कि ज़्यादातर अमीर लोग होते हैं, तो तुम मरकर तो पता नहीं क्या बनोगे, भिखारी बनोगे, न जाने क्या बनोगे, क्योंकि तुमने पाप तो खूब ही किए हैं। तो तुम मेरे साथ एक डील करो, डील , अनुबंध, समझौता।‘ डील क्या है? बोले, ‘मरने से पहले तुम अपनी आधी दौलत मेरे नाम कर दो। मैं तो गुरु हूँ, और मैं अंग्रेज़ी बोलने वाला गुरु हूँ, तो मुझे तो पता है ही कि तुम मरकर क्या बनोगे, क्योंकि मुझे भी अपने पिछले कई जन्मों का पता है। तो तुम मरकर के जब पैदा होओगे दूसरे जन्म में –और पाप तुमने खूब किए हैं, इसीलिए अगले जन्म में बनोगे गरीब – तो तुमने अभी जो दौलत मुझे दी है, वो दौलत मैं लाकर के तुम्हें दे दूँगा, दस प्रतिशत हिस्सा मेरा है।‘

ये मूर्खताएँ चलती हैं जब तुम सोचते हो कि व्यक्ति का ही पुनर्जन्म होगा। व्यक्ति का कोई पुनर्जन्म नहीं होता। व्यक्ति के पास तो एक ही जीवन है। प्रकृति की लहरें एक-के-बाद-एक आती जाती रहती हैं। व्यक्ति का कोई पुनर्जन्म नहीं होता, आत्मा का कोई जन्म ही नहीं होता, वो अजन्मी और अमर है। व्यक्ति का एक ही जन्म होता है, कोई पुनर्जन्म नहीं होता। आत्मा का कोई जन्म ही नहीं होता तो पुनर्जन्म क्या होगा? आत्मा अजन्मी और अमर है। ना उसकी मृत्यु होती है, ना जन्म होता है।

प्रकृति है जिसमें जन्म और मृत्यु का खेल चलता रहता है। तो प्रकृति की एक लहर मिटती है, दूसरी लहर खड़ी हो जाती है; जो दूसरी लहर खड़ी हुई है वो पिछली लहर का पुनर्जन्म नहीं है, वो सागर का ही पुनर्जन्म है। पिछली लहर तो एक बार आयी और मिट गई। अब सागर दोबारा प्रकट होगा दूसरी लहर के रूप में। मैं पुनर्जन्म से इंकार नहीं कर रहा हूँ, बस मैं तुमको समझा रहा हूँ किसका पुनर्जन्म होता है, ‘किसका‘ पुनर्जन्म। समझ में आ रही है बात?

अब प्रश्न के दूसरे हिस्से पर आते हैं। तुमने कहा, ‘अगर मौत के बाद कुछ भी नहीं, तो फिर अध्यात्म की ज़रूरत क्या है? खाओ-पियो ऐश करो।‘ बाबा, अध्यात्म इसलिए नहीं होता कि तुम्हारा अगला जन्म सुधर जाएगा; अध्यात्म इसलिए होता है ताकि तुम इस वर्तमान जन्म को सुधार सको। तुम कह रहे हो, ‘खाओ-पियो ऐश करो।‘ तुम खा-पी कर ऐश कर कहाँ रहे हो? यहाँ कौन है जो ऐश कर रहा है? मुझे तो यहाँ सब तड़पते और दुखी ही नज़र आते हैं। जिनमें थोड़ी ईमानदारी है वो बता देते हैं कि हम तड़प रहे हैं और दुखी हैं; जो महाबेईमान हैं, वो भीतर से तड़प रहे होते हैं, दुखी हैं, लेकिन बाहर-बाहर ये दिखाते हैं कि हम तो बड़े सुखी हैं। और बाहर भी वो क्यों दिखाते हैं कि वो बड़े सुखी हैं? ताकि उनका सुख देखकर के दूसरे और तड़पें। यहाँ कौन सुखी है?

तुम कह रहे हो, ‘अगर मरने के बाद कुछ नहीं तो खाओ-पियो ऐश करो।‘ खाने-पीने से, भोग से ऐश अगर हो जाती तो मैं कहता बिलकुल करो, क्योंकि आनंद ही अध्यात्म का उद्देश्य है। तुम्हें आनंद अगर खाने-पीने से मिल सकता होता तो मैं कहता खूब खाओ-पियो, भोगो; इसी से आनंद मिल जाएगा। ज़रूरत क्या है किसी ग्रंथ की, शास्त्र की, ध्यान की, साधना की, भक्ति की; कोई ज़रूरत ही नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है, खा-पी कर ऐश नहीं कर रहे हो तुम, तुम्हें पता है।

आजतक कोई नहीं हुआ जो खा-पी कर ऐश कर ले। चूँकि तुम ऐश नहीं कर रहे, चूँकि तुम दुखी हो, और अभी दुखी हो, इसी जन्म में दुखी हो, इसीलिए अध्यात्म है। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि तुम अगला जन्म सँवार सको; अध्यात्म इस जन्म के, तुम्हारे वर्तमान के दुखों को दूर करने के लिए होता है। और वर्तमान में सब दुखी हैं। जीव मात्र दुखी है। हर बच्चा जो पैदा होता है वो दुख की गठरी अपने सीने में साथ रखकर पैदा होता है। अध्यात्म उस गठरी का बोझ हल्का करने के लिए है। आगे-पीछे की बात छोड़ो, अभी जो तुम्हारा दुख है, अध्यात्म उसको काटता है।

कह रहे हो, ‘अगर अगला जन्म नहीं है, मौत के बाद कुछ भी नहीं है, तो खाओ-पियो ऐश करो।‘ तुम्हें मौत के बाद की बड़ी चिंता है! तुम्हारे आज जो दुख हैं, ईमानदारी से बताना दिल पर हाथ रखकर, वो अगले जन्म के दुख हैं? तुम ये सोच करके अपनी रातों की नींद गँवाते हो कि ‘अगले जन्म में मेरा क्या होगा’? या तुम्हें जो सारी समस्या है वो वर्तमान को लेकर है? बोलो! तुम इस जन्म की अपनी बीवी से परेशान हो या अगले जन्म की बीवी से? तुम इस जन्म के अपने बॉस से परेशान हो या अगले जन्म के बॉस से? परेशानियाँ तुम्हारी सारी इस जन्म से हैं, और अध्यात्म तुम्हारा अगले जन्म की फ़िक्र कर रहा है! ये कौनसा अध्यात्म है? तुम्हें शरीर की भी बीमारी है तो तुम इस जन्म के शरीर की बीमारी से त्रस्त हो या अगले जन्म के शरीर की बीमारी से त्रस्त हो? बताओ!

तुम्हारी जो भी इस वक़्त चिंता है, परेशानी है, जो भी तुम्हारे ज़िंदगी का नर्क है, वो अभी का है या पिछले या अगले जन्म का है? अभी का है न? तो अध्यात्म इसलिए है ताकि ईमानदारी से तुम्हारा अभी इलाज किया जा सके। न जाने तुमको किसने ये पट्टी पढ़ा दी कि अभी अच्छे कर्म करोगे तो आगे अच्छा फल मिलेगा। अध्यात्म तुम्हें ये बताने के लिए है, कृष्ण और उनकी गीता तुम्हें ये बताने के लिए हैं कि जो ठीक कर्म नहीं कर रहा वो इसी वक़्त भुगत रहा है क्योंकि उसका कर्ता ही ख़राब है। कर्ता माने 'मैं', कर्ता माने वो जो तुम हो, तुम्हारी ज़िंदगी।

कर्म का सिद्धांत, निष्काम कर्म इसलिए नहीं होते कि तुम्हें आगे कुछ मिल जाएगा। अगला जन्म तो छोड़ दो, इसी जन्म में भी भविष्य में तुम्हें कुछ मिल जाएगा, इसलिए नहीं होता निष्काम कर्म। निष्काम कर्म तुम्हें अभी, इसी क्षण त्वरित शांति दिलाता है।

प्र२: आचार्य जी, ये खेल फिर ख़त्म कैसे होगा? क्योंकि जितने लोग, उतनी ही वृत्तियाँ।

आचार्य: सारी वृत्तियों के केंद्र में होती है अहम् वृत्ति, और अहम् वृत्ति अज्ञान के माहौल में ही जीवित रह सकती है। मात्र अज्ञान ही कहता है ‘मैं हूँ', अहम्। सारी वृत्तियों के केंद्र में – डर एक वृत्ति होती है, संशय एक वृत्ति होती है, भ्रम एक वृत्ति है, मोह एक वृत्ति है, मद है – इन सब वृत्तियों की माता वृत्ति, केंद्रीय वृत्ति, मूल वृत्ति अहम् वृत्ति है। डर है, किसको? मुझे। मैं हूँ तो डर है। मैं डरा हुआ हूँ। तो डर की वृत्ति के पीछे भी कौनसी है? मैं ना होऊँ तो डर कैसा? सारा डर आत्मरक्षा के लिए ही तो होता है न? ‘मैं' ख़ुद को बचाना चाहता है, इसीलिए बेचारा डरा हुआ है कि ‘मैं' को कहीं नुकसान ना हो जाए। ‘मैं’ ही नहीं, तो डर बचेगा क्या? तो सारी वृत्तियों के नीचे जो मातृ वृत्ति बैठी हुई है, मदर टेंडेंसी , वो कौनसी है? अहम् वृत्ति। और अहम् वृत्ति अज्ञान का ही दूसरा नाम है। अज्ञान ही बोलता है, मात्र अज्ञान ही बोलता है कि ‘मैं हूँ'। जब सही ज्ञान हो जाता है तो ये अहम् वृत्ति ही क्षीण हो जाती है, तो फिर बाकी सारी वृत्तियों का ज़ोर अपनेआप कम हो जाता है।

प्र३: आचार्य जी, ये काफ़ी प्रचलित बात है कि जो इंसान की योनि होती है, ये करोड़ों योनियों के बाद हमें मिलती है। तो अगर आप कुछ ग़लत करते हैं तो आपको करोड़ों योनियों में चक्कर लगाकर वापस आना पड़ता है, ये भोगना पड़ता है। तो अगर सिर्फ़ अहम् ही है जो इतने सारे शरीरों में, इतने सारे अलग-अलग प्राणियों से आ रहा है, तो अहम् तो एक ही है, तो ये करोड़ों तरीकों से व्यक्त…

आचार्य: नहीं, नहीं, अहम् वृत्ति एक है, व्यक्तिगत अहंकार बहुत हैं, अलग-अलग हैं। समझो, तुम बोलते हो ‘मैं कमलेश हूँ’, ये बोलती हैं ‘मैं अनुष्का हूँ’, ये बोलते हैं, ‘मैं उदित हूँ’, ये कुछ और बोलते हैं, वो कुछ और बोलते हैं। ठीक है? तो ‘मैं' जो बोल रहा है वो सबमें भिन्न ही है न? तो व्यक्तिगत अहंकार करोड़ों तरह का है, अरबों तरह का है, असंख्य है व्यक्तिगत अहंकार। उनमें सबमें साझा क्या है? सब क्या बोल रहे हैं? एक चीज़ जो सबमें साझी है वो क्या है? सब क्या बोल रहे हैं? ‘मैं हूँ।' इसको अहम् वृत्ति बोलते हैं। अहम् वृत्ति बोलती है ,‘मैं हूँ'। अपने होने का एहसास अहम् वृत्ति है, ‘मैं हूँ'। लेकिन जैसे ही तुमने ये बोला, ‘मैं कमलेश हूँ’, अब ये अहम् वृत्ति नहीं है, अब ये व्यक्तिगत अहंकार है।

इन दो बातों में अंतर समझो! हम सोचते हैं व्यक्तिगत अहंकार का पुनर्जन्म होता है, व्यक्तिगत अहंकार का पुनर्जन्म नहीं होता, अहम् वृत्ति का होता है। 'मैं हूँ' दोबारा जन्म लेगा। हर बच्चा जो नया जन्म लेता है, वो क्या बोलता है? ‘मैं हूँ’। लेकिन 'मैं कमलेश हूँ', दोबारा जन्म नहीं लेगा। कोई बच्चा दोबारा नहीं आने वाला जो 'कमलेश' से सम्बन्धित हो। समझ में आ रही है बात?

अहम् वृत्ति का लगातार, निरंतर पुनर्जन्म होता रहता है, 'कमलेश' का नहीं होगा दोबारा पुनर्जन्म।

प्र३: आचार्य जी, तो ये अहम् वृत्ति एक तरीके से अंडरलाइंग प्रोपर्टी जैसी है।

आचार्य: हाँ, हाँ।

प्र३: तो अंडरलाइंग प्रोपर्टी (आधारभूत गुण) जो एक्सिस्ट (अस्तित्व) ही करती है हमेशा, वो बार-बार जन्म लेती है, हम ऐसा क्यों कहते हैं?

आचार्य: क्योंकि वो अस्तित्वमान होती है इंटेंजिबल (अमूर्त) तरीके से। हर बच्चे में वो क्या हो जाती है? प्रत्यक्ष हो जाती है, प्रकट हो जाती है, मैनिफेस्ट हो जाती है। देखो, ये जो वृत्ति भी है, वो वास्तव में अमर ही है। जैसे जीवात्मा को हम कहते हैं न, जीवात्मा भी मरती नहीं है, वो बस शरीर छोड़कर जाती रहती है। तो वो जो जीवात्मा है वो वास्तव में अहम् वृत्ति है। जीवात्मा आत्मा नहीं है, जीवात्मा क्या है? अहम् वृत्ति है। तो मरती वो भी नहीं है, बस जब वो शरीर के साथ संयुक्त होती है तब वो प्रकट होती है।

ये भी नहीं कहना चाहिए कि वो हवा में रहती है फिर शरीर में घुस जाती है। वो जीवात्मा, वो अहम् वृत्ति आती ही कहाँ से है? वो शरीर की कोशिकाओं से आती है। शरीर और अहम् वृत्ति एक-दूसरे से अभिन्न हैं। शरीर माने कैसा शरीर? जीवित शरीर, जिसकी कोशिकाएँ अभी स्वस्थ हैं, जिसको कोई बहुत भारी चोट नहीं लग गई। यदि कोशिकाएँ तुमने तोड़-फोड़ दीं, जब शरीर ही टूट-फूट गया तो फिर अहम् वृत्ति भी टूट-फूट गई, वो भी नहीं बचती।

तो अहम् वृत्ति या जीवात्मा वास्तव में शरीर का ही दूसरा नाम है। अगर शरीर होगा तो वो बोलेगा, ‘मैं हूँ’। अगर शरीर है, तो क्या बोलेगा वो? ‘मैं हूँ'। कोई शरीर हो, आदमी का हो, घोड़े का हो, गधे का हो, कीड़े का हो, वो बोलेगा, ‘मैं हूँ' – यदि शरीर सलामत है। टूटा-फूटा शरीर है, उसमें कुछ हो गया है, तो वो नहीं बोलेगा फिर। उसको हम क्या बोलते हैं? मृत शरीर। मृत शरीर का मतलब ही ये है कि ऐसा शरीर जिसकी व्यवस्था अब चरमरा चुकी है। अब वो नहीं बोलेगा ‘मैं हूँ'। क्योंकि इसमें अब वो कनफिग्रेशन (विन्यास) ही नहीं बचा जो विशिष्ट था, जो कांशियसनेस (चेतना) के लिए आधार बन सकता था। अगर वो कनफिग्रेशन नहीं है तो फिर चेतना बचती नहीं है।

प्र: आचार्य जी, इसमें थोड़ा स्पष्टीकरण चाहूँगा। जैसे आप कह रहे हैं जीवित शरीर, तो जब हम कह रहे हैं कि जीवित शरीर में ही ‘मैं' भाव है। तो ये अमीबा में भी होगा?

आचार्य: हाँ, अमीबा में भी होगा।

प्र: लेकिन अमीबा कह तो नहीं रहा है ‘मैं‘, बल्कि उसको कुछ होगा तो वो रिएक्ट (प्रतिक्रिया) करता है। लेकिन अगर हम एटॉमिक लेवल (परमाणु के स्तर) पर जाएँ, वो भी अपने स्टेबल स्टेट (स्थिर अवस्था) को बचाने के लिए कुछ हरकत करता है।

आचार्य: बिलकुल। सब जीवित हैं।

प्र: तो फिर मृत भी नहीं होगा कोई?

आचार्य: कोई मृत नहीं है। वास्तव में, तुम जिसको मृत कहते हो, वो बात बस ऐसी ही है कि अब वो उस तरह की चेतना नहीं दर्शा रहा जैसी तुम्हारी है। अब वो एक अलग तरह की चेतना दर्शा रहा है। इसीलिए श्रीकृष्ण गीता में साफ़-साफ़ कहते हैं कि चेतना और अचेतना अलग-अलग हैं ही नहीं, कि जड़ और चेतन एक हैं, कि पुरुष और प्रकृति एक हैं। चूँकि पुरुष और प्रकृति एक हैं, इसीलिए वो दोनों को नाम भी एक ही दे देते हैं। वो पुरुष को कह देते हैं पराप्रकृति और जिसको तुम साधारण जड़ प्रकृति कहते हो, उसको वो कह देते हैं अपराप्रकृति।

तो जड़ प्रकृति का नाम क्या हुआ? – अपराप्रकृति। और चेतन पुरुष प्रकृति का क्या नाम हुआ? – पराप्रकृति। पर हैं दोनों प्रकृति ही। माने दोनों में कुछ तो साझा होगा। दोनों में क्या साझा है? दोनों में यही चीज़ साझी है कि चेतना है दोनों में। बस एक में बहुत ज़्यादा है, और एक में एकदम प्रसुप्त हो गई है, डॉरमेंट (प्रसुप्त) हो गई है। डॉरमेंट ना हुई होती तो आती कहाँ से? मिट्टी से फूल कैसे पैदा हो जाता? जड़ पदार्थ में चेतना कहाँ से आ जाती? थी, पहले से थी; बस स्थितियों का संयोग ऐसा बना कि अब वो प्रकट हो गई। कोई भी चीज़ कभी भी मृत नहीं है, कण-कण में नारायण है। कुछ कहीं मृत नहीं है। तुम जो खाना खाते हो उसको तुम क्या बोलते हो, ज़िंदा है या मुर्दा है? दाल है, उसको तो तुम यही कहते हो न कि दाल में जीवन नहीं है? वो खाते ही फिर जीवन कैसे बन जाता है? इसीलिए फिर उपनिषद् बोलते हैं 'अन्नम् ब्रह्म।' मतलब समझो बात का!

कुछ भी मुर्दा नहीं है, हर चीज़ जीवित है। मौका आने पर वो रंग दिखाएगी, मौका नहीं आया है अभी। (दीवार की ओर इशारा करते हुए) ये दीवारें बोलेंगी एक दिन, अभी मौका नहीं आया है बस। ये दीवारें बोलेंगी एक दिन, और ये जो सामने बैठा बोल रहा है ये दीवार बना होगा; समय की बात है। मिट्टी एक दिन प्राण धारण करेगी और आज जो प्राण धारण करे हुए है वो कल मिट्टी हो जाएगा, दोनों में कोई अंतर है नहीं मूलतया।

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूँगी तोहे।।

~ कबीर साहब

मतलब समझो, अभिन्न हैं। वास्तव में कोई मृत नहीं है, ‘माटी कहे कुम्हार से'। जो भी पदार्थ, मैटेरियल अस्तित्व में है, उसमें एक डॉरमेंट ‘मैं‘ भावना तो है ही न। इलेक्ट्रॉन को कैसे पता प्रोटॉन की तरफ़ भागना है? प्रोटॉन को कैसे पता प्रोटॉन से दूर भागना है? बोलो, बताओ न! तो वहाँ जो तुम्हें जड़ – जड़ माने अनकांशियस (अचेतन) – खेल दिखाई दे रहा है, ग़ौर से देखो न, कुछ तो है उनके भीतर भी जो उन्हें उनके अस्तित्व का एहसास दिला रहा है – ‘मैं साहब इलेक्ट्रॉन हूँ और मुझे प्रोटॉन की तरफ़ जाना होता है।‘ तो वहाँ पर जो खेल है वो तुम्हें दिख रहा है कि ये तो साहब जो खेल है फिज़िकल (भौतिक) है।

वैसे ही स्त्री-पुरुष का जो आकर्षण होता है, वो तुम्हें पता नहीं है क्या कि वो भी तो इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन की ही बात है? इधर एक हॉर्मोन है उधर दूसरा हॉर्मोन है, उन दोनों को एक-दूसरे की तरफ़ खिंचना ही होता है। वहाँ भी तो इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन ही हैं। वही इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन जब शरीर में आ जाते हैं तो जीवित होकर एक-दूसरे की तरफ़ खिंचने लगते हैं। तब तुम मान लेते हो कि ये जीवित हो गया मामला, जान आ गई। वही इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन जब तक केमिकल (रसायन) में होते हैं तो तुम मानते ही नहीं कि वो ज़िंदा हैं।

ये भी बड़े अहंकार की बात है – जब तक कोई चेतना हमारी चेतना जैसी नहीं होगी, हम उसे जीवित नहीं मानेंगे। हमारे लिए जीवन की परिभाषा क्या है? जो चीज़ हमारी तरह जैविक गतिविधियाँ दिखाती हो, उसको हम जीवित मानेंगे, नहीं तो नहीं मानेंगे। ये इतनी सारी जो खोजें चलती हैं, एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल लाइफ़ (अन्य ग्रहों के जीवन) की कि दूसरे ग्रहों पर, इधर-उधर जीवन खोजो। देखो, इनमें चलता क्या है, ये जीवन के नाम पर क्या खोंजते हैं? ये वैसा जीवन खोजते हैं जैसा पृथ्वी पर पाया जाता है। तुम्हें कैसे पता कि वहाँ जीवन नहीं है? हो सकता है वो बिलकुल सामने हो, तुम्हें दिख ना रहा हो। हो सकता है जिस चीज़ को तुम जड़ चट्टान समझ रहे हो मंगल ग्रह की, वो जीवित हो। पर वो उस तरह से जीवित नहीं है जैसा तुमने जीवन को परिभाषित किया है। इसीलिए वो जीवन तुम्हें समझ में ही नहीं आता।

ये बड़े अहंकार की बात हुई न कि जीवन सिर्फ़ वही है जैसा मेरा जीवन है? इस तरह के आलावा कोई जीवन होगा तो मैं उसे जीवित मानूँगा ही नहीं। चट्टान जीवित है, पर तुम उसे जीवित मानना ही नहीं चाहते क्योंकि वो तुम्हारी तरह जीवित नहीं है। वो तुम्हारी भाषा नहीं बोलती, वो तुम्हारी तरह खाना नहीं खाती, वो तुम्हारी तरह गतिविधि नहीं करती, तो तुम मानते ही नहीं कि वो जीवित है। जबकि उसी चट्टान पर खिलने वाला है फूल, फिर तुम मान लोगे कि वो जीवित है। फूल क्या सिर्फ़ बीज से निकला है? उसी चट्टान की दरार में एक बीज पड़ा था और फूल पैदा हो गया, क्या सिर्फ़ बीज से आया? चट्टान ही फूल बनकर सामने आ जाती है। जीवन पहले से था, फूल के रूप में, बस अभिव्यक्त हो गया है।

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