हमारा प्रकृति से रिश्ता ऐसा होता है कि प्रकृति का फैलाव हमें लुभाता है। इतनी चीज़ें हैं प्रकृति में कि हम यह मान लेते हैं कि यह चीज तो नई है, यह जरूर मुझे तृप्त कर देगी।
आत्मज्ञानी वह है जो देख ले कि यह देखने वाला ही जब इतना पुराना है तो सामने वाली चीज नई कैसे हो सकती है? भीतर जो अहम् है वह ही इतना पुराना है तो प्रकृति कहांँ से नई हो गई? बाहर कुछ नया चाहिए तो भीतर वाले को ही बदलना पड़ेगा।
इसलिए कामना का त्याग मूर्खता है, कामना नहीं गिरेगी जब तक आत्मज्ञान नहीं है। जब तक आत्मज्ञान नहीं है अपूर्णता का खेल चलता रहेगा। और यह धोखा बना रहेगा की कामना मुझे पूर्ण कर देगी।
कामना तो बाहर विषयों की है, वह तो अभिव्यक्ति है अहंकार की। लेकिन अंदर अहंकार है, मम् है। कर्ता बैठा है जो कामना करता ही रहता है, उसे समझना होगा। इस श्लोक में श्रीकृष्ण उसी कर्ता के बारे में समझा रहे हैं।
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