क्या है जो हम और आप दिनभर खोजते हैं? क्या कहा– शांति! देखिए, खोजता तो आदमी आशांति, बेचैनी और डर में है। कभी तीर्थ में, कभी मन्दिर में, कभी मस्जिद में, वह कुछ न कुछ लगातार खोज रहा है। वह लगातार भीतर से डरा हुआ और सहमा है।
जो श्रद्धालु आदमी होता है उसको ये सब बातें साफ़-साफ़ दिखाई देती हैं कि जैसे पैदा हो गया बिना ख़ुद कुछ करे, जैसे सांसें चल रही हैं बिना ख़ुद कुछ करे, जैसे खाना पच जाता है अपनेआप मेरे बिना कुछ करे, वैसे ही मुझे डरने की क्या ज़रूरत है।
कबीर साहब कहते हैं कि खोजी है तो तुरंत मिल जाऊँ एक पल कि तलाश में, मैं तो हूँ विश्वास में। जो विश्वास में जीता है वह ग्रेस (अनुकम्पा) में जीता है। ग्रेस जानते हो? ग्रेस वो जो तुमको मिली ही हुई है बिना तुम्हारी पात्रता के; जो तुमने अर्जित नहीं करी, जो तुम्हें मिली ही हुई है। अब जगह जगह खोजना बंद करो।
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