ज्ञानवान व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार काम करता है, जीव अपने स्वभाव (अर्थात् प्रकृति) का ही अनुसरण करता है। ऐसी स्थिति में उपदेश या शासन-वाक्य (अर्थात् निग्रह), वो भी क्या काम आएगा तुम्हारे?
‘सुनने से कुछ नहीं होगा, जानने से कुछ नहीं होगा; जो होगा अर्जुन, अब प्रत्यंचा से और तीर से होगा। वही जीवन है और वही तुम्हारी कृष्ण-निष्ठा का प्रमाण है। बाकी तुमने क्या सुन लिया, क्या जान लिया, उसका दो कौड़ी का मूल्य नहीं है! मुझे तो टंकार सुनाओ, वो है तो सबकुछ है, वो नहीं है तो कुछ नहीं है। तुमने क्या जाना? बहुत तुम ज्ञान से भर गए, पूरी गीता का उपदेश तुमने सोख लिया, लेकिन उसके बाद युद्ध कहाँ है? युद्ध है तो सब है, अन्यथा तुम भी प्रकृति की धारा में वैसे ही बह रहे हो जैसे सब अन्य जीव-जंतु बह रहे हैं।‘
अगर अपने ममत्व के खिलाफ़ गांडीव पर तीर चढ़ा सकते हो तो अब सिद्ध होता है कि प्रकृति के पार गए। ये बात प्रकृति की नहीं है, प्रकृति ने ये तुम्हें नहीं सिखाया होता। अपने ही ममत्व पर तीर चलाना प्रकृति नहीं सिखाती, ये ज़रा तुम आगे निकले। वरना तो बाकी सब ऐसे ही है – ज्ञान के नाम पर मन बहलाव।
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