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वही शांत है जो एकनिष्ठ है

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अष्टावक्र गीता (प्रकरण-8, श्लोक– 4)
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2 घंटे 51 मिनट
हिन्दी
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परिचय
संरचना

कुछ सरल से प्रश्न आपके लिए:

क्या मन में सौ तरह के विचार घूमते हैं? क्या यह लगता है कि कभी इधर जाऊँ, कभी उधर जाऊँ? क्या बहुत सारे विकल्पों से मन में हमेशा तनाव बना रहता है? क्या एक निष्ठ होकर मन शांत नहीं बैठ पाता?

अगर इन सारे प्रश्नों के जवाब हाँ में हैं तो अष्टावक्र मुनि का यह श्लोक आपके लिए रामबाण हैं। साथ ही साथ, एक बहुत रोचक बात अष्टावक्र जी हमें बताते हैं कि यदि मन बंधन में होता है तो उसे सत्य की ओर जाने में तो बाधा आती ही आती है, वह तो बंधनों की तरफ भी ठीक से बढ़ने का प्रयास नहीं कर पाता। कबीर साहब कहते हैं न दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम। बस यही दुविधा, यह अहं जीना दुष्कर कर देता है।

आज अष्टावक्र मुनि इसी दुविधा को दूर करेंगे। तो आईए सीखते हैं चिंतामुक्त होना और जानते हैं मन की उस स्थिति के बारे में जो न त्यागने से घबराए और न ही ग्रहण करने से।

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