गुरु-शिष्य के बीच प्रक्रिया कुछ ऐसी ही चलती है। गुरु की कोशिश रहती है कि आप आसानी से और जो श्रेष्ठतम है उसको समझ जाएँ। बात बहुत जल्दी भी ख़त्म हो सकती है। काम आसानी से हो सकता है अगर जो सबसे ऊँचा है आप उसी को जान लें। पर वैसा हो नहीं पाता। तो फिर और नीचे-नीचे लाकर के, जितनी भी निचाई पर शिष्य होता है, गुरु उसका हाथ थामता है।
प्रयास कृष्ण का यही है कि अर्जुन जो उच्चतम तर्क है उसी से सहमत हो जाएँ। लेकिन उच्चतम तर्क से सहमत होने के लिए उच्चतम चेतना भी चाहिए। तो अर्जुन उच्चतम से सहमत नहीं होते हैं तो नीचे लाना पड़ता है। नीचे लाते-लाते भी जब अर्जुन मानते नहीं हैं तो एकदम ही बात को स्थूल कर देना पड़ता है विराट रूप दिखा करके।
आचार्य प्रशांत संग हम जानेंगे कि श्रीकृष्ण जब बोल रहे हों तो ठहर के सुन लेने में ही भलाई है।
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