डर अस्तित्वविहीन कैसे हो सकता है?
क्या डर वास्तविक होता है या हम कल्पनाओं से डरते हैं?
अगर डर अवास्तविक है तो पूरी दुनिया डर पर ही क्यों चलती है?
क्योंकि डर काम करता है, क्योंकि हम जैसे हो गए हैं, हम डर पर ही चलते हैं। हममें से कोई ऐसा नहीं है जिसने ये दीवारें नहीं खड़ी कर रखी हैं। तुमसे कह दिया जाए कि कोई परीक्षा आ रही है, इस कारण पढ़ लो, तुम पढ़ने बैठ जाओगे—डर। तुमसे कहा जाता है किसी को नमस्कार कर लो क्योंकि नहीं करोगे तो वो नाराज़ हो जाएगा, तुम कर लोगे—डर। जितनी दीवारें खड़ी करी हैं, आपने ख़ुद खड़ी करी हैं और उन्हें आज गिरा दीजिए, अभी गिरा दीजिए। बस थोड़ी सुविधाएँ छोड़नी पड़ सकती हैं, और वो भी मानसिक ही हैं। सुरक्षा का ख़्याल छोड़ना पड़ सकता है, ओर वो भी मानसिक ही है।
अगर डरना हमारी नियति होती तो संत जन उस पर कुछ बोलते ही नहीं, अगर घुटा-घुटा जीवन जीना पक्का ही होता—कि ज़िन्दगी ऐसी ही है, और हँसकर जियो या रोकर जियो, जियोगे डर में ही—तो कोई ऋषि तुमसे कोई बात नहीं करते। पर आपको आश्वस्त किए देते हैं कि जीवन ऐसा ही नहीं है।
जीवन खुला आकाश है, उसमे मज़े से उड़ सकते हो, कोई सीमितताएँ नहीं हैं। वाकई में गहराई में डर अस्तित्वविहीन हो सकता है, जानेंगे इस कोर्स का चुनाव कर के।
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