जो प्रचलित धारणा है दुर्भाग्य से कि अध्यात्म में आकर तो आदमी उदासीन हो जाता है, कई लोगों को लगता है कि अकर्मण्य हो जाता है, निकम्मा, तो वो धारणा बिल्कुल-बिल्कुल गलत है; सच्चाई उससे बिल्कुल उलट है। अध्यात्म तो आलसी को भी कर्मनिष्ठ बना दे। कृष्ण की पूरी सीख ही यही है—रुकना मत चलते जाना, बढ़ते जाना, लड़ते जाना। तुम्हारा काम है बढ़ते रहना, लड़ते रहना।
सारा अध्यात्म इसी एक शब्द में सिमटकर आ जाता है निष्कामता। और निष्कामता माने इतना ही नहीं होता कि माँगा नहीं या चाहा नहीं, निष्कामता माने होता है जान लगा दी बिना चाहे।
क्या बात है! चाहिए कुछ नहीं लेकिन जान लगा दी है। किस बात के लिए? वो तुम नहीं समझोगे। वो समझने की बात नहीं है, जीने की बात है; जो जीता है वो समझता है। सबकुछ दाँव पर लगा रखा है, जैसे उसका कुछ महत्व ही न हो। तो किसका महत्व है? वो तुम नहीं समझोगे, उसके लिए दाँव पर लगाओ पहले।
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