रमेश ने बातों- बातों में महेश से पूछा:
महेश, मृत्यु का अर्थ हो सकता है? मृत्यु माने क्या?
रमेश ने उत्तर दिया: मृत्यु मतलब अंत या कहें किसी चीज़ का खत्म हो जाना। जैसे अभी अभी वह चीज़ हमारे उपयोग के लिए थी और अब वह नहीं है। उसका उपयोग न कर पाना ही हमारे दुख का कारण बनता है और मन बेचैनी से भर जाता है।
रमेश ने फिर कुछ सोचते हुए पुनः महेश से प्रश्न किया: उदाहरण के तौर पर अगर एक मांसाहारी इंसान मुर्गे को मारकर खाता है तो क्या मुर्गे कि मृत्यु के प्रति उतनी ही संवेदना रखेगा जितनी अपने प्रियजनों के मरने के प्रति रखेगा?
महेश ने उत्तर दिया: नहीं। उसके लिए वह मुर्गा मृत जरूर है मगर स्वाद का केंद्र है, उपयोग का केंद्र है। मन स्वाद के पीछे है तो मन को कुछ पल का मज़ा मिल जाएगा। मुर्गे की मृत्यु, उस पर की गई हिंसा, उसे स्वाद के बंधन में डालेगी।
रमेश ने फिर महेश से पूछा: ये जो कुछ पल का मज़ा मिला उसे मुर्गे को खाकर, क्या ये तृप्ति अंत तक चलेगी?
महेश ने फ़िर उत्तर दिया: न, वह वृत्ति पुनः अपना मुँह फाड़े फिर खड़ी होगी और इस बार दुगने आवेग के साथ खड़ी होगी। वह फ़िर स्वाद के पीछे भागेगा।
रमेश ने सिर खुजाते हुए पूछा? तो तृप्ति मरी कहाँ उसका तो दुबारा जन्म हो गया? मानो मुर्गे की मृत्यु उसके मन को और बेचैन कर के चली गयी। मगर वादा तो खुशी और तृप्ति का लाई थी।
समझ नहीं आता किस पल बोलें कि अभी जन्म है और अभी मृत्यु?
कब माने कि यह मृत हो गई? ऐसा लगता है प्रकृति में बस गोल गोल घूम रहे हैं और दुख पा रहे हैं। जहाँ से चलते हैं वही लौट के आते हैं।
बार बार पुनर्जन्म जैसा नहीं लगता?
इस पूरे जन्म मरण जैसे दिखने वाले चक्र से आज़ादी संभव है? ये दुख खत्म क्यों नहीं होता?
आखिर क्या है ये मृत्यु?
अब रमेश जी ने यह सवाल हमारे सामने ठीक उसी जिज्ञासा से रख दिया है जैसे किसी शिष्य ने मानों ऋषि के आगे समर्पण करते हुए हारकर यह सवाल रखा हो। आज इसी सवाल को समझने की कोशिश करेंगे। उनके लिए यह वीडियो सीरीज़ जो मृत्यु को निकट से देखना और समझना चाहेंगे।
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