क्या जगत आपको दुख देता है?
क्या संसार से आपका मन हमेशा खीजा हुआ रहता है?
क्या संसार में आप बार बार असफल होने पर क्रोधित होते हैं?
क्या कोई भी अन्य व्यक्ति आपको आसानी से चोटिल कर जाता है?
अगर इमानदारी से इन सब प्रश्नों का उत्तर हाँ है तो बधाई हो आप सही जगह आकर रुके हैं। अष्टावक्र मुनि आज राजा जनक की नहीं दुविधाओं का उत्तर दे रहे हैं।
अक्सर हमें यही लगता है कि जगत ही हमारे सब दुखों का मूल है। सब दुख देने वाला जगत ही है। और चूंकि मैं और तन दोनों जगत पर ही आश्रित होते हैं तो यह स्वयं को अस्वीकर कर देने जैसा है। जो की बहुत जटिल है।
जगत में आपको अगर सब बुरा बुरा दिखा रहा है इसका मतलब जगत नहीं बुरा है। जगत से आपका रिश्ता बुरा है। जगत को नहीं अविवेक को त्यागना है। वस्तु कोई हीन या श्रेष्ठ नहीं होती आपका रिश्ता उससे गलत होता है।
जगत एक तरह का दर्पण है जैसा आप हो बिल्कुल वैसा है। अगर आप भोग दृष्टि से जगत को देखेंगे तो वह नित्य, और आपको पूर्ण कर देने वाला ऐसा प्रतीत होगा और आप बार बार चोट खाते रहेंगे।
आप सब जगह दुख ही दुख देख रहे हो इसका मतलब यह नहीं कि संसार पापी है। इसका आशय यह है कि जगत को भोग भोग कर आप तापत्रय को ही झेलोगे। आपकी भोग की इच्छा ही मूल कारण है जगत से दुख मिलना।
इस काममूल इच्छा का निवारण और जगत के प्रति सही चुनाव का विज्ञान हैं – हमारे ग्रंथ। आईए सीखते हैं मुनि अष्टावक्र जी से मन का विज्ञान।
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