जगत हमें जैसा नचाता है हम वैसे ही नाचते हैं। बल्कि यह कह लीजिए कि जगत हमें नचाने नहीं आता, हम खुद बड़े आतुर होते हैं नाचने के लिए। कभी आप संसार में कुछ पा कर बड़ा महसूस करते हो, कभी आप संसार में कुछ खोकर छोटा महसूस करते हो।
समता में स्थापित होने का अर्थ है कि न छोटा हूंँ न बड़ा हूंँ, बस हूंँ। निश्चित ही हम कुछ पाते हैं और कुछ खोते हैं। निश्चित ही हम में सुख दुख दोनों होता है। लेकिन हम में नहीं होता है। जैसे यह मन की सामग्री है, लेकिन मन का आधार नहीं। जैसे विचार का विषय है। विचार का लक्ष्य नहीं।
पर समता में कैसे रहें जब जगत अभी मिथ्या तो हुआ नहीं और थपेड़े भी मार रहा है?
कैसे ब्रह्म में स्थित हों जब हम जगत को नहीं उल्टा जगत ही हमें जीते जा रहा है?
ऐसे कुछ प्रश्नों के उत्तर जानेंगे आचार्य प्रशांत संग इस सरल से कोर्स में।
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