Description
अर्जुन विषाद में हैं। कल तक युद्ध को आतुर थे; रगें फड़कती थीं, खून खौलता था — द्यूत के बाद निर्वस्त्र बैठने का अपमान, कितने वर्षों तक जंगल की ख़ाक और वह अज्ञातवास का वर्ष, पांचाली का अपमान, भाइयों पर अन्याय — अभी आज सुबह तक ही लगता था कि बस शंखनाद हो और अतीत की सारी विषमताओं की कालिख अपने बाणों की वर्षा से धो दें। अतीत... बड़ी विचित्र चीज़ है अतीत। जन्म और मृत्यु दोनों ही बैठे हैं अतीत में। द्वैत के दोनों ही पक्ष समाये हैं वहाँ, बस अद्वैत नहीं होता। और अतीत ने क्या क्षण खोजा है अनायास प्रकट हो जाने का। ठीक तब जब अर्जुन बाण चढ़ाने वाले हैं, चालीस वर्ष पहले से एक आकृति उठ खड़ी होती है। ‘थोड़ा और नीचे से पकड़ो, प्रत्यंचा कान के पीछे तक लाओ, वत्स!’ और कोई चीख पड़ता है भीतर – न आचार्य! मुझसे नहीं होगा! फिर एक और छवि – लम्बी लहराती श्वेत दाढ़ी, वैसे ही श्वेत वस्त्र और ऊँचे पर्वतों की गूँज सी गहरी हँसी। पितामह के सशक्त बाज़ुओं में उठे हुए, उनकी दाढ़ी के बालों और मुकुट से खेलते नन्हें अर्जुन। ये कौनसी स्मृतियाँ सामने ला रहा है समय!
बालकों का एक विशाल दल, हँसता-खेलता, अठखेलियाँ, क्रीड़ाएँ करता; सब प्रसन्नवदन। कोई एक आकर अर्जुन की पीठ पर धौल जमाकर भाग जाता है। बालक चिंहुकता है, ‘कौन है? सामने आओ।’ आ गए सब सामने – वो सब-के-सब जिनके साथ खेलते थे। पीठ पर मारा ज़रूर है उन्होंने, पर अर्जुन उन्हें मार तो नहीं सकते। पितामह, आचार्य, बन्धु – इनके लिए तो जिया जाता है, इन्हें मारकर कौनसा जीवन मिलने वाला है! नहीं लड़ेंगे अर्जुन। तय कर लिया है, बिलकुल नहीं लड़ेंगे। कृष्ण मौन हैं, चुपचाप देख रहे हैं, सुन रहे हैं। इसी मुस्कुराते मौन को ही तो सत्य कहते हैं — कुछ न कहना, कुछ न करना, बस देखना। और यहाँ से आरम्भ होता है श्रीमद्भगवद्गीता का पहला अध्याय।