प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी! मैं पिछले महीने शिविर में आयी थी और एक ही दिन उपस्थित हुई और रात में मुझे मेरे घरवाले वापस ले गये थे। उस समय पर मैंने विरोध नहीं किया, आराम से बातचीत की। मैंने बोला कि आप भी चलिए मेरे साथ, अगर ऐसा कुछ है शंका या ये वो सब। तो वो नहीं हो पाया और मैं डर गयी बहुत ज़्यादा।
पिछले दस साल से मैं बैंगलोर में रह रही हूँ तो ये जो पारिवारिक नाटक है, ये सब नहीं देखा था। तो अचानक से लॉकडाउन की वजह से घर से काम करना पड़ा और एकदम से चीज़ें हुईं तो मुझे समझ नहीं आया कि मैं कैसे क्या प्रतिक्रिया करूँ और फिर घर जाकर ये सब हुआ।
इससे पहले मैं आपको पिछले एक साल से सुन रही हूँ। उपनिषद समागम के कार्यक्रम से भी जुड़ी हुई हूँ आपके साथ।
मैंने आपसे प्रश्न पूछा था कि रुचि खो रही है; बेचैनी अवसाद, ये, वो। तो आपने बताया था—"ये एक वैराग्य है।” तो आप विस्तार से अगर बता सकें कि क्या है ये 'वैराग्य'?
और मन नहीं लगता किसी भी चीज़ में।
दूसरा प्रश्न मेरा इमोशनल बैगेज (भावनात्मक सामग्री) के ऊपर है और एक पहला वो ये वैराग्य के ऊपर था।
ये सब जो कुछ भी हुआ, उसके बाद बचपन से लेकर जो भी कुछ हुआ वो सब परतें खुलती गयीं। मुझे लगा कि अतीत के जो भी घटनाएँ हैं, उन पर मैंने मिट्टी-विट्टी डाल दी है—'ठीक है-ठीक है, ख़त्म हो गए हैं, ऐसा कुछ नहीं है।' लेकिन वो इस घटना के बाद—जो मेरको वापस ले गये यहाँ से—वो खुलती गयीं और अपनेआप को मैं बस खाए जा रही हूँ। मुझे किसी को कुछ समझाना नहीं है, घर पर किसी से कुछ गिला-शिकवा नहीं है। मुझे बस मुझसे बचना है, जैसे मैं अपनेआप को ही खाए जा रही हूँ।
पीड़ित होने का नाटक नहीं खेलना मुझे अपने साथ कि हाँ, ये हुआ, वो हुआ; कुछ भी। मैं कैसे ख़त्म करूँ इन सब चीज़ों को?
पता नहीं मैंने ठीक से रखा प्रश्न कि नहीं। धन्यवाद, आचार्य जी!
आचार्य प्रशांत: 'वैराग्य' का मतलब होता है—छोटी चीज़ों, मूर्खता से भरी चीज़ों की तरफ़ आकर्षण का ख़त्म हो जाना। गन्दगी अब प्यारी नहीं लगती। इसको वैराग्य बोलते हैं।
वैराग्य का मतलब ये नहीं होता कि अब कुछ भी प्यारा नहीं लगता। वैराग्य का मतलब होता है—अब गन्दगी प्यारी नहीं लगती। अब कचड़ा रुचता नहीं। इसको वैराग्य बोलते हैं। साफ़ है न एकदम? ख़तरनाक है वैराग्य? तो अच्छी चीज़ है न? कि नहीं?
कुछ चाहते थे, वो मिला नहीं, इसलिए निराश हो गये हैं। क्या इसे वैराग्य बोलेंगे? बोलिए। नहीं, ये वैराग्य नहीं है; ये सिर्फ़ निराशा है।
निराशा और वैराग्य में क्या अंतर है? निराशा में अगर पुनः सम्भावना पैदा हो जाए मनचाही चीज़ पाने की, मनचाहा कचड़ा पाने की; तो निराशा आशा में तब्दील हो जाएगी, क्योंकि कचड़े के प्रति आकर्षण पूरा-पूरा अभी भी है। ये निराशा है। और वैराग्य कहता है कि कचड़ा तुम हमें सोने की थाली में परोस के दे दो, हम तब भी नहीं लेंगे, क्योंकि हम जान गए हैं कि ये कचड़ा है।
तो वैराग्य विवेक से अलग नहीं। वैराग्य प्रेम से भी अलग नहीं है, क्योंकि जब तक कचड़ा नहीं छोड़ोगे, तब तक हीरे-मोतियों से प्रेम कैसे करोगे? तुम ये तो नहीं कह सकते न कि मुझे धूल से और हीरे से एक साथ प्रेम है?
तो वैराग्य प्रेम भी है, वैराग्य समर्पण भी है। वैराग्य सबकुछ है। वैराग्य कोई नकारात्मक शब्द नहीं है। वैराग्य में क्या छोड़ा जाता है? सिर्फ़ वही, जो कभी पकड़ना ही नहीं चाहिए था, जो क्षुद्र है, जिसका कोई मूल्य नहीं है। उसे छोड़ने में तकलीफ़ कैसी?
आपके हाथ में धूल लग गयी है, आपने ऐसे (हाथ साफ़ करते हुए) झाड़ दी। ये बड़ी दुःख की बात है? रोएँ? शोक करें? ये वैराग्य है। और आपके हाथ में धूल लगी है; आप उसको माथे पर लगा रहे हो, सिर पर लगा रहे हो, चाट रहे हो; ये सांसारिक राग है कि संयोगवश कुछ लग गया था, उसी को चाटे जा रहे हैं। ये सांसारिक राग है।
समझ गये बात को? और क्या पूछा वैराग्य के बाद?
प्र: कुछ भी नहीं हो पा रहा मुझसे। मतलब कुछ भी नहीं हो पा रहा। मैं सिर्फ़ बैठी रहती हूँ और मन एकदम ऐसे कुंद-सा हो गया है; खाली। पूरा खाली नहीं है, पर कुछ नहीं हो पा रहा है।
आचार्य: वो तो इसलिए है, क्योंकि कशमकश चल रही है, रस्साकशी चल रही है। बात न इधर को जा रही है, न उधर को जा रही है। टग ऑफ़ वॉर (रस्साकशी) में क्या होता है?—ज़ोर पूरा लगाया जा रहा है, लेकिन कुछ हिल नहीं रहा। ये स्थिरता नहीं है; ये सिर्फ़ आतंरिक संघर्ष है। मन में गृहयुद्ध चल रहा है। किन-किन के बीच में लड़ाई चल रही है भीतर? रस्साकशी के दो पक्ष कौनसे हैं? एक—सच्चाई और दूसरी तरफ़ झूठ। सच्चाई आपके भीतर इतनी प्रबल हुई नहीं है कि आप उसे जिता दें। तो वो भीतर एकदम बराबरी का मामला चल रहा है। काटे का मैच (खेल) है भई! न ये पक्ष जीत रहा है, न वो पक्ष जीत रहा है। सब बराबर चल रहा है भीतर। बराबर का स्कोर क्या?—लव ऑल (दोनों ओर शून्य)।
किसी एक को तो लव (प्यार) कम करना पड़ेगा न? लव ऑल चलता रहेगा तो कोई नहीं जीतेगा। मैच ड्रॉ हो जाएगा, एक्स्ट्रा टाइम (अतिरिक्त समय) में चला जाएगा। एक्स्ट्रा टाइम को फिर कहते हैं—'पुनर्जन्म हो गया! पुनर्जन्म हो गया!' किसी एक के प्रति लव बढ़ाइए।
वो जो पुरानी कहानी है। भीतर दो भेड़िये होते हैं; एक सफ़ेद, एक काला। दोनों लड़ रहे होते हैं। कौनसा जीतता है?—जिसको आप जिताते हैं। लव ऑल चल रहा है; देवासुर संग्राम है; देव भी हैं, दानव भी हैं। बिलकुल बराबर की बात चल रही है। कौन जीतेगा?—जिसको आप जिताएँगी। चल रहा है भीतर सागर मंथन। शुरू में उससे क्या निकलता है?—विष। वही निकल रहा है अभी। सही पक्ष को जिताइए।
प्र: दूसरा ये था कि इमोशनल बैगेज (भावनात्मक बोझ) के बारे में कि मैं जो भी जैसे पास्ट में जैसे होता आया है, ये सब जो वृतान्त हुआ। एक मन तो कहता है कि अरे! ठीक है, छोड़ क्या, क्या करना है!, हो गया, हो गया; ये, वो। पर पूरी तरह से) उसे ख़त्म नहीं कर पा रही मैं।
आचार्य: क्या इमोशनल बैगेज है?
प्र: ठीक है, मैं खुल के बताती हूँ। अच्छा, मुझे वापस ले जाने का कारण ये था—कोई था बंदा। ठीक है? रिश्तेदारी में। वो किसी बाबा के शिविर-विविर में गये, उन्होंने अपना परिवार बच्चियाँ-वच्चियाँ छोड़ दीं। बाद में पता चला कि विवाहेतर, ये सब था। ठीक है?
अब मेरे दिमाग़ में ये बात घर गयी है कि ऐसा क्यों सोच रहे हैं कि मैं भी ऐसा करुँगी। मतलब, ऐसा कैसे सोच सकते हैं?
आचार्य: देखिए, ये समाज का सामूहिक कर्मफल है, जो सबको भुगतना पड़ता है। आप जितना भुगत रही हैं, उससे कहीं ज़्यादा तो मैं भुगत रहा हूँ न? हमारे धर्म गुरुओं और बाबों ने जो करतूतें करके रखी हैं, वो मुझे भी तो भुगतनी पड़ती हैं। पहली प्रतिक्रिया यही आती है—ठोंगी बाबा। मैंने ऐसा क्या करा है कि मुझे ये सुनना मिले? लेकिन सुनने को मिलता है।
तो ये तो हमारे अतीत का कर्मफल है, वो सबको भुगतना पड़ेगा। भुगतिए। आप भुगतिए! सब भुगतें! मैं भी भुगतूँगा।
मैं तो कई बार उस दिन को दोष देता हूँ, जिस दिन नाम के साथ ये 'आचार्य' जुड़ गया था। हटाओ इसको। सारी समस्या यही है। मुझे उससे क्या मिल रहा है? ‘आचार्य’ वगैरह से। सीधा-साधा अपना एक बढ़िया नाम है, उसको लेकर चलेंगे।
ये हमारी ही करतूतें थीं न कि हमने एकदम बेढंगे तरीक़े के लोगों को 'बाबा' बना लिया? बाबा मने 'बाप' होता है। किसी को भी बाप बोल देंगे? क्यों 'बाबा' बोला? भोले बाबा; महादेव को बाबा बोलते हैं। आपने किसी भी राह चलते को बाबा बोल दिया? गुरु बाप बराबर होता है, बाप से भी बड़ा होता है। आपने किसी को भी गुरु मान लिया? आपने नहीं, मैं पूरे समाज से बात कर रहा हूँ और आप उसी समाज के बीच रही हैं? समाज से आपने सहूलतें भी लीं हैं? तो समाज ने जो नालायकियाँ की हैं, उसका भी आपको ही अंजाम भुगतना पड़ेगा।
आप जिस माइक (ध्वनि-विस्तारक) से बात कर रहीं हैं, उसका आविष्कार आपने नहीं किया न? लेकिन फ़ायदा आप उठा रही हैं। उसी तरीक़े से समाज ने जो नादानियाँ करीं हैं अतीत में, उसका दुष्परिणाम आपको भुगतना पड़ेगा। आप ये थोड़ी कह सकती हैं कि समाज ने जो अच्छे-अच्छे काम करे हैं, मैं उसके मज़े तो लूँगी, उसका सुपरिणाम तो मैं लूँगी, लेकिन समाज ने जो गन्दगी करी है, उसके छींटें अपने ऊपर नहीं आने दूँगी। तो ये तो भुगतना पड़ेगा, सबको ही भुगतना पड़ेगा। इसमें इमोशनल बैगेज लेकिन क्या हो गया?
प्र: मुझे ये लगता है कि जैसे परिवार में सबसे बड़ी होने के नाते कि ठीक है, मैंने अपनी समझ से मतलब, जो भी था वो एक सामूहिक परिवार वाले होते हैं न—कलह-कलेश; वो सब मैंने भुगत लिया, मतलब, हो गया। समाप्त। मतलब जब अट्ठारह वर्ष की थी मैं; हो गया। अब मेरे अंदर क्षमता नहीं बची है ज़रा-सा भी, ये सब नाटक सहने की। पता नहीं कि क्षमता नहीं बची है, या इच्छा नहीं है, या ऊब गयीं हूँ; मुझे नहीं पता।|
और एक समय ऐसा आया, इस चीज़ को दिमाग़ में इतना मैंने ले लिया कि अगर मुझसे कोई भी झगड़ता है, मुझे बस पंखा और दुपट्टा दिखता है। और क्षमा करना! मुझे नहीं पता, बस ऐसा हो रहा है मन में, मेरे अंदर। मुझे नहीं चाहिए; बस हो गया। मैं तो इस बात से खुश हूँ कि दफ़्तर वालों ने वापस बुला लिया है बैंगलोर, तो ये एक बस अच्छी बात लग रही है। अब मैं कायर हूँ कि क्या? मुझे नहीं पता इस बारे में।
आचार्य: आप एसी (वातानुकूलक) का इस्तेमाल ज़्यादा किया करिए, वो सेहत के लिए ठीक रहेगा। एसी से क्लाइमेट चेन्ज (जलवायु परिवर्तन) थोड़ा बढ़ेगा, लेकिन पंखा कुछ ठीक नहीं है।
ये क्या है? ये सब—पंखा-दुपट्टा!
आप काम करती हैं; आप वर्किंग (कामकाजी) हैं; आप बैंगलोर जा रही हैं। जाइए, काम करिए। आपकी ज़िन्दगी इतनी सस्ती है? माल घटिया आता है आजकल मार्केट (बाज़ार) में, पंखा टूट गया तो? शहीद तो होंगी नहीं, हाथ-पाँव तुड़ाकर पड़ी रहेंगी अस्पताल में! कोई कहने भी नहीं आएगा कि बड़ी बहादुरी का काम किया है; एवरेस्ट पर चढ़ रही थीं, लैंडस्लाइड (भूस्खलन) हो गयी, नीचे आयी हैं।
कहीं-न-कहीं इसमें ये भाव तो है ही न किमैं शहादत दे रही हूँ। 'देखो, दुनियाँ इतनी ज़ालिम थी; मैंने अपनी बलि दे दी।' जान देनी है तो किसी अच्छे काम के लिए दीजिए, ऊँचे उद्देश्य के लिए दीजिए। ये घरेलू कलह-क्लेश में जान देना तो जान की बर्बादी हुई न? जान की बहुत नहीं क़ीमत है, लेकिन जितनी भी है, उसको ऐसे थोड़ी नाले में बहा दिया कि जान ली और छोड़ आए।
मेरे साथ कमज़ोरी का कोई काम नहीं है। अभी आप बूढ़ी नहीं हो गयीं। उम्र है, ताक़त है; ज़िन्दगी में अच्छे काम लाइए, सकारात्मक काम लाइए। बहुत कुछ है इस वक़्त दुनिया में कर के दिखाने को। और वो आपको ही करके दिखाना है। अपनी ज़िम्मेदारी पहचानिए।
आप अगर मर रही हैं तो अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ रही हैं। अपराध है इस तरह से मरना।
आप यहाँ बैठे हुए हैं, मैं लटक जाऊँ! फिर? अगला शिविर कौन करेगा? गाली और दोगे—"मर गया! तीन सवाल थे, वो रह गये।”
तो अपने लिए जियो न जियो, काम बहुत हैं,उनके लिए जीना पड़ता है न? वो काम करिए।
मुझे लग नहीं रहा, आपकी नौकरी आपको व्यस्त रखती है पूरी तरह। क्या पकड़ रखा है? ऐसे ही बोल दीजिए।
प्र: काम रहता है पर…
आचार्य: पार्ट टाइम (अंशकालिक) है?
प्र: नहीं, फ़ुल टाइम (पूर्णकालिक) है।
आचार्य: तो उसमें कामचोरी करती हैं? इतना वक़्त कहाँ से आया, मरने वगैरह का?
प्र: अभी आ रहा है। मैं जैसे बाहर रह रही थी, बैंगलोर में ही, इक्कीस-बाईस साल की उम्र से। तब में बड़ी वैसी थी, फ़ौलादी दिल की—'हाँ, ठीक है!; ये, वो।' ठीक है? मैं जब से घरवालों के बीच में हूँ न, मैं इतना अपने आप को कमज़ोर और बंधा हुआ महसूस करती हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि …
आचार्य: आपकी उम्र क्या है?
प्र: साढ़े बत्तीस।
आचार्य: ये बीस साल पुराने सवाल हैं। बारह की उम्र में आप कहतीं कि मैं घरवालों के बीच में बंधी हुई; समझ में आता। आप ख़ुद कमाती हैं, आप दस साल से कमाती हैं। आप बंधी हुई कैसे हैं? मैं जान नहीं पा रहा हूँ। क्या करते हैं आपको? बिस्तर से बाँध देते हैं? कैसे? बंधी हुई कैसे हैं आप? कैसे बंधती हैं?
प्र: यही कि फैसला सुना दिया।
आचार्य: नहीं, तो फैसला तो कुछ भी कोई सुना सकता है। मैं आपको फैसला सुना रहा हूँ—आपका कद साढ़े छः फुट है। मैंने फैसला किया। तो आप मान लेंगी? फैसला सुना दिया तो सुना दिया; आपने मान कैसे लिया? आपको मजबूरी क्या है एक्सेक्टली (ठीक-ठीक)? और जो भी मजबूरी है वो 'पंखे-दुपट्टे' से हल नहीं हो जाएगी।
मजबूरी क्या है?
प्र: मजबूरी है—मुझसे भावनाओं के बहाव संभल नहीं रहे हैं।
आचार्य: नहीं, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। क्या नहीं हैंडल हो (संभल) पा रहा? आप एक वर्किंग वुमन (कामकाजी महिला) हैं; आप दस साल से कमा रहीं हैं; आप परिपक्व उम्र की हैं। आप इतना मजबूर क्यों अनुभव कर रहीं हैं?
कोई वजह नहीं है। बस ऐसे ही। यूँ ही, आदत है। कोई पूछे—'कौन हो तुम?'—इतनी देर से मैं पूछ रहा हूँ, 'आप कौन हैं? आप कौन हैं?'—'मैं मजबूर हूँ!' मज़ा आता है, है न? ज़बरदस्ती की मजबूरी। जहाँ है नहीं मजबूरी, वहाँ भी कहना कि मैं मजबूर हूँ।
ख़ैर। छोड़िए। अब जा रही हैं आप बैंगलोर? कोई अच्छा काम पकड़िए और जितना भी समय है, उसको उसमें लगाइए।
और फिर कह रहा हूँ—ज़िन्दगी इतनी सस्ती चीज़ नहीं है कि यूँ ही आकर के कुछ उल्टा-पुल्टा कर दिया, लटक गये,ये सब। ये एकदम कमज़ोरी की बात है। बेकार की बाते हैं।
वहीँ बैंगलोर में ही कोई सार्थक काम खोजिए। अपना खाली समय उसको दीजिए, लगकर के काम कीजिए। थका करिए, मग्न रहा करिए। मौज में।