ज़िंदगी की ठोकरें खा कर सीखो, या फिर ऐसे || आचार्य प्रशांत, गुरुपूर्णिमा पर (2020)

Acharya Prashant

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ज़िंदगी की ठोकरें खा कर सीखो, या फिर ऐसे || आचार्य प्रशांत, गुरुपूर्णिमा पर (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आज गुरु पूर्णिमा का पावन अवसर है और आज सैकड़ों सवाल इस विषय पर हमें आए हैं कि गुरु कौन होते हैं?

शास्त्रीय तौर पर गुरु की जो परिभाषा की गई है और आज जैसे गुरुजन हमें समाज में मिल रहे हैं, उनमें क्या भेद है? क्या कोई भेद है भी कि नहीं?

आपको गुरु कहा जाए कि नहीं कहा जाये? इस तरह के अनेक सवाल आए हैं। उनमें से दो प्रश्नों को चुना गया है। जो मेरे माध्यम से आपके समक्ष रखे जाएँगे।

प्र१: आचार्य जी, प्रणाम। आज गुरु पूर्णिमा का पावन अवसर है। आपसे आज तक मिला तो नहीं हूंँ, लेकिन आपके वीडियोस व्याख्यान ही मेरे लिए गुरु समान हैं। सबसे पहले धन्यवाद!

श्री गुरुगीता में आया है —

'शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन । लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ।।'

यदि शिवजी नाराज हो जाएँ तो गुरुदेव बचाने वाले हैं, किंतु यदि गुरुदेव नाराज हो जाएँ तो बचाने वाला कोई नहीं। अतः गुरुदेव को सम प्राप्त करके सदा उनकी शरण में रहना चाहिए।

~श्री गुरुगीता, श्लोक ४४

प्र२: देवों में महादेव हैं शिव, स्वयं ब्रह्म रूप हैं शिव, सृष्टि के संहारक हैं शिव, पर गुरुगीता तो गुरु को शिव से भी आगे का बता रही है। ऐसा क्यों है आचार्य जी?

आचार्य प्रशांत: देखिए! जिन्हें हम शिव कहते हैं, जिसे हम ब्रह्म या सत्य कहते हैं, वो निष्काम है। बिल्कुल निष्पक्ष है। जब आप कहते हैं कि, 'वो निर्गुण या निराकार है', तो बात शायद पूरी स्पष्ट नहीं होती। हमारे संदर्भ में सत्य बिल्कुल निष्पक्ष है। उसको कहना चाहिए निरपेक्ष, निष्काम। उसे कुछ नहीं चाहिए। तो फिर जो कुछ भी हमको-आपको घटित होता प्रतीत होता है, उससे भी उसका बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं।

आपको लग रहा है कि कुछ बहुत अच्छा हो रहा है आपके साथ। आपको लग रहा है कुछ शुभ, कुछ अशुभ हो रहा है; कुछ पाप, कुछ पुण्य चल रहा है। सत्य को इन सबसे बिल्कुल कुछ लेना-देना नहीं, वो पाप-पुण्य के मध्य भी निष्पक्ष है। वह जीवन-मृत्यु के मध्य भी निष्पक्ष है।

भाई! पाप-पुण्य, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, लाभ-हानि, ये सब तो प्रकृति के भीतर की घटनाएँ हैं न? और सत्य प्रकृति में हस्तक्षेप नहीं करता। शिव प्रकृति में हस्तक्षेप नहीं करते। अब आप देखते हैं कि शेर हिरण का शिकार कर रहा है, आपके भीतर बड़ी दया उठती है। आप पाते हैं कि कहीं कोई ज्वालामुखी फट गया और उसमें बहुत सारे निर्दोष भी मारे गए, तो आपके मन में सवाल उठता है कि भगवान ये सबकुछ क्यों होने देता है? ईश्वर की इस दुनिया में बेगुनाह क्यों मारे जा रहे हैं?

कोई छोटा-सा बच्चा है चार महीने, छह महीने का, जिसने कुछ दुनिया देखी नहीं, इस जन्म में कोई कर्म किए ही नहीं, और पता चलता है उसको कोई घातक बीमारी है। उसके दिल में छेद है। हमारे भीतर सवाल उठता है। बल्कि विद्रोह सा ही उठ जाता है कि ईश्वर यह सब क्यों करता है? क्यों करता है? क्योंकि वो कुछ नहीं करता है। वो अकर्ता है।

उसे कुछ करना ही नहीं। जो कुछ हो रहा है वो उसका बड़ा निरपेक्ष साक्षी मात्र है। जो कुछ हो रहा है वो कहाँ हो रहा है? वो प्रकृति में हो रहा है। और प्रकृति हमारे, आपके लिए है। वो जिसको हम पारब्रह्म कहते हैं, उसके लिए तो प्रकृति है ही नहीं। हम चूँकि प्रकृति के उत्पाद हैं, तो इसीलिए हमको चारों तरफ़ क्या दिखाई देती है? प्रकृति ही प्रकृति।

हम चूँकि माया से उठे हैं, तो इसीलिए हमें चारों तरफ़ सिर्फ़ माया ही माया दिखाई देती है। और माया के भीतर ही ये सब चल रहा है; शकुन-अपशकुन, दिन-रात, सर्दी-गर्मी। सारे द्वैत वहीं पर हैं। इन सब द्वैतों में कुछ हमारे लिए भले होते हैं, कुछ हमारे लिए बुरे होते हैं। किसके लिए भले-बुरे होते हैं? किसके लिए? हमारे लिए! उसके लिए न कुछ भला है, न कुछ बुरा है। वो सम दृष्टा है। तो उसकी कोई रुचि नहीं है किसी का भला करने में।

ये बात बिल्कुल गौर से समझिएगा!

इसीलिए जब आप अपनी भलाई चाहते हैं, तो आप सत्य के सम्मुख विनती या प्रार्थना नहीं करते। जब आप-अपनी भलाई चाहते हैं, या अपनी मनोकामना की पूर्ति, तो फिर आप जाते हैं किसी देवी-देवता या ईश्वर के पास। शिव कोई देवी-देवता, ईश्वर नहीं है।

हाँ, जो लोग बात को समझते नहीं वो शिव की मूर्तियाँ वगैरह बना करके, उनको भी देवताओं के तल पर रखना शुरू कर देते हैं, और वहाँ भी प्रार्थना करेंगे, और कुछ फरियाद करेंगे। कुछ कहेंगे कि, 'आशीर्वाद दे दो, वरदान दे दो।' ये सब बातें। लेकिन अभी आपने शिव सूत्र को उद्धृत किया? किसको उद्धृत किया आपने?

प्र गुरुगीता।

आचार्य: आपने गुरुगीता को उद्धृत किया। आप गुरुगीता जैसे ग्रंथों के पास जाएँगे, या रिभुगीता के पास जाएँगे, जो भी मूल, ठोस अद्वैत के ग्रंथ हैं, तो वहाँ पर आप शिव का मूर्त रूप तो बिल्कुल नहीं पाएँगे। एकदम ही नहीं। वहाँ पर शिव क्या हैं? सिर्फ़ और सिर्फ़ पूर्ण सत्य! पूर्ण ब्रह्म!

और सत्य को न किसी की भलाई दिखाई देती है, न बुराई दिखाई देती है। सत्य पूर्णतया निस्पृह, निरपेक्ष है। तुम्हारा भला हो रहा है, तुम जानो! तुम्हारा बुरा हो रहा है, तुम जानो! सत्य तो करुण भी नहीं है; वो आकर के आपके प्रति प्रेम, करुणा, कंपेशन , कुछ भी नहीं दर्शाने वाला।

ये बात हममें से कुछ लोगों को थोड़ी विचित्र लगेगी। क्योंकि हमारे मन में धारणा कुछ ऐसी है कि भाई! ब्रह्म, ईश्वर और सत्य, ये सब एक ही तरह के शब्द हैं। कुछ मिलती-जुलती-सी बातें हैं। और हमने तो यही माना है कि ईश्वर बड़ा दयालु होता है। हम कभी कहते हैं कृपा निधान। कभी कहते हैं दया निधान। इसी तरह से कहते हैं न? हमारे भजनों में और आरतियों में भी इस तरह के उल्लेख होते हैं कि, 'तू तो सबकी फ़रियादें मानता है। तू तो सबकी प्रार्थनाएँ सुनता है। तू तो सबकी कामनाएँ पूरी करता है।' वो सब बातें देवी-देवताओं तक ठीक हैं।

पर जब बात सत्य की आती है, शिव की आती है, सत्यशिव की आती है, तो वहाँ पर आपकी कामना की पूर्ति का कोई सवाल नहीं उठता, क्योंकि पूर्ण जहाँ है, वहाँ आप हैं ही नहीं। जब आप ही नहीं हैं, तो आपकी कामना की पूर्ति कहाँ से होने वाली है? यह बताइए!

कुछ बात समझ में आ रही है?

जहाँ पूर्ण है वहाँ पर जगह कैसे बन गई कि थोड़ा-सा उसमें आप भी कहीं ठुस करके आ गए, कि हम भी तो हैं! पूर्ण तो वही है, तो आप कहाँ से आ गए? जब आप ही नहीं हैं, तो आपकी कामना क्यों पूरी करेगा पूर्ण?

जो पूर्ण है, माने वही है, सिर्फ़ वही है! उसके अलावा तो कुछ नहीं हो सकता न, क्योंकि पूरा वही है। जब पूरा वही है, तो आप हो कहाँ? आप हो ही नहीं। जब आप हो ही नहीं, तो आपका भला हो रहा हो है, बुरा हो रहा है, आप जी रहे हो, मर रहे हो, बीमार हो, स्वस्थ हो, इससे शिव को, सत्य को, ब्रह्म को कोई प्रयोजन नहीं है!

बात समझ में आ रही है?

तो उनकी तरफ़ से तो बस प्रकृति का खेल है। और आप उस प्रकृति के एक अवयव हो, एक उत्पाद हो।

और प्रकृति का ही एक तत्व होता है अहम्। प्रकृति का ही एक तत्व है अहम्। अहम् प्रकृति का वो तत्व है, जो आधा चेतन है और आधा जड़। वो है तो प्रकृति में, उठा तो प्रकृति से है, पर उसको कुलबुलाहट मची रहती है प्रकृति के पार जाने की। या यह कह दीजिए कि शिव की प्रकृति में, या शिव की शक्ति में, या शिव की माया में, वो जो अंश है जो शिव से जुड़ा हुआ है और शिव की ओर जाना चाहता है, उसका नाम है अहम्।

शिव से ही यह सारी प्रकृति, ये संसार, ये माया सारी उत्भूत है न? तो जब शिव से ही है, तो शिव से कोई तार होगा उसका? ये प्रकृति का पूरा विस्तार है और शिव है, तो प्रकृति का जो तार लगातार शिव के साथ जुड़ा हुआ है उस तार को कहते हैं अहम्! तो उस तार की बात ये है कि एक तरफ़ तो वो फँसा हुआ है किधर? प्रकृति में। और दूसरी तरफ़ वो जा रहा है किधर को? शिव की ओर। वो अहम् है।

तो शिव ने इस अहम् को बिल्कुल सुविधा दे दी है, छूट दे दी है कि इधर भी रह सकते हो। किधर? प्रकृति की ओर भी और दूसरे सिरे पर तुम मेरी तरफ़ भी आ सकते हो। जिधर जाना है, उधर चले जाओ। और ये छूट देकर के शिव वही कर रहे हैं जो शिव सदा करते हैं। क्या करते हैं? वो कुछ नहीं कर रहे, वो मौन बैठे हैं, अविचल।

उन्हें कुछ करना ही नहीं है। करने-धरने की सारी ज़िम्मेदारी, ये सब उन्होंने किसको सौंप दी? उन्होंने आपको सौंप दी। आप ही तो अहम् हैं और कौन है अहम्? आपके भीतर जो चेतना बैठी है वो अहम् है और ये जो चारों ओर ये आपने इकट्ठा कर रखा है, ये बात प्रकृति के बाकी भूत हैं। जैसा पारंपरिक तौर पर कहते हो न जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश, वो सब है हाड-माँस। और जो भीतर से बक, बक, बक, बक बोलता रहता है। मैं, मैं, मैं, मैं करता है, उसको बोलते हैं अहम्।

तो शुभ-अशुभ करने का ठेका किसको मिला हुआ है? अहम् को। शिव अपने ऊपर कुछ लेते नहीं। वो बोलते हैं: मुझे जो देना था दे दिया। और संभावना के तौर पर, पोटेंशियल के तौर पर, अहम् को इतनी तक ताक़त दी है कि वो सीधे शिव हो जाए।

अहम् क्या है? जो एक तरफ़ किससे जुड़ा हुआ है? शिव से। और दूसरी तरफ़ किससे जुड़ा हुआ है? प्रकृति से। तो अहम् को पूरी छूट है, माने हमें पूरी छूट है। हम माने अहम्। हमें पूरी छूट है कि हम उधर से लेकर के उधर तक के, किधर के भी हो सकते हैं, कितने भी हो सकते हैं।

बात समझ में आ रही है?

और तुम किधर के हो जाते हो इसका फैसला शिव नहीं करने वाले। सबकुछ आपके हाथ में है। भला करें, तो वो आपने करा। बुरा करें, तो वो आपने करा। शिव आपके इन छोटे-छोटे मसलों में हस्तक्षेप करने ही नहीं वाले। उन्हें क्या पड़ी है आपकी दिनचर्या में दखलअंदाजी करने की? कि आप किसी को गाली दे रहे हो और शिव ऊपर से आकर के टोका-टोकी करें कि, 'देखो! यह गलत बात है; ऐसे नहीं होना चाहिए।'

उनके उधर कुछ गलत होता ही नहीं। वो तो स्वयं शुभ हैं। वो जहाँ हैं वहाँ कुछ गलत होता नहीं। हाँ, आपकी दुनिया में बहुत कुछ गलत हो सकता है, वो आप जानिए।

अगर आपकी दुनिया में कुछ गलत होता है, तो उसका उत्तरदायित्व शिव का नहीं है। क्योंकि सही करने की पूरी छूट और पूरी ताक़त शिव ने आपको पहले ही दे रखी है। आप सही न करें, तो आप जानिए। वो ऊपर से दखलंदाजी नहीं करने वाले।

न तो वो भीतर से कोई आवाज़ मारेंगे, न ऊपर से कुछ होगा, न धरती फाड़कर कोई निकलेगा, किसी भी दिशा से कोई नहीं आएगा आपको ये कहने कि, 'तुम जो कर रहे हो गलत कर रहे हो।' क्योंकि भाई! सही करने की शक्ति, सही करने की संभावना उन्होंने आपको दी न? तुम करो, तुम जानो।

अब अगर वो तुम्हारी इस आज़ादी में हस्तक्षेप करें; तो वो शिव नहीं है फिर। फिर तो वो किसी क़िस्म के तानाशाह वगैरह हो गए। अधिनायक!

संसार है; उत्तर कोरिया थोड़ी ही है। यहाँ जो करना चाहो, करो। कोई तानाशाह करके टोका-टाकी नहीं करेगा। बाल ऐसे कटवाने हैं, इतना ही खाना है, इस तरह की शर्ट पहनो। शिव बिल्कुल नहीं टोकने वाले।

इसीलिए देखते नहीं हो कि लोग एक से एक घटिया काम कर लेते हैं और फिर भी चहक रहे हैं। कभी ऐसा होता है, कोई मासूम जानवर है, कोई उसकी अब गर्दन काटने ही जा रहा है, वो भी धर्म के नाम पर गर्दन काटने जा रहा है, तो अचानक आकाश में बिजली कड़के और आकाशवाणी हो कि, 'रे पापी! अभी बताता हूँ तुझे, मज़ा चखाता हूँ।' ऐसा होता है? कुछ नहीं होता।

तुम हत्या कर लो, तुम कोई कुकर्म कर लो, तुम बलात्कार कर लो, तुम एक से एक भ्रष्ट कोटि के काम करे जाओ। ये तो हो सकता है कि तुमको पुलिस आकर रोक ले। ये भी हो सकता है कि तुम्हारी अपनी नैतिकता तुमको आकर के रोक ले। लेकिन ऐसा तो नहीं होने वाला है कि आकाश से कोई देवदूत उतरे और तुम्हें रोक ले।

कभी हुआ है ऐसा? ऐसा तो नहीं होता न? तो वो इसीलिए नहीं होता क्योंकि सत्य की, शिव की, ब्रह्म की, कोई रुचि नहीं है तुम्हारे मामलों में टाँग अड़ाने की। तुम जानो!

अब समझो कि फिर शिव में और गुरु में अंतर क्या है? गुरु की रूचि है, गुरु निष्काम नहीं होता। शिव निष्काम हैं; गुरु निष्काम नहीं है। शिव तो पार है; गुरु पार नहीं है, गुरु अटका हुआ है। गुरु तुम्हारे ही जैसा है, वो अटका ही हुआ है। तुम्हारे पास भी कामनाएँ हैं, गुरु के पास भी कामनाएँ हैं। तुम्हें भी दर्द होता है, गुरु को भी दर्द होता है।

शिव के सामने तुम बोलो कि तुम्हें दर्द हो रहा है, दर्द हो रहा है। वो तुम्हारा मज़ाक भी नहीं उड़ाएँगे। क्योंकि तुम्हारी भाषा उन्हें समझ में ही नहीं आनी। उनके विश्व में, उनके कोष में पीड़ा जैसा कोई शब्द है क्या? बोलो! सत्य को कोई अनुभव हो भी सकता है पीड़ा का, चाहे सुख का? हो सकता है?

अनुभव करने के लिए सदा दो चाहिए न? तुम किसी चीज़ का अनुभव करो, उसके लिए कोई चीज़ चाहिए तुमसे जो अलग हो। कोई अनुभोग्य पदार्थ चाहिए, कोई अनुभोग्ता चाहिए। शिव तो फिर याद करो कि क्या हैं? पूर्ण! तो उन्हें उनसे पृथक कोई भोग्य पदार्थ मिलेगा कैसे, जिससे उन्हें कुछ अनुभव हो? तो उन्हें आज तक कोई अनुभव हुआ ही नहीं।

ये सब जो तुम किस्से-कहानियाँ पढ़ते हो कि देवी सती हो गईं, तो शिव रोने लग गए, वगैरहा-वगैरहा। ये सब बातें किसी अवतार पर तो लागू हो सकती हैं, किसी सगुणी ऋषि पर तो लागू हो सकती हैं; पर निराकार ब्रह्म पर लागू नहीं हो सकती। निराकार ब्रह्म को कोई अनुभव नहीं होता। जब उसे कोई अनुभव नहीं होता, तो तुम्हारे दुख का भी उसे अनुभव कैसे होगा?

तो बड़े टेढ़े तरीके से वो जो हमारी पुरानी कहावत है न — 'जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।' ये बात ब्रह्म पर भी लागू होती है। वो ऐसा बैठा हुआ है कि उसे ख़ुद तो कभी कोई दर्द होता नहीं, तो तुम्हारा दर्द वो क्या समझेगा? वो तो सब द्वैत से परे है। सुख-दुख धूप-छाँव उसे कुछ पता ही नहीं।

तुम्हें हो रहा है ये सबकुछ। तुम जाकर के फरियाद कर रहे हो, गुहार लगा रहे हो। वो ऐसे देख रहा है तुमको! (चेहरा हाथ पर टिकाकर और आँखें झपका कर) कह रहा है, तुम हो कौन? मेरे लिए तो तुम हो ही नहीं। मैं ही मैं हूँ। और वही, वही है! बात बिल्कुल सही है!

परमार्थिक दृष्टि से तो सत्य मात्र ही है न? तुम्हारा तो कुछ भी सत्य को समझ में आना नहीं है। गुरु को समझ में आता है, क्योंकि जैसे तुम्हें दर्द होता है गुरु को भी दर्द होता है। जिन अनुभवों से तुम गुजरते हो उन्हीं से गुरु भी या तो गुजर रहा है या गुजर चुका है। तो जानता है तुम्हारा हिसाब-किताब पूरा।

बात समझ में आ रही है?

गुरु तुम्हारे जैसा है। तुम्हारी श्रेणी का है।

तो इसलिए श्लोक कह रहा है कि शिव अगर तुमसे रूठ गए, तो गुरु सहारा हो जाता है। गुरु रूठ गए तो…, इसी बात को कबीर साहब ने आगे आकर के और ज़्यादा सुबोध भाषा में कहा है। वो दोहा तो आप जानते ही होंगे?

बात समझ में आ रही है?

गुरु में करुणा है; सत्य में कोई करुणा नहीं होती। गुरु क्योंकि स्वयं पीड़ा से गुज़र चुका है या गुज़र रहा है इसीलिए गुरु को समझ में आता है कि दर्द क्या होता है, इंसान के आँसू क्या होते हैं। पारब्रह्म को न दर्द समझ में आना है, न आँसू समझ में आने हैं। वो क्या है? वो तो पार है न! पार! किससे पार? दर्द से भी पार, आँसुओं से भी पार। उसे कुछ नहीं होना।

तो इसीलिए फिर संतो ने यहाँ तक कहा है कि, 'बेटा! ऊपर वाले तू तो हमारी भलाई का इच्छुक है ही नहीं। तूने तो माया रची और हमें उसी माया में बिल्कुल झोंक दिया। हमारा भला तो किसी ऐसे ने ही करा जो उस माया के भीतर का था। तू ख़ुद तो माया के बाहर बैठा है और वहाँ से बिल्कुल साक्षी भर होकर के माया को देखता रहता है। तुझे तो कोई रुचि ही नहीं है कि माया टूटे। क्योंकि तेरी ही है ये माया। तेरी ही रची माया है और उसमें तूने इतने जीवो को फँसा रखा है।' कहने का तरीका है। एक मीठी उलाहना है।‌ 'लेकिन इसी माया के भीतर गुरु है; काम तो हमारे वही आया।'

समझ में आ रही है बात?

तो ये गुरु की विशेषता है, यही गुरु की सीमा भी है। यही गुरु का बड़प्पन है और इसी में गुरु की लघुता भी है कि वो तुम्हारे ही जैसा है। गुरु तुम्हारे काम का भी इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारे ही जैसा है। और गुरु में सदा कुछ प्रकृतिगत गुण भी पाए जाएँगे। जिन्हें तुम दोष या विकार कह सकते हो; क्योंकि वो तुम्हारे जैसा है।

तो तुममें जो गुण-दोष होते हैं, वो किसी न किसी अंश में गुरु में भी पाए जाते हैं निश्चित रूप से। एक तो विकार यही पाया जाता है कि गुरु में अभी कामना शेष होती है। अब इसको तुम गुरु का दोष भी बोल सकते हो। या यही गुरु की कृपा है, अनुग्रह है। क्योंकि अगर गुरु में कामना नहीं शेष होगी, तो वो तुम्हारी मुक्ति या भलाई की कामना भी क्यों करेगा?

समझ में आ रही है बात?

गुरु अगर पूर्ण ही हो जाए, तो वो तुमसे संबंध क्यों बनाएगा? गुरु को भी अभी बदलाव चाहिए। उसे बदलाव न चाहिए होता, तो वो तुम्हारे ऊपर मेहनत क्यों करता?

समझ में आ रही है बात?

तो दुधारी तलवार है। आप जिसको गुरु कहते हो उससे ये अपेक्षा कभी मत कर लेना कि उसमें तुम्हें पूर्ण शिवत्व दिखाई दे जाएगा। गुरु में अगर तुम्हें पूर्ण शिवत्व दिखाई दे गया तो ये महान घटना है, लेकिन इस घटना के बाद गुरु तुम्हारे किसी काम का नहीं रह जाएगा। वो भी फिर शिव हो गया। और शिव माने तुमसे इतनी दूरी का, इतनी दूरी का, कि उसे अब तुमसे कोई लेना-देना नहीं। आयाम ही दूसरा हो गया। तुम्हारे और उसके मध्य संपर्क के, संबंध के, सारे सूत्र टूट गए। अब वो तुमसे न बात कर सकता है, न चीत कर सकता है। वो तुम्हें पहचान ही नहीं सकता, तुम हो कौन?

गुरु अगर पूर्णतया निर्दोष, निर्विकार हो गया, तो अब वो तुम्हारे लिए पूर्णतया अनुपयोगी भी हो गया। लेकिन गुरु उपयोगी है तभी तक जब तक उसमें दोष हैं, माने गुरु की संगति में खतरा भी है क्योंकि अभी तो गुरु में दोष हैं। उपयोगी है लेकिन दोषपूर्ण है। कुछ न कुछ उसमें भी अभी वही लक्षण, वही चिन्ह, वही विकार बाकी हैं, जिनकी वजह से तुम रोते हो, परेशान हो, आँसू बहाते हो।

तो फिर अनुशासन चाहिए और उत्तरदायित्व चाहिए, अपना जिम्मा लेना होगा। बच्चा बनकर ये नहीं कह सकते कि गुरुदेव देख लेंगे! गुरुदेव देख लेंगे। भाई! गुरुदेव तुमसे आगे हैं लेकिन हैं तुम्हारे ही जैसे। खुद भी ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी। तो इसीलिए अंधभक्ति बुरी होती है। और किसी जीवित इंसान की, जिसको तुम गुरु वगैरह कहते हो उसकी अंधभक्ति तो बहुत बुरी होती है, क्योंकि ये करके मैंने कई दफ़े कहा है, तुम उस इंसान का ही काम बहुत मुश्किल कर देते हो, और अपने कर्तव्य से पीछा छुड़ा लेते हो।

तुम कहते हो, वह तो गुरु है न। और गुरु का तो मतलब होता है, वो जो अब पूर्ण हो गया, वो जो अनंत हो गया। और पता नहीं क्या हो गया। पूरा, जो भी तुम्हारी कल्पनाएँ हैं। वो सारी कल्पनाएँ सिर्फ़ अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ने का तरीका हैं न?

तुम कहते हो, भाई! मैं तो ऐसा ही हूँ शुद्र, सीमित। और गुरुदेव हैं, वो महान हैं, बड़े हैं। तो अब तो जो होना है गुरुदेव करेंगे। गुरुदेव कौन हैं, तुम समझते भी हो? गुरुदेव तुम्हारे ही आयाम का, तुम्हारे ही जैसा कोई इंसान होता है। वही अहम् की डोरी होती है। उस अहम् की डोरी पर एक तरफ़ प्रकृति और उसके गुण हैं और दूसरी तरफ़ शिव हैं। तो वो जो डोरी है, उसको तुम मान लो कि एक स्केल है।

बात समझ में आ रही है?‌

उस पर वो तुमसे ज़रा आगे है। एक सीढ़ी हो जैसे ज़मीन से आसमान के बीच की। तुम ज़मीन पर बैठे हो, वो उस सीढ़ी पर ज़रा आसमान की और चढ़ा हुआ है। वो आसमान पहुँच नहीं गया है। हाँ, आसमान के प्रति उसमें शायद प्रेम थोड़ा ज़्यादा होगा।

तुमसे ऊपर है। लेकिन तुमसे इतना ही ऊपर है वो, कि ऊपर से नीचे हाथ अगर बढ़ाए तो तुम उसका हाथ पकड़ सको। तुमसे वो बहुत ऊपर निकल गया, तो तुम्हें नीचे ऐसे हाथ देगा भी, तो तुम पकड़ कहाँ पाओगे। या पकड़ पाओगे?

समझ में आ रही है बात?

तो जो ऊपर है, उसका तो जो कर्तव्य है सो तो है ही; नीचे वाले का भी तो बड़ा कर्तव्य है न। ऊपर से हाथ नीचे को दिया जा रहा है, तो तुम क्या चाहते हो, ऊपर वाला ही नीचे आ जाए? और क्योंकि तुम नीचे हो तो तुम यह चाहोगे कि तुम अपनी ओर से कोशिश करके थोड़ा ऊपर उठो? और तुम भी अपना हाथ ऊपर करो, ताकि हाथ मिल सकें?

और धुरंधर एक से एक होते हैं। ऐसे भी होते हैं जो नीचे से हाथ बढ़ाते हैं, और झटका देकर नीचे ले लेते हैं। बोलते हैं हम ऊपर क्या उठें; आओ! तुम नीचे आओ बहुत प्यार है तुमसे। गले मिलेंगे। और नीचे से ऊपर उठना तो कष्टप्रद होता ही है; ऊपर वाले को नीचे खींच लेने में क्या बात है। अपना श्रम भी नहीं लगता और गौरव भी बहुत होता है कि ताकत देखो हमारी! हुनर देखो! गुरुजी ऊपर बैठे थे, हमने ऐसा उनको स्पर्श किया कि वो बिल्कुल धड़ाम से नीचे आकर गिरे हमारे सामने, हमारे ही तल पर।

तो गुरु को कोई रहस्य वगैरहा मत बना दो। कि कोई तिलिस्मी कहानी जैसी रच दी: गुरु! (हाथों को जादूगर की तरह गोल-गोल घुमाते हुए) कुछ नहीं गुरु! तुम अगर चेतना के तल पर ऊपर उठ रहे हो, तो आज तुम जो हो, वो उसका गुरु हुआ मान लो जो तुम आज से दस वर्ष पूर्व थे।‌ बात समझ में आ रही है?

तुम आज पैंतीस के हो और मैं यह मान रहा हूँ कि तुमने पंद्रह से पैंतीस के बीच में ठीक ज़िंदगी जी है। तुम लगातार एक बेहतर इंसान बनते चले गए हो। तुम्हारी चेतना उच्चतर और शुद्धतर होती गई है। तो जो पैंतीस साल के तुम हो, वो उसका गुरु हुआ जो तुम पच्चीस साल में थे। बस ऐसा ही है गुरु। अब बताओ इसमें कहाँ कोई रहस्य है? कहाँ इसमें कोई इतनी, कोई गुह्य या गोपनीय बात है? कुछ नहीं है न?

भाई! एक दफ़्तर भी होता है, वहाँ तुम्हारा कोई वरिष्ठ होता है, तो वो तुमसे ऊपर है। तुम उसकी बात सुनते हो। लेकिन तुम ये थोड़ी न कहते हो कि, 'तुम मुझसे ऊपर हो, तो सारा काम तुम्हीं करोगे।' या ऐसा करते हो? तो वैसा ही समझ लो! चेतना के दफ़्तर में तुमसे ऊपर जो बैठा है, उसका नाम गुरु है। उसकी बात तो सुननी है पर ये थोड़ी न कह देना है कि सारा काम तो आप ही करेंगे न। आप तो शिव के ज़्यादा निकट हैं। हमारा क्या काम है? हम तो नीचे बैठकर गुरु भजन करेंगे।

अपनी-अपनी नैया सबको ख़ुद ही खेनी पड़ती है। कौन गुरु कौन चेला? 'गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेला की करनी चेला।' कोई यहाँ किसी को तार नहीं सकता।

समझ में आ रही है बात?

तुम्हारा कोई दफ़्तर में वरिष्ठ हो, बॉस हो, वो तुम्हें कितना भी समझा ले, कितनी भी सुविधाएँ दे दे, कितना भी प्रशिक्षण दे दे, तुम काम नहीं करोगे तो तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। या बचा सकता है? काम तो तुम्हें ही करना है। वही हाल गुरु का है।

फिर किसी ने पूछा कि, 'माने अगर कोई गुरु न हो, तो सत्य के भरोसे कोई क्या बिल्कुल नहीं सीख सकता?' गुरु माने देही गुरु, शरीरी गुरु। वो बात तुम्हारे प्रश्न से संबंधित है, उसको जोड़े दे रहा हूँ।

गुरु! मैंने कहा कि हमारे ही तल का होता है। वो हमारा दुख-दर्द समझता है। चूँकि वो हमारा दुख-दर्द समझता है, तो इसीलिए हमें सीख भी इस तरह से देता है कि हम सीख भी जाएँ और न्यूनतम हमको दर्द हो सीखने की प्रक्रिया में।

गुरु चूँकि जानता है कि दुख क्या चीज़ होती है, तो वो तुमको सीख इस तरीके से देता है कि तुम सीख भी जाओ, बेहतर भी हो जाओ और दर्द भी तुम्हें कम से कम झेलना पड़े। कुछ दर्द तो झेलना पड़ेगा, दर्द बिना कुछ सीख होती नहीं। लेकिन वो इतना ख़्याल रखता है कि भाई तुम्हें इतना ही कष्ट न मिल जाए कि तुम ख़त्म ही हो जाओ।

एक तरीके से शिव भी सिखाते हैं। शिव सिखाते हैं प्रकृति या शक्ति के माध्यम से। लेकिन वो जो सिखाते हैं, वो सिखाने में इस बात का ख़्याल नहीं रखते कि तुम्हें दर्द कितना होगा, तुम बचोगे कि नहीं बचोगे, तुम्हारा क्या होगा। प्रकृति में चलता है कर्मफल का सिद्धांत। तो शिव सिखाते हैं प्रकृति के माध्यम से, माने कर्मफल के सिद्धांत के माध्यम से। तो वो ऐसे सिखाते हैं कि बेटा! जो करना है करो। हत्या करनी है, हत्या करो। घूस खानी है, घूस खाओ। अधर्म करना है, अधर्म करो। हम रोकेंगे-टोकेंगे नहीं। लेकिन जो कर रहे हो उसका नतीजा भुगतोगे।

अब वो नतीजा जो भी होगा तुम वो भुगतोगे, उसमें कोई रियायत नहीं है। कुछ लोग उस नतीजे से सीख लेते हैं, तो फिर उनको किसी शरीरी गुरु की ज़रूरत नहीं पड़ती। वो फिर कहते हैं कि, 'साहब! हमने तो ज़िंदगी के अपने अनुभवों से ही सीख लिया।' पर जो ज़िंदगी के अनुभवों से सीख रहे हैं, वो ज़िंदगी की लाठी भी सहने को तैयार रहें। और ज़िंदगी की लाठी बड़ी बेदर्द, बड़ी निर्मम होती है। वो ये नहीं देखेगी कि तुम बचे कि टूटे।

तुम अंधे होकर के चले जा रहे हो किसी खड्ड की ओर; ज़िंदगी आ करके तुमको चेताएगी नहीं। ज़िंदगी तो कहती है, तुम गिरो! अगर ज़िंदा बच गए, तो अगली बार ये हरकत नहीं करोगे। और मर गए तो मर गए। ज़िंदगी ऐसे सिखाती है। ज़िंदगी माने प्रकृति। प्रकृति सिखाती है किसके माध्यम से? कर्मफल के माध्यम से कि तुम गड्ढे की ओर जा रहे हो, तुम्हें..—ऐसा होता है, तुम गड्ढे की ओर जा रहे हो और प्रकृति तुम्हें रोकने आ गई?

एक विशाल बरगद का पेड़ था, उसने अपनी एक शाख लंबी करके तुम्हें रोक दिया कि, 'नहीं बेटा! आगे मत जाना, आगे गड्ढा है।' तुम गिर रहे हो गड्ढे में, गिरो! तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।

प्रकृति कहती है, या तो मरेगा। मर जाए तो मर जाए! इतने जीव हैं जो प्रतिपल मर रहे हैं, क्या फर्क पड़ता है? एक और मर जाएगा। और अगर बच गया, तो हो सकता है सुधर जाएगा।

कुछ लोग बचकर सुधर भी जाते हैं। तो तुम वो रास्ता भी अपना सकते हो, 'कि हमें कोई गुरु वगैरह नहीं चाहिए। हम गड्ढे में गिरेंगे, बच गए तो सुधर जाएँगे।' वो भी एक रास्ता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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