ज़िन्दगी बेचे बिना कैरियर नहीं बनेगा? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी पटना सत्र (2021)

Acharya Prashant

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ज़िन्दगी बेचे बिना कैरियर नहीं बनेगा? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी पटना सत्र (2021)

प्रश्नकर्ता: आईआईटी पटना के कुछ छात्रों के प्रश्न थे। जैसे काफ़ी सारे विद्यार्थी ये जानना चाह रहे थे कि सक्सेस (सफलता) क्या है, और ऐसा करियर कैसे चुना जाए कि हमें सक्सेसफुल (सफल) महसूस हो? अगर हम उदाहरण के तौर पर देखें कि किसी की इच्छा अगर पेंटर बनने में है, तो वो उस करियर में जाए या वो ऐसा करियर चुने जिससे वो और ज़्यादा अच्छे ओहदे और अच्छी पॉजिशन प्राप्त कर सके? तो सफलता क्या होगी फिर?

आचार्य प्रशांत: पेंटर बनकर अच्छा ओहदा प्राप्त करो, ये कैसा रहेगा?

प्र: लेकिन उसके चूँकि चांसेस (अवसर) बहुत कम हैं।

आचार्य: तो बढ़ा लो! चांसेस कम हैं, ज़ीरो तो नहीं हैं न? बेस्ट ऑफ बोथ वर्ल्डस (दोनों हाथों में लड्डू), पेंटर भी बन गए, ओहदा भी मिल गया। और इन दोनों चीज़ों में, पेंटर बनने में और ओहदा पाने में, पेंटर बनना पहले आता है। पेंटर बन गये, काफ़ी कुछ मिल गया; ओहदा भी मिल गया तो सोने पर सुहागा। और बेहतर हो गया, नहीं?

प्र: सर, लेकिन इस यात्रा में क्या होता है कि जो हमारे कलीग्स (सहकर्मी) होते हैं, फ्रेंड्स (दोस्त) होते हैं, उन्होंने कुछ और प्रोफेशन चुना जिसमें उन्हें बेटर पोज़ीशन और ज़्यादा सैलेरी मिल रहा है, तो एक फील ऑफ जेलेसी (ईर्ष्या की भावना) आता है। जैसे अब हम अंडरग्रेड स्टूडेंट्स की बात ही करें, तो प्लेसमेंट के टाइम पर काफ़ी डिफरेंस (अंतर) होता है लोगों के पैकेजेस में।

आचार्य: इतने सारे लोग जो बैंकों में घपला-वपला करके भाग जाते हैं, उनके पास तुम्हारे किसी भी दोस्त से कहीं ज़्यादा पैसा होगा, तो तुम्हें उनसे भी जलन होती है?

प्र: नहीं।

आचार्य: क्यों नहीं होती?

प्र: क्योंकि वो एक ग़लत तरीके से कमाया हुआ धन है, और उसमें..।

आचार्य: ग़लत की परिभाषा क्या है? अभी यही समस्या है न, तुम देख नहीं पा रहे कि तुम्हारे दोस्त जिन राहों पर चल रहे हैं, वो भी ग़लत राहें हैं। जैसे ग़लत रास्ते पर कोई पाँच हज़ार करोड़ कमा ले, तो तुम्हें उससे जलन नहीं होती न?

प्र: नहीं।

आचार्य: वैसे ही कोई अपनी ज़िन्दगी बेचकर के दस-बीस करोड़ कमा ले — इतना ही कमा पाता है आम आदमी, आईआईटीयन हो या कोई भी हो। वो बाहर निकलेगा, ज़िन्दगी में, दस-बीस-तीस करोड़ कमा लेगा अधिक-से-अधिक, बहुत सफल हो गया तो। नौकरी वगैरह करके इतना ही कमाया जाता है, इससे ज़्यादा नहीं — तो उससे जलन क्यों होती है? वो भी तो फालतू का काम करके ही कमाया हुआ है!

तुम पेंटर इसीलिए नहीं बन पा रहे क्योंकि तुम्हें ये दिखायी नहीं दे रहा कि अगर तुम्हें पेंटिंग पसंद है तो बाकी सारे काम फ़ालतू के ही हो गये। और उन पर चलकर अगर तुमने पैसा कमा भी लिया तो वो पैसा वैसा ही है जैसा कोई बैंक में धांधली करके कमा ले। तो जो तुम जेलेसी कह रहे हो, ईर्ष्या, वो हो ही इसीलिए रही है क्योंकि तुमको अंतर नहीं दिखायी दे रहा इन दोनों चीज़ों में। वो करने में जो करके तुम्हारे अंतस को अभिव्यक्ति मिलती है, और वो करना जो कि सब कर रहे हैं तो हमने भी कर लिया, ये कर लिया, वो कर लिया, कुछ पैसे आ गये, कुछ थोड़ा बहुत आ गया, रुतबा आ गया।

अगर सिर्फ़ पैसा देखकर के ही तुम्हें जेलेसी होती, तो जैसा हमने कहा, तुम्हें सबसे ज़्यादा जलन तो..। अब ओसामा बिन लादेन का बहुत रुआब था, तुम्हें भीतर-ही-भीतर आग लगती है क्या कि मैं ओसामा क्यों नहीं हूँ?

प्र: नहीं, कभी नहीं।

आचार्य: नहीं लगती न। उसके इतने जलवे थे कि उसने अमेरिका को अफ़गानिस्तान बुला लिया। सोचो! इतना बड़ा आदमी था वो। तो तुम्हें उससे जलन होती है? अपने छोटे भाई को ट्रेनिंग दोगे कि तू अगला ओसामा निकलेगा?

प्र: नहीं, नहीं।

आचार्य: नहीं करोगे न। तो बात सिर्फ़ रुतबे की या पैसे की नहीं है न, बात ये है कि तुम काम क्या कर रहे हो। और चाहे भ्रष्टाचारी हो, चाहे आतंकवादी हो, ये दोनों उसी तल के हैं जिस तल पर ज़्यादातर आम मध्यमवर्गीय लोग होते हैं। बस वो जो गोलियाँ चला रहे होते हैं और जो घपला कर रहे होते हैं, वो एकदम साफ़ प्रकट होता है, बड़े स्तर पर होता है। और आम मध्यमवर्गीय आदमी जो घपला कर रहा है और जो आंतरिक भ्रष्टाचार कर रहा है, वो छोटे स्तर पर होता है और छुपा होता है, तो पता नहीं चलता। पर घपला तो घपला है, नहीं?

बल्कि बड़ा जिसने घपला किया वो ज़्यादा इज्ज़त का अधिकारी है, कम-से-कम कुछ तो बड़ा करा। ये जो छोटे घपलेबाज हैं कि कहीं जाकर के असिस्टेंट मैनेजर बन गये और वहाँ अपना ईमान बेचकर के कुछ तनख़्वाह लिए ले रहे हैं, ये तो दोनों तरफ़ से मारे गये। पहली बात तो घपला करा, वो भी छोटा, जैसे कोई चूहा रोटी चुराकर भागता हो। भई! इससे अच्छा तो डकैत ही बन जाओ, कि गोलियाँ-वोलियाँ चला रहे हैं बिल्कुल दुनाली से, और बड़ी रॉबरी कर रहे हैं। या चूहा बनकर दो दाना चुराकर भागने में ज़्यादा इज्ज़त है?

ये ज़्यादातर जो ये कैम्पस के प्लेसमेंट बाज होते हैं, ये चूहे बराबर ही होते हैं, कि एक की सीटीसी आठ-लाख की थी, दूसरे की साढ़े-आठ-लाख की हो गयी, वो चूहे जैसे फुदक रहा है कि देखो, पॉइंट फाइव मैंने ज़्यादा निकाल लिया। और उसको पता नहीं है अभी कि ये सीटीसी जब इन हैंड बनेगी तो हाथ में कितना आएगा। और जो आएगा भी हाथ में, उसका उपयोग क्या करना है, ये तो बिलकुल ही नहीं पता है।

प्र२: जैसा कि हम सबको पता है कि किसी इंसान के पास अगर ज़्यादा पैसा है, तो उसके लिए हर चीज़ एक काफ़ी अच्छे लेवल (स्तर) की होती है। जैसे कि कार हुआ, तो कोई ज़्यादा पैसे वाला है तो बहुत अच्छी कार में बैठ सकता है। तो पैसे के साथ-साथ बाकी सारी चीज़ें भी अपनेआप अच्छी होती जाती हैं। तो यही वजह है कि आजकल ज़्यादातर लोग पैसे के पीछे भाग रहे हैं।

लेकिन सर, कई लोग हैं, इन्क्लूडिंग माय फादर (मेरे पिता जी भी हैं जिसमें) जो बोलते हैं कि मतलब पैसा उतनी बड़ी चीज़ नहीं है। तो सर, आपकी क्या राय है इस बारे में, कि मतलब पैसे के पीछे भागना चाहिए या नहीं भागना चाहिए? क्योंकि सबकुछ पैसे से ही होता है, मतलब आज की दुनिया में। तो मेरे को लगता है वो सही है, लेकिन पाप बोलते हैं, सही नहीं है।

आचार्य: पैसे से क्या होता है? पैसे से तुम्हें कुछ सुख मिलता है। यही न? पैसे से सुख मिलता है, ठीक है न? एक-एक कदम समझो। सुख मिलता है न? मिलता तो है ही, इसमें कोई शक नहीं। अभी मैं तुमसे बात कर रहा हूँ, तो यहाँ ए.सी. तो चल ही रहा है, ये न चल रहा होता तो अभी पसीने में होता मैं। पैसे से क्या मिलता है? सुख। सुख मिलता है, ठीक है? लेकिन पैसा कमाने के लिए अगर तुमने बहुत दुख झेल लिया हो तो? ये तो इनपुट-आउटपुट का बड़ा गड़बड़ हो गया न! तुमने पैसा कमाने के लिए जो कुछ किया, उसमें तुमने बीस यूनिट दुख झेल लिया, और पैसे से तुमको सुख मिला बस पाँच यूनिट, तो तो गड़बड़ हो गयी न, कि नहीं हो गयी? हाँ या ना?

प्र: हाँ।

आचार्य: हाँ, तो पैसा सुख देता है इसमें कोई शक नहीं, लेकिन पैसा कमाने के लिए ऐसा तो कुछ मत करो न, जो तुम्हें भीतर से, गहराई से एकदम खाली कर देता हो, रोगी बना देता हो, भीतर से तुम्हें चाट जाए, खोखला कर दे; वो बहुत बड़ा दुख हुआ कि नहीं हुआ? हाँ, बस जो सुख मिलता है वो खुला होता है, प्रकट, तो वो हमें दिख जाता है कि ए.सी. ने ठंडी हवा दी, और पैसे से एक इतना बड़ा ए.सी. खरीदकर दीवार पर लगाया गया। ये जो सुख है, ये एक प्रकट है, ओपन प्लेज़र है। है न?

तो ये तो दिख जाता है कि पैसे से सुख क्या मिला, लेकिन उस पैसे को कमाने के लिए जो आंतरिक दुख है, इंटरनल लोस , वो कितना बड़ा है ये दिखायी नहीं देता आँखों से। नहीं दिखायी देता न? तो इसीलिए हमें धोखा हो जाता है। तो मैं बस ये कह रहा हूँ कि ये जो इक्वेशन है, इसको पॉजिटिव रखो। क्या? कि काम करने में जो तुम्हें दुख झेलना पड़ रहा है और काम से तुम्हें जो सुख मिल रहा है, उन दोनों को जब जोड़ो तो नतीजा कुछ पॉजिटिव (सकरात्मक) आना चाहिए, नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी। कि मकान बनवाने के लिए जो दुख झेला, वो था सौ यूनिट का और मकान में रहकर के जो सुख मिला, वो था बस दस यूनिट का; तो ये सौदा फ़ायदे का हुआ क्या?

प्र: नहीं हुआ।

आचार्य: नहीं हुआ न, तो बस ये पूछ लिया करो अपनेआप से कि पैसा मिलेगा, अच्छी बात है लेकिन उस पैसे को पाने के लिए मुझे झेलना क्या पड़ेगा?

प्र२: सर, इसमें एक ग्लिच (गड़बड़) ये है कि हमें दुख अभी ही झेलना पड़ेगा लेकिन सुख बाद में मिलेगा, तो दुख हम पहले ही झेल चुके हैं उस सुख के लिए?

आचार्य: नहीं, उल्टा होता है। उल्टा होता है बेटा, उल्टा होता है। आज जो तुम दुख झेलते हो, वो बस आज का नहीं रह जाता है क्योंकि वो आज तुमको ख़राब कर देता है भीतर से, तो तुम आगे के लिए भी ख़राब हो गये। उदाहरण के लिए, मैं तुमसे कहूँ कि तुम्हारा हाथ आज काट दिया जाएगा लेकिन तुमको मैं एक आर्टिफ़िशियल आर्म (नकली बाँह) लगवा दूँगा आज से पाँच साल बाद। तो अभी से अगले पाँच साल का समय तुमने कैसा बिताया? क्या सिर्फ़ आज तुमको नुक़सान हुआ? तुम कहोगे, 'आज मेरी बाँह काटी गयी थी, तो बस आज नुक़सान हुआ या लगातार अगले पाँच साल तक नुक़सान हुआ है? तुमने ये पाँच साल कैसे जिए? तुमने ये पाँच साल जिए हैंडीकैप्ड होकर के, तो नुक़सान बहुत लम्बा गया है। आज कोई तुमसे सौ रुपए ले लेता है और कहता है कि पाँच साल बाद लौटाऊँगा, तो क्या तुम उससे सिर्फ़ सौ रुपए वापस माँगते हो?

प्र: इंटरेस्ट (ब्याज) लगाकर माँगते हैं।

आचार्य: हाँ, तो दुख पर इंटरेस्ट भी तो लग रहा है न। अगर दुख आज है तो उस पर इंटरेस्ट भी तो लगेगा न। आज जो तुमने दुख झेल लिया, वो आज का नुक़सान है और उसने तुम्हें आगे वाले काफ़ी समय के लिए बेबस कर दिया; और नहीं भी किया, तुम इंटरेस्ट हटा भी दो। तो आज कोई तुमसे सौ रुपए ले ले और पाँच साल बाद दस रुपए लौटाए, ये कहाँ की समझदारी है?

प्र: और सर, इसी में लेकिन ये होता है न कि अभी हमें दुख झेलना ही पड़ता है कुछ अच्छा पाने के लिए। जैसे आपने भी यूपीएससी, सिविल सर्विसेज़ में रहे थे आप, तो आपने भी काफ़ी मेहनत करी होगी, काफ़ी सक्रिफाइसिस (त्याग) किए होंगे उस लेवेल तक आने के लिए।

आचार्य: अरे बाबा, तो जिस भी चीज़ के लिए दुख झेलते हो, उसमें ये सोचकर झेलते हो न कि सुख, दुख से बड़ा मिलेगा?

प्र: हाँ सर, सोचकर। वही मैं बोल रहा हूँ, अपन सोचते हैं। लेकिन आपने बताया कि वो बाद में पता चलेगा कि कितना यूनिट सुख मिलेगा।

आचार्य: अगर पहले ही पता चल जाए तो?

प्र: सर, ये कैसे पॉसिबल (सम्भव) है?

आचार्य: तुम्हें ये कैसे पता चला कि बहुत सारा सुख मिलेगा कुछ बनने के बाद? किसी ने बता दिया?

प्र: हाँ सर, लोगों से ही सुनते हैं।

आचार्य: लोगों से सुनते हो। तो लोग ही, अच्छे लोग, बेहतर लोग, जानकार लोग, जिन्होंने ज़िन्दगी को समझा है, अगर वो तुम्हें आकर के बताएँ कि बेटा, जो सुख मिलता है वो कम ही है। मिलता तो है सुख पर थोड़ा ही मिलता है और जो तुमने दुख झेला है, वो बहुत बड़ा है; तो उनकी बात क्यों नहीं सुनना चाहते तुम? तुम्हारे आस-पास ये जो तुम्हारे दोस्त-यार हैं, इन्होंने तुमको कुछ बता दिया, उनकी बात तुम सुनने को तैयार हो। है न? लेकिन लेखक, दार्शनिक, विचारक, ऋषि, ये लोग जो तुम्हें बातें बता गये हैं, वो तुम सुनने को तैयार नहीं हो। इसकी क्या वजह है?

ये तुम्हारा जो दोस्त है लप्पू लाल, वही सबसे होशियार है? उसी की सुनोगे बस? और लप्पू लाल की हालत ये है कि प्लेसमेंट चल रहा होता है, इंटरव्यू के लिए जाना होता है, उनको चक्कर आ रहे होते हैं; इतनी उनमें ताकत और बहादुरी है। उनकी तुम सुनने के लिए बहुत तैयार हो! और जिन्होंने ज़िन्दगी में वास्तव में कुछ हासिल किया, ऐसे काम कर गये जो सैंकड़ों-हज़ारों साल बाद भी याद रखे जाते हैं, उनकी क्यों नहीं सुनना चाहते?

आख़िरी बार फिर से समझा रहा हूँ, पैसा नहीं बुरा है, पैसे से सुख मिलता है, ठीक। पर पैसा कमाने के लिए ज़्यादातर लोग जो करते हैं, वो बहुत बड़ा दुख होता है। पहले उस दुख से बचो, क्योंकि वो दुख पहले आता है। दुख में, दुख को स्वीकृति देते वक़्त, दुख का चयन करते वक़्त, ये निश्चित रखो कि जिस चीज़ की ख़ातिर मैं ये दुख उठा रहा हूँ, वो चीज़ इस दुख से बड़ी है। फालतु का दुख हमें नहीं चाहिए! दुख हम झेल लेंगे, खूब बड़ा दुख भी झेल लेंगे लेकिन पहले हम ये निश्चित करना चाहते हैं कि जिस चीज़ के लिए हम ये दुख उठा रहे हैं, वो चीज़ हमें फिर दुख से मुक्ति दे देगी।

ऐसा दुख चुनने से क्या फ़ायदा जिसके बाद सुख बहुत कम मिलेगा। और और बुरी बात भी हो सकती है कि तुमने जो दुख चुना, वो आगे और ज़्यादा दुख दे दे; अब क्या करोगे बेटा? कि आज भी दुख उठाया, और जिस चीज़ के लिए दुख उठाया, उसने आगे और दुख दे दिया; तब क्या करोगे? ये तो और भी बुरी हालत हो गयी न?

एक हालत तो ये थी कि आज सौ यूनिट का दुख है और आगे सिर्फ़ दस यूनिट का सुख है; हमने कहा कि वो बुरी स्थिति थी। और उससे बुरी स्थिति ये है कि आज सौ यूनिट का दुख है और उसके बाद हर साल बीस यूनिट का दुख और मिलेगा। और उससे भी बुरी स्थिति ये है कि आज सौ यूनिट का दुख है, उसके बाद इस दुख को उठाने के कारण अगले साल बीस यूनिट का दुख मिलेगा, उसके अगले साल चालीस, फिर साठ, फिर अस्सी, फिर सौ, फिर दो सौ, फिर पाँच सौ। जैसे-जैसे समय बढ़ता जाएगा, दुख भी ऐसे बढ़ता जाएगा। अब क्या करोगे?

पहले देख लो, समझ लो, पता कर लो। ज़िन्दगी इतनी हल्की चीज़ नहीं है कि उसको कहीं भी जाकर के लगा आए। कहाँ समय लगा रहे हो, किस चीज़ की तरफ़ बढ़ रहे हो, तुम्हारी पूरी मेहनत किस दिशा में जा रही है, ये कोई छोटे-मोटे निर्णय नहीं होते, थोड़ा सावधान होकर के निर्णयों को करो। और ये सब दोस्त-यार, इनकी बातों में नहीं पड़ा करते। ये कितने समझदार हैं?

प्र: सर, लेकिन जब हम अपना कुछ भी पाथ चूज़ (रास्ता चुनते हैं) करते हैं, जिसमें हमें लग रहा है कि सुख भी है और हमें ये काम करने की इच्छा भी है, सबकुछ है लेकिन वो दूसरों से इंफ्लुएंज़ड (प्रभावित) नहीं है, ये कैसे पता लगेगा कि ये मेरा ही डिसीज़न (निर्णय) है, इसको कैसे जानें? क्योंकि हम ज़्यादातर जिस समाज में रहते हैं, हम उन्हीं से सीखते हैं, तो हमें लगता है कि ये जो डिसीज़न हैं, हमारे वो सही हैं।

आचार्य: तुम्हें जो बात बतायी गई है, उसके बिल्कुल विपरीत बात कहने वाले जो लोग हैं, उनके पास बैठ जाओ थोड़ा। और फिर तुम्हें दिखायी दे अगर कि अब तुमको ये दूसरे लोगों की बात ज़्यादा ठीक लगने लगी, तो तुम समझ लो कि तुम न इधर के हो, न उधर के हो, तुम्हें जो जिधर ले जाए तुम उधर के हो।

संयोग की बात थी कि तुम्हें लोग मिल गये थे, जो कह रहे थे कि बाएँ चलो। उन्होंने तुम्हें खूब बता दिया, 'बाएँ चलो, बाएँ चलो', तो तुम्हें लगने लग गया कि बाएँ चलना अच्छी बात है। जब लगे बाएँ चलना अच्छी बात है, तो थोड़ी देर के लिए उनके पास जाकर बैठ जाओ जो कहते हैं, 'दाएँ चलो'। और अगर ऐसा होता है कि अब दाएँ चलने वालों की बात तुम्हें ज़्यादा अच्छी लगने लगती है, तो फिर अभी रुक जाओ; अभी न दाएँ जाओ, न बाएँ जाओ, अभी थोड़ा-सा ध्यान से ज़िन्दगी को समझो।

ध्यान वो चीज़ है जिससे अपनी दृष्टि विकसित होती है, नहीं तो फिर तो तुम जो जिधर को ले जा रहा होगा, उसी के साथ उधर को ही चल दोगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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