दोगली ज़िन्दगी जीना कैसे बंद करें

Acharya Prashant

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दोगली ज़िन्दगी जीना कैसे बंद करें
दुनिया आपको तोड़े वो एक संयोग होगा। हम उस संयोग से घबराते रहते हैं कि बाहर निकलेंगे, न जाने किस पग पर, किस चौराहे पर, कोई हम पर आघात कर दे और हम सह नहीं पाएँगे, हम बिखर जाएँगे। इतना क्यों इन्तज़ार कर रहे हो कि कोई और आकर आपको तोड़े? खुद ही खुद को तोड़ लो और देख लो कि बिखरते हो कि नहीं। पाओगे कि बिखरते तो हो, पर फिर सिमट भी जाते हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्त्ता: नमस्ते सर, आपने बोला माँग सकते हो, माँगने में दिक्कत नहीं है। मैं जानती हूँ, आप कहते हैं कि नीयत की जब बात हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं आज आपसे वही माँगने आयी हूँ। मुझे श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और नीयत दे दीजिए। मैं दोगली ज़िन्दगी नहीं जीना चाहती। आप कुछ कहेंगे तो ज़रूर भीतर कुछ टूटेगा। कृपया, कुछ बोलें।

आचार्य प्रशांत: आपकी चीज़ है, मैं आपको कैसे दूँ? आपके और कृष्ण के बीच में, मैं कोई नहीं होता आने वाला। मैं आसपास थोड़ा घूम-घामकर दो-चार बातें बोल दूँगा, हो सकता है ज्ञान की बोल दूँ, या हो सकता है जोकर की तरह उछल-कूद करूँ, आपको हँसाऊँ। कुछ इस तरह के काम मैं कर सकता हूँ। लेकिन ये तो बहुत निजी प्रेम-प्रसंग होता है। वो था न कि “सच से मिलना तो कुछ नहीं है…”, (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) पूरा कर दो यारों।

श्रोतागण: “बस दिल आ गया है।”

आचार्य प्रशांत: “बस दिल आ गया है, बेवजह।” ये तो दिलों की बात होती है। यहाँ दिल से मेरा आशय है अहम्। दिल माने और कोई फ़िल्मी कुछ नहीं। अहम् का आत्मा से प्रेम हो जाए, उसी को कह रहा हूँ कि कृष्ण पर दिल आ जाए। तो दिल की बात होती है, एक फ़ैसला होता है। भाई, एक ज़िन्दगी है, क्या उसको मजबूरी में काटें! और थोड़ा प्रयोग करना होता है। शुरू में कल्पनाएँ ज़्यादा होती हैं, लगता है, सही राह चलेंगे तो पता नहीं कौन-सा दुख मिलेगा, कौन-सी चोट मिलेगी। थोड़ा चलो तो दिखता है कि चोट तो मिली, लेकिन उतना भी नहीं घायल कर गयी जितना हम सोचते थे।

अहंकार ऊपर-ऊपर से दिखाता है हम बड़े मजबूत हैं, और भीतर-ही-भीतर वो स्वयं को तर्क देता है अपनी कमज़ोरी का। और उतने कमज़ोर हम होते हैं नहीं। और प्रेम होता है। मैं आपको क्या दूँ? प्रेम है आपको, पहले से ही है। ये ऐसी सी बात है (कि आप कहें) कि मुझे मेरा चश्मा दे दीजिए। और वो दिख रहा है मुझे, वो आपने पहन रखा है। बेईमानी! चश्मा जब पहनकर आप बैठी हो, मैं आपको कहाँ से दे दूँ, वो है आपके पास। बस आपको डर ये लग रहा है कि उस रास्ते पर चलेंगे तो नुकसान हो जाएगा। और नुकसान तो हो जाता है, लेकिन वो ऐसा भी नहीं नुकसान हो जाता। मौज आती है, झेल लेता है आदमी। फिर धीरे-धीरे ऐसा भी कहना शुरू कर देता है कि भला हुआ, नुकसान हुआ, वही सब चीज़ें टूटीं, जो टूटने लायक थीं।

दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकै धक्का दरार।

जितने ये सब कमज़ोर मटके-पटके रखे थे, यही सब ढह गये। असली चीज़ पर चोट लगती है, उसको भी मैं नहीं कह रहा कि नहीं आहत होंगे। पर उबर जाते हैं, सम्भल जाते हैं, झेल जाते हैं।

सोना, सज्जन, साधुजन, टूट जुड़े सौ बार।

ये थोड़े ही कहा, ‘टूटते नहीं हैं’, टूट जाते हैं। जिस क्षण भयंकर उन पर चोट हुई हो, आप चाहे साधु के पास जाएँ कि सज्जन के पास जाएँ, आपको हो सकता है कि वो किसी ऐसे क्षण में मिल जाएँ जब लगे कि वो टूटे ही नहीं हुए है वो छितरा गये हैं, बिखर गये हैं। आप कहें, ‘अरे, ये तो साधु था, फिर भी ये इस वक्त इतना बिखरा हुआ दिख रहा है।’ वो उस रात आपको बिखरा हुआ दिख रहा है, सुबह दोबारा जाइएगा।

टूट जुड़े सौ बार

आपको चमत्कार दिखाई देगा। ये आदमी जो रात में इतना टूटा हुआ था, अगले दिन कमर कसकर फिर खड़ा हो गया है। कह रहा है, ‘ठीक है! चरैवेति-चरैवेति, आगे बढ़ो, यार।’ चोट लगती है, टूटते भी हैं, बिखरते भी हैं, फिर खड़े हो जाते हैं। हो जाएगा, लेकिन मैं बोलूँगा तो…थोड़ा प्रयोग करिए।

अब आपको एक मज़ेदार बात बताता हूँ। पता नहीं मज़ेदार लगेगी, खतरनाक लगेगी, जैसे भी लगे। जो मेरे बहुत पास आने लग जाते हैं, माने जिन पर मैं अब कुछ हाथ आज़मा सकता हूँ, उनको देखता हूँ कि उनको बहुत डर लग रहा है, बहुत डर लग रहा है, जैसे आप बोल रही हैं वैसे ही, तो मैं खुद ही उनको दो-चार लगाकर कहता हूँ, ‘देखो, अब तुम टूट गये।’ क्योंकि उनको यही डर लग रहा था कि हम टूट जाएँगे। मैंने कहा, ‘जिस चीज़ से तुम डर रहे थे, मैं वो चीज़ कर ही देता हूँ।’ और जब मैं वो चीज़ कर देता हूँ तो वो टूट जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनका अनुमान बिलकुल सही था कि गड़बड़ हो जाएगी, हम टूट जाएँगे। मैं कहता हूँ, ‘हाँ, टूट गये हो, सुबह का इन्तज़ार करना। सुबह का इन्तज़ार करना, कुछ टूटे-वूटे नहीं हो, देखना!’ मैं ये बोलता भी नही हूँ। मैं तो तोड़कर छोड़ देता हूँ, सुबह तक वो खुद ही ठीक हो जाता है।

कोई महीना नहीं होता जब कम-से-कम आधा दर्ज़न मेरे पास न आते हों, क्या? (सदस्यों को सम्बोधित करते हुए) अरे बोल भी दो, भेज तो देते ही हो। क्या? ‘बहुत हो गया, अब मैं नहीं झेल सकता, मैं जा रहा हूँ। ये रहा मेरा इस्तीफ़ा।’ (श्रोतागण हँसते हैं) मैं जवाब ही नहीं देता। मैं कहता हूँ, ‘तुझे जाना हो तो चला जा, और तुझे जाना होता तो चला ही गया होता। अभी सुबह फिर आकर खड़ा हो जाएगा।’ और जो सुबह फिर आकर न खड़ा हो जाए, भला है वो चला जाए। “कौन किसी को रोक सका…”, मेरे रोकने से थोड़े ही रुकेगा।

पहले मैंने रोकने की बहुत कोशिशें की थी। बड़ी गलतियाँ करी हैं मैंने ज़िन्दगी में! बहुत मोहित रहता था, बाप रे, ममता मेरी! औरतों में क्या ममता होती होगी, मुझसे ज़्यादा ममता किसी में? जो ही मेरे सम्पर्क में आ जाए, मुझे लगे कि मेरा ही है, मेरा ही है। सबको पकड़कर, बाँधकर चला हूँ मैं दशकों तक। फिर धीरे-धीरे समझ में आना शुरू हुआ — कुछ नहीं किसी को बाँध सकते। हाँ! सुधार सकते हो, वो भी अपनी ओर से जो भी कोशिश हो, कर दो। उसके बाद उसकी मर्ज़ी है।

तो अब तो ये है कि खुद नहीं टूट रहा तो खुद ही दो-चार लगा दो। तो उसको लगे कि देखा, जिस बात से डरते थे वो अनहोनी हो ही गयी। कुछ नहीं अनहोनी हुई, जाकर सो जाओ, चार घंटे बाद एकदम ठीक हो जाओगे। जब लगे कि बिलकुल पहाड़ टूट पड़ा है सिर पर, क्या करना है? चार घंटे सो जाना है।

प्रसाद (एक सदस्य) मेरी ओर खून भरी आँखों से देख रहा है। बोल रहा है, ‘चार घंटे सोने के दोगे, तब न सोऊँगा।’ (श्रोतागण हँसते हैं) इस बेचारे की यही टूट-फूट है। इसको इतने महीनों से सोने को नहीं मिल रहा है। ये पागल हो जाएगा, विक्षिप्त हो जाएगा। अब मैं बहुत जुगाड़ लगा रहा हूँ कि कैसे इसको कम-से-कम हफ़्ते भर के लिए बाहर निकालूँ, कहीं भेज दूँ कि जाओ! समझ रही हैं?

दुनिया आपको तोड़े वो एक संयोग होगा। हम उस संयोग से घबराते रहते हैं कि बाहर निकलेंगे, न जाने किस पग पर, किस चौराहे पर, कोई हम पर आघात कर दे और हम सह नहीं पाएँगे, हम बिखर जाएँगे। इतना क्यों इन्तज़ार कर रहे हो कि कोई और आकर आपको तोड़े? खुद ही खुद को तोड़ लो और देख लो कि बिखरते हो कि नहीं। पाओगे कि बिखरते तो हो, पर फिर सिमट भी जाते हो —

टूट जुड़े सौ बार।

खुद ही कर लो न अपने पास, वरना बहुत समय खराब होता है। बहुत समय खराब होता है बस ये सोचने में कि अरे, हमारे साथ कुछ अनहोनी न हो जाए, अनिष्ट न हो जाए। वो अनिष्ट खुद ही कर डालो, कुछ नहीं होता। माने, होता है, पर नहीं होता। लगती तो बहुत ज़ोर की है, पर ठीक है। फिर खाने की आदत भी पड़ जाती है।

आप खेलने जाओ किसी दिन और जिसके साथ खेलने गए हो वो फ़ाॅर्म में न हो तो मज़ा आता है क्या? फिर तो चाहते हो न कि वो पूरी जान से करे? तभी तो मज़ा भी आता है। शुरू-शुरू में बड़ा डर लगता है, ‘अरे बाप रे! आज तो प्रतिद्वन्दी मज़बूत है, न जाने मेरा क्या होगा!’ फिर जब खेलने की आदत लगती है तब चाहते हो कि प्रतिद्वन्दी मजबूत रहे। हल्का आदमी आ जाए तो खुद ही ऊबने लगते हो। कहते हो, ‘ये आज कौन आ गया? थोड़ा, खिलाड़ी भेजो!’

आपको प्रयोग करना है, बेबी स्टेप्स (छोटे-छोटे कदम)। थोड़ा सा चुनौती दीजिए और जल्दी से निष्कर्ष मत निकाल लीजिएगा कि देखा, मैंने कुछ प्रयोग करा और मुझे चोट लग गयी। अभी से पता है प्रयोग करोगे तो चोट लगेगी, लेकिन ये भी जानिए कि चोट लगना एक बात है और टूट ही जाना दूसरी बात है। चोट लगेगी, ऐसे ही कुछ ये सब होगा, सुबह तक सब ठीक हो जाएगा। काम है न सुबह, पिछली रात का मातम मनाते रहें क्या? अगले दिन क्या है? काम है।

प्र: आचार्य जी, पिछली बार दो महीने पहले आपसे बात हुई थी, तब भी मेरा प्रश्न कुछ ऐसा ही मिलता-जुलता था। लेकिन तब से लेकर अब तक बहुत गति बढ़ी है। अब डर पहले जितना नहीं लगता। टूट भी रही हूँ और उठ भी जाती हूँ, जुड़ रही हूँ। दिख रहा है कि भीतर हिम्मत है, हो जाएगा। लेकिन फिर भी अभी ऐसा लगता है कि नीयत में कमी है।

आचार्य प्रशांत: कमी तो हमेशा रहेगी, हमेशा रहेगी। कमी है, ये पता लग रहा है ये बल्कि ठीक बात है। बहुत लोग हैं जिन्हें पता ही नहीं लगता कि उनकी नीयत में कमी है। और नीयत कभी भी आपकी पूर्णरूपेण शुद्ध, परफ़ेक्ट नहीं होने वाली। आप जब तक जी रहे हो, कुछ भी परफ़ेक्ट नहीं होने वाला। इन्हीं सब कमियों को साथ लेकर आगे चलना है। बैठकर इन्तज़ार नहीं करना कि परफ़ेक्शन आएगा। यही कमियाँ लेकर — फिर पूछ रहा हूँ खेलने का ही उदाहरण लेकर, आप खेलने उतरते हो, आपका गेम परफ़ेक्ट होता है क्या? और आप बहुत अच्छे से जानते हो कि आपके खेल में क्या-क्या कमियाँ हैं। आप वो सब कमियाँ लेकर उतरते हो मैदान पर और कहते हो, ‘इन्हीं कमियों के साथ जीतना है।’ कभी जीतते हो, कभी हारते हो, पर प्रयास करते हो। वही प्रयास करने में कमियाँ भी धीरे-धीरे घटती जाती हैं।

आप बस लगे रहिए और लगे रहने के अलावा और कुछ होता भी नहीं न। साधना क्या है? लगे रहो। सही दिशा लगे रहो, यही साधना है। और क्या करोगे बताओ। साधना और कैसे टूटती है? बस इसी से कि कह दिया, ‘नहीं, नहीं, अब नहीं लगे रहेंगे।’ जो हो रहा हो, आँधी, अन्धड़, तप, तूफ़ान, लगे रहो। क्या करोगे और?

प्र: भीतर की बेईमानी देखकर और पहले से ज़्यादा पकड़ पाती हूँ कि जो गुरु के प्रति भी प्रेम था, या जितना भी वो था, वो सब इमोशंस थे, कुछ सच नहीं है। दुख भी सच नहीं है, आँसू भी सच्चे नहीं हैं, ये भी दिख रहा है। सबकुछ झूठ ही है, बहुत पाखंड है अन्दर। तो फिर उस चीज़ को देखकर बार-बार ये होता है कि इन सब कमियों की वजह से मैं ऐसी हूँ तो कहीं मैं दूर होती न चली जाऊँ और।

आचार्य प्रशांत: ये जो आप कमियाँ देख रहे हो न, ये सबसे अच्छी चीज़ है इनको देखना। परेशान तब हुआ करो जब ये सब न दिखें। ये सब देखिए और अपनेआप को बताया करिए मौज में, अपनी बुलींग (डराना-धमकाना) किया करिए।

जब लगे कि अभी हम बिलकुल निर्मलानन्द हो गये हैं, एकदम शान्त, साफ़, आ, हा, हा! तब कहिए, ‘अच्छा! तू कैसी है मैं जानती हूँ, कोई और जानता हो, न जानता हो।’ आइने के सामने खड़े हो जाइए, बोलिए, ‘मुझे बेवकूफ़ बना रही है?’

हम सब नीतिवादी लोग हैं न तो बहुत जल्दी किसी को नमस्ते कर देते हैं। कोई और आपको नमस्ते कर दे, उस बेचारे से थोड़ी गलती हो गयी। आप खुद को नमस्ते कर दें, ये तो भारी गलती हो गयी। गाली से नीचे बात मत किया करिए खुद से। दूसरों को गाली दे न दें, खुद को तो ज़रूर ही देनी है। और ये उम्मीद कभी मत करिए कि एक दिन आएगा जब अपनेआप को आप बिलकुल अध्यात्म विभूषण का खिताब दे पाएँगी। चलते रहना है, उसमें कोई मंज़िल आएगी, नहीं आएगी, पता नहीं। हम तो यही मानकर चलेंगे कि नहीं आएगी। कौन उम्मीदें पाले, (दोहराते हुए) कौन उम्मीदें पाले? चलना ही काफ़ी है।

कड़क ज़िन्दगी! वो सब नहीं कि जैसे आटा माँड़ा जा रहा हो। गीला मामला बहुत दूर तक नहीं जाता। ठीक है? कड़क रहिए। हम इंसान हैं, हम क्या हैं? हम एक प्रजाति हैं। इतनी प्रकृति की लहरें हैं, उन्हीं में से एक हम भी उठ गये हैं। कितनी गम्भीरता से लें अपनेआप को यार! हम क्या हैं? मिट्टी को लहर आ गयी है, उसे इंसान बोलते हैं। अब मैं अपनेआप को बहुत सीरियसली लूँ कि 'मैं हूँ’? कुछ नहीं, बल्कि जब लगे कि बहुत गम्भीर ले रहे हो अपनेआप को तो एक गरमा-गर्म गाली, तैयार रहे एकदम।

कोई हमारी हस्ती नहीं, शून्यता हमारा वजूद है और मिट्टी से भी हम गये-गुज़रे हैं, क्योंकि मिट्टी न भ्रम पालती, न दुख पाती। हम हैं मिट्टी और भ्रम भी पालते हैं और दुख भी पाते हैं। तो क्या करें, बहुत इज्ज़त करें अपनी? कह रहा हूँ, गाली तैयार रखो। इतनी गम्भीरता से नहीं लेते अपनेआप को।

आज का श्लोक ही पूरा यही था न, ‘विशेष कहाँ से हो गये तुम? क्या है तुममें?’ दुख का अनुभव करने के लिए भी पहले ये मानना पड़ता है कि मैं कुछ हूँ। ‘साहब, हम कुछ हैं और हमें दुख हो गया। कितनी गलत बात हो गयी, कितनी गलत बात हो गयी!’ दुख में भी ये भाव रहता है कि अन्याय हुआ है। कुछ ऐसा हुआ है जो होना नहीं चाहिए था। जो होना नहीं चाहिए था उसे अन्याय बोलते हैं न। अरे! मैं हूँ ही क्या, मैं मिट्टी हूँ। मिट्टी के ऊपर अगर किसी ने आकर जूता रख दिया तो इसमें अन्याय क्या हो गया?

हम ऐसे रहते हैं जैसे कि हमारा कुछ विशेषाधिकार हो, एंटाइटलमेंट हो। क्या एंटाइटलमेंट है? कुछ नहीं है। जो कुछ भी आ रहा है, झेलते चलिए। जैसे मिट्टी के ऊपर जूता रखा जाता है वो झेलती चलती है न? बस मिट्टी में और हममें ये है कि उस पर जूता रखकर जूता आगे बढ़ जाता है, इंसान का ये है कि उसे खुद आगे बढ़ जाना है। आगे बढ़ते रहिए, “चरैवेति-चरैवेति।” जो कुछ आ रहा है झेलते रहिए, आपकी आपको मंज़िल पता है। मंज़िल यही है कि जिन भ्रमों में आप कैद हैं उनसे आज़ाद होना है, उधर आगे बढ़िए। चोट लगे, दुख आये, खून बह गया थोड़ा, इस पर बहुत मातम नहीं मनाते।

दर्द होता है, मुझे पता है। मैं नहीं कह रहा हूँ, सुपरमैन की तरह नहीं बात कर रहा आपसे। ठीक है? इंसान के तौर पर जो कुछ आपको होता है, सब पता है मुझे। मैंने भी झेला है, अभी भी झेलता हूँ, सब पता है। इसीलिए बहुत मैं आपको खरेपन के साथ, ऑथेंटिसिटी से बोल रहा हूँ, एज़ समवन हू गोज़ थ्रू इट (ऐसे व्यक्ति की तरह जो इससे गुज़रता है)। ये सब लगा रहता है। अपना काम करती रहिए। कड़क!

चलिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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