योग का मूल सिद्धांत || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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योग का मूल सिद्धांत || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

आचार्य प्रशांत: योग की दृष्टि से मन और शरीर दोनों न सिर्फ़ अन्तर्सम्बन्धित हैं बल्कि दोनों एक-दूसरे से परस्पर कार्य-कारण का सम्बन्ध भी रखते हैं। माने अगर मन पर काम करोगे तो उसका प्रभाव तन पर दिखाई देगा और तन पर काम करोगे तो उसका प्रभाव मन पर दिखाई देगा। तन स्थूल, मन सूक्ष्म।

अधिकांश व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीते हैं, उसमें सूक्ष्म के साथ उनका परिचय बड़ा क्षीण होता है। सूक्ष्म बातें जैसे हम समझते ही नहीं। इन्द्रियाँ तो जो कुछ देखती हैं, वो स्थूल ही होता है न। और अगर आप ऐसी ज़िन्दगी जी रहे हैं जो इन्द्रियों से ही अधिकतर सम्बन्धित है। तो कुछ भी सूक्ष्म आपको दिखाई देना या समझ में आना बन्द हो जाता है, आपको बस स्थूल पदार्थ दिखाई देता है।

तो अब स्थूल तन का प्रभाव पड़ता है सूक्ष्म मन पर और सूक्ष्म मन का प्रभाव पड़ना है स्थूल तन पर। लेकिन हम काम करें किस पर? योग बड़ा व्यावहारिक विज्ञान है। वो कहता है कि मन पर हम काम करें कैसे जब मन है सूक्ष्म। और हमे कुछ भी सूक्ष्म दिखाई देता नहीं। हम उस पर कैसे कोई साधना, कोई नियन्त्रण कर लेंगे। तो मन पर काम करना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि मन में है विचार, मन में है भावनाएँ वो तो भीतर-भीतर चोरी-चुपके चलती रहती हैं। हम कैसे उन पर कुछ बस करें, कैसे उनको लेकर कुछ अनुशासन, कुछ साधना करें। तो ज़्यादातर लोगों के लिए बड़ा मुश्किल होता है मन का रास्ता अपनाना। हालाँकि वो रास्ता श्रेष्ठ है कि मन पर काम करो तो तन और कर्म अपनेआप ठीक हो जाएँगे।

विचारों को, भावनाओं को देखकर शुद्ध और शान्त रखो तो कर्म और जीवन अपनेआप ठीक चलेंगे। ये बात श्रेष्ठ तो है पर व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि विचार दिखाई नहीं देतें, वृत्तियों का कुछ पता नहीं चलता। बादल, धुएँ, कोहरे की तरह ये सब उठते हैं भीतर। और फिर अचानक लापता भी हो जाते हैं। बह जाते हैं कहीं।

तो योग कहता है कि ज़्यादातर लोगों के लिए तो ये सम्भव ही नहीं है कि वो मन पर काम करें। ताकि उनका जीवन बेहतर हो। तो योग उल्टा रास्ता लेता है, वो कहता है, तन पर काम करते हैं। क्योंकि तन तो है स्थूल और स्थूल तन सबको दिखाई देता है। भले ही सूक्ष्म मन दिखाई देता हो या न दिखाई देता हो। कोई सामने से चला आ रहा हो, उसके मुँह पर कालिख लगी हो, उसके कपड़े मैले हों आप तुरन्त उसे टोक दोगे या तुरन्त उसके मैलेपन पर आपका ध्यान चला जाएगा और अगर उसके शरीर और कपड़ों से दुर्गन्ध भी उठ रही है तो आप उससे दूर भी शायद हो जाओगे। है न? लेकिन अगर कोई सामने से आ रहा हो, जिसका मन मैला हो तो क्या आप उसे टोक देते हो या उससे दूर हो पाते हो? नहीं हो पाते न?

सूक्ष्म हमें कुछ दिखाई नहीं देता। स्थूल तन हम तुरन्त देख लेते हैं। तो जब स्थूल तन हमें दिखाई देता है तो उस पर काम करना भी हमारे लिए ज़्यादा आसान है। याद रखिएगा — श्रेष्ठ नहीं, आसान। योग इस बात में पड़ता ही नहीं कि कौनसी विधि किन्ही पाण्डित्यपूर्ण मापदंडों पर श्रेष्ठतर या उच्चतर है। योग ये देखता है कि ज़्यादातर लोग हैं किस किस्म के, किस तल पर जीते हैं और कौनसी विधि उनके काम आएगी। विधि का उपयोगी होना आवश्यक है।

तो उपयोगी चीज़ ये है कि लोगों से उनके तन पर काम कराकर शुरुआत की जाए। तो इसीलिए योग के अंगों में आसन का और प्राणायाम का बड़ा महत्व है। और यम और नियम के पश्चात यही दोनों आरम्भिक अंग भी हैं। आप और ऊपर नहीं जा सकते। आप धारणा, ध्यान, समाधि इत्यादि की बात नहीं कर सकते। अगर आपने शरीर को और श्वाँस को अभी साधा नहीं है, ऐसा योग कहता है।

योग कहता है, छोड़ो ऊँची बातें। कहाँ प्रत्याहार कहने लग गये, कहाँ ये! पहले तुम सीधे बैठना तो सीख लो, ध्यान अभी बहुत दूर है तुमसे। अभी तो तुमको सीधे बैठना भी नहीं आता। और जिसको सीधे बैठना नहीं आता उसके लिए ध्यान बड़ी टेढ़ी खीर रहेगा।

इसी तरीके से हम भली-भाँति जानते हैं कि विचारों का सीधा असर देह पर पड़ता है। आप चाहें तो अभी प्रयोग करके देख लें। आप कोई उत्तेजक या डरावना या हर्षद विचार मन में लाएँ और देखिए कि आपकी धड़कन बढ़ जाती है कि नहीं, साँसों की गति कम-ज़्यादा हो जाती है कि नहीं। भली-भाँति जानते हुए भी कि वो विचार आप ही जानते-बूझते, कृत्रिम रूप से अपने मन में लाये हैं। शरीर पर फिर भी उसका प्रभाव दिख जाएगा।

तो मन अगर उत्तेजित होता है तो साँस भी उत्तेजित हो जाती है। और मन जब शान्त होता है तो साँस भी एक सुन्दर गति और लय पकड़ लेती है। तो योग ने कहा कि मन के विचार कैसे हैं, ये तो पता नहीं लेकिन साँस कैसी चल रही है, ये तो पता चलता है। साँस बड़ी स्थूल चीज़ है। दिख जाएगा कि फेफड़ों की गति बढ़ गयी है, चेहरा लाल होने लग गया है, दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लग गया है। तो क्यों न श्वास पर ही ध्यान देकर उसको नियन्त्रित किया जाए? ऐसे चलता है योग का विज्ञान।

सिर को और गर्दन को और छाती को सीधा रखना है और स्थिर रखना है। यह शरीर को अनुशासन देने की बात है, स्थूल तल पर। स्थूल तल पर इसका अर्थ ये है कि शरीर को अनुशासित करना सीखो। क्योंकि ऐसे तुम कभी भी सहज ही नहीं बैठने वाले। जब मैं सहज कह रहा हूँ तो इस समय पर मेरा आशय प्राकृतिक है।

प्राकृतिक रूप से तुम ऐसे नहीं होने वाले कि तुम पीठ, छाती, गर्दन और सिर सबको सीध में रख लो। प्रकृति तुमसे ऐसा नहीं करवाएगी। और जिस तरह का हम जीवन जीते हैं। उसमें मन की जो हालत रहती है, वो भी ऐसी नहीं होती कि हम ऐसा बाहरी अनुशासन दिखा पाएँ।

समझ रहे हो?

तो शरीर को ये अनुशासन देने का अर्थ होगा मन को एक अनुशासन देना। आप जितनी बार सीधा बैठने की कोशिश करोगे, आप जितनी बार स्थिर बैठने की कोशिश करोगे, मन उतनी बार लचक जाना चाहेगा, ढुलक जाना चाहेगा, दायें-बायें हो जाना चाहेगा। इसका अर्थ है कि तुम जितनी बार अपनेआप को अनुशासित रखकर सीधे बैठ पाते हो, उतनी बार तुमने शरीर के माध्यम से मन को अनुशासित कर लिया। क्योंकि शरीर तो मिट्टी है, पदार्थ। उसकी तो अपनी कोई इच्छा होती नहीं। शरीर टेढ़ा-मेढ़ा पड़ा रहे। ऐसा चाह कौन रहा है? स्वयं शरीर नहीं बल्कि मन। तो अगर तुम शरीर को सीधा रख पा रहे हो तो क्या तुमने शरीर को साधा? नहीं, शरीर को नहीं साधा। तुमने शरीर के माध्यम से मन को साध लिया। ये योग की विधि है।

बात आ रही है समझ में?

और सिर्फ़ सीधा ही नहीं रखना है स्थिर रखना है। ये सीधा रखना और स्थिर रखना। दोनों ही चीज़ें शरीर की प्रकृति का हिस्सा नहीं होतीं। न तो शरीर सीधा रहना चाहता है और न ही स्थिर रहना चाहता है। तो शरीर को सीधा रखकर और स्थिर रखकर, तुम वास्तव में अपनी विजय की घोषणा कर रहे हो प्रकृति के ऊपर। तुम कह रहे हो, ‘प्रकृति तो मुझे लुढ़काए रखना चाहती थी। लेकिन देखो मुझे, मैं बिलकुल सीधा और स्थिर बैठ गया हूँ।’ प्रकृति पर विजय का अर्थ हुआ कि तुमने कह दिया कि तुम प्रकृति के आदेशों के अधीन नहीं। कि तुम्हारे लिए अनिवार्य नहीं है कि प्रकृति तुमसे जो कुछ करा रही है, वो तुम करे जाओ। माने तुम्हारी प्रकृति से हटकर के अलग अपनी एक सत्ता है। तुम मुक्त हो, तुम स्वतन्त्र हो। प्रकृति चाह रही होगी तुमको लुढ़का देना। लेकिन तुम सीधे तने खड़े हो या बैठे हो। ये उद्घोषणा है तुम्हारी स्वतन्त्रता की।

बात समझ में आ रही है?

तो ये तो हुआ योग की भाषा में इस विधि का अर्थ। वेदान्त के तल पर क्या आशय है? सिर, अहम् का सूचक है, सिर प्रतीक है अहंकार का, वक्षस्थल प्रतीक है हृदय का और ग्रीवा माने गर्दन प्रतीक है दोनों को जोड़ने वाले सूत्र का।

समझ में आ रही है बात?

किन्हीं भी दो बिन्दुओं के मध्य सबसे छोटी दूरी कौनसी होती है? एक सीधी रेखा। तो छाती को जो कि किसकी प्रतीक है? सत्य की, आत्मा की, हृदय की। छाती को माने आत्मा को जोड़कर रखना है। किससे? अहंकार से। और वो भी सबसे छोटे रास्ते से। लम्बा रास्ता कौन लेना चाहता है! सबसे छोटे रास्ते से।

बात समझ में आ रही है?

तो सबसे छोटे रास्ते का मतलब है सिधाई होनी चाहिए, सीधी रेखा। एक तो ये बात हुई। दूसरा, कभी-कभार तो इनमें जुड़ाव आ ही जाता है। आकस्मिक भी आ जाता है। परिस्थितिवश भी आ जाता है। किन्हीं सुन्दर परिस्थितियों के प्रभाव के चलते भी आ जाता है। कभी-कभार अगर ये दोनों जुड़ गये, मन और आत्मा। तो कोई विशेष बात नहीं हो गयी। उससे कोई विशेष लाभ नहीं हो जाएगा। इनको जोड़े ही रखना है। इनको जोड़े ही रखना है। इसलिए अब दूसरा शब्द प्रासंगिक हो गया, स्थिरता।

स्थिरता माने जोड़ दिया तो जोड़ दिया, स्थिर हो गये, अटक गये, स्थिर हो गये। पहली चीज़ है इनको जोड़ दो। इन दोनों को जोड़ दो। किनको? मन को और आत्मा को जोड़ दो। और दूसरी बात है जोड़ने के बाद अब तोड़ने की गुंजाइश बाकी मत छोड़ना। सिधाई चाहिए साथ-ही-साथ स्थिरता चाहिए। स्थिरता के बिना सिधाई का बहुत कम मूल्य है। क्योंकि कभी-न-कभी, जैसा हमने कहा, अनायास ये जोड़ बैठ तो बहुतों में जाता है। लेकिन जैसे जुड़ता है मामला फिर वैसे ही टूट भी जाता है। तो जोड़ने भर से काम नहीं चलेगा। ये अनुशासन होना चाहिए कि अगर सीध बैठ गयी तो अब बैठी ही रहेगी।

और असली चुनौती तो समय लेकर आता है। आपसे अभी कहा जाए कि बिलकुल तनकर के सीधे बैठ जाइए तो आप बैठ जाएँगे। जो मैंने आपको अभी निर्देश दिया उसमें आपको कोई चुनौती नहीं आएगी। मैंने क्या कहा? सीधे बैठ जाइए। आपको चुनौती मेरे निर्देश से नहीं आनी है, आपको चुनौती समय से आनी है। जब मैंने बात कही आप तुरन्त इसका पालन कर ले जाएँगे। लेकिन फिर समय आएगा एक मिनट बीत गया, दो मिनट बीत गया,तीन मिनट बीत गया। आपको तकलीफ़ अब मैं नहीं दे रहा। आपको तकलीफ़ कौन दे रहा है? समय दे रहा है। तो समय से निपटना है। इसलिए स्थिरता चाहिए।

बात समझ में आ रही है?

तो वेदान्त के तल पर इस पूरी बात को ऐसे देखो। क्योंकि वेदान्त में शारीरिक मुद्राओं का या कोणों का या आसनों का अपनेआप में कोई विशेष महत्व नहीं है। वेदान्त तो दो को जानता है मूलत:। कौन दो? मन और आत्मा। तुम वेदान्त से शरीर की बात करोगे तो वेदान्त कहेगा, ‘शरीर तो मन के भीतर एक स्थूल लहर का नाम है।’ शरीर कुछ होता ही नहीं, मन भर है। मन ही पसरा हुआ चारों ओर अन्दर-बाहर, ऊपर-नीचे, यहाँ-वहाँ सब लोकों का एक साझा नाम है। क्या? मन। तो वेदान्त की दृष्टि से शरीर भी क्या है? बस स्थूल मन को कहते हैं शरीर। तो तुम वेदों के ऋषियों से कहोगे कि फ़लाने तरीके से बैठने का क्या महत्व है। तो वो इस पर ज़्यादा कुछ कहेंगे नहीं। उनके लिए तो एक मात्र सत्य क्या है? आत्मा। वो कहेंगे मन चंचल है। चंचल इसलिए है क्योंकि आत्मा से दूर है। बस उसकी बात करो न।

वेदान्त के तल पर अभी एक बात कहनी शेष है। हमने कहा — सीधा और स्थिर। तो भाई सीधा तो ऐसे भी रिश्ता हो सकता है न सिर और छाती के बीच में कि आप लेट जाओ। आप अगर लेट गये और स्थिर हो गये हो बिलकुल। लेट जाओ और बेहोश हो जाओ। तो सीधे भी हो और स्थिर भी हो। सवाल पूछा करो। अगर आप लेट गये हो मान लीजिए शराब पी ली खूब और लेटकर बेहोश हो गये। और किसी ने आपको बिलकुल गर्दन आपकी सीधी कर दी है। तो आप बिलकुल कह सकते हो कि मैं वही तो कर रहा हूँ जो उपनिषद् ने सुझाया है। क्या? कि सिर, गर्दन और छाती बिलकुल अब एक रेखा में आ गये हैं।

यहाँ बात दूसरी है। बात ये है कि इन तीनों को ऐसा होना है कि वो प्रकृति के प्रभाव से बाहर जा सकें। सांकेतिक तौर पर बात हो रही है। अब प्रकृति किसकी प्रतिनिधि है? अद्वैतवाद को मायावाद भी कहते हैं। जानते हो? प्रकृति की प्रतिनिधि है पृथ्वी। ये है (मोबाईल फोन को हाथ में उठाते हुए)। ठीक है? ये क्या है (ऊपरी हिस्से की ओर संकेत करते हुए)? सिर। ये क्या है (ऊपरी हिस्से के थोड़ा नीचे संकेत करते हुए)? गर्दन। ये क्या है? छाती। ठीक है? ऐसे रख दूँ इसको तो क्या होगा? ये पृथ्वी के प्रभाव में आ जाएगा और पृथ्वी इसको पलटा देगी। ऐसे रख दूँ तो भी क्या होगा? ये पृथ्वी के प्रभाव में आ गया माने किसके प्रभाव में आ गया? प्रकृति के प्रभाव में आ गया। जबकि इसका पेंदा कितना भी छोटा हो, ये पेंदा, बेस , इसका क्षेत्रफल, एरिया कितना भी कम हो, अगर मैं इसको बिलकुल तना हुआ रख सकूँ किसी तरीके से। तो फिर प्रकृति इस पर कोई काम नहीं कर पाएगी। इसे समझ रहे हो? स्थिर ये ऐसे भी है और स्थिर ये ऐसे भी है। लेकिन ये दो तरह की स्थिरताएँ अपनेआप में ज़मीन-आसमान का अन्तर रखती है। ये स्थिरता जानते हो कौनसी है? तुमने घुटने टेक दिये। अब आकाश की ओर तुम्हारा निशाना है ही नहीं। अब तुम पूरे लेट गये माटी में ही। अब तुम पूरे ज़मीन के हो गये।

बात समझ में आ रही है वेदान्त के तल पर क्या कहा जा रहा है? ये पूर्ण समर्पण है। और ये भी पूर्ण समर्पण है। ये पूर्ण समर्पण किसको है? गगन की ओर निशाना है। सीधे ऊपर को देख रहे हैं। न इधर झुक रहे, न इधर झुक रहे, न इधर झुक रहे, न इधर झुक रहे। क्या कर रहे हैं? सीधे ऊपर को देख रहे हैं। और पूर्ण समर्पण ये भी है। अब ये क्या कहती है स्थिति? ये स्थिति क्या कह रही है? कि अब एक प्रतिशत भी हममें इच्छा या संकल्प नहीं बचा है, ऊपर को उठने का, उर्ध्वगमन का। अब तो हम पूरे तरीके से ही लेट गये हैं।

तो इसलिए न सिर्फ़ सीधा रहना और स्थिर रहना है बल्कि पृथ्वी से नब्बे अंश का कोण बनाकर रहना है। पृथ्वी से माने जो धरातल है, जो ज़मीन की सतह है। सतह में और आपके मेरुदंड में नब्बे अंश का कोण बनना चाहिए। जानते हो जो नब्बे अंश का कोण होता है, इसकी खासियत क्या होती है? जब किन्हीं दो लकीरों के बीच में नब्बे अंश का कोण बन जाता है तो हम कहते हैं कि अब ये आर्थोगोनल हो गये। इसका मतलब होता है कि अब इन दोनों में कोई रिश्ता नहीं बचा। अब ये दो अलग-अलग आयाम हो गये, ये डायमेंशन अलग हो गये क्योंकि अब इनमें परस्पर (कोई रिश्ता नहीं)। अगर इन दोनों में इक्यानवे अंश का भी कोण है तो भी इन दोनों में अभी रिश्ता बाकी है। इन दोनों में अभी कुछ-न-कुछ बन्धन बचा हुआ है। लेकिन अगर किन्हीं दो रेखाओं में नब्बे अंश का कोण आ गया मतलब अब उन दोनों में कोई रिश्ता नहीं है।

बात समझ में आ रही है?

तो इसलिए बिलकुल ऐसे तनना। बिलकुल ऐसे तनना माने अब रिश्ता हमारा बस उससे है जिसकी ओर एकाग्र हुए। जिसकी ओर निशाना है। वेदान्त की भाषा में ये चीज़ सांकेतिक है। सांकेतिक है और स्मरण के लिए अनुशासन जैसी है कि जब आप छाती तानकर के और सिर को स्थिर रखकर के चल रहे हो। तो ये बात आपको बार-बार याद दिला रही है कि आपको आन्तरिक तौर पर कैसे रहना है, जीवन के निर्णय कैसे करने हैं, मन की स्थिति क्या रखनी है।

जितनी बार आपका सिर किधर को ढुलक रहा है, जितनी बार आप ऐसे झुक रहे हो उतनी बार आपको याद आ जाए कि ये आपकी पीठ नहीं झुकी है, ये आपने प्रकृति और माया के सामने समर्पण कर दिया है। ये वेदान्त की भाषा में अर्थ हुआ।

बात समझ रहे?

क्योंकि वेदान्त में तो शरीर को प्रतीक की तरह, संकेत की तरह ही काम करना होगा। आपको कुछ और लगातार याद दिलाने के लिए। तो सिर सीधा रखना है, इसलिए नहीं कि सिर सीधा रखने से मुझे कोई शारीरिक तौर पर लाभ हो जाएगा। सिर सीधा इसलिए रखना है क्योंकि सिर को सीधा रखने के अनुशासन में मुझे फिर ये याद रखना पड़ रहा है कि सिर जिस चीज़ का प्रतीक है उसे हिलना-डुलना या लचर होना नहीं चाहिए। ये सन्देश है। बात समझे रहे हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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