प्रश्नकर्ता: आचार्य जी अकेलापन महसूस करती हूँ और पुरानी बातें याद आती हैं। इस पर आपने कहा था कि विद्रोह पूर्ण करना पड़ता है। हम जहाँ रहते हैं, जहाँ काम करते हैं, ये सारी जगह एक होती हैं तो विद्रोह पूर्ण करना पड़ता है। माताजी के गुजरने और घर के खराब माहौल के कारण हिम्मत जुटा कर अब मैं अपने घर से अलग रह रही हूँ, एक अलग जगह पर काम भी कर रही हूँ और चीज़ें कुछ बेहतर हो रही थी। मैं वीगनिज़म (विशुद्ध शाकाहार) के लिए कुछ करना चाहती थी। मैंने उसके लिए भी कुछ रिसर्च करना शुरू किया था। संस्था में काम करने के लिए भी मैंने अप्लाई किया था। इन सबके बीच मेरा एक रिलेशनशिप (सम्बन्ध) भी था जो कुछ दिनों पहले ही टूट गया।
इस रिश्ते में मेरे उन्हें समझाने पर उन्होंने माँसाहार छोड़ दिया था। वो चमड़े के उत्पाद उपयोग करते थे वो उपयोग करना उन्होंने छोड़ दिया था। कहीं-न-कहीं एक उम्मीद थी कि एक अच्छा रिश्ता बन सकता है। पढ़ाई वगैरह की चीज़ों में मैं मदद कर दिया करती थी। लगभग एक साल हम साथ रहे। लेकिन कुछ दिनों पहले उन्होंने मुझे यह कहकर छोड़ दिया कि मेरे पास तुम्हारे लिए समय नहीं है। यह सम्बन्ध मुझे बोझ लगता है और किसी ऐसी जगह काम करने के लिए मैं जा रहा हूँ जहाँ मानव तस्करी और उससे सम्बन्धित काम होता है। और उसके लिए मुझे अपनी पहचान छुपाकर रखनी पड़ेगी। और मैं तुमसे बातचीत नहीं कर पाउँगा, मिल नहीं पाउँगा तो आगे जाकर चीज़ें खराब ही होनी थी इसलिए इससे अच्छा है कि मैं अभी ही सब कुछ खत्म कर रहा हूँ।
उन्होंने यह कहा कि मैं अपनी ज़िंदगी की हर चीज़ से तंग आ चुका हूँ। मैंने आपकी विडियोज़ उनके साथ साझा की, किताबें भी दी थी लेकिन एक भी वीडियो उन्होंने देखी नहीं, एक भी किताब उन्होंने पढ़ी नहीं। उनका ये कहना था कि तुम्हारा यहाँ सत्र में जाना भी मुझे बहुत अजीब लगता है।
मेरा मन फिर से अकेला महसूस कर रहा है। ऐसा लगता है कि वो साथ रहने की कोशिश कर सकते थे, छोड़ना जरूरी नहीं था।
मेरा मन हमेशा चाहता है कि कोई हो साथ में। एक सुन्दर और सच्चे रिश्ते की कमी हमेशा महसूस होती है। ऐसे में मैं अपने मन को कैसे समझाऊँ कि सही काम करने पर ध्यान दे और बगल में किसी पुरुष का होना जरूरी नहीं, अकेले भी जिया जा सकता है एक सुन्दर लक्ष्य के लिए।
इसी के बीच जब मैंने संस्था में काम करने के लिए अप्लाई किया था तो मेरा साक्षात्कार्य हुआ था और मुझसे कहा गया था कि आप आ जाइएगा इंटर्नशिप के लिए। लेकिन मन में कुछ ऐसी चीज़ें आयी कि मैं कुछ और भी करना चाहती हूँ। मैं पहली बार अपने घर से अलग रह रही हूँ। मैंने आज तक कभी साईकिल नहीं चलाई, मुझे गाड़ी चलाना नहीं आती। मैं ये सब सीखना चाहती हूँ। मन में ये भी आता है कि कुछ और पैसा भी कमाया जाए ताकि जो मुझे काम करना है वह मैं कर सकूँ। अभी फ़िलहाल मैं कक्षाओं में पढ़ा रही हूँ। इससे पहले मेरी एक सरकारी नौकरी थी। उससे पहले बहु-राष्ट्रीय कम्पनी में काम किया है। उससे पहले एक अन्तर्राष्ट्रीय बैंक में भी काम किया है। अभी जहाँ पढ़ा रही हूँ वो इन पुरानी जगहों से मुझे थोड़ी बेहतर लगती है।
अब मैं ये समझ नहीं पा रही हूँ कि मैं सब छोड़कर संस्था में आ जाऊँ, और जो रिलेशनशिप से सम्बन्धित जो भी चीजें रहीं वो या फिर मैं थोड़ा और समय लेकर कुछ सीखना चाहती हूँ तो सीख लूँ। मैं क्या करूँ इस मोड़ पर? धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: देखिए, संस्था में आने की एक प्रक्रिया है, प्रोसेस है न। वो प्रोसेस भी मैंने ही बनाया है। तो संस्था में आपको आना चाहिए या नहीं उसका उत्तर तो वो प्रक्रिया खुद ही दे देगी। अभी आप किन-किन चीज़ों की बात कर रही हैं? बहुत सारी चीज़ों की बात कर रही हैं। आप कह रही हैं कि आप कुछ काम है सीखना चाहते हैं। आप ड्राइविंग और साइकलिंग सीखना चाहती हैं, कुछ और चीज़ें भी करना चाहती हैं। अच्छी बात है वो तो ठीक है पर वो आप दिनभर तो नहीं करने वाली। तो वह ठीक है, वो तो आपके एक तरह से रुचियों में आ गया, हॉबी (रुचि) है तो ठीक है, अच्छी बात है।
अब एक है कि संस्था में आप आना चाहती हैं अगर संस्था आपको चयनित कर ले तो। तो ये दूसरा मुद्दा बताया। तीसरा बताया कि आपका ब्रेकअप (रिश्ता टूटना) हो गया है। तो अभी इनमें से कौन सी चीज़ है जो आपके लिए बड़ी महत्वपूर्ण या दुखदायी हो रही है?
प्र: सम्बन्ध टूटना दुखदायी तो है आचार्य जी लेकिन जीवन में सही काम भी करना है और अब ऐसा है कि अब मैं किसी बन्धन में नहीं हूँ। पहले जब मैंने आवेदन किया था संस्था के लिए, उन्होंने पूछा था कि क्या आप घर से अलग यहाँ आ कर रह सकते हैं? तो तब मैंने नहीं कह दिया था। लेकिन तब से अब ऐसा नहीं है। तो मैं इस बारे में, मतलब मैं आ सकती हूँ ऐसा है। लेकिन फिर भी कुछ है अन्दर जो रोक रहा है। तो दोनों चीज़ें जरूरी हैं एक मेरी संगति की बात थी जो खराब हो गई और एक काम से सम्बन्धित चीज़ है।
आचार्य प्रशांत: देखिए, अपनी ज़िम्मेदारी एक अन्तिम बिन्दु पर आकर स्वयं को लेनी पड़ती है। एक दूसरे दफ़े पर भी मैंने कहा था कि मुझे योद्धा ढालने हैं, बच्चे नहीं पालने हैं। तो संस्था में कोई मेरी ज़िम्मेदारी पर न आये क्योंकि जो मेरी ज़िम्मेदारी पर आता है वो मेरा बच्चा बन जाता है और मैं बहुत भुगत चुका हूँ। शादी-ब्याह नहीं किया, अपने नहीं किए लेकिन पाले ही जा रहा हूँ, पाले ही जा रहा हूँ। अट्ठाईस-तीस-बत्तीस साल के हुड़दंग हैं वो पल रहे हैं। गोदी में सुसू कर रहे हैं मेरी, करे ही जा रहे हैं तो और नहीं पालने।
कॉलेज के दिनों में, उसके बाद कुछ देवियाँ थी मेरे भी जीवन में जो आतुर थी कि विवाह कर लो। बेचारियों का दिल तोड़ा मैंने। तो कई बार लगता है कि उनका श्राप लगा है कि बेटा जिस झंझट से बचना चाहते थे तुम वो तुमको बिना शादी किये ही मिलेगा, लो पालो, पालते ही जाओ। तो आप जो सवाल पूछ रही हैं न उसमें मुझे अपने लिए खतरा दिख रहा है।
मुझसे पूछकर थोड़ी आओगे। मैं क्या बताऊँ। मैंने एक प्रक्रिया बना दी है उस प्रक्रिया पर आप खरे उतरते हो तो आ जाइए। मुझे आपसे बड़ी हमदर्दी है और मुझे आपसे बड़ा स्नेह भी है लेकिन सबसे ज़्यादा प्रेम मुझे अपने मिशन (उद्देश्य) से है। और ये बात ठीक है न? न्याय है न इस बात में? इंसानों को ज़्यादा मानूँ या अपने मिशन को?
तो अब किसी इंसान की वजह से अगर मेरा मिशन ही ऊपर-नीचे होने लग जाए तो मैं तो नहीं स्वीकारूँगा और ऐसा हो जाता है। आप भीतर आएँगे, आप इसलिए आएँगे कि आप सहारा बने मेरा, आप मेरा समय बचायें। आप अगर भीतर इसलिए आ रहे हैं कि आपको सहारा दिया जाएगा तो गड़बड़ है क्योंकि संस्था हमारी बहुत निर्मम जगह है। वहाँ ये सब नहीं हो पाता कि फलाने को चोट लगी है, फलाने को सांत्वना दे दो।
लड़ाई के मैदान में एक सैनिक दूसरे को जाकर क्या मलहम लगा रहा होता है? वहाँ गोलियाँ चल रही हैं, किसको पता है कि बगलवाले का क्या हाल हो रहा है। तो अगर आप इस उम्मीद से आएँगी कि ये जगह एक पनाहगार की तरह है तो शरणार्थी नहीं चाहिए। शरणार्थी समझती हो न? रिफ्यूजी कि दुनिया से हटकर के रिफ्यूज (शरण) लेने आये हैं।
वो नहीं क्योंकि मेरा समय अगर आपकी देखभाल में बीत जाएगा तो मेरे मिशन की देखभाल कौन करेगा और वो काम ज़्यादा बड़ा है न। किसी भी व्यक्ति से वो काम ज़्यादा बड़ा है जो करोड़ों व्यक्तियों की भलाई के लिए है, है न?
तो अपनी ज़िम्मेदारी पर आइए। फिर ये नहीं होना चाहिए कि अन्दर आने के बाद आप कहो — आचार्य जी से मिलवा दो आजकल समस्या चल रही है। हम आजकल काम नहीं कर पा रहे हैं आचार्य जी सलाह दे दीजिए क्या करें या बहुत परेशान चल रहे हैं। ऐसा है, वैसा है, ये। मैं बहुत परेशान चल रहा हूँ। मेरे पास किसी की परेशानियाँ मिटाने का कोई वक्त नहीं है।
सोचिए अभी मैं अगर दो-चार लोगों से व्यक्तिगत तल पर ही बात कर रहा होता तो ये सत्र कौन ले रहा होता? मैं सौ लोगों से बात कर सकूँ इसके लिए ज़रूरी है न कि एक आदमी से मैं जितनी बातें करता था उन बातों को बन्द करूँ। लेकिन जितने व्यक्ति होते हैं सबकी चाहत यही होती है कि हमारी व्यक्तिगत समस्याएँ सुलझा दो वो भी किसी एकान्त में। वो मैं कर सकता हूँ, बहुत-बहुत सालों तक मैंने करा भी है।
लेकिन मैं कोई अमर होकर तो नहीं पैदा हुआ, दस-बीस साल और जीना है। उसमें मैं अगर एक-एक करके लोगों से बात करता रहूँ, उनकी समस्याएँ सुलझाता रहूँ तो सैकड़ों-लाखों-करोड़ों लोगों से फिर कौन बात करेगा? तो मुझे लो-मेंटेनेंस वर्क फोर्स (कम रखरखाव वाला कार्यबल) चाहिए, सस्ती-सुन्दर-टिकाऊ।
समझ में आयी बात?
मेंटेनेंस कम माँगे और धड़धड़ा कर चले। मेंटनेंस समझते हो न क्या होता है? अटेंशन माँगना कि मेरा ही समय माँग रहे हो। ‘अटेंशन दीजिए तो काम करेंगे।’
मिशन को इस वक्त ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो मेरे राडार में ही कहीं न आते हों, चुपचाप मशीन की तरह अपना काम करते जाते हों। और बहुत सोच-समझकर बोल रहा हूँ मशीन (यन्त्र)। जो मेरे राडार में बार-बार आते हों वो मुझे परेशान कर रहे हैं। वो मेरा समय खराब कर रहे हैं और मेरे पास समय की बहुत-बहुत कमी है।
अपना काम करो और अपना काम पूरी एफिशिएंसी (सक्षमता) के साथ, क्वॉलिटी (गुणवत्ता) के साथ करके निपटाते चलो। और जब एक काम में अपनी गुणवत्ता-सक्षमता प्रदर्शित कर दोगे तो उससे ऊपर का काम मिल जाएगा।
एक नई छोटी संस्था में काम करने का यही फ़ायदा होता है न, आप अगर अच्छा काम करते हो तो वो दिख जाता है। दो-चार महीने के भीतर ही दिख जाता है, बन्दा है काम कर रहा है इसे अब और ऊपर का काम दो। ये छोटी लड़ाई जीत रहा है अब इसे और बड़ी लड़ाई में धकेल दो।
समझ में आ रही है बात?
तो ये आपको निर्णय करना है। लेकिन इतना मैं बता देता हूँ कि जो काम मैं यहाँ आप सब के साथ कर रहा हूँ, ये मैं संस्था में नहीं करता। आपने अभी ऐसे सवाल पूछ लिया मैं उसका उत्तर दे दूँगा। पर संस्था में हमारा कोई साथी आएगा और इस तरह से मुझे अपनी पूरी व्यथा सुनाएगा मैं कोई उत्तर नहीं देता। मैं कहता — ‘मज़बूत आदमी हो, जवान हो, देखो अपना खुद।’ मैं इस तरह से एक-एक कमरे में जाकर सफ़ाई करने लग गया तो फिर तो मैं यही करता रह जाऊँगा न।
मैंने तुमको जीवन के कुछ सिद्धान्त दे दिए हैं और बार-बार और बहुत गहराई से समझा दिया है। अब उन सिद्धान्तों को अपनी ज़िन्दगी में तुम खुद उपयुक्त करके देख लो। बड़े हो, व्यस्क हो तुम्हें शोभा नहीं देता कि आकर के मेरी गोद में बैठ जाओ।
ये समझ में कुछ बात आ रही है कि नहीं आ रही है?
हम परम्पारिक तरीके की संस्था नहीं हैं। हम कोई पुराने ढर्रे का आश्रम वगैरह नहीं है कि आप वहाँ आते हो तो एकदम वहाँ पर शीतलता होती है, शान्ति होती है। खूब बहुत सारी विस्तृत जगह होती है जो मुफ़्त में मिल गई होती है क्योंकि किसी ने आकर के दान कर दिया कि अरे, गुरुजी बहुत महान हैं। चमत्कार करके दिखाए थे। चलो तुरन्त इनको दो बीघा ज़मीन दान में दो।
हमने न कोई चमत्कार करा है न हम महान हैं। हमने तो जो भी पाया है एक-एक रुपया अर्जित करके बड़ी मेहनत से कमाया है। उसी से थोड़ी सी ज़मीन है। उसी से कुछ काम होता है और वहाँ अन्दर आएँगे तो ऐसा नहीं होगा कि वहाँ दूर खूंटे से एक प्यारी सी गौ माता बँधी हुई है और रम्भा रही है। और आप भीत रआये और आपको गर्मा-गरम कहा जाए — ‘आइए, बैठिए, आराम करिए।’
एकदम वहाँ सब आराम-ही-आराम कर रहे हैं जैसे होता है आश्रमों में। यहाँ तो भीतर आओगे तो कारखाना है, फैक्टरी है। और सब दिन-रात लगे रहते हैं, चौबीस घंटे चलने वाली फैक्टरी है। बत्तियाँ कभी बन्द नहीं होतीं। चोर-उचक्के-लुटेरे सब बेचारे मायूस हैं। कह रहे हैं, ‘ये तो चौबीस घंटे यहाँ पर।’ ताने मारते हैं, ‘सो तो जाया करो।’
गार्ड रखा गया, इन लोगों की बाइकें बाहर खड़ी रहती हैं तो उस गार्ड (रक्षक) को हम बार-बार जाकर जगाते हैं। गार्ड का काम होता है कि जब हम सो रहे हों तो वो जगा हो। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि हम सो रहे हैं गार्ड जगा हुआ है, उल्टा होता है। हम जगे होते हैं गार्ड सो रहा होता है। ऐसा कारखाना है।
वहाँ लगातार तनाव का माहौल है। हाई प्रेशर ज़ोन (उच्च दबाव क्षेत्र) है, सबके लिए है ही नहीं वो। जो दबाव झेल सकते हैं, जिनमें गूदा है, दम है आये, नहीं तो बिखर जाते हैं फिर लोग। बिखर जाते हैं फिर हमें ही गरियाते हैं कि ये देखो सोलह-सोलह घंटे काम कराया। सोलह घंटे इसलिए तुमने करा क्योंकि तुमसे छः घंटे में निपटा नहीं। काम तो चार घंटे का था तुम्हें छः भी दिये गये तब भी तुम सोलह घंटे तक करते रहे। उसके बाद भी रायता फैलाकर चले गए फिर वो किसी और ने निपटाया और रो अलग रहे हो बाहर जाकर के कि सोलह-सोलह घंटे काम कराया तो ये पके हुए योद्धाओं की जगह है।
समझ में आ रही है बात?
और ये नहीं कि वहाँ पर दो लोग बैठकर उधर कोने में ध्यान कर रहे हैं। चार वहाँ बैठकर माला फेर रहे हैं, उधर वहाँ कोने में भजन चल रहा है। तीन-चार सोए हुए हैं आँखें बन्द करके, लोगों को लग रहा है समाधि में हैं। ऐसे नहीं होता। यहाँ तो कोई काम के समय सोता पाया जाता है तो फिर दे दनादन भी हो जाता है।
आ रही है बात कुछ समझ में?
अब वो ब्रेकअप वाली बात, क्या उसमें।
“भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी।” ~कबीर साहब।
क्या करोगे क्या? एक अपनी ही देह मिल गई तो आदमी कहलाता है — बद्ध। एक देह ही अपना कैदखाना बन जाती है, है न? अपनी ही देह। जीवन में एक और देह पालकर क्या करना है। जेल विद इन अ जेल (कैदखाने के अन्दर कैदखाना)। ये जो पिंजड़ा है (आचार्य जी अपनी देह की ओर इशारा करते हुए) यही पर्याप्त नहीं है क्या पंछी के लिए कि एक और पिंजड़ा जीवन मे आमन्त्रित करना है? और फिर शोक मनाना है कि पिंजड़ा मोरो उड़ गओ।
जो पंछी भीतर बैठा कलप रहा है उसको तो पंख कभी दे नहीं पा रहे। एक पिंजड़ा और लाकर के रख लेना है और फिर उसमें, ये वैसा तो नहीं है जिसको बोलते हैं कि रिलेशनशिप ऑन अ रिक्वायल ? कई बार लोगों का जब ब्रेकअप होता है तो जल्दी से दूसरा रिश्ता बनाते हैं फिर क्योंकि जीवन में बड़ी अपूर्णता लग रही होती है।
तो जवान लोगों को सलाह दी जाती है कि बेटा किसी ऐसे से रिश्ता मत बनाना जो तुम्हारे पास रिक्वाइल पर आ रहा हो क्योंकि वो तुम्हारे पास बस ऐसे ही रहा है कि जल्दी से एक कमी है वो पूरी कर लो। कुछ दिन तक तुम्हारे पास रहेगा फिर भग जाएगा। तो संस्था की तरफ़ भी रिक्वाइल पर मत आ जाइएगा।
बहुत सोच-समझकर, देखकर आया जाता है। हॉबीज वगैरह के लिए पर्याप्त समय रहता है। लोग हैं यहाँ पर अपना, आप ड्राइविंग कह रही हैं, यहाँ पर जितने लोग हैं सबने शायद यहीं आकर के ड्राइविंग सीखी है। खेलते भी हैं, घूमने भी जाते हैं। जो करना चाहते हैं उनके पास हर चीज़ के लिए समय है। तो वो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन आने की वजह सही होनी चाहिए।
समझ में आ रही है बात?
कुल मिलाकर ये है कि मुझे परेशान मत करो। (श्रोतागण हँसते हुए)
नहीं समझ आया?
जो लोग आसानी से चोट खा जाते हों संस्था अभी उनके लिए नहीं है क्योंकि संस्था में तो चोट ही चोट पड़ती है। आहत चेहरे, आहत आँखें, हर्ट एक्सप्रेशंस (आहत अभिव्यक्ति) इन सब के लिए संस्था में कोई जगह नहीं है। मामला बिलकुल पत्थर जैसा होना चाहिए, चोट पड़ती रहे आप अडिग रहो।
क्या ये सब सुनने में बहुत क्रूरतापूर्ण लग रहा है? यदि लग रहा है तो ये आपकी देन है, आपका उपहार है, आपकी बरकत है। आप समाज हैं, आपने हमें ये भेंट दी है कि हमें ऐसी ज़िन्दगी जीनी है। जो भी कर रहे हैं आप की खातिर कर रहे हैं।
कठोर भी अगर होना पड़ रहा है तो इसलिए कि कठोर नहीं होंगे तो आप ही चोटें दे देकर मार डालेंगे। हमारे काम में कोमलता के लिए कोई गुंजाइश बची ही नहीं है। आप ही दिन-रात इतनी चोटें देते हैं, इतनी चोटें देते हैं कि हम कब के खत्म हो गए होते अगर कोमल होते तो और कोमल थे कभी।
आपको तकलीफ़ हो जाती है कि वो बोल देते थे कि क्यों जा रही हो संस्था में वो शिविर में। शिविर भर में आने के लिए कोई आपको टोक देता था तो वो बात आपको चुभती थी। चुभती थी न? और यहाँ जो लोग काम कर रहे हैं वो तो संस्था में काम ही कर रहे हैं, ज़िन्दगी बिता रहे हैं। सोचिए उनको कितना टोका जाता होगा, कितने व्यंग-बाण मारे जाते होंगे। वो कैसे जी रहे हैं?
आपको तीन दिन के लिए आना था किसी ने कुछ कह दिया, आपको चोट लग गई। और जिन्होंने संस्था को घर ही बना लिया है उनको कितनी चोटें पड़ती होंगी थोड़ा उनका भी खयाल करिए।
और फिर आप कहते हैं, ‘हमें व्यंग मार दिया। हमें तीन दिन का तो कुछ आचार्य जी कुछ इलाज़ बताइए।’ आचार्य जी क्या इलाज बताएँगे। कुछ नहीं यही इलाज है — कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। हो गया, बात खत्म, उपेक्षा। कोई अन्तर नहीं पड़ना चाहिए। इन बातों से मैं अगर आहत होने लग जाऊँ तो सोचो क्या होगा फिर।
यहाँ तो आते हैं जो पानी पी-पीकर बद्दुआएँ देते हैं। कहते हैं, ‘मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ उस दिन तक जिस दिन तक तेरी जलती हुई लाश देख लूँ।’ ये उदित खड़े हैं सामने ये पूरा एक कंपाइलेशन (संकलन) बनाते हैं जो चुनिंदा बद्दुआएँ आती हैं उनके। और रोज़ ऐसी कम-से-कम बीस रहती हैं। ‘मेरी ज़िन्दगी का एक ही लक्ष्य है कि तुझे अपने हाथों से मारूँ।’ अब जहाँ पर ऐसा माहौल है वहाँ पर आप आकर कहें कि मेरे आँसू निकल आते हैं जब कोई मुझे थोड़ा बहुत कुछ बोल देता है तो हम आपकी क्या फिर सेवा करें बताइए?
हर तरफ़ से तनाव है, हर तरफ़ से दबाव है, सीधे-सीधे युद्ध है। जो सबसे बड़ा दुश्मन हो सकता है हमने उससे पंगा ले लिया है। वो चुप बैठता नहीं है। वो जितना हमें चोट पहुँचा सकता है दिन-रात पहुँचाता है। ये सब जानने के बाद भी अगर लगता है कि आप आ सकते हैं तो स्वागत है। फिर बोल रहे हैं कि बन्दूक लेकर आइएगा झुनझुना लेकर नहीं। योद्धा चाहिए बच्चे नहीं।
अब बच्चा होने के साथ समस्या मालूम है क्या है? बच्चे आप वास्तव में तो है नहीं। जो बच्चे बनकर आते हैं न उन्हें बेईमान होना ही पड़ता है क्योंकि बच्चा होना ही पहला झूठ है। बच्चा होना ही पहली बेईमानी है न। तो फिर आगे और वो तगड़ी-तगड़ी बेईमानियाँ करते हैं। लम्बी बेईमानियाँ छोटी-मोटी भी नहीं और बात-बात में, हर बात में।
बच्चा होने का ये अंजाम होता है कि आपको बेईमानी करनी ही पड़ती है। पहली बेईमानी उसी क्षण हो गई जिस क्षण आपने अपनेआप को बच्चा घोषित कर दिया।
जब तक लगे तैयारी पूरी नहीं है तब तक कोई और काम-धंधा करिये, डोनेशन भेज दिया करिये। जहाँ कहीं भी बढ़िया कमा सकती हैं वहीं कमाती रहिये। वो ज़्यादा बड़ी सेवा हो जाएगी संस्था की। ठीक कह रहा हूँ न?