कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग। पूरी किनहुं न भोगिया, इसका यही बिजोग।।
~ संत कबीर
वक्ता: क्या समझ आया इस दोहे से?
श्रोता १: भोगने के लिए, आपका होना वहाँ पर बड़ा ज़रुरी है। माया कभी तृप्ति होने नहीं देगी। लोभ का मतलब ही है कि – और चाहिए, और चाहिए। और जब तक आप और चाहिए के लिए भविष्य में उलझे रहेंगे, तो…।
वक्ता: अच्छा, किसको चाहिए?
श्रोता १: मन को, माया को, अहंकार को।
वक्ता: उसको क्या चाहिए?
श्रोता १: अपने अहंकार की बढ़ोतरी के लिए ही चीज़ों को इकट्ठा करेगा, जिससे उसका और विस्तार हो सके।
वक्ता: वास्तव में क्या चाहिए?
श्रोता १: उसको तो पूरापन ही चाहिए। उसी पूरेपन के लिए ही कुछ ना कुछ बटोरने की पूरी कोशिश कर रहा है। एक अधूरापन हमेशा है, एक ख़ालीपन है। उस ख़ालीपन को भरने के लिए, जो भी मिल रहा है, उसको भरता जा रहा है।
वक्ता: उसमें गलती क्या है?
श्रोता १: गलती ये है कि देख तो ले कि – ख़ालीपन है कहाँ? क्या है? पूरा हो भी रहा है या नहीं? या ख़ालीपन भरते-भरते भरते-भरते आपने देखा भी नहीं उसको।
वक्ता: ख़ालीपन है, ये पक्का है?
श्रोता २: सेल्फ-जनरेटिंग(स्वयं-सृजित) और सेल्फ-फीडिंग(स्वयं-पोषित) है। ख़ुद का ही सृजन किया यह कह कर कि, “अपूर्णता है,” और फिर उसको चलाए रखने के लिए अपूर्णता आपको मिल भी गयी। और फिर उसको भरने से और वो अपूर्णता उठती जा रही है।
वक्ता: उसको भरने के साधन भी बता दिए।
श्रोता ३: गलत साधन।
वक्ता: पहले तो ये बताया जाए कि अपूर्णता है, ख़ालीपन है। है नहीं।
श्रोता ३: है नहीं, हमको बताया गया है।
श्रोता ४: माया, जो हर चीज़ को खंडित-खंडित दिखाती है। जब वो पूरा करेगी, तो खंड-खंड ही होगा। वो पूरा कभी हो ही नहीं सकता है।
वक्ता: पर कोशिश पूरा करने की है।
श्रोता ३: उस ‘एक पूरे’ की चाह तो है।
वक्ता: तो पहले तो ये साफ़-साफ़ किसी को बैठा ही दो उसके मन में कि “दिक्क़त है।” जिसको हम बेवकूफ़ी भी कहते हैं ना, कि कोई बिल्कुल ही बेवक़ूफ़ हो गया है, वो भी *अक्वायर्ड फूलिश्नेस(अर्जित बेवकूफ़ी) है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोग बेवकूफ़ों जैसी हरकतें करते हैं, लेकिन वो बेवक़ूफ़ नहीं हैं*। वो बेवकूफ़ों जैसी हरकत करते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा प्रशिक्षित किया गया है।
तो दोनों बातें हैं। एक तरफ तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बहुत बेवकूफ़ी की हरकतें होती हैं। दूसरी ओर ये भी बात है कि वो बेवकूफ़ी स्वभाव नहीं है हमारा। वो बेवकूफ़ी भी हमने सीखी है। यहाँ तक की अगर किसी को कोई बात समझ में नहीं आ रही है, तो इसमें भी उसकी बुद्धि का दोष नहीं है। ये ‘ना समझना’ भी उसने सीखा है कि – ना समझ में आए।
वो जो पंक्ति थी बुल्लेशाह की, “तुस्सी आप अस्सावल धाय हो, कग रहते छुपे-छुपाए हो।” तो उसपर छात्रों की शक्ल देखकर कहा था कि, “तुम ही हो, जो ये कह रहे हो, और तुम ही ऐसी शक्ल बना के बैठे हो जैसे तुम्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा।” और उस समय पर उनकी शक्लें ऐसी हीं थीं कि, “हमें कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है। सोने दो, दो बज गया है।”
तो जो तुम्हारी शक्ल है ना, जिसपर लिखा है कि तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा, ये भी तुम्हारी शक्ल नहीं है। ये भी तुमने पता नहीं कैसे सीख लिया है कि – “मुझे समझ में न आए।” क्योंकि बात इतनी सीधी है कि अगर तुम उसे साफ़ मन से सुनो, तो ऐसे ही समझ में आ जानी है। तो क्यों तुम्हें समझ नहीं आ रही है? क्योंकि तुमने मन के ऊपर इतनी सारी चीज़ें और रखी हुई हैं, इसीलिए साधारण-सी बात भी तुम्हें ऐसी लग रही है कि, “बाप रे! कितनी कठिन बात है। हमें समझ ही नहीं आ रही।”
समझ रहे हो क्या कह रहा हूँ? बात वास्तव में तो बिल्कुल ही सीधी है, पर तुम्हारी शक्ल पर लिखा है कि, “हमें कुछ समझ नहीं आ रहा।” इतनी सीधी-सी बात तुम्हें क्यों नहीं समझ में आ रही? ये अक्वायर्ड फूलिश्नेस है, ये कंडिशन्ड फूलिश्नेस (संस्कारित बेवकूफ़ी) है। *यू हैव लर्नड टू एक्ट फूलिश (तुमने सीखा है बेवक़ूफ़ होना)*। कोई बात है, जिस पर कोई वजह ही नहीं है कि न समझा जाए, या उसको गलत समझ लिया जाए, या गलत समझ कर उस पर कोई प्रतिक्रिया दी जाए। कोई वजह ही नहीं हो सकती, अगर तुम ज़रा-से होशियार हो। पर यहाँ तो कुछ और ही चल रहा है। ये अक्वायर्ड फूलिश्नेस है।
श्रोता ४: हम किसी को बचपन से ही बता रहे हैं कि खाना सिर्फ़ छुरी-काँटे से, और नैपकिन निकाल के ही खाया जाता है। किसी के सामने चावल आए हैं, वो पूरी कोशिश कर रहा है, और वो खा नहीं पा रहा है। असल में छुरी-काँटे को बगल में रखना है, और चावल को बिना छुरी-काँटे के खाना है।
वक्ता: बस इतना ही करना है कि, उठा के खाना है। पर ये न करना, ये अक्वायर्ड फूलिश्नेस है।
श्रोता ४: औज़ार इस्तेमाल ज़रुर करने हैं, उसके बिना कैसे समझेगा।
वक्ता: और उसके बाद वो भूख से मर रहा है, क्योंकि खा भी पाया है तो कुल दस चावल खाए हैं उसने। तो ये अक्वायर्ड सफरिंग (अर्जित संताप) है ना? अब आप अगर भूख से मर रहे हो, तो ये अक्वायर्ड सफरिंग है ना। तुमसे किसने कहा कि चावल को उससे खाओ? हमारी एक-एक सफरिंग, अक्वायर्ड सफरिंग है। हमारी एक-एक फूलिश्नेस , अक्वायर्ड फूलिश्नेस है। यदि बोध स्वभाव है, तो हम मूर्ख कैसे हो सकते हैं? यदि बोध स्वभाव है, तो मूर्खता कहाँ से आई?
श्रोता ५: मैं भी जब ऐसे देख रही हूँ कि बच्चों को जैसे बड़ा किया जाता है, तो ये मान के बड़ा किया जाता है कि उनके पास बुद्धि है ही नहीं। और फिर उसको जारी रखा जाता है। मुझे लड़ाईयाँ लड़नी पड़ती हैं ये बताने के लिए कि उस बच्चे के पास बुद्धि है, और वो समझ सकती है।
वक्ता: और आप बुद्धि के नाम पर जो देते हो, वही वो अक्वायर्ड फूलिश्नेस है। तो वही था ना कि – माया का पहला कदम ये होता है कि ये सोचो कि कुछ कमी है। ओशो ने उस दिन बड़ी प्यारी बात बोली थी, “दुनिया से प्रेम गायब ही इसलिए हुआ क्योंकि प्रेम की शिक्षा दी गयी।” क्योंकि प्रेम की शिक्षा देने के पीछे आपकी जो मान्यता है, वो ये है कि प्रेम की कमी है। कमी है, तभी शिक्षा दे रहे हो ना। पहली बात।
दूसरी बात जिस भी बात की शिक्षा दोगे, मन को दोगे। और जो बात मन के भीतर आ गयी, वो मन से छोटी ही होगी। तो प्रेम की शिक्षा देकर तुमने प्रेम को मन से छोटा बना दिया। अब वो प्रेम मन को गला थोड़ी सकता है। जो प्रेम शिक्षा के तौर पर मन में आया है, वो प्रेम मन को कैसे गलाएगा? जो मन प्रेम में प्रशिक्षित हो, वो मन प्रेम से घुलेगा कैसे?
वक्ता: अगर प्रेम मन में स्थित है, तो मन प्रेम से बड़ा हो गया। लाओ त्सू ने बड़े मज़े में इस बात को बोला है। वो बोले “जब नैतिकता ख़त्म हो जाती है, तो नैतिकता का प्रशिक्षण शुरू हो जाता है। नैतिकता का प्रशिक्षण इस बात का पक्का सबूत है कि नैतिकता ख़त्म है।” जब प्रेम ख़त्म हो जाता है, तो प्रेम की बातें शुरू हो जाती हैं। और प्रेम की बातें इस बात का पक्का सबूत हैं कि प्रेम ख़त्म है। जब धर्म ख़त्म हो जाता है, तो धार्मिक शिक्षा शुरू हो जाती है। जब ईमानदारी ख़त्म हो जाएगी, तो ईमानदारी के नियम कायदे बना दिए जाएँगे।
श्रोता ३: फिर वो नीति बन जाएगी।
वक्ता: नीति बनेगी। हाँ, बहुत बढ़िया। तो माया उस पड़ोसन की तरह है, जो आपके पास आपकी शुभचिंतक बनकर आती है, और कहती है, “अरे-अरे अरे! कितने दुखी हो तुम।” वो पहले तुम्हें ये बताएगी, “तुम्हारी ज़िंदगी में कोई कमी है। तुम्हारे साथ बड़ा बुरा हुआ।” और फिर वो तरीके बताएगी उस कमी को पूरा करने के।
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।