प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, आप बार-बार कहते हैं ऊँचे उठो, जो बड़े-से-बड़ा है उसको करो। जीवन में कोई बहुत बड़ा लक्ष्य होना चाहिए, कभी भी छोटा होना स्वीकार मत कर लो। आप ऐसा बोलते हैं।
लेकिन बहुत सारे ज्ञानियों ने ख़ुद को कभी दास कहा है, कभी पाँव तले की घास कहा है। वो कहा करते थे कि एक सादा, साधारण, सरल जीवन जियो। और हमारी परम्परा में हमेशा सादगी को सर्वोच्च बताया गया है तो फिर आप ऊँचाइयों वगैरह पर इतना ज़ोर क्यों देते हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो, शब्दों का फेर है; अच्छा किया सवाल पूछा। ऐसा नहीं है कि आप अभी साधारण जीवन जी रहे हो और ऐसा ही जीवन जीते रह जाओगे, तो हक़दार हो जाओगे अपनेआप को सरल, सादा या साधारण कहने का।
आप अभी जैसा जीवन जी रहे हो, वो बहुत प्रदूषित जीवन है; उसमें तमाम तरह के दोष हैं, पीड़ाएँ हैं, बन्धन हैं। उसको तोड़ना है, उससे बाहर आना है। उससे बाहर आने पर जो मिलता है न उसको सरल कहते हैं।
ये जो आपने शब्द इस्तेमाल करें हैं, सरल, साधारण, सादा; ये शब्द दुरुपयुक्त होने के लिए नहीं हैं । हम सरल, साधारण, सादा से क्या मतलब समझते हैं कि कोई आदमी है वो ऐसे ही अपना एक कुर्ता पहनकर घूम रहा है दो साल से, तो हम कह देते हैं ये तो बड़ा साधारण आदमी है, ठीक है? कोई... और क्या उदाहरण होते हैं सादगी के?
या कोई ऐसे ही है, कोई भी आकर के उसको बेवकूफ़ बना जाता है तो हम कह देते हैं कि ये तो बड़ा सीधा आदमी है। ये हमने इन शब्दों का दुरुपयोग कर लिया है। सादगी, सरलता, सीधापन; ये शब्द अध्यात्म में सिर्फ़ आत्मा और सत्य के लिए इस्तेमाल होते हैं ये अच्छे से समझो। सिर्फ़ सत्य ही सीधा है और सादा है और सरल है और साधारण है, सिर्फ़ सत्य ही।
झूठ है जो टेढ़ा है, झूठ है जो गोल-मोल है, जिसमें चक्कर-ही-चक्कर हैं, जिसमें वक्रता है; वक्रता समझते हो? डिस्टॉर्शन (विरूपण), ऐसे (हाथों टेढ़ा करके इशारा करते हुए) टेढ़ा हो गया। ये झूठ के लक्षण होते हैं।
सत्य का लक्षण होता है सिधाई। तो माने सिधाई सिर्फ़ वहाँ हो सकती है जहाँ सत्य है, जहाँ आत्मा है। और अगर कोई व्यक्ति ऊपर से तो सीधा दिख रहा है पर भीतर से एकदम वो संस्कारित है, कंडिशंड (संस्कारित) है तो क्या उसे हमें सीधा बोलना चाहिए?
वो सीधा नहीं है भाई! सीधी तो सिर्फ़ आत्मा है। समझ रहे हो? अब कोई इंसान हो सकता है जो दिमाग में बिलकुल पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो, सौ तरह की धारणाएँ उसके मन में बिठा दी गयी हैं पर उसने धोती डाल ली है, ऊपर बनियान पहन रखी है और ऐसे ही अपना फिर रहा है, तो कहते हो, ‘देखो, सीधा आदमी।’
भाई, हम देह-केन्द्रित लोग हैं न; तो हमें जो भी शब्द मिलता है, हम उसकी परिभाषा देह के सन्दर्भ में ही कर लेते हैं। तो सिधाई की परिभाषा भी हमने किसको केन्द्र में रखकर कर ली, देह को। कि जो देह से सीधा दिखायी दे रहा है उसको सीधा मान लिया।
अरे, वो नहीं सीधा है! और अगर हमें देह से कोई ज़रा चपल दिखायी दिया, तो हम कहते हैं सीधा नहीं है। दोनों ही बातें हैं। नहीं! सादगी का, सिधाई का, तुम्हारे कपड़ों से, तुम्हारी बोल-चाल से, तुम्हारे व्यवहार से, बहुत कम सम्बन्ध है। इन चीज़ों का सम्बन्ध है, तुम्हारे मन की सफ़ाई से, मन की आज़ादी से। जो मन से आज़ाद है; वही सीधा है ऐसे समझ लो।
जो मन से आज़ाद है वही सीधा, सरल, साधारण है। अब अगर तुम्हारा मन एकदम बन्धन में है तो तुम कैसे सीधा, सरल, साधारण हो सकते हो? तुम ग़ुलाम हो सकते हो; तुम ग़ुलामों के पास जाओ, वो अक्सर तुम्हें सीधे ही दिखायी देंगे। ग़ुलाम के पास विकल्प भी क्या है? सीधा नहीं रहेगा तो पीटा जाएगा।
तुम एक जेल में जाओ और वहाँ पर तुम्हें तीन-चार दिखायी दें, वो एकदम सपाट चेहरे के साथ न हँस रहे, न मुस्कुरा रहे, न आपस में बात कर रहे; एकदम सधी हुई चाल चलते हुए, फावड़ा कन्धे पर रखकर के चले जा रहे हैं कि वहाँ जाकर काम करेंगे।
दुबले-पतले हैं, न इधर देख रहे हैं, न उधर देख रहें हैं। तुम्हें तुरन्त क्या ख़याल आएगा कि ये तो बड़े सीधे हैं। वो सीधे नहीं हैं, वो कल पीटे गये हैं
वो कल पीटे गये हैं और उनको बिलकुल धमका दिया गया है कि दोबारा अगर इधर-उधर देखा और नज़रें आगे-पीछे की तो और पीटे जाओगे, लेकिन तुम उनको देखकर कहोगे, ये तो सीधे हैं। ज़्यादातर लोग जिनको तुम सीधा या सरल बोलते हो, वो सिर्फ़ डरे हुए हैं और भोंदू हैं।
छोटा भोंदू है सात साल का, नये स्कूल में डाल दिया गया है। अब वो वहाँ पहुँच रहा है, देख रहा है इधर-उधर, सब नये-नये छात्र-छात्राएँ, सारी नयी व्यवस्था, नये टीचर। उससे ठीक से वहाँ साँस भी नहीं ली जा रही, वो दम साधे एक जगह खड़ा हुआ है ऐसे।
जो कुछ जो भी बोल देता है, ‘चलो! बायें चलो।’, बायें चल देता है। ‘दायें चलो!’, दायें चल देता है। ‘बस्ता खोलो!’, बस्ता खोल देता है। बगल के छात्र ने बोल दिया कि टिफिन खोलो! उसने टिफिन खोलकर उसको दे दिया।
तुम तुरन्त क्या बोलोगे? बड़ा सीधा है...ये झुन्नु तो बहुत ही सीधा है, वो सीधा नहीं है; दहशत में है और भोंदू है। उसको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि इस स्कूल में करना क्या है, तो उसके हाव-भाव से सिधाई लग रही है।
ज़्यादातर आध्यात्मिक लोगों की सिधाई भी ऐसी ही होती है; भोंदू, कुछ जानते ही नहीं। इसीलिए तो फिर दुनिया वाले अध्यात्म का मज़ाक उड़ाते हैं। जहाँ कोई धार्मिक हुआ नहीं, इसका मतलब हो जाता है कि ये तो गया! भोंदू है, इसे कोई भी लूट ले, कोई बेवकूफ़ बना दे, कुछ कर ले, इसको कुछ समझ में ही नहीं आना है।
और जब समझ में नहीं आएगा, बेवकूफ़ बनेगा, लुटता रहेगा, तो लोग कहेंगे ‘ये देखो, भगवान ने अवतार लिया है बिलकुल! हारे को हरिनाम।’ इन्होनें तो सांसारिक वस्तुओं का मोह-त्याग सब छोड़ दिया है, तो लोग इन्हें लूटते भी हैं तो इन्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।
अरे पगले! वो इतना भोंदू है कि उसको पता भी नहीं चलता कि वो लुट रहा है और वो इतना अशक्त है, इतना कमज़ोर है कि जब उसे पता चल भी जाता है कि वो लुट रहा है तो उसको हिम्मत ही नहीं उठती लूटने वाले को रोकने की। इसको तुम सरलता बोलते हो? इसको तुम सादगी बोलते हो? यही है। समझ में आ रही है बात?
कोई आया, उसका खाना छीनकर के ले गया... ‘तो क्या रखा है, भूखे पेट रहने से स्वास्थ अच्छा रहता है!’, ये सरलता है, सादगी है? किसी ने रोटी फेंककर के दे दी ज़मीन पर, मिट्टी पर; तो कह रहा हैं, ‘देखो, अगर ये लोहे कि थाली पर भी होती, तो लोहा थोड़े ही खाते, खाते तो गेहूँ ही न? अभी भी गेहूँ तो खा ही लिया, क्या फ़र्क पड़ता है!’
और तुम कह रहे हो, ‘वाह! वाह! वाह! क्या बिलकुल सिधाई कि प्रतिमूर्ति हैं, सादगी का अवतार हैं।’ अरे ये आदमी केंचुए जैसा है, इस आदमी के पास कोई रीढ़ नहीं है। इस आदमी के पास वास्तव में आत्मा से कोई सम्पर्क भी नहीं है क्योंकि आत्मा तो बल देती है। ये आदमी अगर ज़रा भी आध्यात्मिक होता, तो इसके पास आत्मबल होता। इसके पास आत्मबल होता तो ये मूर्खतापूर्ण काम होने ही नहीं देता।
इसके सामने तो हत्या हो जाए, बोलेगा, ‘चलो, क्या रखा है एक दिन तो सभी को मरना है, मुक्ति मिली इसको; ये तो मृत्युलोक, ये तो पीड़ालोक है; यहाँ तो जो है वही दुख में सना हुआ है, अच्छा हुआ! इसका काम तमाम हो गया, मारा गया बहुत अच्छा हुआ।’
हक़ीकत क्या है? इस आदमी में हिम्मत नहीं थी हत्यारों का सामना करने की, उस आदमी को बचाने की। और ऐसों को हम बोल देते हैं, ये तो सीधा है, सादा है। ये भोंदू है! भोंदू लोग कबसे सीधे, सच्चे, सरल कहलाने लग गये भाई?
न चेहरे पर तेज है, न हाथों में बल है, न मस्तिष्क में संकल्प है, न कर्म में धार है, ये आध्यात्मिक हो गये? ये कौनसा अध्यात्म है?
आत्मा का दूसरा नाम है, ‘मुक्त’, क्या? मुक्त। मुक्त है ही। और आत्मा का ही एक नाम है, सादगी, सच्चाई, सरलता और आत्मा ही निर्विशेष है, आत्मा का ही नाम है ‘निर्विशेष।’ निर्विशेष माने साधारण।
तो आत्मा का ही नाम है, मुक्ति और आत्मा का ही नाम है निर्विशेषता, सादगी, सच्चाई, सरलता। ठीक? तो माने सादगी, सच्चाई, सरलता; इनका ही नाम है, मुक्ति। माने सच्चा या सादा या सरल हम सिर्फ़ किसको बोल सकते हैं; उसको जो बन्धनों के ख़िलाफ़ विद्रोह करता हो।
जो बन्धनों के ख़िलाफ़ विद्रोह करता हो लगातार; उसी को सिर्फ़ सच्चा, सीधा, सादा, सरल बोला जाना चाहिए। और यही मैं तुमसे कह रहा हूँ, जब मैं कहता हूँ अपने लिए ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य बनाओ।
क्योंकि जो आदमी बन्धन में है उसके पास और ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य हो क्या सकता है? बन्धनों को काटो। जब तुम अपने बन्धनों को काट लोगे, तब तुम हकदार होगे निर्विशेष कहलाने के, सीधा, सच्चा, सरल वगैरह कहलाने के।
अभी ये थोड़े ही है कि जो तुम्हारी हालत है, तुम उसी हालत में बैठ जाओ और कहो, ‘आचार्य जी, आध्यात्मिक आदमी को थोड़े ही विद्रोह करना होता है, थोड़े ही काम करना होता है? हम तो सीधे, सच्चे, सरल हैं।
‘रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीय।’ यही तो अध्यात्म है, हमें क्यों कुछ करना है? हमें तो मुँह पर लात सहनी है स्तिथियों की, अक्रान्ताओं की, अधार्मिकों की। ये सब आकर के हमारा और पूरी दुनिया का दमन कर रहे हैं और हमें बर्दाश्त करते रहना है। क्यों? ‘क्योंकि हम तो सीधे, सच्चे, साधारण, आदमी हैं।’ तुम कहीं से सीधे, सच्चे, साधारण आदमी नहीं हो, आध्यात्मिक आदमी विद्रोह करता है। आध्यात्मिक आदमी का पहला लक्षण क्या है, ‘ना!’ जो ‘ना’ नहीं बोल सकता, जिसके भीतर से प्रतिरोध की आग नहीं उठती, वो कहाँ से आध्यात्मिक है? रास्ते के पत्थर को ही सबकुछ स्वीकार होता है, कुछ भी हो जाए, रास्ते में पत्थर पड़ा है उसके ऊपर से गाड़ी निकल गयी, वो विरोध करेगा? करेगा? किसी ने उठाकर के वही पत्थर किसी के शीशे पर, काँच पर, खिड़की पर दे मारा, विरोध करेगा पत्थर? करेगा?
उस पत्थर को लेकर के तुम मशीन में डाल दो, उसको चूरा-चूरा कर दो, वो विरोध करेगा? उसी पत्थर को तुम उठाकर के तुम नाली में डाल दो, वो विरोध करेगा? एक जो सबसे गन्दा, खुजली वाला कुत्ता होगा मनहूस; वो आएगा, उसी पत्थर के ऊपर टाँग उठाकर के पत्थर को बिलकुल नहला देगा, वो विरोध करेगा?
तो आध्यात्मिक होने का मतलब है सड़क के पत्थर की तरह हो जाना कि कुत्ते आकर के टाँग उठाकर के तुमको नहलाते जाएँ?
बहुत दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में बहुत लोगों को अभी भी यही भ्रम है कि आध्यात्मिक आदमी माने वो जो न आवाज़ उठाना जानता है, न हाथ उठाना जानता है। ये कौनसी उठी हुई चेतना है जो आवाज़ उठाना भी नहीं जानती?