प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, उपनिषदों में कई जगह बताया गया है कि ऐसा है। अस्तित्व के बारे में बताया गया कि ऐसा है या अपने बारे में बताया गया है कि ऐसा है। पर क्यों हमारी प्रकृति ऐसी है, क्यों हम ऐसे पैदा हुए, मनुष्य ऐसा क्यों है? क्यों ये माया का खेल चल रहा है, इस बारे में थोड़ा सा स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: ये खेल क्यों चल रहा है, ये नहीं पूछते — इतने दिनों से उपनिषद् समागम चल रहा है — पूछते हैं ये खेल किसके लिए चल रहा है। जिन्हें खेल में रुचि है अभी बहुत, जिन्हें खेल में अभी अर्थ दिखता है, जिन्हें खेल में मोह है, खेल उनके लिए चल रहा है। वरना चल कहाँ रहा है! किसी सुलझे हुए से पूछो, वो कहेगा, 'कौनसा खेल? खेल चल कहाँ रहा है!' पर ये अहंकार है कि मेरे लिए चल रहा है तो सभी के लिए चल रहा होगा न। मुझे दिखाई दे रहा है, तो सभी को दिख रहा होगा न।
जैसे (सामने बैठे श्रोता को बताते हुए) इसका चश्मा टूट गया, अब सामने लौकी है, उसको केले दिख रहे हैं, तो अब वह कहे कि ये केले क्यों हैं या कहे कि ये केले यहाँ कौन लेकर आया। अगर ऐसा सवाल पूछे, तो इससे क्या पता चलता है? अहंकार। तुममें इतनी विनम्रता ही नहीं है कि तुम पहले पूछो कि 'ये केला तो सिर्फ़ मेरे लिए ही है न? क्या वास्तव में ये केला है भी?' अगर ये पूछोगे कि ये केला है भी, तो दूसरे बताएँगे कि भाई केला है ही नहीं, ये लौकी है, तुझे केले जैसी दिख रही है।
क्या ये खेल है भी? किसने कह दिया कोई खेल चल रहा है? किसने कह दिया? सब के लिए नहीं चल रहा। 'अच्छा जिनके लिए चल रहा है, तो उनके लिए क्यों चल रहा है?' उनकी रुचि है इसलिए चल रहा है। बड़े शरारती हैं, ख़ुद ही खेल रचा है और फिर पूछते हैं, 'ये खेल क्यों चल रहा है? ये खेल क्यों चल रहा है?' तुमने रचा है, इसलिए चल रहा है। तुमने नहीं रचा होता, तो नहीं चलता। 'नहीं, हमने नहीं रचा।' झूठ काहे बोलते हो? 'नहीं, ऊपर वाले ने रचा है न।' नहीं, ऊपर वाला कोई नहीं है। वो माला खाली है। वहाँ कोई है ही नहीं।
हमारी आदत ऐसी है जैसे कोई रहता हो बिलकुल पहली मंज़िल पर, और पहली मंज़िल पर ख़ूब गंदगी फैलाकर रखता हो। और कोई पूछे कि इतनी गंदगी क्यों फैलायी है, तो वो कहे कि अरे! ऊपर वाले फेंक देते हैं। फिर एक दिन जाकर के ऊपर जाँच करी ख़ूब गुस्से में आकर के कि कौन है ऊपर। पता चला कि वहाँ कोई रहता ही नहीं है। ऊपर से कोई कुछ नहीं फेंक रहा गंदगी। वो सब तुम्हारी फैलायी हुई है। खेल किसी ने नहीं रचा है, ये सब तुम्हारी महिमा है। तुम्हीं सब दंद-फंद फैला कर बैठे हुए हो।
प्र२: आचार्य जी, अगर कोई जीवन में समस्या है, तो या तो वह समस्या हल की जाए, या उसका समाधान नहीं है या सामर्थ्य नहीं है — आदमी को पता चल जाता है कि लिमिटेशन्स (सीमाएँ) तो हैं कि मेरे में लिमिटेशन्स हैं, मैं उसको हल नहीं कर पाऊँगा, तो उसके बारे में कुछ प्रकाश डालें, उन समस्याओं का क्या निदान करें अगर सामर्थ्य नहीं है या स्थितियाँ विपरीत हैं?
आचार्य: स्थितियाँ ही हैं, स्थितियाँ ही हैं, आप स्थितियों के विपरीत हैं। एक स्थिति है, आपको वो स्थिति जब सुहाती नहीं है, जब वो आपके स्वार्थों की पूर्ति में सहायक नहीं होती, तो आप उस स्थिति को कह देते हैं, 'यह एक अवांछित और विपरीत स्थिति है।' वरना वो सिर्फ़ एक स्थिति है, समस्या नहीं है। वो क्या है? एक स्थिति है।
आप उस स्थिति से छत्तीस का आँकड़ा रख रहे हैं, आपको वो स्थिति पसंद नहीं आ रही। अब आवश्यक है कि अपनी ओर देखा जाए, क्योंकि वो स्थिति मेरे संदर्भ में समस्या है, अन्यथा वो समस्या नहीं है। तो अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि 'ये समस्या तो मेरे लिए है। मुझे ये समस्या रखनी है? मुझे वैसा ही बना रहना है जैसा मैं हूँ? इस स्थिति को बदलने से अगर मेरा कोई सुधार होता है, तो मैं इस स्थिति को बदल भी सकता हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस स्थिति से उलझने में ही मेरा अहंकार रक्षा पाता हो? तो फिर मैं इस स्थिति से उलझूँगा ही नहीं, मैं इसे समस्या मानना तुरंत छोड़ देता हूँ।'
आप बात समझ रहे हैं?
आपको उस स्थिति से अपने रिश्ते को देखना होगा। ये भी आवश्यक हो सकता है कई बार कि आप जी-तोड़ मेहनत करके उस स्थिति को बदलने की कोशिश करें और ये भी हो सकता है कि आप पायें कि आप उसको अगर बदलने की कोशिश कर रहे हैं, तो उसमें आपका अहंकार और चढ़ रहा है; तो छोड़ दिजिए।
लेकिन एक काम बस मत करिएगा, क्या? कि ये भी मानते रहें कि समस्या है, और ये भी कह दें कि मेरी तो लिमिट्स हैं, सीमाएँ हैं, मैं इसके बारे में कुछ कर नहीं सकता, ये मत करिएगा। ये तो फिर आपने एक ऐसा सह-अस्तित्व निकाल लिया जिसमें बस अहंकार का ही अस्तित्व है। ज़्यादातर लोग यही करते हैं। और ऐसा ख़ूब पढ़ाया भी जाता है, एक्सेप्ट वाट यू कैन नॉट चेंज। सुना है ना कि जो चीज़ बदल नहीं सकते, उसको स्वीकार कर लो। नहीं, ये नहीं करना है।
या तो देख लो कि चीज़ ऐसी है जिसे बदला जाना चाहिए, तो उसे बदल डालो। या यह देख लो कि उसको बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है, तो मत बदलो, अपनेआप को बदल दो। पर ये मत कर लेना कि जान रहे हो कि जो स्थिति है उसे बदला जाना चाहिए, फिर भी कायरता के कारण और आलस के कारण और हीन-भावना के कारण उसे बदलने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हो।
यदि ये जान ही गये हो कि सामने जो स्थिति है, वो बदली जानी चाहिए, तो फिर जूझ जाओ, भले ही सफलता ना मिले। या फिर ये जान लो कि उसे बदलने की कोई ज़रूरत ही नही है, तो भी ठीक है। वो तो स्थिति पर निर्भर करता है। कई बार जूझ पड़ना चाहिए और कई बार उपेक्षा कर देनी चाहिए। ये अपने विवेक की बात है।
अंतिम निर्णय किस आधार पर लेना है? कि मैं जो कुछ भी करने जा रहा हूँ, वो मेरी मुक्ति में सहायक होगा कि नहीं। मुक्ति इसमें भी निहित हो सकती है कि जूझ पड़ो और मुक्ति इसमें भी निहित हो सकती है कि जो चल रहा है, चलने दो, उपेक्षा कर दो, तुम राम धुन में मस्त रहो। ईमानदारी से पूछना पड़ेगा — मेरे लिए सही क्या है? मेरी मुक्ति किस दिशा में है?
प्र३: आचार्य जी, मेरा सवाल कुछ आज जो बातें हुईं, उनसे भी रिलेटेड है, कुछ पहले से ही मन में चल रहा था कि जैसे आपने बोला कि अंदर एक विद्रोह तब आता है जब आपको पता लग जाता है कि यू कैन नॉट रन अवे, बिलकुल दिख जाता है। तो इसमें, रन अवे में कुछ लोग एक विकल्प ले लेते हैं जैसे आत्महत्या का या सुसाइड का। और आपने ये भी बोला है कि अगर जैसे हम दुख के निवारण के लिए — मैं तो ख़ुद दुख के निवारण के लिए ही आया हूँ। तो दुख के साथ एक द्वैत का सिरा है सुख। दुख जाएगा तो सुख भी जाएगा, तो आनंद कोई अनुभव भी नहीं है। तो ये जो रास्ता है, ये एकदम एक इंस्टैंट रास्ता दिखता है कि सारे दुख ख़त्म हो जाएँगे। लेकिन कोई भी आध्यात्मिक जो भी गुरु हुए हैं या ग्रंथ किसी ने भी ये रेकमेंड नहीं किया है, तो मेरी इस सोच में कहाँ ग़लती है? क्योंकि कहीं-न-कहीं तो इसमें ग़लती है। और मैं वो रास्ता चुन भी नहीं रहा हूँ।
आचार्य: दस ओवरों में एक सौ दस रन बनाने हैं, दस ओवरों में एक सौ दस रन बनाने हैं, और बॉलिंग बढ़िया हो रही है। तो तुमने कोशिश करी पहले ओवर में मारने की, कुछ रन ज़्यादा बने नहीं, छह-सात रन ही बने। फिर दूसरे ओवर में भी तुमने कोशिश करी रन बनाने की, फिर भी रन बन नहीं रहे हैं। और स्थिति मुश्किल होती जा रही है। तो भाई ने क्या किया कि बल्ला लिया और हिट विकेट मार दिया। ये आत्महत्या है। इससे मैच जीत जाओगे? मैच जीत जाओगे क्या?
भाई, पवेलियन तो वापस लौटना ही था, तुम बस आठ ओवर पहले लौट गये हो। पचास ओवर पूरे खेल लिये होते, तुमने बयालीसवें ओवर में ही अपना हिट विकेट मार दिया जान-बूझकर। ऐसा तो है नहीं है कि अमर थे पिच पर। पचास ओवर के बाद — एक दिवसीय मैच की बात कर रहा हूँ, पचास ओवर का मैच है — पचास ओवर के बाद तो वैसे भी वापस लौटना ही था। चुनौती सामने थी, पूरी कोशिश करके लौटते। हिट विकेट ख़ुद को ही कर लिया, ये क्या तरीक़ा है? इससे क्या मिल गया? ये आत्महत्या है।
प्र३: जिन्होंने हिट विकेट नहीं किया, उनको क्या मिला?
आचार्य: उनको कोशिश मिली। उनको अवसर मिला कि जान लगा सकें और उनको संभावना मिली कि अभी भी जीत सकते हैं। और उनको क्या मिल गया, ये तुम्हें तब पता चलेगा ना जब तुम पहले हिट विकेट नहीं हो जाओ। तुम हिट विकेट होने के बाद पूछ रहे हो उन्हें क्या मिल गया। उन्हें जो मिल भी गया, वो तुम्हें मिल नहीं सकता। कुछ तो मिलता होगा न पूरी पारी खेलकर के या कम-से-कम कुछ मिलने की संभावना होती होगी। तुमने तो संभावना से भी हाथ धो दिया। तुम तो अब इस लायक़ भी नहीं बचे कि कोशिश कर सको। कोशिश तो करते!
कर्म वग़ैरा क्या बोलें कि कर्म करना चाहिए! अच्छा लगता है न कोशिश करना, कि नहीं लगता? अच्छा लगता है न। सामने चुनौती ही तो है, बॉलर ही तो है, लगाओ जान, क्या पता कुछ हो ही जाए। क्या पता बारिश ही हो जाए। बारिश ही हो जाए, मैच अनडिसाइडेड छूट जाए। पर मैच अनडिसाइडेड छूट पाये, बारिश भी तुम्हारी सहायता कर पाये, इसके लिए क्या ज़रूरी है? कि खेल रहे थे भाई। हिट विकेट ख़ुद ही होकर आ गये, तो अब तो बारिश भी हो जाए तो भी कुछ नहीं होगा फ़ायदा।
परिस्थितियाँ बदल सकती हैं न, हज़ार तरीक़े के संयोग होते हैं, तुम थोड़ा पुरुषार्थ तो दिखाओ। संयोग भी तुम्हारी तभी सहायता कर पाएँगे जब तुम अपनी तरफ़ से पुरुषार्थ दिखाओगे।
तुम देख रहे हो टीवी, तुम्हें कैसा लगेगा कि अब आस्किंग रेट बढ़ता जा रहा है, तो बल्लेबाज देख रहा है उधर से बॉलर आ रहा है अपने रन अप में। और बॉलर है बिलकुल (हाथ से तगड़े होने का इशारा करते हुए) ऐसा, क्रेग मैकडरमेट हुआ करता था मेरे समय में आस्ट्रेलिया का..ठीक है? ऐसा! उसके सामने हमारे खड़े होते थे सब मांजरेकर वग़ैरा। तो उधर से बॉलर आ रहा है भीमकाय, छह फुट छह इंच का। तो भाई ने अपना स्टांस चेंज किया थोड़ा सा, बैट्समैन ने, थोड़ी शफलिंग करी और फिर धीरे से अपनी गिल्ली उड़ा दी और इससे पहले कि बॉल इन तक पहुँचे, ये पवेलियन की ओर भाग लिये। अच्छा लगेगा ये देखना? तो फिर?
प्र४: गुरुजी मैं आपको अच्छे से सुनना चाहता हूँ लेकिन बीच में मेरा शरीर दुश्मन बन जाता है, मन भी दुश्मन बन जाता है। जिन बातों को समझ पाता हूँ, तब तो स्थिर हो जाता है मन, पर जब देखता हूँ कि मन के पल्ले नहीं पड़ रहा, समझ नहीं आ रहा है, वो आराम से भटक कर दूसरी जगह चला जाता है। आपके सामने ही हूँ, फिर भी आपको नहीं सुन रहा है।
आचार्य: भाई, हम ऐसे ही हैं। ये मत कहो कि मैं ये करता हूँ, ये कैसे नहीं करूँ। ये पूछो कि जितना करता हूँ, उससे बेहतर कैसे हो जाऊँ। अगर अभी ये हो रहा है कि मैने घंटे भर बोला, और आप तीस मिनट ही सुन पाये तो उस तीस को बढ़ाकर पैंतीस करिए। आप के हाथ में यही है। ठीक है? लड़ना पड़ता है, जूझना पड़ता है।
शरीर, मन ये तो अपने-अपने स्वार्थ की तरफ़ जाते हैं। शरीर का काम है बचे रहना, बने रहना। शरीर चेतना थोड़े ही है। चेतना आपको बता भी रही होगी कि सही काम क्या है, शरीर कोई और ही धुन चला कर बैठा होगा तो आप क्या करेंगे! आप ये कामना थोड़े ही कर सकते हैं कि मेरा शरीर ऐसा हो जाए कि कोई अनर्गल माँग करे ही नहीं। वो तो करेगा ही। किन्हीं लोगों का कम करता है, किन्हीं का ज़्यादा करता है। जो लोग अपने शरीर को थोड़ा नियंत्रित कर लेते हैं हठ योग वग़ैरा से, उनका शरीर ज़रा कम उपद्रव करता है। लेकिन फिर भी, ये है तो बंदर ही ना। अब बंदर का क्या काम है? छलाँगे मारना।
आपको इसके होते हुए भी अपने काम में लगे रहना होगा। ठीक है? भीतर से शर्म भी आएगी, ग्लानि भी आएगी, उसका सही उपयोग करना है। ग्लानि का उपयोग इसलिए नहीं करना है कि 'अरे देखो मैंने ठीक से सत्र सुना नहीं, तो मैं अगले सत्र आऊँगा ही नहीं। मैं ऐसा पापी हूँ मैंने कल का सत्र ठीक से सुना नहीं, तो अब मैं आने वाले सत्र आऊँगा ही नहीं।' ये नहीं करना है। ऐसे कहना है कि कल का सत्र मैं तीस मिनट ही सुन पाया तो चलो थोड़ा सा बढ़ाने की कोशिश करते हैं, तीस का पैंतीस मिनट कर देंगे।
वो लड़ाई आपको अंत तक लड़नी पड़ेगी, लगातार। उसको बहुत बड़ी चीज़ मत मानिए। है न एक गाना, 'साथी मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है, दुख तो अपना साथी है।' वो साथी है। वो जैसा भी है, वो रहेगा। ठीक है? उसी के साथ काम आगे बढ़ाना है।
अभी यहाँ नीचे आने से पहले मैं कह रहा था एक स्वयंसेवक से कि आपलोग यहाँ पर आ नहीं गये होते, शारीरिक रूप से ही, तो शायद मैं आज का सत्र नहीं करता। बुखार जैसा लग रहा था, थकान हो रहा थी, पड़ा हुआ था। और ये कोई पहली बार नहीं हो रहा है, बहुत बार होता है। आप अपना काम करो ना, शरीर तो अपना चूँ-चाँ, हल्ला-गुल्ला करता रहता है। आप अपना काम करो चुपचाप।
मेरे परिवार में पाँच लोगों को कोविड है, हर दूसरे दिन जाता हूँ, वहाँ थोड़े समय रहता हूँ फिर वापस आता हूँ। तो क्या करूँ, आपसे बात नहीं करूँ? हमें अपना काम करना है, शरीर अपना काम कर रहा है, वायरस अपना काम कर रहा है। जब वह अपना काम करना नहीं छोड़ रहा, कोरोना, तो मैं अपना काम करना क्यों छोड़ूँ? नहीं?