ये खास सीख छुपी है मौत के डर में [भागो मत, कुछ सीखोगे] || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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ये खास सीख छुपी है मौत के डर में [भागो मत, कुछ सीखोगे] || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! आचार्य जी, मैं बचपन से ही ऐसे माहौल में रहा कि पापा से बहुत डर लगता था। पापा बहुत मारते-पीटते थे। चाचा भी बहुत मारते-पीटते थे। तो बहुत डर लगता था। फिर कॉलेज चला गया। कॉलेज में ऐसा था कि हम एक ग्रुप में रहते थे, हॉस्टल में रहते थे, काफ़ी लोगों का ग्रुप था। तो मैं अब देखता हूँ कि जैसे कभी लड़ाई-वड़ाई हो जाती थी तो साथ भी जाते थे, सब चीज़ें होती थीं, तो वहाँ पर भी डर मौजूद था।

फिर एक घटना घटी थी मेरे साथ कि मैं कोई डॉक्टर के पास गया—बीमार हुआ—तो उसने बोला, ‘आपको कैंसर हो सकता है। उसने सीधा नहीं बोला, उसने हाव-भाव ऐसा दिखाया मुझे कि कोई गंभीर गड़बड़ी है। आचार्य जी, उस बात ने मुझे इतना अंदर से हिला दिया कि मैंने वो कॉलेज छोड़ दिया और घर आ गया कि मैं बी.एड. करूँगा। मेरा मास्टर्स का प्लान था और राजस्थान को टॉप किया था मैंने फिज़िक्स (भौतिक विज्ञान) में।

अभी मैं लेक्चरर हूँ फिज़िक्स (भौतिक विज्ञान) का गवर्मेंट ऑफ़ राजस्थान (राजस्थान सरकार) में। पर वो जो डर है, वो इतना घर कर गया है अंदर कि किसी आदमी से हम सहज बात नहीं कर पाता। जैसे आपसे बात कर रहा हूँ।

कभी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार से जो बात कहनी होती है, वो भी नहीं कह पाते सहज रूप से। पर वो थोड़ी देर के लिए रहता है। जब थोड़ी देर बात हो जाए फिर चीज़ें सामान्य हो जाती हैं; लेकिन फिर जैसे ही अकेला होता हूँ फिर मुझे ये पता चलता है कि डरा हुआ तो था उस समय। वो क्या बात थी?

कुछ चीज़ों का मैं सामना भी कर लेता हूँ; उसमें मुझे डर नहीं भी लगता। पर जैसा कभी ऑफिस का काम पड़ता है…

आचार्य प्रशांत: देखो, दुनिया में अगर कोई एक चीज़ तुमसे कभी झूठ नहीं बोलती, वो डर है। डर वास्तव में कभी झूठ नहीं बोलता। डर यही कहता है न कि फ़लानी चीज़ नहीं रहेगी, फ़लानी चीज़ ख़त्म हो जाएगी। बिलकुल सही बोलता है डर। बल्कि उम्मीद झूठ बोलती है।

तुमको जो भी डर हैं, वो सारे-के-सारे, कभी-न-कभी तो सामने आने ही हैं। वो असली साबित हो ही जाएँगे। हाँ, बिलकुल हो सकता है कि तुम्हारा ये डर व्यर्थ हो कि तुम्हें कैंसर है, लेकिन कैंसर का भी तो डर तुमसे यही कह रहा था न कि मर जाओगे जल्दी। कैंसर नहीं भी हुआ तो मरोगे तो है ही, डर ने झूठ थोड़े ही बोला तुमसे। इस रास्ते से नहीं मरोगे तो उस रास्ते से मरोगे।

जो कुछ भी तुम अपना बोलते हो उसी को लेकर डर लगता है, है कि नहीं? और जो कुछ भी तुम अपना बोलते हो, तुम्हारे पास टिकना नहीं है, तो डर ने झूठ कहाँ बोला? डर तो एकदम सच्ची बात बोलता है। तो ये तो सवाल ही बड़ा विचित्र है कि डर क्यों हटायें, डर कैसे हटायें, डर का सामना कैसे करें, वगैरह-वगैरह।

डर तो एक सच्ची चीज़ है, उसे हटा क्या रहे हो? आमतौर पर डर को हटाने के नाम पर डर जो सच्चाई बयान कर रहा होता है हम उससे मुँह मोड़ लेते हैं, आँखें मूँद लेते हैं, बस कह देते हैं, ‘डर हट गया, डर हट गया।’

डर तुमसे बोल रहा है, ‘तुम्हारा एक दोस्त है वो नहीं रहेगा।’ ग़लत कहाँ बोल रहा है। किसका दोस्त रहा है लगातार? हाँ, ये हो सकता है कि दस दिन रह जाए; दस साल रह जाए, उसके बाद नहीं रहेगा; डर ने झूठ तो नहीं बोला। डर की बातें, गहराई में जाओ, तो सच ही हैं। तो हम डर हटाने की बात क्यों कर रहे हैं?

डर हटाने की बात नहीं करनी चाहिए। ज़िन्दगी में डर से बड़ा कुछ और होना चाहिए। डर तुमको यही तो बता रहा है कि फ़लानी चीज़ है वो तुम्हारे पास बस कुछ समय के लिए है। यहाँ तक कि तुम भी अपने पास बस कुछ समय के लिए हो। डर तुम्हें परेशान इसलिए करता है क्योंकि तुम उस समय का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हो। इसलिए तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं है, तुम्हारे पास बस डरने को डर है।

तुम्हारे सामने खाना भी रखा जाता है, तो ये बात सही है कि नहीं कि अगर खा नहीं लोगे तो पाँच घंटे, दस घंटे, पंद्रह घंटे के बाद वो खाना बेकार होना शुरू हो जाएगा। है कि नहीं?

अब खाना तुम्हारे सामने रखा है, तुम उसको खा नहीं रहे और कह रहे मुझे बहुत डर लग रहा है कि ये खाना कहीं ख़राब न हो जाए, खाना नहीं ख़राब न हो जाए! तो बात तुम एक तल पर बिलकुल ठीक कह रहे हो, लेकिन साथ-ही-साथ वो बात मूर्खता की भी हुई न? बात बिलकुल ठीक है कि खाना ख़राब हो जाएगा। अरे! खाना ख़राब हो जाएगा, ये चीज़ तो पत्थर पर खिंची लकीर है।

जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसे वक़्त ने ख़राब कर ही देना है। तुम खा क्यों नहीं रहे जल्दी उसको? जब तक समय है, समय का सदुपयोग क्यों नहीं कर रहे? सामने खाना रखा है, उसका जो सही इस्तेमाल है कर क्यों नहीं लेते? सही इस्तेमाल नहीं करेंगे, उसकी जगह बैठे-बैठे डरेंगे। और सही इस्तेमाल क्यों नहीं करेंगे? क्योंकि खाने वाले उदाहरण में तो बस भोग है, श्रम दिखाई नहीं दे रहा।

ज़िन्दगी जो चीज़ें आपको देती है उनका फ़ायदा उठाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। वो मेहनत हम करते नहीं, बस डरते रहते हैं कि कहीं जो कुछ मिला है वो छिन न जाए। क्यों कह रहे हैं छिन न जाए? छिन तो वो जाएगा, निश्चित रूप से छिन जाएगा। अपनेआप को क्यों सांत्वना दे रहे हो कि नहीं-नहीं, नहीं छिनेगा? एकदम छिनेगा। वो छिने उससे पहले मौके का फ़ायदा क्यों नहीं उठाते?

तुम कोई पढ़ाई कर रहे थे, तुम्हारी सेहत ख़राब हो गई और तुम्हारे भीतर डर बैठ गया सेहत को लेकर के, तुम अपनी पढ़ाई छोड़कर आ गये। इसका मतलब जानते हो क्या है? इसका मतलब ये है कि तुम्हारे पास उस डर से बड़ा कुछ था नहीं। जो कुछ भी तुम पढ़ रहे थे उससे प्यार होता तुम्हें तो तुम कैसे छोड़कर आ जाते, बताओ?

और डर लगातार मौजूद रहेगा, डर को हटाने की बातें एकदम नकारा, व्यर्थ बातें हैं। डर हमेशा मौजूद रहेगा। सवाल ये है कि तुम्हारे पास डर से बहुत बड़ा कुछ और भी है या नहीं है? डर तो रहेगा ही रहेगा। दुनिया में कोई नहीं है जिसके पास डर नहीं होता। अरे! पैदा ही वो होता है जिसे समय ने मिटा देना है। घड़ी की टिक-टिक पैदा होती है, काउंटडाउन टू डेथ (मौत की उल्टी गिनती)।

जिस दिन पैदा होते हो उस दिन से घड़ी उल्टी चलनी शुरू हो जाती है, है न? शून्य की तरफ़, और शून्य का मतलब होता है मौत। अब बात ये है कि ये जो तुमको समय मिला है, बुद्धि मिली है, संसाधन मिले हैं, जीवन मिला है, इसको प्रेमपूर्वक किसी सही काम में झोंक रहे हो या नहीं झोंक रहे हो। झोंक दोगे तो डर नहीं लगेगा क्योंकि डर है ही इसी बात का कि ज़िन्दगी बेकार जा रही है, डर है ही इसी बात का। झोंकोगे नहीं तो डरे बैठे रहो।

जैसे तीन घंटे की परीक्षा हो और तुमको पता है तीन ही घंटे की है और तुम डर रहे हो, ‘कहीं तीन घंटे पूरे न हो जायें , कहीं मैं फेल न हो जाऊँ, कहीं परीक्षक, कि निरीक्षक आकर के मेरी कॉपी , ये उत्तर पुस्तिका छीन न ले मुझसे!’ डर क्या रहे हो, वो तो छीन ही लेगा। ये कोई सम्भावित बात नहीं है, ये तय बात है, ये निश्चित बात है। तुम हल करो न! प्रश्नपत्र में समस्याएँ हैं उनको हाल करो तीन घंटे में। तुम्हारे पास वक़्त नहीं होना चाहिए ये सोचने का कि ‘हाय! क्या होगा अगर तीन घंटे पूरे हो गये तो!’

ये क्या फ़ालतू बात सोच रहे हो! क्योंकि तीन घंटे तो पूरे होंगे ही होंगे। एक क्षण ऐसा आएगा जब कॉपी छिनेगी, तुम उससे पहले सब समस्याएँ हल कर डालो। समझ में आ रही है बात?

और एक मज़ेदार चीज़ होती है। जानते हो, जो ऐसे ही बुद्धू खाली बैठे होते हैं, ऐसे ही अपना पेन (कलम) चबा रहे हैं बैठ करके, उनकी कॉपियाँ सबसे पहले छीनी जाती हैं। और वहाँ से निरीक्षक जो होता है न, इनविजिलेटर (निरीक्षक), वो भी देख रहा होता है। और जो गंभीर परीक्षार्थी होते हैं, जो लग करके लिखे जा रहे हैं, लिखे जा रहे हैं, उनको एक-आध मिनट ज़्यादा भी दे देता है।

अब मैं नहीं कह रहा कि तुम कोई बढ़िया काम करोगे तो तुम्हारी ज़िन्दगी में एक साल जुड़ जाएगा। लेकिन अगर बढ़िया काम करोगे, लग करके अगर प्रश्नपत्र हल करोगे तो ये तुमको राहत ज़रूर रहेगी कि डर और व्यर्थ विचारों से बचे रहोगे। डर प्रमाण है इस बात का कि आपके पास खाली समय बहुत है। डर प्रमाण है इस बात का कि आपके जीवन में प्रेम नहीं है। डर प्रमाण है कि आप बहुत स्पष्ट तरीक़े से नहीं जानते कि आपको अपने समय और जीवन का करना क्या है। तभी आपको डर लग सकता है, वरना डर रहेगा, पर पीछे रहेगा। डर से आगे, डर से ऊँचा, डर से बेहतर कुछ और रहेगा।

प्र: आचार्य जी, ऐसे डर नहीं लगता।

आचार्य: अभी जो बात बोली, वो समझ में आयी है? अपनी अवस्था का विवरण देने की कोई ज़रुरत नहीं है। डर के हज़ार प्रकार हो सकते हैं। मूलतया डर एक ही होता है, उसकी बात हो गयी। डर में इतनी रुचि मत दिखाओ कि डर का बिलकुल विविध चित्रण करने के लिए उतावले हो रहे हो कि मेरा ऐसा वाला नहीं, वैसा वाला डर है। येलो (पीला) वाला नहीं, पिंक (गुलाबी) वाला डर है। है तो डर ही न, समझ रहे हो?

ये जो प्रेमहीनता होती है, लवलेसनेस , ये हमारी आँखों में ख़ौफ़ के रूप में उभर आती है। यही पूछो अपनेआप से – ‘बड़ा क्या है मेरे जीवन में?’ कुछ होगा बहुत बड़ा तो डर उसके सामने अपनेआप छोटा हो जाएगा। ये पूछो बार-बार। डर की बातें करने में इतनी रुचि मत दिखाओ। डर का लगातार एहसास वास्तव में किसी दूसरी चीज़ के अभाव को प्रदर्शित करता है। जिस चीज़ के अभाव को प्रदर्शित करता है, उसकी बात आप करना नहीं चाहते।

सारी रुचि है किसकी बात करने में? डर की बात करने में। जबकि डर ऐसी चीज़ है जिसकी बात करने से कोई लाभ नहीं क्योंकि वो तो रहेगा। जिस चीज़ के अभाव के कारण डर इतना बड़ा लग रहा है, उसकी बात करो न, भाई! एक ख़ालीपन, एक रिक्तता है; उसको भर दो, डर अपनेआप छोटा हो जाएगा। जैसे छोटी लकीर के आगे जब बड़ी लकीर खींच दो तो हो जाता है न? वैसे ही।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी! आचार्य जी, आपने कहा जो इंसान खाली होता है, उसको डर लगता है। पर मेरे को कभी-कभी काम करते-करते भी लगता रहता है। जैसे आपने उदाहरण दिया था—‘जो गाड़ी चला रहा है उसको नहीं लगेगा, गाड़ी के जो पीछे बैठा है, वो कल्पना करता रहेगा कि सत्तर की गति से ट्रक आ रहा है, मेरे ऊपर आ सकता है।’ इस तरह का।

काम करते-करते भी लगता रहता है। वकील हूँ तो क्रिमिनल केस (आपराधिक मुक़दमे) मिलने लगे हैं, तो ये होता है कि अब प्रोसिक्यूशन (अभियोग पक्ष) की तरफ़ से होते हो, सामने कोई अपराधी आ जाता है, उनके चेहरे-मोहरे थोड़े डरावने होते हैं, जिसके ऊपर तीन सौ दो-सात। वो घूरकर देखे, तो भी ऐसे हो जाता है कि कोई व्यक्तिगत न ले बैठे मन में! इस तरह का डर।

आचार्य: डर तुम्हें उस समय में लगता है जो तुमने काम से चुराया है। काम के समय नहीं लगा है डर, काम से चुराये हुए समय में लगा है डर। डर तो समझ लो ऐसी चीज़ है जैसे आदमी पैदा हुआ है और उसके साथ एक राक्षस सा है, वो भी पैदा हुआ है। दोनों साथ-साथ पैदा हुए हैं। वो मौजूद है, तुम जहाँ हो वो राक्षस साथ में है। बात ये है कि तुम्हें मौका क्यों मिल रहा है उसकी ओर देखने का? और उस राक्षस का काम तुमको तत्काल खा जाना नहीं है, उस राक्षस का काम है तुमको बस बताते रहना, याद दिलाते रहना कि वो क्या-क्या खा जाएगा भविष्य में। डर हमेशा भविष्य के बारे में ही होता है।

प्र२: पर आचार्य जी, ऐसी जगहों पर आकर थोड़ा अंतर होता है, ‘हाँ, ये राक्षस है। मैं अलग हूँ।’ पर वहाँ पर तो फ़र्क़ नहीं रहता, एकदम कब्ज़ा ही कर लेता है। वो एकदम पोज़ेस (वशीभूत) कर लेता है, कुछ फ़र्क़ नहीं रहता कि मैं डर…

आचार्य: पोज़ेस (वशीभूत) तभी करेगा जब उसकी ओर देखोगे। उसकी ओर देखने का समय तुम्हें तभी मिलेगा जब जो असली काम है उससे तुमने नज़रें चुरा ली हों। असली चीज़ से नज़र मत चुराओ न!

प्र२: आचार्य जी, पता नहीं होता डर कर क्या लेगा, मतलब एक घबराहट-सी होती है। मतलब ये नहीं पता होता ये डर करेगा क्या।

आचार्य: घबराहट से बड़ा कुछ और नहीं था न तुम्हारे पास? देखो, जितना ऊँचा काम उठाओगे उसमें घबराने की सम्भावना उतनी ज़्यादा रहेगी। इसीलिए ऊँचा काम बिना प्रेम के करा ही नहीं जा सकता । प्रेम नहीं है तो ऊँचाइयाँ ही घबराहट बन जाएँगी ।

प्र२: आचार्य जी, वो तो चलो संसार में तो लगता ही है। अंत में जब शरीर की बात आती है सामने, ऐसा लगता है। पर कभी-कभी तो, आचार्य जी, आपसे भी लगता है डर। आपकी जो पहले की वीडियोस देखता हूँ न, उनमें नहीं लगता—दो-हज़ार-चौदह, पंद्रह, सोलह वाली। जो अब वाली देखता हूँ, कभी-कभार गुस्से से आप लुक देते हो, लगता है कि बड़े-से-बड़ा पहलवान भी पैंट गीली कर दे।

आचार्य: काम का मतलब होता है असली काम। मुझसे असली काम रखो न, तो फिर जो कुछ भी बोल रहा हूँ उसके मर्म पर ध्यान जाएगा। आँखों में गुस्सा है या नहीं, आवाज़ मैंने उठा दी या नहीं, ये सतही बातें हैं।

आँखों में गुस्सा है भी तो किसी गहरे, आंतरिक, मार्मिक उद्देश्य के लिए है। आवाज़ उठाई भी है तो किसी अंदरूनी चीज़ को समझाने के लिए उठाई है। वो जो अंदरूनी चीज़ है, वो असली काम है। तुम उस काम से काम रखो, या तुम्हें ज़्यादा मतलब इससे है कि मैंने ज़ोर से बोल दिया, डाँटकर बोल दिया या सहलाकर बोला?

काम का मतलब समझते हो? असली काम, असली चीज़, सच्ची चीज़। उससे मतलब रखो, फिर बाक़ी चीज़ें नहीं डराएँगी।

प्र२: आचार्य जी, विचार बहुत धोखा दे देते हैं। जो लग रहा होता है असली है वो बाद में नकली निकलता है। फिर मन पर विश्वास ही नहीं रहता।

आचार्य: फिर से कोशिश करो। ज़िन्दगी में समय इसीलिए तो मिला है। एक झटके में ही तुम्हें जीत जाना होता तो तुमको जीने के लिए एक पल ही मिला होता। तुमको जीने के लिए ये साठ-अस्सी-नब्बे साल क्यों मिले हैं? ताकि बार-बार, बार-बार कोशिश कर सको।

ये तय है कि तुम पहली कोशिश में तो सफल नहीं होने वाले। सौ बार हारना है न तुमको! इसीलिए सौ साल दिये गए हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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