प्रश्नकर्ता नमस्कार आचार्य जी। अभी मेरा प्रश्न ऐसा है कि क्या दुख भी एक कामना है? क्योंकि अभी ऐसा है कि जैसे हम चाहते हैं कि वो दुख जाए न, बेसिकली वो भी एक कामना ही है। जैसे मैं आपकी बातें सुनता हूँ, पर अभी दुख इतना है कि अभी रज़िस्ट (विरोध) करता हूँ कि यार आपकी बातें सुनूँगा तो वो दुख चला जाएगा। पर मन नहीं चाहता कि वो दुख जाए, मन वहीं रहना चाहता है। तो क्या ये भी कामना का ही एक प्रकार है?
आचार्य प्रशांत: कह दिया न कि दुख है, कितनी सारी बातें उसके साथ निश्चित कर डाली। दुख है, दुख की ये वजह है, ऐसा है वैसा है। तो दुख है इस बात के लिए भी बहुत आत्मविश्वास चाहिए। आप बोलते हो दुख है, माने आपने ये तो माना न कि कुछ बुरा हुआ? कितने भरोसे से बोलते हो, तुम्हें कैसे पता बुरा हुआ? नहीं मानोगे बुरा हुआ, तो दुखी कैसे अनुभव करोगे?
दुखी अनुभव करने के लिए भरोसा होना बहुत ज़रूरी है कि कुछ ऐसा हुआ जो नहीं होना चाहिए था, बुरा था। तुम्हें कैसे पता जो हुआ वो बुरा था? बताओ? तुम्हें कैसे पता? पर उसको पूरा भरोसा होता है कि जो हुआ वो निसन्देह बुरा ही था, लो, कुछ हो गया नित्य, कुछ हो गया नियत, कुछ हो गया सत्य!
तो दुखी होना भी बड़े अकड़ की बात है। जो विनम्र प्राणी होगा, जो सहज मन होगा, वो तो कहेगा, 'कुछ हुआ! कैसे पता अच्छा है, कैसे पता बुरा है'! वो पुरानी सूफ़ी कहानी चलती है न, कौनसी? देखो, इन्हें भरोसा था कि इन्हें पता है (एक श्रोता की ओर इशारा करते हैं)। क्या? हाँ, तो कुछ इस तरीके की है, याद नहीं ठीक से।
एक बूढ़ा है और उसके पास कई घोड़े थे या एक घोड़ा था और उसका घोड़ा जो है वो जंगल से वापस नहीं आता, किसको याद है कहानी? तो घोड़ा जंगल से वापस नहीं आता तो लोग कहते हैं, 'अरे, अरे, अरे, ये तो बहुत बुरा हो गया'।
वो कहता है, 'क्या पता, क्या पता, क्या पता!'
अगले दिन पता चलता है कि वो जो घोड़ा है वो जंगल में इधर-उधर यार दोस्त बना रहा था और एक-दो घोड़ियाँ लेकर आ जाता है। वो इसलिए नहीं लौटा था क्योंकि वहाँ जंगल में वो मंगल कर रहा था और वहाँ पर उसने सुलह कर ली कि देखो, अब इकट्ठे ही रहते हैं, वो हमारा मालिक है वो खाने-पीने को भी बढ़िया देता है, यहाँ जंगल वगैरह में क्या करना, तू भी मेरे साथ चल। तो वो दो-चार और अपने जैसे लेकर आ गया।
तो अब पहले लोग क्या बोले थे, तुम्हारे साथ क्या हो गया? 'बुरा'। अगले दिन सुबह-सुबह लोग आते हैं और बोलते हैं, ‘वाह, वाह, वाह! तुम्हारे साथ तो बड़ा अच्छा हो गया।‘ अब ये कहानी ऐसी है नहीं, अब मैं अपने हिसाब से बता रहा हूँ पर मतलब समझिएगा। तो बुड्ढा क्या बोलता है? 'क्या पता, क्या पता'!
अब उसके पास एक की जगह पाँच घोड़े-घोड़ी हो जाते हैं और लोग कहते हैं, 'ये तो अच्छा है, अब तो और तुम्हारे पास बहुत सारे हैं, पूरा तुम्हारा अस्तबल बन जाएगा, इतने सारे हो जाने हैं'। तो तभी लड़ाई छिड़ जाती है राजा की और राजा कहता है कि मुझे घोड़े भी चाहिएँ और घुड़सवार भी चाहिएँ। तो राजा के सैनिक कहते हैं ‘इस गाँव में बढ़िया है, इसके पास एकदम मस्त खड़े हुए हैं घोड़े’। तो उसके घोड़े ले जाने लगते हैं जब, तो लोग कहते हैं, ‘वाह! तुम तो बहुत बढ़िया रहे। देखो, अब ये राजा के सैनिक तुम्हारे घोड़े ले जाएँगे, तुम्हें बढ़िया इसमें मुआवज़ा देंगे और तुम्हारी तो किस्मत खुल गयी क्योंकि युद्ध के समय में घोड़ो के दाम एकदम बढ़ गए हैं'। तो वो क्या बोलता है? ‘क्या पता’!
अब वो घोड़े को ले जाने लगते हैं तो जो सबसे उसमें बढ़िया घोड़ा था पुराना, वो जाने से इन्कार करे क्योंकि उस बूढे ने ही उसे पाला-पोसा था, बूढ़े से उसका अपना मन लगा हुआ था घोड़े का। तो बूढ़े का एक बेटा था, सैनिकों ने कहा ‘ये घोड़ा तो हम ले ही जाएँगे और इस घोड़े को चलाने के लिए तुम्हारा बेटा भी ले जाएँगे’। तो लोगों ने कहा कि ये तो बड़ा बुरा हो गया। ये घोड़ों के साथ-साथ तुम्हारा अकेला इकलौता बेटा था वो भी ले गये। बूढ़ा फिर बोलता है, 'क्या पता!'
तो वो जब उसको ले जा रहे थे तो वो जो सब घोड़े थे वो बिदक-विदक गये। जब बिदक-विदक गये तो वो जो लड़का था वो नीचे गिर गया घोड़े से, घोड़ों ने उसको लात-वात मार दी, सब कर दिया और उसके हाथ-पाँव टूट गये। तो सैनिक उसको लादकर लाये, उसके हाथ-पाँव टूटे हुए हैं, लोगों ने कहा, ‘अरे बड़ा बुरा हो गया’। बूढ़ा क्या बोला? ‘क्या पता’!
तो सैनिक उसको लादकर लाये और बोले, ‘अब तुम्हारा जो लड़का है ये जंग में जाने लायक नहीं रहा तो इसको हम घर पर छोड़े देते हैं'। तो लोगों ने कहा, ‘ये तो अच्छा हो गया, तुम्हारा लड़का जंग पर जाने से बच गया’। बूढ़ा फिर क्या बोला? तो ऐसे करके कहानी आगे बढ़ती है।
आप दुखी कैसे हो लेते हो? आपको कैसे पता कुछ बुरा हुआ ही है आपके साथ? बुद्ध कह रहे हैं— 'शून्य'। जो हुआ है उसका कोई अर्थ निश्चित मत कर लेना, कुछ पक्का नहीं है क्या हुआ, तुम नहीं जानते। तुम नहीं जानते, बस यही बोलो— 'क्या पता'! कोई बोले कि बड़ा अच्छा हो गया; 'कुछ हुआ है, अच्छा या बुरा इस चक्कर में हम नहीं पड़ते।' ठीक?
दुख बहुत गहरे अहंकार की बात होता है, ठीक वैसे जैसे सुख। और दुख में ये समझ लीजिए कि सुख से ज़्यादा गहरा अहंकार होता है। कारण साफ़ है! सुख में तो फिर भी आपके पास कुछ मानने की वजह है, क्या मिल रहा है? सुख। तो आपने कुछ बातें मानी और उससे सुख आपको मिल रहा है, कुछ कल्पना कर ली, कुछ मान्यता, तो सुख मिल रहा है। दुख में सोचों कि अहंकार कितना तगड़ा होगा कि दुखी होकर भी अपनी मान्यता पकड़े हुए है। वो कहता है, 'दुख बर्दाश्त कर लूँगा, मान्यता नहीं छोडूँगा।' और ऐसे लोग बहुत हैं दुनिया में, वो चाहें तो उनका दुख तत्काल समाप्त हो सकता है, वो उसे होने नहीं देते। वो उसे होने नहीं देते क्योंकि उन्होंने दुख को अपने अहम से जोड़ लिया है।
दुख के साथ ज़्यादा कड़ा अहंकार जुड़ा होता है, इसीलिए तो दुख से मुक्ति इतनी मुश्किल बात है न। इसलिए तो सब ज्ञानी, ऋषि, सन्त, बुद्ध सब इतना संघर्ष करते रह गये, सफल नहीं हो पाए। इंसान कुछ भी छोड़ने को तैयार हो सकता है, अपना दुख नहीं। सोचो दुख से मुक्ति अगर इतना आसान होता, सब चाहते ही होते कि हम दुख से मुक्त हो जाएँ, तो दुख से मुक्त हो गए होते। क्यों नहीं इंसान दुख से मुक्त होता? क्योंकि हम चाहते हैं दुख को पकड़ना।
दुखी आदमी के अहंकार से मत टकराना, बहुत सख्त होता है। अब किसकी कहावत है पता नहीं खोज लेना, उसमें है कि ‘दुखी आदमी से बचना, वो तुम्हें बहुत दुख देगा और डरे हुए से बचना वो तुम्हें भी डरा देगा।‘ इसलिए दुखी के प्रति सहानुभूति नहीं रखनी चाहिए, करुणा रख सकते हो, सहानुभूति मत रखना।
प्र: वही एक दिक्क़त है मुझे भी कि दुख जा नहीं रहा और मैं कोशिश कर रहा हूँ। और मतलब पता है कि बिलकुल काम का नहीं है…।
आचार्य प्रशांत: बहुत काम का है बहुत, न-न-न-न बहुत! तभी तो, दुख बहुत काम का है। यही खोज निकालो कि दुख से क्या-क्या काम निकाल रहे हो। दुख बड़े काम की चीज़ होता है, दुख से सौ प्रकार की सहूलियतें मिलती हैं, पदवियाँ मिलती हैं, आराम मिलते हैं, सहायता मिलती है, प्रेम के नाम पर कोई लिजलिजी सी चीज़ मिल जाती है।
फ़िल्मों में देखते नहीं हो, फ़िल्में माने ये जो चीपड़ फ़िल्म हैं, अच्छी फ़िल्म नहीं। अब हीरोइन को जब उसको छूना होता है तो वो घूमने लग जाता है अन्धा बनकर — ये जिसको हम हीरो बोल देते हैं जो कहीं से हीरो, नायक कहलाने लायक नहीं है — इसको जब हीरोइन के ऊपर हाथ फ़ेरना होता है, तो क्या बनकर घूमने लगता है? अन्धा। 'अरे, मैं तो अन्धा हूँ, मैं तो..' और जाकर के फिर हीरोइन को ऐसे-ऐसे टटोल लेगा। 'मैं तो दुखी हूँ, मैं क्या करूँ'।
दुख के कितने फ़ायदे हैं, कैसे कह रहे हो दुख किसी काम का नहीं है। अब फ़ोन करके मान लो कोई सहकर्मी है, अब वैसे तो उसको फ़ोन कर नहीं सकते तो ये बता दो कि हम बहुत तकलीफ़ में हैं; फ़ोन करने का बहाना मिल जाता है। 'हमसे काम नहीं हो रहा है, हमने कुछ ग़लत कर दिया' — जानबूझ के काम ग़लत कर दो — 'हम बड़े मुसीबत में हैं'; फ़ोन का बहाना मिल जाता है।
दुख के कितने फ़ायदे हैं, कौन कह रहा है दुख के फ़ायदे नहीं हैं? और सामाजिक रूप से सम्मान और मिलता है। सुखी आदमी मिले तो बोलोगे, 'भग, छिछोरे!' और दुखी कोई मिले तो तत्काल दिखाओगे, 'ये रुमाल ले लो, तौलिया ले लो, पूरी चादर ले लो'।
सुखी आदमी को कभी इज़्ज़त दी है आपने आज तक? सुखी तो मिल जाये तो बोलोगे, 'छपरी, दाँत फाड़कर हँस रहा है'।
तो दोनों तरह के लोग पाओगे, एक पाओगे जिनका मुँह ऐसा हो जाता है कि दोनों होठों की परस्पर दुश्मनी है, वो कभी मिलते ही नहीं तो दाँत हमेशा बाहर झाँकते रहते हैं। वो ऐसे हो गए हैं जैसे वो हर समय मुस्करा रहे हैं।
और दूसरे मिलेंगे जिनका मुँह ऐसा हो गया बिलकुल (इशारे से समझाते हुए) और वो चाहें भी तो वो ठीक होने को नहीं आ रहा, चमड़ा अकड़ गया है। पुराना चमड़ा कई बार देखा है, वो अकड़ जाता है। तो ऐसे चमड़ा अकड़ गया है, वो मुँह से दुख का भाव अब जा ही नहीं रहा। वो कितनी भी कोशिश कर लें, उनके ऐसे बस (दुख का मुँह बनाते हुए)। आप उनसे बोलो, 'हाँ'। तो उनके हाँ नहीं निकलती, बोलते हैं, 'आह!' वो कुछ भी बोलें, आह ही निकलती है क्योंकि उनको इसका बहुत लाभ मिला होता है, बहुत लाभ मिला होता है।
ऐसी फ़िल्में भी आपने देखा होगा ज़्यादा चलती हैं जो पूरी तरह ट्रैजिक हैं। पर कॉमिक रोल आमतौर पर फ़िल्मों में किसी विदूषक को दे दिया जाता है। ट्रेजिडी किंग बन सकता है कोई हीरो भी पर कॉमेडी बहुत ज़्यादा नायक से नहीं करायी जाती, कॉमेडी करायी जाती है कॉमेडियन से।
हमने तो नहीं देखा कि जैसे कॉमेडियन है वैसे ही कोई ट्रेजिडियन भी होता हो। ट्रेजिडी का काम किससे करा दिया जाता है? देवदास से। वहाँ पर सहानुभूति मिल जाती है, बेचारा देवदास! ट्रेजिडी! हीरो को आप बोलोगे, 'ट्रेजिडी किंग'। कॉमेडी किंग आमतौर पर हीरो को नहीं बोलोगे, कि बोलते हो? उसके लिए तो कोई जॉनी लीवर सरीखा। ठीक है?
ट्रेजिडी में बड़ा सम्मान है। लोग बिलकुल दिल से लगा देते हैं, बेचारा कितना दुखी है, कितना दुखी है बेचारा!
गम्भीरता का अर्थ टसुएँ बहाना नहीं होता, गहराई का अर्थ मुँह लटकाना नहीं होता; गहरी हँसी बड़ी आध्यात्मिक बात होती है। कौन कह रहा है कि बस 'आह' में ही आत्मा होती है? आत्मा का तो हमने जाना है कि स्वभाव आनन्द होता है, तो ये 'आह' में आत्मा कहाँ से आ गयी? और जिस आदमी में आनन्द के प्रति सम्मान नहीं है, वो तो खुद ही दुख का चयन कर रहा है।
आप कह रहे हो, आप आनन्द को इज़्ज़त नहीं दे सकते, तो आपने चुन लिया न– अपना जीवन अपनी नियति, सब आपने चुन ली। ज़िन्दगी आपकी पूरी आँसू बहाते बीतेगी। तो आनन्द को भी सम्मान देना सीखो। और खासतौर पर भारतीय समाज में दुख, उदासी, आह, आँसू, इनके प्रति व्यर्थ ही बड़े सम्मान का भाव आ गया है।
जीजस एक जगह पर बोलते हैं “सफरिंग इस सिन” (दुख ही पाप है)। उसको आगे बढ़ा लो तो ‘सफरर इस सिनर’ (दुख सहने वाला पापी है)। ये कोई बड़ा प्रशस्ती पत्र मिल रहा है कि ज़िन्दगी में आँसू-ही-आँसू हैं? कुछ करे होंगे कर्म ऐसे, तुम्हारा चुनाव है। ये कौन सी प्रदर्शनी लगाने की बात है, नुमाइश लगाकर बैठे हो कि देखो, हाय-हाय हमारे दिल में कितने घाव हैं। तुम्हारे दिल में घाव हैं तो ज़िम्मेदार कौन है? तुम, होगे पापी कहीं के, इतने घाव!
घाव हों तो भी आप मुस्कुराइए! क्योंकि ज़िन्दगी? 'ज़िन्दगी कमीनी है किसी को नहीं छोड़ती इसलिए मुस्कराइए।' ये दर्द भरी आह निकालने से कुछ होने का नहीं।
“कबीर सुता क्या करे, जागे न जपे मुरार। एक दिन तो है सोना लंबे पाँव पसार।।”
आह तो छोड़ दो, फिर नहीं निकलेगी डकार। जब तक जी रहे हो तब तक काहे को आह-आह करना। चोट तो लगनी ही है, चोट को दुख में मत बदलने दो। चोट है, ठीक है। चोट है, ठीक है। चोट में और दुख में बड़ा अन्तर आ जाता है। दर्द एक बात है, दुख बिलकुल दूसरी बात है। दर्द जीवन की अनिवार्यता है, उसके बिना आप नहीं चल पाओगे; दुख आपका चुनाव है। इतना बोलने पर भी ये मुस्करा नहीं पा रहे (प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हैं)।
प्र: जी मैं इसको ऐसा समझूँ कि अहम् दुख को भी इस्तेमाल कर लेता है अपने लिए?
आचार्य प्रशांत: यार कुछ मत समझो, तुम मुस्करा दो बस। हाँ! इतनी समझदारी अच्छी नहीं होती है, नासमझी बहुत बढ़िया चीज़ है। समझ-वमझ ये सब यहाँ (सिर की ओर इशारा करते हुए) खोपड़े का बोझ है बस। समझ वगैरह इधर रख दिया करो कभी-कभी और बस मुस्कुरा लिया करो। अध्यात्म माने ये नहीं होता कि समझ का पूरा बोरा ऊपर यहाँ लाद लिया है। मुक्ति माने जैसे दुख से मुक्ति, मुक्ति माने ऐसे ही समझ से मुक्ति। क्या समझे? (दोनों हाथ ना में हिलाते हैं अर्थात कुछ नहीं)।
कितने सारे विद्वानों का उल्लेख आता है, पुराने ग्रीस से लेकर के भारत तक और चीन में भी, कि जो एकदम मुर्ख बनकर सड़कों पर टहला करते थे और लोग उनको समझे कि पगला है — कोई ऐसे ही रोटी डाल दे, कोई कुछ कर दे — और वो प्रकान्ड पंडित। और वो ऐसे चलते थे कि जैसे एकदम मुर्ख हों।
जापान में ऐसे ही उनका उल्लेख है आता है, अब नाम नहीं बता पाऊँगा। वो ज़ेन गुरु थे बहुत बड़े, वो एक पुल के नीचे रहा करते थे। वो सब छोड़-छाड़कर एक पुल के नीचे रहने लग गए थे और उनको जनसामान्य यही सोचता था कि ये कोई ऐसा ही है मूर्ख अधपगला, ऐसे ही पड़ा रहता है। तो ज़्यादा समझदारी वगैरह कुछ नहीं, मूर्ख होना भला है। है न? क्या करना है बहुत होशियारी दिखाकर! द हैप्पी फूल (खुशनुमा मूर्ख) बस।
जिनको थोड़ा-थोड़ा समझ में आता है वो गम्भीर हो जाते हैं, जिनकी समझ पकने लगती है वो फिर मौज में आ जाते हैं। जिन्हें थोड़ा-थोड़ा समझ में आता है वो फिर इधर-उधर की बातें रटने लगते हैं और श्लोक याद कर लेंगे और कहीं से कोई नाम ले आयेंगे, कोई सूक्ति बता देंगे, ये सब करेंगे। और जिनकी बात पकने लगती है वो ये सब भूलने लग जाते हैं, वो कहते हैं, 'कुछ तो था, करना क्या है याद रखकर, छोड़ो!'
जो अभी नये-नये होते हैं, उनको बताने में बड़ा आनन्द आता है कि हाँ, हमें पता है। जो पकने लगते हैं, वो कहते हैं, ‘अच्छा, हमे तो नहीं पता था, तुम्हीं बताओ।’ और जब कोई बताता है तो क्या बोलते हैं? ‘अरे वाह! क्या अद्भुत बात बतायी, सुनो रे क्या बता रहा है!‘
बड़ी पुरानी कहानियाँ ऐसी, कितनी तो सारी हैं, कितनी सारी हैं। अब वैसे नहीं याद, हो सकता है दो-चार कहानियों को मिलाकर बता रहा हूँ कि फिर वही ज़ेन की दिशा से। कि कहीं का एक होता है जवान साधक, तो दुनिया में घूम-घूमकर के अपनी विद्वत्ता का प्रचार कर रहा होता है खूब। तो लोग कहते हैं, 'वैसे तो तुम अब बहुत विद्वान हो गए हो, पूरा तुम समझ गए बुद्ध का दर्शन, सब ठीक लेकिन वहाँ उस दिशा में चले जाओ, वहाँ पर वो एक बूढ़ा रहता है, उसका छोटा सा अपना आश्रम है, मोनेस्ट्री, और लोग कहते हैं कि उसका बड़ा पका हुआ ज्ञान है। जाओ उसके पास चले जाओ!
तो वो वहाँ जाता है, तो वहाँ उसके आश्रम के दरवाज़े के सामने, एक एकदम ऐसे ही खस्ता हाल, साधारण कपड़े में बूढ़ा झाड़ू लगा रहा है। बोलता है, ‘ए बूढ़े, मास्टर अन्दर है?'
वो बोलता है, 'महाराज, मालिक आप बैठो, मास्टर अभी दूसरे रूम में हैं। वैसे कहाँ से आ रहे हो आप मालिक, आप बड़े होशियार लगते हो?'
वो बोलता है, ‘अरे बूढ़े! क्या समझेगा तू हमारा ज्ञान।‘
तो बोलता है, ‘नहीं, फिर भी बता दीजिए, वैसे तो हम कुछ नहीं जानते।'
तो बताता है, 'ये पता है मुझे, वो पता है'। दुनिया भर का पूरा घंटा भर ज्ञान बताता है वो और बूढ़ा ऐसे बैठकर सुनता है (मजे ले-लेकर), 'ये तो बहुत जानकार हैं।'
समझ गये न, आगे की कहानी? कौन था वो बुड्ढा? बस वही। अब फिर कहानी कई बार अब इसमें है कि नहीं, मालूम नहीं। कहानी कई बार बोलती है कि जब ये जो जवान हीरो होता है इसको पता चलता है कि यही है वो (मास्टर), तो उसी क्षण उसका शॉर्ट सर्किट हो जाता है, जिसको एनलाइटेनमेंट बोलते हैं। टेक इट ईज़ी।
हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार। हारा तो हरिसों मिले, जीता जम के द्वार।।
सुख के संगी स्वार्थी, दुख में रहते दूर। कहे कबीर परमारथी, दुख सुख सदा हजूर।।
~ कबीर साहब
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