प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रेम में इतना दर्द क्यों होता है? इश्क़ में इतना दर्द क्यों मिलता है? यह भ्रमवश उपजी आशिक़ी किस तरह बर्बाद कर रही है?
आचार्य प्रशांत: जिसको तुम इश्क़ कहते हो, वो और क्या होता है? किसी की खुशबू, किसी की अदाएँ, किसी की बालियाँ – यही तो है। ये ना हो तो कौन-सा इश्क़! किसी की खनखनाती हँसी, किसी की चितवन, किसी की लटें, किसी की ज़ुल्फ़ें, ये सब क्या हैं? ये इन्द्रियों पर हो रहे आक्रमण हैं। तुम ऐसे गोलू हो कि तुम आक्रमण को आमंत्रण समझ बैठते हो।
बड़े ख़ास लोग हैं हम। आक्रमण को आमंत्रण समझना माने कि – जैसे तुम्हें पीटा जा रहा हो, और तुम सोच रहे हो कि तुम्हारा सम्मान बढ़ाया जा रहा है। वो तुम्हें पीटा जा रहा है; वो लट, वो हठ, वो सब तुम्हारा मन बहलाव करने के लिए नहीं हैं, उस सब से तुम्हारा मनोरंजन नहीं हो रहा है। लगता ऐसा ही है कि जैसे बड़ा सुख मिल रहा है – “आ, हा, हा। क्या भीनी-भीनी सुगन्ध है, क्या मन-भावन छवि है” – पर वो सब तुम्हारी आंतरिक पिटाई चल रही है। बड़ा पहलवान, टुइयाँ सिंह को उठा-उठाकर पटक रहा है बार-बार। तुम टुइयाँ सिंह हो। और वो जो सामने है, वो दिखने में भले ही दुबली-पतली सी हो, पर वो गामा पहलवान है।
ये सूक्ष्म बात है, ज़रा समझना।
तुम समझते हो कि तुम बड़ी पहलवानी करते हो, जिम जाते हो, तुमने डोले बना लिए हैं; ये कुछ नहीं हैं। ये ऊपर-ऊपर से हैं तुम्हारे डोले, अन्दर से तुम टुइयाँ लाल हो। ज़रा-सा तुम पर रूप-यौवन-छवि का धक्का लगता है, तुम गिर पड़ते हो। ये मज़बूती की निशानी है या कमज़ोरी की? तो कमज़ोर को ‘टुइयाँ’ नहीं बोलूँ, तो क्या बोलूँ? आँखें चार हुईं नहीं कि तुम बेज़ार हुए; एकदम हिल गए।
और सामान्यतः अगर कोई आदमी पिटता है, उसमें इतनी अक्ल तो होती ही है कि वो जान जाता है कि उसकी पिटाई हो रही है। इन मामलों में तो जब तुम्हारी पिटाई होती है, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारी बड़ी ख़ातिरदारी हो रही है। हो पिटाई ही रही होती है, लेकिन ये बात कुछ सालों, कुछ हफ़्तों, कुछ महीनों बाद ज़ाहिर होती है। फिर पिटी हुई शक्ल लेकर हम इधर-उधर घूमते हैं। कोई कहता है, “आत्महत्या करनी है”, कोई कहता है, “ज़िंदगी ख़राब हो गयी।” कोई कहता है, “जिसने मुझे धोखा दिया, मुझे उसकी हत्या करनी है।”
(सामने बैठे एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) तुम क्यों मुसकुरा रहे हो?
(हँसी)
कोई डिप्रेशन में चला जा रहा है।
ऊपर-ऊपर जो दिखाई पड़ता है, उसके पीछे क्या चल रहा है, ये समझने की ताक़त पैदा करो।
कौन किस पर हावी है, ये सिर्फ़ इस बात से नहीं पता चल सकता कि किसकी रस्सी किसके हाथ में है, या कौन किस पर चढ़ा हुआ है। एक आदमी सरपट अपने घोड़े पर भागा चला जा रहा था। और क्या मस्त अरबी घोड़ा। धक्-धक्-धक्-धक्…… हवा बना हुआ था। भागते-भागते ऐसे ही गुज़रा एक कस्बे से। तो लोगों ने कहा, “मियाँ, कहाँ इतनी तेज़ी-से उड़े जा रहे हो?” तो वो बोला, “यही बात तो बार-बार इस घोड़े से पूछ रहा हूँ।”
(हँसी)
तुम चढ़े हुए किसी पर, तो ये मत समझ लेना कि तुम मालिक हो। चढ़ तो तुम जाते हो, उसके बाद क्या होता है, ये वो तय करता है जिसपर तुम चढ़ गए हो। चढ़े तो मियाँ अपनी मर्ज़ी से ही होंगे; घोड़े ने आकर ज़बरदस्ती तो की नहीं होगी, कि – “ये लो, मैं ज़रा टेढ़ा खड़ा हो जाता हूँ, मैं ज़रा दीवार पर लगकर खड़ा हो जाता हूँ, तुम मेरे ऊपर चढ़ जाना।” मियाँ बड़े सूरमा बनकर चढ़े होंगे – “आज चढ़ ही गया मैं घोड़े पर।” या घोड़ी पर, भारत में तो घोड़ी का ज़्यादा रिवाज़ है। उसके बाद घोड़ी ने जो हवा से बातें की हैं, देखने वालों को लग रहा है कि मियाँ बड़े घुड़सवार हैं; अन्दर बात मियाँ ही जानते हैं कि कौन किस पर सवार है।
जो अन्दर की बात है, उसको जानना सीखो। ऊपर-ऊपर जो है, वो शत-प्रतिशत झूठ है!