यशोदा का प्रेम

Acharya Prashant

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यशोदा का प्रेम

एक बार बलराम सहित ग्वाल-बाल खेलते-खेलते यशोदा के पास पहुँचे, और यशोदा जी से कहा — माँ, कृष्ण ने तो आज मिट्टी खायी है। यशोदा ने कृष्ण के हाथों को पकड़ लिया, और धमकाने लगीं, कि 'तुमने मिट्टी क्यों खायी है?' यशोदा को भय था, कि मिट्टी खाने से कृष्ण को कहीं कोई रोग ना लग जाए।

कृष्ण भी भयभीत हो, माँ की ओर आँख भी नहीं उठा पा रहे थे। यशोदा ने कहा — नटखट तूने मिट्टी क्यों खायी? बलराम सहित और भी ग्वाल यही कह रहे हैं। कृष्ण ने कहा — मिट्टी मैंने नहीं खायी है। ये सभी लोग मिथ्या कह रहे हैं। यदि आप उन्हें सच्चा मान रही हैं, तो स्वयं मेरा मुख देख लें। माँ ने कहा कि 'तू अपना मुख खोल।'

लीला करते हुए, बालरूप धारी कृष्ण ने अपना मुख माँ के सामने खोल दिया। यशोदा ने जब मुख के अंदर झाँका, तब उन्हें उसमें चर-अचर सम्पूर्ण विश्व दिखाई पड़ने लगा। अन्तरिक्ष, दिशाएँ, द्वीप, पर्वत, समुद्र सहित सारी पृथ्वी, प्रवह नामक वायु, विद्युत, तारा सहित स्वर्ग लोक, जल, अग्नि, वायु, आकाश अपने अधिष्ठाताओं एवं शब्द आदि विषयों के साथ दसों इन्द्रियाँ, सत्व, रज, तम इन तीनों तथा मन, जीव, काल, स्वभाव, कर्म, वासना, आदि से लिंग शरीरों का अर्थात्‌ चराचर शरीरों का, जिससे विचित्र विश्व एक ही काल में दिख पड़ा। इतना ही नहीं, यशोदा ने उनके मुख में ब्रज के साथ स्वयं अपने-आपको भी देखा।

इन बातों से उन्हें तरह-तरह के तर्क-वितर्क होने लगे। सोचने लगीं, क्या मैं स्वप्न देख रही हूँ, या यह देवताओं की कोई माया है, अथवा मेरी बुद्धि का ही व्यामोह है, अथवा इस बच्चे का ही कोई स्वाभाविक अपना प्रभावपूर्ण चमत्कार है। अंत में उन्होंने यही दृढ़ निश्चय किया, कि अवश्य ही इसी का चमत्कार है, और निश्चय ही ईश्वर इसके रूप में आए हैं।

तब उन्होंने कृष्ण की स्तुति की — जो चित्त, मन, कर्म, वचन तथा तर्क की पहुँच से परे, इस सारे ब्रह्मांड का आश्रय है, जिसके द्वारा बुद्धि वृत्ति में अभिव्यक्त प्रकाश से इसकी प्रतीति होती है, उस अचिन्त्य शक्ति परमब्रह्म को मैं नमस्कार करती हूँ।

कृष्ण ने जब देखा, माता यशोदा ने मेरा तत्व पूर्णतः समझ लिया है तब उन्होंने तुरंत पुत्र स्नेहमयी अपनी शक्ति रूप माया विस्तृत कर दी, जिससे यशोदा क्षण में ही सब कुछ भूल गईं। उन्होंने कृष्ण को उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया। उनके हृदय में पूर्व की भाँति अपार वात्सल्य रस उमड़ आया।

~ भागवत पुराण

आचार्य प्रशांत: जानना क्या है? ज्ञान और बोध में क्या संबंध है? प्रेम क्या कर डालता है?

माँ है एक, और अपने बच्चे की भलाई हेतु तत्पर है। उसे नहीं स्वीकार कि बच्चे का किसी भी तरह अहित हो जाए। बच्चे की ओर वह जा रही है। बच्चे से कुछ बातें कर रही है। डाँट ही रही है अपने बालक को। इस कारण कि बालक का कुशल रहे, बालक को किसी प्रकार की हानि, क्षति ना पहुँचे। यह बात पहली है और पूरी कहानी का आधार है।

जो कुछ भी दिखा यशोदा को, जो भी जाना यशोदा ने, वो जाना उन्होंने एक दृष्टा बनकर, एक विषयी बनकर। प्रश्न यह है कि यह दृष्टा, यह विषयी, दृश्य की ओर, विषय की ओर सर्वप्रथम आकर्षित हुआ क्यों था? माँ बच्चे की ओर गई क्यों थी?

माँ बच्चे की ओर गई थी, अपने स्वार्थ की ख़ातिर नहीं, बच्चे की भलाई की ख़ातिर। यही प्रेम तत्त्व है। यही प्यार का सार है। अपने को पीछे छोड़कर, अपने को भुलाकर, अपने को ज़रा अलग रखकर दूसरे का हित देखना।

दो तरीकों से हम जाते हैं किसी की भी ओर।

एक तरीका होता है — दूसरे की ओर जाना ताकि दूसरे को माध्यम बनाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति की जा सके। यह वह सामान्य तरीका है जिससे कोई भी जीव दूसरे से कोई नाता रखता है, दूसरे की ओर जाता है, दूसरे से संबंध बनाता है। जब आप दूसरे से संबंध बनाते हो अपने ख़ातिर, तब आपको दूसरे में सिर्फ़ अपना क्षुद्र स्वार्थ ही दिखाई देता है, क्योंकि आपने दूसरे को इससे अधिक कुछ जाना ही नहीं है।

आपकी स्थिति ऐसी होती है जैसे किसी दीवार में एक-दो या चार ईंटों की कमी हो। ईंटों के ना होने की वजह से दीवार में छेद रह गए हों। वो आँखों को खटकते हों। अब इन चार ईंटों की पूर्ति के लिए आप कहीं पर गिरी हुईं चार ईंटों को देख सकते हैं, आप एक ठेले में लदकर जा रहीं ईंटों को देख सकते हैं, आप ईंट के पूरे भट्ठे को देख सकते हैं या आप किसी सुंदरतम महल को देख सकते हैं। वो सबके-सब आपके लिए क्या हैं? कुल चार ईंटें। आप उनको उतना ही बड़ा देख पाएँगे जितनी बड़ी आपकी क्षुद्र रिक्तता है। आपकी रिक्तता है चार ईंट बराबर। वह क्षुद्र इसलिए है क्योंकि आपने ही अपने-आपको बड़े क्षुद्र रूप में परिभाषित किया है।

आपकी हालत उस आदमी जैसी होगी जो कुछ बहुत बड़े को भी देखे, तो उसे कुछ बड़ा दिखाई ना दे क्योंकि उसकी नज़र छोटे पर है। चार ईंट दिखें तो भी चार ईंट, और पूरा महल दिखे तो भी उस महल की भव्यता और सौंदर्य से आपको कोई सरोकार नहीं होगा। वह पूरा महल आपके लिए क्या होगा? कुल चार ईंट।

ठीक वैसे जैसे कि किसी लुटेरे के सामने कोई महाशास्त्री जा रहा हो, कोई विद्वानों में विद्वान जा रहा हो, कोई बुद्ध जाता हो, कोई कबीर जाता हो, कोई ऐसा जाता हो जिसके हृदय में अनंतता का वास हो, तो भी उस लुटेरे के लिए बुद्ध की, चाहे कबीर की, क्या कीमत होगी? वो दो-चार रुपये जो बुद्ध की गाँठ में होंगे, जो कबीर के हाथ में होंगे।

चूँकि आप क्षुद्र हो इसीलिए जो अतिविशाल है, जो अतिमहत है वो भी आपके लिए छोटा ही हो जाता है।

आपकी हालत ऐसी होगी, कि जैसे किसी मंदिर के प्रांगण में विशाल पूजा-अर्चना चलती हो, यज्ञ-हवन आदि आयोजित होते हों, पर मंदिर के बाहर एक कुत्ता घूम रहा है, उसको सरोकार किससे है? कि इस पूरे प्रांगण में कहीं कोई जूठा टुकड़ा दिखाई दे रहा है अन्न का। उसे इससे ज़्यादा कुछ समझ में ही नहीं आ रहा।

जब भी आप छोटे होकर के और स्वार्थवश देखते हैं, तो आपको जो दिखाई देता है वो छोटा-सा ही होता है, ज़रा-सा ही होता है। कुत्ते की लालची आँख महानतम मंदिर को भी देखेगी, पवित्रतम मंदिर को भी देखेगी तो भी तलाशेगी जूठन ही। ये वो सामान्य तरीका है जिससे एक इंसान दूसरे इंसान से रिश्ता बनाता है।

हम स्वार्थ की आँखों से दूसरे को देखते हैं। दूसरे में हमें सिर्फ़ कुछ छोटा-सा, कुछ ज़रा-सा, बहुत ही मामूली, बहुत ही क्षुद्र नज़र आता है। फिर हम कहते हैं कि संसार में जो कुछ है सीमित है, क्षणभंगुर है, पूरा नहीं पड़ता। पूरा पड़ेगा कैसे? आप जिस तरीके से देख रहे हैं, आपको कुछ भी बड़ा कभी दिखाई दे ही नहीं सकता। आपको जो दिखेगा ज़रा-सा ही दिखेगा।

अब ये बड़ी विचित्र स्थिति है। आपको ज़रा-सा इसलिए दिख रहा है क्योंकि आपकी माँग ही ज़रा-सी है। लेकिन चूँकि आपको ज़रा-सा दिख रहा है, आपकी शिकायत भी यह है कि दुनिया में जो कुछ है वो नाकाफ़ी है, इतना मामूली है कि हमें पूरा नहीं पड़ता। उसे नाकाफ़ी और मामूली बनाया किसने? हमारी दृष्टि ने, हमारे देखने के तरीके ने, हमारे संबंधों ने।

हमारी हालत उस भूखे पशु के समान है, जो यदि जंगल में विचरते महावीर को देखे तो इतना ही कहे, कि 'वाह! इसका माँस कितना स्वादिष्ट होगा।' महावीर का केन्द्र, आत्मा, आधार, उनकी मूल सत्ता, उस पशु को नज़र ही नहीं आनी है। उसको नज़र आना है कुछ बहुत छोटा-सा। क्या? शरीर, माँस।

ये परिणाम होता है जब हम दूसरे की ओर जाते ही लघुता के केन्द्र से हैं, रिक्तता के केन्द्र से हैं, स्वार्थ के केन्द्र से हैं। वास्तव में जहाँ लघुता होगी वहाँ स्वार्थ का आना तय है।

एक दूसरा तरीका भी होता है किसी को देखने का। वह तरीका होता है प्रेम का। वह तरीका होता है — दूसरे की ओर जाना इसलिए नहीं कि दूसरे से कुछ छीनना-झपटना है, दूसरे से कुछ हासिल कर लेना है, बल्कि इसलिए कि अपने पास इतना है कि दूसरे के साथ बाँट लेना है। आनंद का अतिरेक है, वह बहना चाहता है, आनंद का स्वभाव है वह फैलना चाहता है। वह दूसरे को दूसरा मानता ही नहीं, वह सारी सीमाएँ तोड़ देना चाहता है। वह व्यक्तिगत सत्ता के बंधनों में बंधता ही नहीं, वह सार्वभौम हो जाना चाहता है।

यशोदा इस तरीके से, इसी तरीके से कृष्ण के पास जा रही हैं। उन्हें कुछ चाहिए नहीं, उन्हें देना है। उन्हें अपनी भलाई नहीं देखनी है, वह उस बालक की भलाई देख रही हैं।

और जब आप प्रेम में किसी के पास जाते हो तो एक जादू घटता है। वह जादू यह है कि, चूँकि आपने क्षुद्रतावश दूसरे की ओर कदम नहीं बढ़ाया है, इसीलिए दूसरे में भी आपको अब कोई क्षुद्रता दिखाई नहीं देगी। इस बात को ग़ौर से समझिए। चूँकि आपने क्षुद्रतावश दूसरे की ओर कदम नहीं बढ़ाया है तो आपको भी अब दूसरे में क्षुद्रता नहीं दिखाई देगी। इसका विपरीत भी फिर ठीक जान लो। छोटे होकर के, अपने-आपको लघु और अल्प जानकर के, जब भी किसी की ओर जाओगे तो दूसरा भी लघु और अल्प ही नज़र आएगा। हम इसकी बात कर चुके हैं।

यशोदा कृष्ण की ओर जा रही हैं पूर्णता के भाव से। कुछ छलक रहा है भीतर, जो बालक तक पहुँच जाना चाहता है। यह विशुद्ध मातृत्व है। यह है वो जो जन्म देता है। यह परमात्मा तत्त्व है। पहली माँ परमात्मा है न। यशोदा इस वक़्त माँ से ज़रा-सा ऊपर उठ गयीं हैं। वह विशुद्ध माँ हो गयीं हैं। वह मात्र देने जा रही हैं। कुछ छोटा नहीं उनके भीतर, कुछ ऐसा नहीं जो भरे जाने की, पूरे किए जाने की माँग करता हो। तो ज़ाहिर ही है कि जादू घटेगा और जादू घटा।

माँ यदि छोटी-सी माँ होती तो उसे बालक भी सामने छोटा-सा ही दिखाई देता। माँ अब छोटी माँ नहीं है। माँ को संयोगवश, अनुग्रहवश, दैववश, कृष्ण की अनुकंपावश, परमात्मा के प्रसाद रूप में एक ऐसा क्षण नसीब हुआ है जब वह साधारण, जैविक माँ से ऊपर उठ गईं हैं।

वह कृष्ण की ओर जाती हैं, यह पल अनूठा है। कृष्ण में भी अब उनको मात्र एक जीव नहीं दिखाई देगा, क्योंकि जो गया है कृष्ण की ओर, वो मात्र एक जीव नहीं है। यशोदा यदि सिर्फ़ एक शरीरी माँ होतीं, तो सामने उन्हें जो दिखाई देता वो एक शरीरी बालक रहता। जैसे सामान्यतया हर माँ को दिखाई देता है। 'मैं माँ, मेरे शरीर से, मेरे गर्भ से, बच्चे का जन्म हुआ है, मुझे बच्चा दिखाई दे रहा है।' विराट गया है, विराट की आँखों से देख रहा है, स्वाभाविक ही है कि विराट ही दिखाई देना है।

कहानी कहती है, कृष्ण ने मुँह खोला, यशोदा जाँचना चाहती थीं, मिट्टी है या नहीं, यशोदा को ब्रह्मांड दिखाई दिया। आप ब्रह्मांड को छोड़िए, ब्रह्म पर आइए। ब्रह्म का अर्थ है, वह जो पूर्ण है। ब्रह्म का अर्थ है वो, जिसमें कोई कमी नहीं। ब्रह्म का अर्थ है वो, जो वृहद से वृहत्तर होता ही जाता हो, जो लगातार बढ़ता ही जाता हो। जो पूर्ण से पूर्णतर की यात्रा पर हो, उसे ब्रह्म कहते हैं। जो पूर्ण होकर के भी कभी पूर्ण ना हो, उसे ब्रह्म कहते हैं। जो पूर्ण इतना हो कि उसका सब कुछ छिन जाए तो भी पूर्ण रहे, उसे ब्रह्म कहते हैं।

ब्रह्म वो जो इन दोनों विरोधाभासों को साथ लेकर के चले। वो कभी अपनी सीमा तक नहीं पहुँचता, वो कभी पूर्णतया पूर्ण नहीं हो जाता, अन्यथा सीमित हो जाएगा, यह पहली बात। दूसरी बात, वह इतना पूर्ण है, इतना पूर्ण है कि उसमें से सब कुछ हटा दो, तो भी वह पूर्ण ही रहता है। ये दोनों बातें दिखने में परस्पर विरोधी हैं, हैं नहीं और यदि हैं भी तो हों। ब्रह्म को हमारी बुद्धि, हमारी युक्ति, हमारे तर्क से कोई लेना-देना नहीं। हमें लगती हैं यदि ये तर्क विरोधी तो लगती रहें।

ब्रह्म ने देखा, ब्रह्म ही दिखेगा। यह होता है प्यार भरी दृष्टि का कमाल। तुम जाते तो हो किसी छोटे-से को देखने, उस छोटे-से में तुम्हें पूरा दिख जाता है। यह प्यार की नज़र का कमाल है। यह उस केन्द्र का कमाल है जिससे आप दूसरे के साथ रिश्ता बना रहे हो। रिश्ता यदि प्रेम का है तो सामने वाला तुम्हारे लिए अब जीव नहीं रह जाएगा, कुछ और हो जाएगा।

कृष्ण के मुख भर में ब्रह्मांड नहीं दिख गया यशोदा को, ऐसे कह लो कि समस्त ब्रह्मांड यशोदा के लिए कृष्णमय हो गया। मुख मात्र में कुछ विशेष नहीं है, वह क्षण अनूठा है। वह घटना अनूठी है। अब जो है सब न्यारा है। सब कुछ इतना विशेष है, इतना विशेष है कि निर्विशेष हो गया। इसे ही कहते हैं ब्रह्मत्व।

प्यार से जिसको भी देखोगे हैरत में पड़ जाओगे, ठगे-ठगे खड़े रह जाओगे। ये तो फिर भी कृष्ण थे, तुम घास के एक तिनके को देख लो प्रेम से, भौचक्के रह जाओगे, यह क्या दिख गया। हाँ यह उद्देश्य लेकर मत जाना। यह कोई विज्ञान की प्रयोगशाला नहीं है कि पहले से तय करके गए हो कि आज यह प्रयोग करेंगे और प्रयोग का परिणाम भी कुछ-कुछ अपेक्षित ही है।

प्यार में पूर्वाग्रह नहीं होते। प्यार में परिणाम की माँग नहीं होती। प्रेम में अपनी छवि को, अपनी विशेषताओं को सँभाला-सहेजा नहीं जाता। ऊपर-ऊपर से देखो तो क्या हैं यशोदा, एक साधारण माँ ही तो हैं, डाँट-फटकार रही हैं, "तू बच्चों के साथ खेलने गया था, तू मिट्टी खाकर के आ गया!" वो नहीं कह रही हैं कि 'मैं तो आज ब्रह्म होकर के, असीम की दृष्टि से देखूँगी कृष्ण को'। ऐसा उनका कोई दावा नहीं है।

यही तो ख़ासियत है प्यार की। उसे ख़ास होना नहीं होता। क्या ख़ासियत है प्यार की? उसे ख़ास होना नहीं होता। बड़े-बड़े ख़ासम-ख़ास प्यार में रास्ते की धूल बन जाते हैं। कबीर अपने-आपको कहते हैं — "मैं दासों का दास! राम के प्यार में दासों का दास हो गया। अब तो ऐसा हो गया हूँ जैसे पाँव तले की घास।" उतने ही साधारण तरीके से गईं हैं यशोदा। यहाँ पांडित्य का प्रदर्शन नहीं है, लेकिन प्रेम है, विशुद्ध प्रेम है। जहाँ प्रेम है, वहाँ सत्य के दर्शन हो ही जाते हैं।

कितनी ही बार कहा है मैंने तुमसे, कि मात्र प्रेम में ही जाना जा सकता है। कहानी यही समझा रही है, प्यार से जाओगे जान जाओगे। क्या जान जाओगे? कृष्ण के शरीर को नहीं जान जाओगे, कृष्णत्व को जान जाओगे। प्यार से जब किसी के पास जाते हो, तो उसके माध्यम से आत्मा को जान जाते हो।

किसी के शरीर के पास जाना माने बस स्वार्थ। और जब प्रेमवश किसी के पास जाते हो तो (मात्र) कहने को जाते हो शरीर के पास। यशोदा ने भी कृष्ण के शरीर से सतही तौर पर ही अभिप्राय रखा है, यही तो कह रही हैं 'मुँह खोल'। मुँह माने शरीर। लेकिन इच्छा भलाई की है तो आत्मा के दर्शन हो गए, सत्य के दर्शन हो गए।

जिज्ञासा से नहीं जान पाओगे, कौतूहल से नहीं जान पाओगे, प्रयोग से नहीं जान पाओगे, प्रेम में सब जान जाओगे। मज़ेदार बात यह है कि प्रेम में जानने की इच्छा के कारण नहीं जानते, बस यूँ ही जान जाते हो। और प्रेम में कुछ विशेष नहीं जान जाते। कौतूहल से जब भी जाओगे तो कुछ विशेष जानोगे। विशेष माने छोटा, विशेष माने सीमित।

क्या हुआ होगा? कृष्ण ने मुँह खोला, हुआ क्या है? हुआ यह है, यशोदा भावविह्वल हो गईं हैं, समय ठहर गया है, दिल की धड़कन रुक गई है। यह तो कहने का काव्यात्मक तरीका है कि कह दिया गया कि भीतर अंतरिक्ष दिख गया, दसों दिशाएँ दिख गईं, अतीत दिख गया, भविष्य दिख गया, प्रकृति के तीनों गुण दिख गए इत्यादि-इत्यादि।

हुआ क्या है? अनंतता के दर्शन हो गए हैं, और अनंतताओं का मतलब होता है सीमाओं का हट जाना। सीमाएँ माने स्थान और समय। स्थान और समय हट गए हैं। वो पल काल से उठ गया है। उस पल में यशोदा मिट गईं हैं। उन्हें कालातीत के दर्शन हो गए हैं। यह हुआ है। प्यार में यही होता है।

मुँहभर खोला है प्यारे ने, और तुम्हारी धड़कन थम गई है, तुम्हारा मन थम गया है, विचारों का प्रवाह थम गया है। यह गहनतम अवस्था है ध्यान की। यह उच्चतम सोपान है भक्ति का। सब रुक गया बिना तैयारी के। इसलिए नहीं गई है माँ बच्चे के पास कि अचानक समाधि लग जाए पर लग गई समाधि। प्रेम में ऐसे ही अनायास, तत्काल, अप्रत्याशित रूप से समाधि लग जाती है।

रामकृष्ण इसके प्रबलतम और नवीनतम उदाहरण हैं। जा रहे हैं कहीं पर, अचानक कान में स्वर पड़ता है — माँ। बछड़ा दिख गया; गाय के पीछे-पीछे जा रहा है। रामकृष्ण स्तंभित खड़े हो गए हैं, अवाक् नाचने लग गए हैं, उसके बाद बेहोश होकर गिर पड़े हैं। यह है परमबोध। सब जान गए।

तुम पूछोगे क्या जान गए, तो तुम नासमझी का सवाल कर रहे हो। क्योंकि तुम कह रहे हो लिखकर बताओ एक, दो, तीन, चार, पाँच क्या-क्या जाना। तुम चाहते हो छोटी-छोटी बातें बता दी जाएँ जो जान ली गई हैं।

समस्त जानने का उद्देश्य क्या होता है? समस्त जानने का उद्देश्य होता है, उस बिंदु पर आ जाना, जहाँ जानने की कोई आवश्यकता ना बचे।

अगर बिना छोटी-छोटी बातें जाने ही कोई उस बिंदु पर आ जाए जहाँ जानने की आवश्यकता ना बचे, जहाँ बस एक आंतरिक, आत्मिक परिपूर्णता रह जाए, तो फिर जानने से क्या प्रयोजन, क्यों जाने कोई? क्यों कोई ज्ञान इकट्ठा करे? प्रेम में ऐसा ही होता है। प्रेम में बिना ज्ञान के बोध हो जाता है, शॉर्टकट है। छोटी-छोटी बातें जाने बिना बड़ी बात जान जाते हो। रास्ता तय किए बिना मंज़िल पर पहुँच जाते हो; ज्यों पंख लग गए हों।

इस क्षण में यशोदा वो जान गई हैं जो बड़े-बड़े पंडितों को जानना नसीब नहीं होता। इस क्षण में यशोदा वहाँ पहुँच गई हैं, जहाँ पहुँचने के लिए सारे ज्ञानी उतावले रहते हैं पर ज्ञान के माध्यम से कभी पहुँच नहीं पाते। प्यार से देखोगे तो दिखेगा। क्या दिखेगा? कुछ छोटा-सा नहीं दिखेगा। अब तुम जब तक देख रहे हो तो छोटा-सा ही दिख सकता है। छोटा-सा नहीं देखना है अगर, तो ये पक्का है फिर देखने वाले भी तुम नहीं बचोगे।

तो क्या कहा मैंने अर्थात्? मैंने कहा, प्यार से देखोगे तो ख़त्म हो जाओगे, तुम ही नहीं बचोगे। जब तुम नहीं बचते, तो देखने वाली तुम्हारी छोटी-सी आँख भी नहीं बचती। अब ना दृष्टा है, ना दृश्य है, अब दर्शन है। अब दर्शन है, अब जाना। अब जाना, सब जान गए।

क्या जान गए ये बताने बैठोगे तो मूढ़ कहलाओगे, कुछ बता नहीं पाओगे। बस पी लो, अमृत मिल तो गया, अब क्या डुगडुगी बजानी है। कहते हैं न, "मन मस्त हुआ अब क्यों बोलें।" मन मस्त हुआ अब क्यों बोलें। बताना क्या? और कबीर अभी पूरी बात नहीं कह रहे हैं। कबीर के कहने से तो ऐसा लगता है ज्यों बोलने का विकल्प है पर कबीर अभी बोलना चाह नहीं रहे हैं। सच तो यह है, कबीर बोलना चाहें तो बोल पाएँगे नहीं। यह बात कहने सुनने की है ही नहीं।

बोलने की कोशिश करोगे तो जिस चीज़ का वृत्तांत देना चाहते हो, जिसका विवरण करना चाहते हो, वो चीज़ ही खो जाएगी। वो तो चीज़ ऐसी है कि पायी, पी और बस। इसीलिए कहानी के अन्त में ज़रा-सा ज़िक्र आता है, कि कृष्ण ने अपनी शक्ति का उपयोग करके, माँ को पूरी घटना विस्मृत कर दी और माँ अपनी फिर दैहिक क्रियाओं में आगे बढ़ गई। कृष्ण को उठाकर के चूमने लगी, उसका मुख साफ़ करने लगी। जो उनकी दिन-प्रतिदिन की चर्या थी उसी पर चलने लगी।

वो होना ही है। ज्ञान अगर मिल गया होता तो फिर यशोदा ज़रा अलग हो जातीं, मन बदल जाता, व्यक्तित्व बदल जाता। अभी उन्हें ज्ञान नहीं मिला है, अभी उन्हें कुछ ऐसा मिला है जो सीधे आत्मा तक जाता है। आत्मा का आत्मा से जुड़ाव है। सत्य ही मिल गया है। अब स्मृति याद नहीं रख पाएगी।

ज्ञान को स्मृति याद रखती है। ज्ञान मन पर बोझ बन जाता है। ज्ञान जीवन को, व्यक्तित्व को खूब सतही तौर पर खूब प्रभावित करना शुरू कर देता है। प्रेम से सतही बदलाव नहीं आता। सतही बदलाव तो एक प्रकार का दिखावा होता है, झूठ होता है। प्रेम से तो मूल ही बदल जाता है। मन ही आत्मा में स्थापित हो जाता है। ऊपर-ऊपर से आदमी वैसा ही बना रहता है। ऊपर-ऊपर का बदलाव चाहते हैं ज्ञानी, पंडित, दिखावापसंद लोग। प्रेमियों को तो हृदय से मतलब होता है। वहाँ तो असली घटना चुपचाप घटती है; एकांत में, शून्य में, मौन में। ऊपर कुछ नहीं बदलता, या बदलता भी है तो इतने सूक्ष्म तरीके से कि बहुत सूक्ष्म आँखें ही देख पाएँ।

धूल का हर कण कृष्ण है। पदार्थ का एक-एक अणु कृष्ण है। बच्चा-बच्चा कृष्ण है। नदी, पर्वत, पहाड़, पशु सब कृष्ण हैं। तुम प्रेम से देखो तुम्हें वही दिखेगा जो यशोदा को दिखा। तुम प्रेम से ना देखो तो कृष्ण भी व्यर्थ हैं तुम्हारे लिए, गीता भी व्यर्थ है तुम्हारे लिए, पुराण भी व्यर्थ हैं तुम्हारे लिए, सब कहानियाँ भर हैं। तुम पर है, प्रेम पर है।

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