प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, थोड़ा वो बहुत मतलब मन में बहुत नैस्टीनेस (गंदगी) होती है, बिटर्नेस (कड़वाहट) होती है। और
आचार्य प्रशांत: नाम क्या है आपका?
प्रश्नकर्ता: नितेश। और थोड़ी बहुत नैस्टीनेस, एंगर एंड बिटरनेस, ट्रॉमा (आघात) ये सब; इसको कैसे हटा सकते है? परमानेंटली मन से, मतलब।
आचार्य प्रशांत: आपने अभी कुछ दिन पहले भी मुझसे यह प्रश्न पूछा था?
प्रश्नकर्ता: हाँ, जी। हाँ जी। यस।
आचार्य प्रशांत: बोधसभा में?
प्रश्नकर्ता: हाँ, जी। हाँ, जी। यस
आचार्य प्रशांत: अभी तक जो बातें करी, उसका आप अपने प्रश्न से क्या संबंध देख पा रहे है?
प्रश्नकर्ता: हाँ जी। दैट आई शुड नोट थिंक दैट दिस इज़ हैपनिंग टू मी, इट इज़ जस्ट हैपनिंग। (मुझे यह नही सोचना चाहिये कि यह मेरे साथ हो रहा है, यह सिर्फ हो रहा है।) जैसे जब बारिश होती है तो बारिश हो रही है, मुझमें बारिश नही हो रही है। तो आई शुड ओल्सो फील द सेम अबाउट व्हॉट इज़ हैपनिंग इन माय माइंड, सो दैट इज़ लाइक आई शुड ट्राय टू …(मेरे दिमाग़ में जो कुछ भी चल रहा है, उसके प्रति मुझे समान भाव रखना चाहिए। तो यह है कि जैसे मुझे कोशिश करनी चाहिए कि..)
आचार्य प्रशांत: मोटे तौर पर आप सही बात कह रहे हैं। बस यह जो बात आपने कही ये फील (महसूस) करने की नहीं है। फीलिंग्स (भावनाएं) सारी क्या हैं? मिट्टी, आठ के तल की। तो जो आपके साथ हो रहा है, उसको लेकर के आप फील करने रह गए तो कहाँ रह गए? मिट्टी में ही रह गए न! फील नही करना है, जानना है।
क्षेत्रज्ञ, ‘ज्ञ’ माने जानने वाला। अज्ञ, विज्ञ, जानने वाले। जानना है। जानने और महसूस करने में बहुत अंतर है। हम सोचने लग जाते हैं कि अनुभव करने का अर्थ होता है जानना या सीखना। ना! अधिकांश लोग अपने अधिकांश अनुभवों से न कुछ जानते है, न कुछ सीखते है। अनुभव आप करते रह जाए जीवन भर, उससे यह बिल्कुल सिद्ध नही होता कि आपने कुछ सीखा है। और अनुभव आप कुछ भी करते रह जाए, बिल्कुल सिद्ध नही होता कि आपने कुछ जाना है।
हाँ, अनुभव स्मृति बन जाएँगें, सूचना बन जाएँगें, जानकारी बन जाएँगें पर सूचना और जानकारी ज्ञान नही कहलाते। अनुभवों से आपकी स्मृति का संदूक भरता रहेगा, लेकिन उससे ज्ञान नही आ जाता, उससे सीख नही आ जाती, बोध नही आ जाता। न सिर्फ़ ऐसा होता है कि जो तीन है, उनसे आप मुक्त हो जाते है। बल्कि साथ–साथ यह भी होता है कि वो तीन, पांच की श्रेणी में आ जाते हैं और ये सब के सब आपके लिए बड़े महत्वहीन हो जाते हैं।
एक प्रश्न करूँगा आपसे, आपने कहा कि नास्टीनेस और बिटर्नेस रहती है। दूसरों के प्रति खीझ रहती है। दूसरों को चोट पहुँचाने का, दूसरों के प्रति कड़वाहट का भाव रहता है। कुछ अगर आपके लिए महत्वहीन हो, तो आपको उस पर क्रोध आएगा क्या? क्रोध आना बताता ही क्या है? बड़ी कीमत दे दी। नीचे वाले को… नीचे वाले को ऊपर का बना दिया। अब गुस्सा तो आयेगा ही न। जो आठ है, उनकी इतनी हैसियत थी कि उनको वहाँ बैठा दो! थी हैसियत?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: अब जब ऊपर बैठा दिया है, तो उनको तुमने बड़ा दर्ज़ा दे दिया है। अब उनकी कद्र तो करनी पड़ेगी न! कद्र लायक वो है नही। पहले तो सिंहासन पर घुग्घू सिंह को बैठा दो और घुग्घू सिंह को सिंहासन पर बैठने की तमीज़ नही। उन्होंने सिंहासन पर मैला करना शुरू कर दिया। तो अब गुस्सा तो आएगा ही। आएगा कि नहीं आएगा? पहली बात तो सिंहासन पर बैठा किसको दिया? घुग्घू सिंह को। और घुग्घू सिंह को सिंहासन पर बैठने की तमीज़ नही। तमीज़ होती तो घुग्घू सिंह क्यों होते! उनको तो होना है..
प्रश्नकर्ता: निचले तल पर।
आचार्य प्रशांत: निचले तल्ले पर, कीचड़ के तल पर। और उनको तुमने बैठा किस तल पर दिया है?
प्रश्नकर्ता: कृष्ण के तल पर।
आचार्य प्रशांत: वहाँ बैठने के वो अधिकारी ही नहीं। तो वहाँ पहुंच के भी हरकत क्या कर रहे हैं? वही हरकत जो घुग्घू सिंह करते हैं। तो अब क्रोध तो आएगा न! कृष्ण को उच्चतम जगह पर बैठा दो, तो तुम्हें कभी कृष्ण पर क्रोध आएगा? कृष्ण को, ऐसा हुआ है कि तुम अपने संसार का केन्द्र बना लो और फिर कहो कि कृष्ण खराब है, बेकार है, ऐसा होता है? पर तुम अपनी दुनिया का केन्द्र बना लो मिस लिली को और फिर वो वही हरकत करे, जो इली–लिली करती है और फिर तुम कहो कि मुझे बड़ी समस्या रहती है, क्षुब्ध रहता हूँ बिल्कुल तो, तुमने देखा ही नहीं कि तुम कर क्या रहे हो। तुम जड़ को चेतन का स्थान दे रहे हो। कि जिस मिस लिली को तुमने बैठा लिया है, अपने जीवन के केन्द्र पर, ये पदार्थ मात्र है, देह मात्र है। अपनी नज़र में भी देह है और तुम्हारी नज़र में भी देह है। तभी तो तुमने उसे इतनी हैसियत दी है, है न। उसकी देह को देखकर के। देह माने पत्थर, पानी, मिट्टी, कीचड़। ठीक। देह माने?
प्रश्नकर्ता: पत्थर, पानी, मिट्टी, कीचड़।
आचार्य प्रशांत: पत्थर, पानी, मिट्टी, कीचड़, बादल, धुआँ, आग इत्यादि। इनको तुमने कहाँ बैठा लिया? कहाँ बैठा लिया?
प्रश्नकर्ता: जीवन के केन्द्र पर।
आचार्य प्रशांत: जीवन के केन्द्र पर। यह ऐसी बात हो गई न कि तुम आसन पर ले जा करके कीचड़ रख दो और मैला रख दो और वहाँ से दुर्गन्ध उठ रही है और तुम कह रहे हो, ‘बड़ा क्रोध आता है।’ इसमें मैले का क्या कुसूर? मैले को मैले की जगह होना चाहिए। जो जरा-सा भी चैतन्य नही, तुमने उसको, उसकी जगह दे दी जो चेतनातीत है। जो चेतना भर भी नही रखता, उसको तुमने चेतना से भी आगे का स्थान दे दिया। अब वो करेगा तो अपनी हैसियत जैसी ही हरकत, न! काहे को रोते हो। कभी रोते हो, कभी गुस्साते हो, जो भी करते हो। कभी चिढ़ जाते हो।
मैं नही कह रहा कि जिन पर तुम्हें द्वेष है, उन्हें माफ़ कर दो। मैं तुमसे कह रहा हूँ– ‘जिनसे तुम्हें द्वेष है वो इस लायक भी नही है कि उनसे द्वेष रखा जाए।’ उनसे आगे बढ़ जाओ। आ रही है बात समझ में।